शिलांग में उभरे खतरनाक संकेत
(तरुण विजय)
मेघालय देश के सबसे सुंदर प्रांतों में से एक है। इस प्रांत की राजधानी शिलांग को प्राकृतिक मनोरमा का शिखर कहा जा सकता है, लेकिन यह सब लिखते समय मेघालय के राज्य सचिवालय पर पत्थर फेंके जाने की खबर आ रही है। शिलांग में करीब तीन हजार दलित-सिख जिस पंजाबी लेन में रहते हैं वे या तो भयाक्रांत होकर घरों में बंद हैं या फिर गुरुद्वारों अथवा सेना के शिविरों में शरण लिए हुए हैं। कुछ सेवाभावी संगठन उन्हें राशन और अन्य सहायता पहुंचा रहे हैं। वहां सेना और सीआरपीएफ की दस कंपनियां तैनात की गई हैं। शाम से सुबह तक कफ्यरू के पांच दिन बाद भी हवा में पेट्रोल बमों और आंसू गैस के गोलों की गंध बरकरार है। क्यों हुआ यह? इसे जानने के लिए इतिहास में जाना होगा। 1853 में अंग्रेजों ने पंजाब से अनुसूचित जाति के कुछ सिखों को शिलांग में ब्रिटिश फौज के काम करने केलिए भेजा था। तब तक असम, कछार, जयंतिया और गारो पहाड़ियों पर ब्रिटिश सैनिकों का कब्जा हो चुका था।
1826 में बर्मा से यांदाबो संधि हुई। फिर मेघालय के खासी वीर तीरथ सिंह, जो खासी पहाड़ी के एक बड़े क्षेत्र के मुखिया या राजा थे, अंग्रेजों से लड़े। उनके पास केवल तीर-तलवारें और अंग्रेजो के पास बंदूकें थीं। तीरथ सिंह जीत नहीं पाए और 1853 में शहीद हो गए। इसी पृष्ठभूमि में पंजाब से दलित सिख यहां आए थे। इस इलाके में 1830 के आसपास ही ब्रिटिश सैनिकों के धार्मिक कार्यों के लिए और साथ ही स्थानीय जनजातियों के मतांतरण हेतु ईसाई मिशनरियां सक्रिय हो गई थीं। चूंकि उनकी सक्रियता पर लगाम नहीं लगी इसलिए आज 92 प्रतिशत गारो और 95 प्रतिशत खासी ईसाई हो चुके हैं। प्रदेश की जनसंख्या में कुल 82 प्रतिशत ईसाई, 10 प्रतिशत हिंदू, पांच प्रतिशत मुस्लिम और 0.1 प्रतिशत सिख हैं।1दलित सिखों को पहले 1853 में और फिर 2008 में क्रमश: खासी राजा एवं मायालिएम के प्रधान द्वारा मकान बनाने के अधिकार दिए गए।
कालांतर में उन्होंने एक बड़ा गुरुद्वारा भी बनवाया, लेकिन जैसे-जैसे आबादी बढ़ी, विकास हुआ, पंजाबी लेन शिलांग के प्रमुख व्यापारिक केंद्र का मध्य बिंदु बन गई। वहां के बहुसंख्यक समाज के संगठनों और स्थानीय व्यापारियों की निगाह में सिख खटकने लगे और समय-समय पर किसी न किसी बहाने उन्हें वहां से बाहर निकालने की कोशिश होती रही। इस बार पंजाबी लेन को कहीं और स्थानांतरित करने की मांग जिस तरह जोर पकड़ रही है वह शुभ संकेत नहीं। एक तथ्य यह भी है कि अधिकांश दलित सिखों को आज तक अनुसूचित जाति का प्रमाण-पत्र तक नहीं दिया गया है, अल्पसंख्यक का दर्जा देना तो दूर की बात है।1मेघालय में ईसाई एनजीओ गुटों का दबदबा है। लगभग हर सरकारी योजना में उनकी हिस्सेदारी होती है, वरना वे योजना को अमल में नहीं आने देते। खासी छात्र संगठन (केएसयू) 2012 से मेघालय असम से जोड़ने वाली 21.5 किमी लंबी बर्नीहाट-तेतालिया रेलवे लाइन का विरोध कर रहे हैं। उनकी दलील है कि रेल आने से बाहरी लोग मेघालय की शांति भंग कर देंगे।
असल में उनका मंतव्य है कि वहां का ईसाई प्रभुत्व कमजोर न हो और मेघालय अलग-थलग बना रहे। यहां जब भी चुनाव होते हैं तो चर्च की प्रत्यक्ष खुली भूमिका देखने को मिलती है। जनवरी 2018 में पर्यटन मंत्री केजे अल्फांसो ने मेघालय के 37 चचोर्ं की सजावट और देखभाल के लिए छह करोड़ रुपये की सरकारी सहायता की घोषणा की थी, लेकिन चर्च ने उसे ठुकरा दिया था।
शिलांग में रह रहे दलित सिख चारों ओर से पड़ने वाले दबाव में रहते हैं। उनमें से प्राय: 20 परिवार दसेक वर्ष पहले ईसाई बन गए और उनका चर्च ठीक गुरुद्वारे के पास बना दिया गया। पिछले सप्ताह वहीं खासी जनजाति के एक बस ड्राइवर ने बस पार्क कर दी जिस पर एक सिख महिला ने आपत्ति जताई तो झगड़ा हो गया। बाद में ड्राइवर-कंडक्टर पर चार हजार रुपये का जुर्माना लगाकर मामला सुलझा लिया गया, लेकिन रात में ईसाई संगठनों ने सिखों पर पथराव शुरू कर दिया। मारपीट के बाद ¨हसा भड़क उठी। ईसाई संगठनों ने मामूली झगड़े को बड़ा कर स्थानीय बनाम बाहरी का मसला बना दिया। शिलांग में काम के लिहाज से जा बसे बिहार, नेपाल और उत्तर प्रदेश के लोगों को भी निशाना बनाया जा रहा है। इस उग्रता के पीछे केएसयू (खासी छात्र संगठन) एचवाइसी (हिन्योट्रैप यूथ काउंसिल) और एफकेजेजीपी (फेडरेशन ऑफ खासी, जयंतिया गारो पीपुल) का हाथ माना जा रहा है।
इस समय मेघालय के मुख्यमंत्री पूर्व लोकसभाध्यक्ष पूणोर्ं संगमा के पुत्र कॅानराड संगमा हैं। उनकी नेशनल पीपुल्स पार्टी को भाजपा, यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी और हिल स्टेट पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का समर्थन है। कांग्रेस सत्ता से बाहर रहकर परेशान है। उसे किसी भी स्थिति को कॅानराड संगमा के विरुद्ध इस्तेमाल करने से परहेज नहीं है और इसीलिए वह माहौल को पर्दे के पीछे से भड़काने में लगी हुई है। यदि कांग्रेस अपने ही भारतीय बंधुओं के दुख-दर्द एवं संकट का राजनीतिक उपयोग कर संगमा सरकार को अस्थिर करती है तो यह राष्ट्रीय एकात्मता के विरुद्ध ही माना जाएगा। जो भारतीय हैं वे भारत के किसी भी कोने में जाएं, रहें, बसें, यह बात सहज-स्वाभाविक होनी चाहिए, वरना संविधान और लोकतंत्र का अर्थ क्या रह जाएगा? विडंबना यह है कि कश्मीर से हिंदू निकले तो वापस लौट नहीं पाए। आज तो वहां सुरक्षा कर्मियों को भी पथराव ङोलना पड़ता है। मिजोरम से चकमा निकाले गए। मेघालय में बाहरी-भीतरी का ध्रुवीकरण यदि सांप्रदायिक लाभ के लिए किया जा रहा है तो इसे राष्ट्रीय एकता की आधारशिला पर प्रहार मानना चाहिए।
दमदमा साहिब पंजाब के मुख्य जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह शिलांग की स्थिति का जायजा लेने गए थे। उन्होंने बताया कि स्थिति अब नियंत्रण में है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, राष्ट्रीय सिख संगत, पंजाब सरकार के मंत्री भी वहां पहुंचे और उन्होंने सिखों को ढांढस बंधाया। केंद्र सरकार भी स्थिति पर गंभीरता से नजर रखे हुए है। देश की एकता एवं सामाजिक सामंजस्य को कोई उग्र-संगठन या सत्तातुर राजनेता तोड़ न पाए, इसे सुनिश्चित करने की जरूरत है। इसी के साथ यह संदेश जाना चाहिए कि मेघालय के दलित सिखों को पूरे देश का समर्थन और सहारा है।
(साभार दैनिक जागरण )
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)
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