Sunday, December 30, 2018

ईश्वर की सत्ता


ईश्वर की सत्ता 
वेद ईश्वर की सत्ता में विश्वास रखते हैं और आस्तिकता के प्रचारक हैं। वेद नास्तिकता के विरोधी हैं। परन्तु संसार में कुछ व्यक्ति हैं जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। वेद ऐसे लोगों की बुद्धि पर आश्चर्य प्रकट करता है और उनकी भर्त्सना करता है।
न तं विदाथ य इमा जजानाऽन्यद्युष्माकमन्तरं बभूव ।
नीहारेण प्रावृता जल्प्या चाऽसुतृप उक्थशासश्चयन्ति ।।
―(ऋ० १०/८२/७)
भावार्थ― तुम उसको नहीं जानते जो इन सबको उत्पन्न करता है। तुम्हारा अन्तर्यामी तुमसे भिन्न है। किन्तु मनुष्य अज्ञान से ढके हुए होने के कारण वृथा जल्प करते हैं और बकवादी प्राण-मात्र की तृप्ति में लगे रहते हैं।
अब हम तर्क और सृष्टि-क्रम में आधार पर ईश्वर की सत्ता को सिद्ध करने का प्रयत्न करेंगे।
संसार और संसार के जितने पदार्थ हैं, वे परमाणुओं के संयोग से बने हैं, इस तथ्य को नास्तिक भी स्वीकार करता है। ये परमाणु संयुक्त कैसे हुए? नास्तिक कहता है कि ये परमाणु अपने-आप संयुक्त हुए। नास्तिक की यह धारणा मिथ्या है। परमाणुओं का संयोग अपने-आप नहीं हो सकता। संयोग करने वाली इस शक्ति का नाम परमात्मा है। जैसे सृष्टि और सृष्टि के पदार्थों के निर्माण के लिए परमाणुओं का संयोग होता है, वैसे ही वियोग भी होता है। परमाणुओं का यह वियोग अपने-आप नहीं होता। इन परमाणुओं के वियोग करने वाला भी परमात्मा ही है। जड़ और बुद्धिशून्य परमाणुओं में अपने-आप संयोग कैसे हो हो सकता है? इन जड़ परमाणुओं में इतना विवेक कैसे उत्पन्न हुआ कि उन्होंने अपने-आप को विभिन्न पदार्थों में परिवर्तित कर लिया?
यदि यह कहा जाए कि प्रकृति के नियमों एवं सिद्धान्तों से ही संसार की रचना हो जाती है, तो प्रश्न यह है कि जड़ प्रकृति में नियम और सिद्धान्त किसने लागू किए? नियमों के पीछे कोई-न-कोई नियामक होता है। इन नियमों और सिद्धान्तों के स्थापित करने वाली सत्ता का नाम परमेश्वर है।
संसार की वस्तुएँ एक-दूसरे की पूरक हैं। उदाहरणार्थ―हम दूषित वायु छोड़ते हैं, वह पौधों और वृक्षों के काम आती है; और पौधे एवं वृक्ष जिस वायु को छोड़ते हैं वह मनुष्यों के काम आती है। इस प्रक्रिया के कारण संसार नरक होने से बच जाता है। किसने वस्तुओं का यह पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किया है? वस्तुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को स्थापित करने वाली शक्ति का नाम ईश्वर है।
विज्ञान और आस्तिकता में कोई विरोध नहीं। विज्ञान जिन नियमों की खोज करता है, उन नियमों को स्थापित करने वाली ज्ञानवान् सत्ता का नाम ही तो ईश्वर है। यदि विकास के कारण ही सृष्टि-रचना को माना जाए तो विकास का कारण कौन है? डार्विन के पितृ-नियम, अर्थात् एक वस्तु से उसी के समान वस्तु का उत्पन्न होना, परिवर्तन का नियम अर्थात् उपयोग तथा अनुपयोग के कारण वस्तुओं में परिवर्तन, अधिक उत्पत्ति का नियम और योग्यतम की विजय―यदि इन चारों नियमों को भी सत्य माना जाए तो प्रश्न यह है कि नियमों को स्थापित करने वाला कौन है?
वैज्ञानिक, धातुओं का आविष्कार तो करता है, परन्तु उनका निर्माण नहीं करता। उनका निर्माण करने वाली कोई और शक्ति है जिसे परमात्मा कहते हैं। इसी प्रकार वैज्ञानिक, सृष्टि में विद्यमान नियमों की खोज करता है; वह नियमों का निर्माता नहीं है। इन नियमों का निर्माता एवं स्थापितकर्त्ता परमात्मा है।
संसार में सोना, चाँदी, लोहा, सीसा, कांस्य, पीतल आदि अनेक धातुएँ पाई जाती हैं। हीरे, मोती, जवाहर आदि अनेक बहुमूल्य रत्न पाए जाते हैं। ये सब ईश्वर के द्वारा बनाए गए हैं; किसी मनुष्य के द्वारा नहीं बनाए गए।
इस ब्रह्माण्ड की असीम वायु, अनन्त जल, पृथिवी, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र―ये सब किसी महान् सत्ता का परिचय दे रहे हैं। आस्तिक इसी महान् सत्ता को ईश्वर के नाम से पुकारता है।
फल-फूल, वनस्पतियों और ओषधियों के संसार को देखकर भी मनुष्य को बहुत आश्चर्य होता है। गुलाब के पौधे वा नीम की पत्तियाँ देखने में कितनी सुन्दर लगती हैं। उनके किनारे बिना मशीन के एक-जैसे कटे होते हैं। गुलाब के फूल में सुन्दर रंग, मधुर मोहक सुगन्ध और उसके अन्दर इत्र का प्रवेश―ये किसी बुद्धिमान् कारीगर की कारीगरी को दिखा रहे हैं। अनार की अद्भुत रचना देखिए। ऊपर कठोर छिलका, छिलके के अन्दर झिल्ली, झिल्ली के अन्दर दानों का एक निश्चित क्रम में फँसा होना, दानों में सुमधुर रस का भरा होना, उन रसभरे दानों में छोटी-सी गुठली और गुठली में सम्पूर्ण वृक्ष को उत्पन्न करने की शक्ति। वट का विशाल वृक्ष और सरसों के बीज में एक विशाल वृक्ष का समाविष्ट होना, ये सब उस अद्भुत रचयिता को सिद्ध करते हैं।
चींटी से लेकर हाथी तक जीव-जन्तुओं की शरीर-रचना, वन्य-जन्तुओं के आकार और विभिन्न पक्षियों और कीट-पतंगों की रचना―ये सब किसके कारण है? क्या जड़ प्रकृति में इतनी सूझ-बूझ है कि वह विभिन्न आकृतियों का सृजन कर दे? ये विभिन्न शरीर-रचनाएँ परमपिता परमात्मा की ओर संकेत कर रही हैं।
इस समय धरती पर पाँच अरब व्यक्ति निवास करते हैं। सृष्टि के रचयिता की अद्भुत कारीगरी देखिए कि एक व्यक्ति की आकृति दूसरे व्यक्ति से नहीं मिलती।
इस संसार की विशालता भी आश्चर्यकारी है। ऐसा कहते हैं कि पृथिवी की परिधि २५ हजार मील है। पाँच अथवा छ: फुट लम्बे शरीरवाले मनुष्य के लिए यह परिधि आश्चर्यजनक है। पर्वत की विशालता भी कुछ कम आश्चर्यकारी नहीं―पत्थरों की एक विशाल राशि, जिसके आगे मनुष्य तुच्छ प्रतीत होता है। समुद्र की विशालता को लीजिए। कितनी अथाह-जलराशि होती है। सूर्य पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा है। पृथिवी की परिधि आश्चर्यकारी है, परन्तु पृथिवी से १३ लाख गुणा बड़ा सूर्य विशालता की दृष्टि से क्या कम विस्मयकारी है? और फिर सूर्य के समान ब्रहाण्ड में करोड़ों सूर्य हैं। क्या यह संसार किसी अद्भुत रचयिता की ओर संकेत नहीं कर रहा है?
जहाँ संसार की विशालता आश्चर्यकारी है, वहाँ सृष्टि की सूक्ष्मता भी कम विस्मयकारी नहीं। बड़े-से-बड़े हाथी को देखकर जहाँ आश्चर्य होता है, वहाँ चींटी-जैसे सूक्ष्म प्राणियों को देखकर भी विस्मय होता है। संसार की यह सूक्ष्मता भी किसी रचयिता की ओर संकेत कर रही है।
कुछ लोग कहते हैं कि यह संसार अकस्मात् बना है। कोई भी घटना पूर्व-परामर्श अथवा पूर्व-प्रबन्ध के बिना नहीं होती। बाजार में दो व्यक्तियों का अकस्मात् मिलन उनकी इच्छा-शक्ति से प्रेरित होकर किसी उद्देश्य के लिए घर से निकलने का परिणाम है। अकस्मात् वाद का आश्रय लेकर यदि कोई कहे कि देवनागरी के अक्षरों को उछालते रहने से 'रामचरित मानस' की रचना हो जाएगी तो उनकी यह कल्पना असम्भव है। 'रामचरित मानस' की रचना के पीछे किसी ज्ञानवान् चेतन सत्ता की आवश्यकता है।
कुछ लोग कहते हैं कि संसार का बनाने वाला कोई नहीं। जो कुछ बनता है वह नेचर अथवा कुदरत से बनता है। प्रश्न यह है कि नेचर अथवा कुदरत किसे कहते हैं? यदि नेचर का अर्थ सृष्टिनियमों से है तो सृष्टियों का कोई नियामक चाहिए। कुदरत अरबी भाषा का शब्द है। इसका अर्थ है सामर्थ्य। सामर्थ्य, बिना सामर्थ्यवान् के टिक नहीं सकता। सामर्थ्यवान् कोई चेतन सत्ता ही हो सकती है।
स्वभाववादी, स्वभाव से ही संसार को बना हुआ मानते हैं। किन्तु तथ्य यह है कि यदि परमाणुओं में मिलने का स्वभाव होगा तो वे अलग नहीं होंगे, सदा मिले रहेंगे। यदि अलग रहने का स्वभाव है तो परमाणु मिलेंगे नहीं; सृष्टि-रचना नहीं हो पाएगी। यदि मिलने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो वे सृष्टि को कभी बिगड़ने नहीं देंगे। यदि अलग-अलग रहने वाले परमाणुओं की प्रबलता होगी तो सृष्टि कभी नहीं बन पाएगी। यदि बराबर होंगे तो सृष्टि न बन पाएगी, न बिगड़ेगी।
जैनी ऐसी शंका करते हैं कि ईश्वर तो क्रियाशून्य है, अत: वह जगत् को नहीं बना सकता। वे इस यथार्थ को भूल जाते हैं कि क्रिया की आवश्यकता एकदेशीय कर्त्ता को पड़ती है। जो परमात्मा सर्वदेशी है उसे क्रिया की आवश्यकता ही नहीं होती। वह सर्वव्यापक होने से ही संसार की रचना करने में समर्थ होता है, जैसे शरीर में आत्मा के स्थित होने के कारण शरीर सब प्रकार की चेष्टाएँ करता है।
जब परमात्मा आनन्दस्वरुप है तो वह आनन्द छोड जगत् के प्रपंच में क्यों फँसता है?―यह बात निर्मूल है क्योंकि, प्रपंच में फँसने की बात एकदेशी पर लागू होती है, सर्वदेशी पर नहीं।
साभार―
["वैदिक धर्म का स्वरुप" पुस्तक से, लेखक-प्रा० रामविचार]

Thursday, December 27, 2018

महर्षि दयानंद सरस्वती का वेद-विषयक दृष्टिकोण


महर्षि दयानंद सरस्वती का वेद-विषयक दृष्टिकोण

(Vedas: as viewed by Maharshi Dayananada)
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- भावेश मेरजा
आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि दयानंद सरस्वती (१८२५-१८८३) ने वर्तमान युग में वेदों के संबंध में कई मूलभूत वातों की ओर संसार का ध्यान आकर्षित किया है। जैसे कि -
१. ऋक्‌, यजुः, साम और अथर्व - ये चार मंत्र संहिताएं ही ‘वेद’ हैं। इन चार मंत्र संहिताएं ही ईश्वर-प्रणीत अथवा अपौरुषेय ज्ञान-पुस्तकें हैं। इन चार के अतिरिक्त जो भी पुस्तकें हैं - मान्य या अमान्य, वे सब मनुष्यों द्वारा रचित अर्थात् पौरुषेय हैं।
२. वेदों में ज्ञान, विज्ञान, कर्म और उपासना - ये चार विषयों का अथवा ईश्वर, जीव और प्रकृति (तथा प्रकृति से उत्पन्न सृष्टि) के संबंध में निर्भ्रान्त ज्ञान वर्णित है। वेद-ज्ञान की सहायता से मनुष्य अपने जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।
३. वेदों में किसी राजा, प्रजा, देश, व्यक्ति आदि का बिलकुल इतिहास नहीं है। वेदों तो सृष्टि के आरंभ में प्रकाशित हुए हैं। उनमें किसी मनुष्य का इतिहास नहीं है। मनुष्यों ने वेदाविर्भाव के पश्चात् अपनी आवश्यकता अनुसार व्यक्तिओं, देशों, पर्वतों, नदियों तथा समुद्रों आदि के नाम वेदों के शब्दों के आधार पर निश्चित किए हैं। वेदों के शब्दों के आधार पर नाम रखने की यह परंपरा आज पर्यंत चली आ रही है। परंतु इससे वेदों में इन नामों वाले व्यक्तियों का इतिहास वर्णित है, ऐसा मान लेना तो बिलकुल ही अयोग्य समझा जाएगा। वेदों में मानवीय अनित्य इतिहास का नितान्त अभाव है। हां, सृष्टि की रचना कैसे होती है, प्रथम क्या बनता है, बाद में क्या बनता है, इसका चक्र कैसे चलता है, किन नियमों से सृष्टि चलती है, इत्यादि प्रश्नों के वैज्ञानिक समाधान के रूप में सृष्टि का नित्य इतिहास तो वेदों में है, परंतु उनमें किसी प्रकार का अनित्य मानवीय इतिहास बिल्कुल नहीं है। समस्त वैदिक साहित्य इस बात को प्रमाणित करता है कि वेदों में किसी भी देश, समाज या व्यक्ति का इतिहास नहीं है। इसलिए वे लोग जो वेदों में मानवीय इतिहास की कड़ियाँ या संकेत ढूंढने में विश्वास रखते हैं और इसी हेतु से कार्यरत हैं, वे वास्तव में वेदों के यथार्थ स्वरूप को समझने में भारी भूल कर रहे हैं।
४. वेदों में तीन पदार्थों को अनादि, अनुत्पन्न, नित्य स्वीकार किए गए हैं - ईश्वर, जीव और प्रकृति। इन तीनों पदार्थ की सत्ता सदैव बनी ही रहती है। इसलिए उनका कभी भी अभाव नहीं होता है। ये तीनों सत्ताएं अनादि हैं, वे कभी भी उत्पन्न नहीं होतीं हैं। ये तीनों तो बस ऐसे ही सदा से हैं और आगे भी सदैव बनी रहेंगी। ये तीनों सत्ताएं अनादि - अनंत काल से अपना अस्तित्व रखती आयी हैं और अनंत काल तक ऐसे ही विद्यमान रहने वाली हैं। उनका कभी भी अभाव होने वाला नहीं है। इसके अतिरिक्त, ये तीनों सत्ताएं एक में से दूसरी ऐसे परिवर्तित भी कभी नहीं होती हैं। अर्थात् ईश्वर कभी जीव या प्रकृति नहीं बनता है; जीव कभी ईश्वर या प्रकृति नहीं बनता है; और प्रकृति कभी ईश्वर या जीव नहीं बनती है। ये तीनों सत्ताएं अपने-अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर एक-दूसरे से सदैव भिन्न ही बनी रहती हैं; कभी भी अभिन्न - समान - एक नहीं हो जातीं। ईश्वर और जीव चेतन हैं, जबकि प्रकृति जड़ है। ईश्वर जीवों के कल्याण के लिए - उनकों उन्नति का - मोक्ष-प्राप्ति का अवसर प्रदान करने के लिए प्रकृति में से सृष्टि बनाता है। यह सृष्टि आज पर्यंत अनंत बार बनी-बिगड़ी है, और भविष्य में भी अनंत बार बनने-बिगड़ने वाली है। सृष्टि-प्रलय का यह क्रम भी अनंत है।
५. वेदों में मनुष्य के चरम विकास एवं उन्नति के लिए अपेक्षित समस्त ज्ञान वर्णित है। वेदों में सर्व प्रकार का ज्ञान-विज्ञान निहित है। वेदों में ईश्वर-प्राप्ति अथवा मोक्ष-प्राप्ति को मानव जीवन का चरम लक्ष्य बताया गया है। वेदों का प्रधान विषय यही अध्यात्म विज्ञान है। वेदों में भौतिक जीवन के प्रति भी अनादर के भाव नहीं हैं, उसके उत्कर्ष के लिए भी पर्याप्त सामग्री वेदों में उपलब्ध है; फिर भी आध्यात्मिक ऐश्वर्य की तुलना में भौतिक ऐश्वर्य को गौण जरूर बताया गया है।
६. वेद जगत् को वास्तविक एवं सप्रयोजन मानते हैं। जगत् को स्वप्नवत्‌ मिथ्या मानते हुए अपने शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक अभ्युदय की प्राप्ति के लिए बिल्कुल कामना या यत्न ही न करना - इस प्रकार के निराशावादी चिंतन का वेदों में अभाव है। वेद हमें ज्ञान-कर्म-उपासनामय कर्मठ जीवन के पाठ पढ़ाते हैं।
७. वेदों में विशुद्ध एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया गया है। एक ही सच्चिदानंद-स्वरूप, सर्वव्यापक, निराकार, अनंत, सर्वशक्तिमान, चेतन ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव का ज्ञान कराने के लिए वेदों में उसकी अनेकानेक नामों से स्तुति - यथार्थ वर्णन किया गया है। इसलिए वेदों में ईश्वर के लिए प्रयुक्त इन्द्र, वरुण, प्रजापति, सविता, विधाता, अग्नि, गणपति इत्यादि नामों को देखकर ऐसा निष्कर्ष निकाल लेना कि वेदों में तो अनेक ईश्वर की स्तुति है, वेदों तो बहुदेवतावादी हैं, एक गंभीर भूल ही मानी जाएगी। वेद एक ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करने की शिक्षा देते हैं।
८. वेद मानवोपयोगी समस्त विद्याओं के मूल हैं। वेदों में मानव जीवन के सभी अंगो के विषय में - व्यष्टि एवं समष्टि दोनों के विषय में ज्ञान प्रस्तुत किया गया है। वेदों में भौतिक विज्ञान के रहस्य भी उपलब्ध हैं, परंतु वेदों में ये सब विद्याएं मूलवत् अर्थात् बीज या सूत्र रूप में वर्णित हैं। वेदों में किसी ‘शास्त्र’ के रूप में अमुक विद्या या विज्ञान-शाखा का सांगोपांग विस्तार या विशद विवेचन प्रस्तुत नहीं किया गया है। परंतु वेदों में से भौतिक जगत् विषयक संकेतों को ठीक से समझ कर उनके अवलंबन से सृष्टि का गहन वैज्ञानिक अध्ययन करके मनुष्य भौतिक जगत् की भी अनेक सच्चाइयों का अन्वेषण कर सकते हैं।
९. वेदों में यज्ञ, संस्कार आदि कर्मकांड का भी यथोचित वर्णन किया गया है। वेदों में वेदार्थ आधारित सार्थक एवं वैज्ञानिक कर्मकांड को समुचित स्थान दिया गया है। वेदों में ‘यज्ञ’ शब्द को अत्यंत विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त किया गया है, जिसकी अर्थ-परिघि में उन सभी प्रकार के उत्तम कर्मों का समावेश हो जाता है, जो किसी सद्‌भावना से प्रेरित होकर किए जाते हैं और जिनके द्वारा सुखों की वृद्धि और दुःखो तथा क्लेशों का शमन होता हैं। फिर भी यह नहीं भूलना चाहिए वेद केवल द्रव्यमय यज्ञों या कर्मकांड के लिए ही प्रवृत्त नहीं हुए हैं। वेद ज्ञान के - सत्य विद्याओं के ग्रंथ हैं; ये याज्ञिक कर्मकांड के ही या मानवीय अनित्य इतिहास के ग्रंथ नहीं हैं। कर्मकांड में भी जो विनियोग होता है वह मंत्र के अर्थ के आधीन होना अपेक्षित है।
१०. वेद और सृष्टि दोनों ईश्वरीय हैं। जैसे वेद ईश्वर-प्रणीत हैं, ईश्वरीय ज्ञान के ग्रंथ हैं, वैसे ही यह सृष्टि अथवा जगत् भी वही ईश्वर द्वारा रचित एवं संचालित है। इसलिए इन दोनों में अर्थात् वेद तथा सृष्टि में अ-विरोध है, दोनों में पूरी संगति है, पक्का समन्वय है। सृष्टि विषयक जो बातें वेदों में वर्णित हैं, वही बातें हमें सृष्टि में उपस्थित व कार्यरत दिखाई पड़ती हैं। इसलिए वेद सर्वथा वैज्ञानिक हैं। वेदों में ऐसी एक भी बात नहीं है, जो सृष्टिक्रम के विरुद्ध हो या जिसका सृष्टि-विज्ञान से मेल न बैठता हो। इस तरह वेदों की रचना बुद्धिपूर्वक - ज्ञान-विज्ञानपूर्वक है, जो उनका ईश्वरीय होना सिद्ध करता है।
११. वेदों में मानव समाज का ब्राह्मण आदि चार वर्णों में विभाजन किया गया है; परंतु इस विभाजन का आधार व्यक्ति का जन्म नहीं, बल्कि उसके गुण-कर्म-स्वभाव हैं। जन्म आधारित जाति प्रथा न केवल वेदबाह्य है, बल्कि वेद-विरुद्ध भी है।
१२. वेदों को यथार्थ रूप में समझने के लिए ब्राह्मण-ग्रंथ, वेदांग, उपांग, उपवेद, प्रमुख – मौलिक उपनिषद् तथा मनुस्मृति आदि पुरातन वैदिक ग्रंथो का अध्ययन अत्यंत आवश्यक है। पाणिनि मुनि कृत अष्टाध्यायी, पतंजलि मुनि कृत महाभाष्य तथा यास्क मुनि कृत निरुक्त तथा निघंटु के अध्ययन से वेदों की भाषा तथा वेदों के अर्थ समझने में अनन्य सहायता प्राप्त हो सकती है।
१३. वेदों की शिक्षाएं - उपदेश सर्वथा उदात्त, सार्वभौम, सर्वजनोपयोगी और प्राणीमात्र के लिए हितकारी हैं। वेद मानवमात्र का ही नहीं, जीवमात्र का हित करने वाली बातों का उपदेश करते हैं। वेदों में जिसे संकीर्ण, एकांगी या सांप्रदायिक कहा जा सके ऐसा कुछ भी नहीं है। सभी का कल्याण और सर्वविध उन्नति कराने वाली सुभद्र बातों को प्रकाशित करने वाले वेद वैश्विक धर्म के प्रतिनिधि हैं। वेदों में उन समस्त विषयों का उल्लेख पाया जाता है, जिनका स्वीकार व आचरण कर कोई भी देश, समाज या व्यक्ति उन्नति के शिखर पर पहुंच सकता है और सभी लोग विश्व, देश, समाज या परिवार में सुख एवं शांतिपूर्वक रहकर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। मनुष्यों को आज पर्यंत जिन-जिन सत्य विद्याओं की आवश्यता अनुभव हुई है और भविष्य में उन्हें जिन-जिन सत्य विद्याओं की आवश्यकता अनुभव होगी, उन सब सत्य विद्याओं का बीज रूप में समावेश वेदों में हुआ है।
१४. वेद ईश्वरीय ज्ञान है। अतः उन पर मानवमात्र का समान मौलिक अधिकार है। किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह अन्य किसी को उसके वेदाधिकार से वंचित कर सके।
१५. मनुष्य के आत्मा में अपना जीवस्थ स्वाभाविक ज्ञान तो होता ही है, परंतु वह इतना अल्प होता है कि केवल उससे वह उन्नति नहीं कर सकता है। उन्नति तो होती है - नैमित्तिक ज्ञान से जिसे अर्जित या प्राप्त किया जाता है। वेद ईश्वर-प्रदत्त नैमित्तिक ज्ञान है। वह सर्वज्ञ ईश्वर का ज्ञान होने से निर्भ्रांत है और इसीलिए ‘परम-प्रमाण’ अथवा ‘स्वतः-प्रमाण’ है। वह सूर्य अथवा प्रदीप के समान स्वयं प्रमाणरूप है। उसके प्रमाण होने के लिए अन्य ग्रंथों की अपेक्षा नहीं होती है। चार वेदों के अतिरिक्त समस्त वैदिक अथवा वेदानुकूल साहित्य अति महत्त्वपूर्ण होते हुए भी मानवीय - पौरुषेय होने के कारण परत-प्रमाण है। इन ग्रंथों में जो कुछ वेदानुकूल है वह प्रमाण और ग्राह्य है, और जो कुछ वेदविरुद्ध है वह अप्रमाण और अग्राह्य है।
१६. वेदों के समस्त शब्द यौगिक या योगरूढ हैं, इसलिए वे आख्यातज हैं; रूढ या यदृच्छारूप नहीं हैं। इसलिए वैदिक शब्दों का तात्पर्य जानने के लिए व्याकरणशास्त्र के अनुसार यथायोग्य धातु-प्रत्यय संबंध पूर्वक अर्थ समझने का प्रयत्न करना चाहिए। धातुएं अनेकार्थक होने से मंत्र भी अनेकार्थक होते हैं और उनके आधिदैविक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक अर्थ किए जा सकते हैं। दूसरे शब्दों में - प्रकरण आदि का विचार करके वेदमंत्रों के पारमार्थिक तथा व्यावहारिक दोनों प्रकार के अर्थ करने का प्रयास करना चाहिए।
१७. पिछली दो शताब्दियों में पश्चिम के अनेक विद्वानों ने वेदों पर कार्य किया है और तत्संबंधी ग्रंथ आदि भी लिखे हैं, जिनमें मेक्समूलर, मोनियर विलियम्स, ग्रिफिथ इत्यादि के नाम प्रसिद्ध हैं। ये पाश्चात्य विद्वान् वेदों को वास्तविक रूप में प्रस्तुत नहीं कर सके हैं; क्योंकि एक तो वे वेद तथा वेदार्थ की पुरातन आर्ष परंपरा से अपरिचित थे और दूसरा यह कि वे लोग अपने ईसाई मत के प्रति आग्रह रखते थे और विकासवाद को अंतिम सत्य मानकर चलते थे। इसलिए पाश्चात्यों का वेद विषयक कार्य प्रायः वेदों की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाने वाला ही सिद्ध हुआ है। इसी प्रकार सायण, महीधर आदि मध्ययुगीन भारतीय पंडित भी अपनी कुछ गंभीर मिथ्या धारणाओं के कारण वेदों को यथार्थ रूप में व्याख्यायित करने में असफल रहे हैं।
१८. वेदों में सत्य में श्रद्धा और असत्य में अश्रद्धा रखने की प्रेरणा दी गई है। वेद हमें विद्या की वृद्धि और अविद्या का नाश करने के लिए तथा वैज्ञानिक चिंतन को जाग्रत करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, अद्वैतवाद, पयगंबरवाद, मृतक-श्राद्ध, फलित ज्योतिष, जन्म आधारित जातिप्रथा, चमत्कारवाद, नास्तिकवाद इत्यादि वेदविरुद्ध होने से खंडनीय एवं त्याज्य हैं।
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Monday, December 24, 2018

परमेश्वर का अवतार यीशु या झूठ का ढिंढोरा




परमेश्वर का अवतार यीशु या झूठ का ढिंढोरा

(ईसाई विद्वान् यीशु/ईसाई परमेश्वर को कलंकित होने से बचाएं)

पादरी और आर्य की बहस--

पादरी- यीशु परमेश्वर का अवतार था जो कि समाज की भलाई करने के लिए आया था।

आर्य- यह बताओ कि क्या परमेश्वर कभी मर सकता है? यदि नहीं तो यीशु कैसे मर गया? भलाई करने ही आया था तो क्या केवल उसी समय पृथ्वी पर भोले-भाले लोगों पर अत्याचार हो रहा था जो यीशु बचाने आया था, क्या अब नहीं हो रहा?

पादरी:- वह मरा नहीं "तीन दिन बाद लौट आया था"।

आर्य- चलो! एक क्षण के लिए यह मान भी लें कि यीशु लौट आया था तो यह बताओ कि लौटने के बाद यीशु अब कहां है? क्या वह अदृश्य हो गया? यदि हां तो क्यों? क्या वह डर रहा है कि कहीं फिर से सूली पर न चढ़ना पड़े?

पादरी- नहीं। वह हम सब के हृदय में है?

आर्य- यदि हृदय में है तो क्या उस समय वह हृदय के बाहर था जो सूली पर चढ़ा दिया गया?

पादरी- परमेश्वर के अवतार हम सब हैं क्योंकि बाइबिल उत्पत्ति १:२६ में लिखा है, "फिर परमेश्वर ने कहा, हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएं; और वे समुद्र की मछलियों, और आकाश के पक्षियों, और घरेलू पशुओं, और सारी पृथ्वी पर, और सब रेंगनेवाले जन्तुओं पर जो पृथ्वी पर रेंगते हैं अधिकार रखें।"

आर्य- अच्छा! यह बताओ जब परमेश्वर ने स्वयं कह दिया कि "हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार बनाएं" तो मनुष्य कुकर्म क्यों करते हैं? क्या ईसाइयों का परमेश्वर भी कुकर्म करता था जिसके अनुसार उसकी सन्तानें भी कुकर्म कर रही हैं? अथवा यदि कुकर्म से छुटकारा दिलाने के लिए यीशु को ही भेजा तो ईसाई परमेश्वर की यह बात झूठ सिद्ध होती है कि "हम उसके स्वरूप हैं" या फिर ईसाई परमेश्वर भुल्लकड़ है जो अपना गुण मनुष्यों में देना भूल गया?

पादरी- नहीं। परमेश्वर ने सबकुछ अच्छा बनाया है, इस बात की पुष्टि स्वयं परमेश्वर ने की है। देखो उत्पत्ति १:३१ में लिखा है, "तब परमेश्वर ने जो कुछ बनाया था, सब को देखा, तो क्या देखा, कि वह बहुत ही अच्छा है।"

आर्य- भाई! यह परमेश्वर अपनी बनाई सृष्टि को टुकुर-टुकुर झाक काहें रहा है? क्या यह सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ नहीं है?

पादरी- पता नहीं! लेकिन यीशु ईश्वर का ही अवतार था।

आर्य- अवतार का अर्थ है- उतरना या नीचे आना। नीचे उतरने के लिए सीढ़ी चाहिए और साथ में शरीर भी इससे तो यह सिद्ध हुआ कि ईसाई परमेश्वर शरीरवाला/साकार था फिर निराकार का ढिंढोरा क्यों पीटते हो?

पादरी- खुदा तुम्हें माफ करे!

आर्य- एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी। वाह भाई वाह! मानना पड़ेगा। ऊपर कहते हो कि परमेश्वर ने हमें अपने स्वरूप में बनाया (बाइबिल में भी लिखा है) लेकिन तुम्हारा खुदा कहता है "और यहोवा (ईसाई खुदा) पृथ्वी पर मनुष्यों को बनाने से पछताया और वह मन में अति खेदित हुआ। -उत्पत्ति ६:६"
अपने खुदा से पूछो कि क्षण-क्षण में रंग क्यों बदलता है? कहीं गिरगिट तो नहीं? और खुदा स्वयं उदास हो रहा है उससे कहो, "अब पछताए क्या हुआ जब चिड़िया चुग गयी खेत"। पहले उसे तो कह दो कि जो झूठ बोला है उसकी माफी हमसे मांगे.!

आजतक बेचारे ने अपनी शकल नहीं दिखाई। बहुत समय से ईसाइयों द्वारा धर्म परिवर्तन करने हेतु यह झूठ का ढिंढोरा पीटा जा रहा था कि "यीशु परमेश्वर का अवतार था, तीन दिन बाद लौटा था आदि"। आज इनका ढिंढोरा/भांडा फोड़ दिया।

नोट:- ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निर्विकार, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, अजर, अमर, अभय, निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वअन्तर्यामी, अनादि, सर्वव्यापी, सृष्टिकर्त्ता, नित्य और पवित्र है उसी की उपासना करनी योग्य है अन्य की नहीं।

प्रियांशु सेठ

Thursday, December 20, 2018

Jesus Resurrection



JESUS RESURRECTION

Author:- Pandit Gangaprasad ji Upadyaya

Jesus death is as mysterious as his birth. It is written in? Bible:- 

Jesus was crucified.

He died on the cross.

His body was put in a Sepulcher. (a small room or monument, cut in rock or built of stone, in which a dead person is laid or buried)

On the third day, the Sepulcher was found empty. 

Christ was thereafter seen walking by several people elsewhere.

He rose to heaven with body.

He is sitting right side of his father, God, in heaven.

These things have been described in details in Matth, Chapter XXVII and XXVIII, Mark chap. XVI, Luke chapter XXIV, and John chapters XX and XXXI. 

The details differ so much that no fair-minded person can be persuaded (duce (someone) to do something through reasoning or argument) to believe them. Even Christians would not believe a similarly worded story in the case of another person. Any written or printed material is not a history. And when uncommon things are said, the testimony should be free from all shades of doubts. If four witness in the form of Matthew, Mark, Like and John appears before a court and they give a same account as is given in the New Testaments, With the difference that some other name is given in the place of Jesus, even Christian Judge of the present High Court would brush it aside as a tissue of either hallucinations (an experience involving the apparent perception of something not present) or lies.Just look at the points:-

1.Matthew mentions ‘a great earthquake.” The other three are silent on this point. It was an important point. Had there been an earthquake, it should have been marked by others. 

2.       Matthew mentions one angel who told the women that ‘he is risen.’ Mark gives “a young man.” St Luke gives ‘two men stood by them in shining garment; St John also names ‘two’. 

3.       According to St. John, Mary “turned” herself back and saw Jesus standing.” This Fact is not mentioned by the other three. 

It was Joseph of Arimathaea Who secretly went to Pilate for the body of Jesus. 

Mark says, ‘Pilate marveled   if he were already dead: and calling unto him the centurion, he asked him whether he had been any while dead. And when he knew it of the centurion, he gave the body to Joseph.’ (Mark X, 44)  (1) 

(1)    “The concluding eleven verses of St. Mark, XVI, that speak of the resurrection as well as of the foreign mission and the signs, with the sweeping condemnation of the Non-Christian world, so unbecoming of the gentle soul like Jesus, have been proved to be an addition and forgery, and do not exist in the vulgate (the principal Latin version of the Bible, prepared mainly by St Jerome in the late 4th century, and (as revised in 1592) adopted as the official text for the Roman Catholic Church), nor in the ancient Greece Mss. 

I found it so, and printed it out in a marginal note on these eleven verses. The fact is not unknown to the British and Foreign Bible society; yet they do not care to remove the verses from the Bibles.” (Sources of Christianity by Khwaja Kamaluddin, page 123) 

Now assuming that Mary and Mary Magdalena found the sepulcher empty and also assuming that Christ was Seen by some persons after the event, the only conclusion that a sane man would arrive at is that Jesus did not die on the cross, that Joseph of Arimathaea, who was friend of Jesus, played some tricks and spirited away the body of Jesus. The man or men whom the women took an angels of God, might have been some persons acquainted with the secret. It is written that “the sepulcher was new wherein was never man yet laid.” 

In all probability the sepulcher must have been so devised by Joseph himself that the stone might be easily set aside. This has been anticipated by Matthew and is clear from the following statements:- 

“Now the next day, that followed the day of the preparation, the chief priest and Pharisees came together unto Pilate saying, sir, we remember that that deceiver said, while he was yet alive, ‘After three days I will rise again.’ Command therefore that the sepulcher he made sur, until the third day, lest his disciples come by night, and steal him away, and say unto the people, He is risen from the dead; so the last error shall worse than the first. Pilate said unto them, ye have a watch: go your way, make it as sure as ye can. So they went, and made the sepulcher sure, sealing the stone, and setting a watch.” (Matt. Chapter xxvii, 62-66) 

The other three witnesses mention neither a watch nor an earthquake. It seems that in order to cofound. Matthew coined the story of earthquake. The points to be considered are the following:- 

1.Why did Pilate marvel if he were already dead?

2. Why did not Pilate satisfy himself personally on the point and why did he confine his enquiry to merely the statement of the centurion? It is not possible that the Centurion might have been purchased by the rich Joseph of Arimathaea?

3. When the people complained, why did not Pilate look to the watch personally? 

4.How was the stone sealed? What was the nature of the watch and what guarantee was there that the watch was all above temptations?

 Then there are two more aspects which are of a very great importance: first of all, the possibility of resurrections; secondly, the purpose of resurrection. Either Christ died on the cross or did not die. In the latter case the question of resurrection does not rise and the miracle loses all its value. In the former case, death can only mean the total departure of the soul from the body. When Jesus body was lying in the sepulcher, his soul must have departed. To where? You can say “to heaven.”  Then why did it return? And how? Why did it take three days to return? 

As regards the question of ‘purpose’ the only purpose imaginable can be the over-awing of the unbelievers by the uncanniness of the process. But here too the purpose fails miserably. The miracle could have done openly before all, even on the cross and might have converted the whole world. But instead of this we find Jesus crying “Eli, Eli lama sabachthani? My God, my God, why hast thou forsaken me?” (Mark.XXXVII, 46) 

Are these not the ways of ordinary men? Any man would cry like that at the time of death. Then if the purpose was to convince people of Jesus divinity, better person should have the witness than the two half-crazy women who what of attachment and what of credulity could not discern whether it was Jesus or the Gardner. There is one more point. If Jesus foretold his resurrection on the third day, as people complained against Pilate, was it known to the women?  If so why did they not expect in due course? Why did they come to sepulcher with the intension of paying their respect to dead? 

If the purpose was not public proclamation but something private and secret, even then the whole story seems to be silly? Jesus appears to some friends and only and then asks them to proclaimed the event. 

Then there is the question of the passion of Jesus’ body to heaven. This is the funniest event. Only those who believe heaven is somewhere in the skies above and solid bodies can rise up to they can regard it as true. In these days such persons are very rare except in exceptional asylum. Unless heaven be a court of a despotic king in some physical sense, it is absurd to say that the body of Jesus Christ passed to it, and he is still seen sitting on right side of his father. If you treat it figuratively, you have to put it nakedly so that the sense might be understood.

 We should not have taken notice of such a fairy-tale, had it not been for the fact that the resurrect of the Jesus Christ is the most important portion of the Christian creed, as important as its birth. God’s son needs be born in an unusual way and so must he need die. Ingersoll has well said, “How do they prove Christ rose from the dead? They found the account in the book. Who wrote the book? They do not know. What evidence is this? None, unless all things found in books are true.” 

“They say that Christianity was established, proved to be true, and by miracles wrought nearly two thousand years ago. Not one of these miracles can be established except by impudent and ignorant assertions –except by poisoning and deforming the minds of the ignorant and the young.”

 Professor Huxley says,

 “On the strength of an undeniable improbability, however, we not only have right to demand, but are morally bound to require, strong evidence in favor of miracle before even we take it into serious consideration. But when, instead of such evidence, nothing is produced but stories originating nobody knows how or when, among persons who could firmly believe in the devils which enter pigs, I confess that my feelings is one of astonishment that any one should except a reasonable man to take such testimony seriously.”

चित्ति, उक्ति, कृति की एकता





चित्ति, उक्ति, कृति की एकता

लेखक- स्वामी वेदानन्द (दयानन्द) तीर्थ

सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते। -ऋ० १०/१९१/२

शब्दार्थ- यथा= जैसे पूर्वे= पूर्ववर्त्ती अथवा पूर्ण देवा:= विद्वान् सं+जानाना= भली प्रकार जानते हुए भागम्= सेवन करने योग्य मोक्ष, प्रभु की उपासते= उपासना करते हैं, वैसे ही तुम सब सं+ गच्छध्वम्= एक-सा चलो, सं वदध्वम्= एक-सा बोलो। व:+जानताम्= तुम ज्ञानियों के मनांसि= मन सम्= एक-समान हों।

व्याख्या- ऋग्वेद [१०/१९१/१] में भगवान् से प्रार्थना की गई है कि प्रभो! हमें धन दो। भगवान् ने तीन मन्त्रों में धन-साधन का उपदेश दिया है। उन तीनों में से यह पहला मन्त्र है। भगवान् का आदेश है-

१. सं गच्छध्वम्= तुम सब एक-सा चलो, अथवा एक-साथ चलो। किसी कार्य की सिद्धि के लिए कार्य करने वालों की चाल, गति भिन्न-भिन्न होगी, तो कार्यसिद्धि में बड़ी बाधा आ खड़ी होगी, अतः सभी की गति, कृति, आचार एक-सा होना चाहिए।

२. वदध्वम्= तुम सब एक-सा बोलो। चाल की समानता के लिए बोल की समानता अत्यन्त आवश्यक है। बोली= भाषा के भेद के कारण बहुधा विचित्र किन्तु निरर्थक झगड़े हुए हैं। एकता स्थापित करने के लिए एक भाषा का होना अत्यन्त आवश्यक है। एक भाषाभाषी एक गुट बना लेते हैं, प्रायः उनका दूसरी भाषा बोलने वालों से सम्पर्क न्यून ही रहता है, फलतः उनसे उचित सम्बन्ध स्थापित नहीं हो पाता, अतः मनुष्यों की बोली, भाषा, उक्ति, उच्चार एक-सा होना चाहिए।

३. सं वो मनांसि जानताम्= तुम ज्ञानियों के मन एक-समान हों। एक-जैसा बोल तभी हो सकता है, जब मनों के भाव एक-से हों, अर्थात् जब तक मनुष्यों का ज्ञान, विचार एक-सा न हो, तब तक उच्चार और आचार की एकता असम्भव है। उच्चार और आचार का मूल विचार है, क्योंकि जो कुछ मन में होता है, वही वाणी पर आता है और जो वाणी से बोला जाता है, वहीं कर्म में परिणत होता है। पूर्ण विद्वान् सदा ही एक-सा व्यवहार करता हैं। अथर्ववेद [६/६४/१] में भी इसी प्रकार का मन्त्र है। उसके पूर्वार्द्ध में थोड़ा-सा भेद है। उसे यहां उद्धृत करते हैं- 'सं जानीध्वं सं पृच्यध्वं सं वो मनांसि जानताम्'- एक-सा चलो, एक-साथ मिलो। तुम सब ज्ञानियों के मन एक-समान हों।

ऋग्वेद में 'संवदध्वम्' है, अथर्ववेद में 'संपृच्यध्वम्' है। इस एक शब्द के भेद ने बहुत ही चमत्कार किया है। ज्ञानीजन यह कहते हैं कि अपने ज्ञान द्वारा विचार में समानता उत्पन्न करके उच्चारों, आचारों में समानता ला दें, किन्तु अज्ञानियों के विचारों में एकता नहीं हो सकती। अथर्ववेद के मन्त्र में उसी का साधन बताया है- तुम सब इकठ्ठे चलो, और एक-दूसरे के साथ मिल जाओ, तब ज्ञानियों के समान तुम्हारे विचार भी एक-से हो जाएंगे। ऋग्वेद में साध्य से पहले कहा है। अथर्ववेद में उन्हीं शब्दों द्वारा, केवल एक शब्द का भेद करके, साधन-सिद्धि का उपाय बतला दिया है।

[स्वाध्याय संदोह से साभार]

महान राजनीतिज्ञ चाणक्य



महान राजनीतिज्ञ चाणक्य

चाणक्य शब्द कान में पड़ते ही मानस-मुकुट पर एक ऐसी मूर्ति प्रतिबिम्बित हो उठती है जिसका निर्माण मानो विद्या, वैदग्ध, दूरदर्शिता, राजनीति तथा दृढ़ निश्चय के पंच-तत्वों से हुआ था।

महर्षि चाणक्य एक व्यक्ति होने पर भी अपने में एक पूरे युग थे। उन्होंने अपनी बुद्धि एवं संकल्पशीलता के बल पर तात्कालिक मगध सम्राट् नन्द का नाश कर उसके स्थान पर एक साधारण बालक को स्वयं शिक्षित कर राज सिंहासन पर बिठाया।

चाणक्य न तो कोई धनवान थे और न उनका कोई सम्बन्ध किसी राजनीतिक सूत्रधार से था। वे केवल एक साधारण तम व्यक्ति—एक गरीब ब्राह्मण थे। बाल्यकाल में चाणक्य में कोई विशेषता न थी। विशेषता थी तो केवल इतनी कि वे अपनी माँ के भक्त, विद्या-व्यसनी तथा संतोषी व्यक्ति थे। वे जो कुछ खाने पहनने को पा जाते उसी में सन्तोष रखकर विद्याध्ययन करते हुये अपनी ममतामयी माता की सेवा किया करते थे।

उनकी मातृ भक्ति, विद्या व्यसन तथा दृढ़ संकल्प की अनेक कथायें प्रसिद्ध हैं। एक बार, जिस समय वे केवल किशोर ही थे, अपनी माँ को एक पुस्तक सुनाते-सुनाते हँस पड़े। माता ने उनकी मुँह की तरफ देखा और रो पड़ी।

चाणक्य को माँ के इस अहैतुक एवं असामयिक रुदन पर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा—”माँ तू इस प्रकार मेरे मुँह की ओर देखकर रो क्यों पड़ी?

माँ ने उत्तर दिया कि “तू बड़ा होकर बड़ा भारी राजा बनेगा और तब अपनी गरीब माँ को भूल जायेगा।”

चाणक्य ने पुनः विस्मय से पूछा—”पर तुझे यह कैसे पता चला कि मैं राजा बनूँगा”।

“तेरे आगे के दो दाँतों में राजा होने के लक्षण हैं, उन्हें ही देखकर मैंने समझ लिया कि तू राजा बनेगा”। माँ ने चाणक्य को बतलाया।

चाणक्य ने माँ की बात सुनी और बाहर जाकर पत्थर से अपने वे दोनों दाँत तोड़ डाले फिर अन्दर आकर माँ से हँसते हुये बोले “ले अब तू निश्चिन्त हो जा, मैंने राज लक्षणों वाले दोनों दाँत तोड़कर फेंक दिया। अब न मैं राजा बनूँगा और न तुझे छोड़कर जाऊँगा।” यह था चाणक्य की ज्वलन्त मातृ भक्ति का प्रमाण।

चाणक्य का परिवार घोर निर्धन था। किन्तु विद्या प्राप्त करने की उन्हें बड़ी इच्छा थी। तक्षशिला उन दिनों देश में बहुत बड़ा विद्या केन्द्र था। माता के न रहने और घरेलू शिक्षा समाप्त करने के बाद चाणक्य पैदल ही तक्षशिला की ओर चल दिये। बिना किसी साधन के ज्ञान पिपासु चाणक्य सैकड़ों मील की पैदल यात्रा करके, मार्ग में मेहनत मजदूरी तथा कन्द, मूल और शाक–पात खाते हुये तक्षशिला जा पहुँचे।

चाणक्य तक्षशिला की विद्यापीठ में पहुँच तो गये किन्तु विद्यालय, भोजन, निवास, वस्त्र, पुस्तक आदि की व्यवस्था किस प्रकार हो? घर से सैकड़ों कोस दूर परदेश में कोई साधारण किशोर हताश होने के सिवाय क्या करता। किन्तु चाणक्य हताश नहीं विद्वान् होने के लिये गये थे, निदान सेवा का सहारा लेकर मार्ग निकाल ही तो लिया।

उन्होंने अनिमंत्रित आचार्यों, अध्यापकों एवं उपाध्यायों की सेवा करनी शुरू कर दी। वे गुरु माताओं के लिये जंगल से लकड़ी ला देते, कुयें से पानी भर देते, बाजार से सौदा ला देते।

आचार्यों के हाथ से पुस्तकें लेकर उसके पीछे-पीछे विद्यालयों तक पहुँचा आते। अध्यापकों को कक्षा में पानी पिला आते, थके हुये उपाध्यायों के शिर में मालिश कर देते।

इस प्रकार चाणक्य ने बिना कहे और बिना कोई परिचय दिये शिक्षकों को अपनी सेवा से इतनी सुविधा पहुँचाई कि उनका ध्यान आकर्षित हुये बिना न रह सका। कुछ समय तो गुरुजन तथा गुरु माताएं चाणक्य को विद्यालय की किसी शाखा का साधारण विद्यार्थी समझकर कोई विशेष ध्यान न देते रहे किन्तु जब उनकी सेवाओं का क्रम इतना बढ़ गया तो वे सोचने लगे कि यह विद्यार्थी जब हर समय सेवा ही में लगा रहता है तब अपना पाठ किस समय पढ़ता होगा? इसी उत्सुकता से प्रेरित एक दिन एक आचार्य ने पूछ ही लिया—”बटुक! तुम बिना समय तो हमारी सेवा में व्यतीत कर देते हो फिर अपना पाठ किस समय याद करते हो?”

चाणक्य ने सजल कंठ से उत्तर दिया कि “भगवन्! मैं विद्यालय का कोई छात्र नहीं हूँ। मगध से यहाँ विद्या प्राप्त करने की आशा से आया था। किन्तु कोई अन्य साधन न होने से गुरुजनों की सेवा को ही अपना साधन बना लिया है। पेट गुरु माताओं की कृपा से भर जाता है, किन्तु आत्मा की भूख तो आप गुरुजनों की कृपा से ही......।” चाणक्य आगे कुछ न कह सके उनका कंठ रुंध गया और नेत्र बहने लगे।

आचार्य का हृदय गदगद हो गया और उन्होंने उसे छाती से लगाकर कहा—”वत्स! तुम्हारी इच्छा की पूर्ति को विधाता भी नहीं रोक सकता। जिसके आचरण में इतना सच्चा सेवा भाव और लक्ष्य के प्रति इतनी गहरी निष्ठा हो उसके लिये संसार में कौन पराया है, कौन सा मार्ग अवरुद्ध है और कौन से साधन दुर्लभ हैं। आज से तू मेरा पुत्र है। घर रहेगा और विद्यालय में पढ़ेगा। इस प्रकार लगनशील चाणक्य ने सेवा के बल पर भाग्य के अवरुद्ध कपाटों को धक्का देकर खोल दिया।

लगभग चौदह वर्ष बाद वैदिक ज्ञान से लेकर राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र एवं अस्त्र-शास्त्र का प्रकाण्ड पाण्डित्य प्राप्त करने के बाद लगभग छब्बीस वर्ष के तरुण चाणक्य ने अपने महान विद्या मंदिर की पावन धूल माथे पर चढ़ाकर और गुरुजनों से आज्ञा लेकर तक्षशिला से विदा ली-इसलिये कि अब वे मगध जाकर अपनी जन्मभूमि में विद्या प्रचार करेंगे और महाराज नन्द के शासन में सुधार करवाने का प्रयत्न करेंगे जिसकी उसको उस समय नितान्त आवश्यकता थी।

तक्षशिला से आकर चाणक्य ने पाटलिपुत्र में एक साधारण विद्यालय की स्थापना की, जिसमें वे विद्यार्थियों को निःशुल्क शिक्षा देते थे। अपनी जीविका की व्यवस्था उन्होंने पिता की उस खेती से कर ली थी जिसे वे बटाई पर उठाया करते थे। चाणक्य की योग्यता ने शीघ्र ही उन्हें प्रकाश में लाकर लोक प्रिय बना दिया।

जनता में संपर्क स्थापित हो जाने पर वे उसके दुःख सुख में साझीदार होने लगे। चाणक्य ने अपने प्रवचनों एवं प्रचार से शीघ्र ही जनमानस में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता ला दी जिससे स्थान स्थान पर घननन्द की आलोचना होने लगी और जनता का असंतोष एक आन्दोलन का रूप लेने लगा।

घननन्द को जब इन सब बातों का पता चला तो उसने जनता का विक्षोभ दूर करने और उसे अपने पक्ष में लाने के लिये अनेक दानशालायें खुलवा दीं जिनके द्वारा चाटुकार और राज समर्थक लोगों को रिश्वत की तरह अन्न, वस्त्र तथा धन का वितरण किया जाने लगा। घननन्द की इस नीति का भी कोई अच्छा प्रभाव जनता पर न पड़ा। पहले जहाँ लोग उसके शोषण से क्षुब्ध थे वहाँ अब धन के दुरुपयोग से अप्रसन्न रहने लगे।

चाणक्य नन्द की कपट नीति के विरुद्ध खुला प्रचार करने लगे। समाचार पाकर घननन्द ने चाणक्य को वश में करने के लिये दानशालाओं की प्रबन्धक समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया।

चाणक्य ने शासन सुधार की इच्छा से वह पद स्वीकार कर लिया और सारे धूर्त सदस्यों को समिति से निकाल बाहर किया। अनियंत्रित दान को नियंत्रित करके दान पात्रों की योग्यताएं तथा सीमाएं निर्धारित कर दीं।

चाणक्य के इन सुधारों से नन्द की मूर्खता से पलने वाले धूर्त उनके विरुद्ध हो गये उसको नीचा दिखलाने के लिए तरह-तरह के षड़यंत्र करते हुये नन्द के कान भरने लगे। निदान घननन्द ने चाणक्य को एक दिन दरबार में बुलाकर उनकी भर्त्सना की और उन्हें चोटी पकड़कर बाहर निकाल दिया।

चाणक्य को अपना वह अपमान असह्य हो गया और उनका क्रोध पराकाष्ठा पर पहुँच गया। उन्होंने अपनी खुली चोटी को फटकारते हुये प्रतिज्ञा की कि जब तक इस अन्यायी घननन्द को समूल नष्ट करके मगध के सिंहासन पर किसी कुलीन क्षत्रिय को न बिठा दूँगा तब तक अपनी चोटी नहीं बांधूंगा। चाणक्य चले गये और उनकी प्रतिज्ञा पर नन्द के साथ चाटुकार दरबारी हँसते रहे।

नन्द से अपमान पाकर चाणक्य की विचारधारा बदल गई। अभी तक वे शाँतिपूर्ण सुधारवादी थे किन्तु अब घोर क्राँति पूर्ण परिवर्तनवादी हो गये। अब उनके जीवन का एक ही लक्ष्य बन गया, नन्द के निरंकुश शासन का नाश और मगध के राज सिंहासन पर किसी सुयोग्य व्यक्ति की स्थापना।

सबसे पहले चाणक्य ने भारत का एक छत्र सम्राट बनने योग्य किसी उपयुक्त व्यक्ति की खोज शुरू की जिसके फलस्वरूप चक्रवर्ती के लक्षणों से युक्त उन्होंने एक दासी-पुत्र प्रतिभावान चन्द्रगुप्त मौर्य को खोज निकाला। चन्द्रगुप्त लगभग सत्तर वर्ष का एक सुयोग्य, प्रतिभावान, सूक्ष्म दृष्टि एवं दूरदर्शी किशोर था। उसका सुगठित शरीर एवं व्युत्पन्नमति मस्तिष्क शासन एवं शस्त्र संचालन के सर्वथा योग्य था।

चाणक्य ने तक्षशिला ले जाकर चन्द्रगुप्त का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने लगभग दस वर्ष तक चन्द्रगुप्त को शास्त्र, शस्त्र तथा राजनीति की शिक्षा स्वयं दी। राजनीति के क्षेत्र में गुप्तचर से लेकर सम्राट और शस्त्र के क्षेत्र में सिपाही से लेकर सेनापति तक की दक्षताओं, क्षमताओं एवं योग्यताओं को विकसित कर चाणक्य चन्द्रगुप्त को लेकर पुनः देशाटन पर चल दिये।

चाणक्य ने अपने अनवरत प्रयत्न से भारत के पश्चिमी प्रान्तों के बहुत से राजाओं को संगठित करने के साथ चन्द्रगुप्त के लिये भी एक स्वतन्त्र सेना का निर्माण कर दिया। इस प्रकार चन्द्रगुप्त की शक्ति बढ़ाकर चाणक्य ने भारत की राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप करना प्रारम्भ किया। सबसे पहले उन्होंने पंजाब के संगठित राजाओं को सहयोगी बनाकर चन्द्रगुप्त को यूनानियों को भगाने का काम सौंपा। साहसी चन्द्रगुप्त ने यूनानियों को युद्ध में हराकर भारत के पराधीन भू भाग को स्वतन्त्र कर लिया।

चन्द्रगुप्त की इस महान विजय ने उसे भारत के राजाओं के बीच इतना लोकप्रिय बना दिया कि वे उसे अपना नेता और चाणक्य को राजनीतिक गुरु मानने लगे।

अनन्तर चाणक्य ने बहुत से राजाओं का आपसी मतभेद तथा विद्वेष अपनी कुशल बुद्धि तथा सूक्ष्म राजनीति के बल पर मिटा, उन्हें चन्द्रगुप्त के झन्डे के नीचे खड़ा कर दिया। इस प्रकार विदेशियों को भगाने के बाद चन्द्रगुप्त पंजाब तथा सीमान्त प्रदेशों के राजाओं की संगठित शक्ति का अगुआ बनकर चाणक्य की देखरेख में मगध की ओर चल पड़ा।

यूनानियों को देश से निकाल बाहर करने से चन्द्रगुप्त तथा गधर कौन सा मार्ग अवरुद्ध है,चाणक्य का यश पूरे भारत में फैल चुका था जिसके फलस्वरूप मगध तक पहुँचने में मार्ग में पड़े अधिकाँश राजाओं ने न केवल चन्द्रगुप्त का स्वागत ही किया बल्कि उसे भावी भारत सम्राट मानकर उसके झन्डे के नीचे आ गये।

मगध सम्राट घननन्द अपने विलास तथा अन्य दुर्गुणों के कारण अन्दर और बाहर से पूरी तरह जर्जर हो चुका था। जनता तो उससे पहले ही रुष्ट थी। अतएव बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी वह चन्द्रगुप्त को न रोक सका और अन्त में सवंश चन्द्रगुप्त के हाथों मारा जाकर सदा के लिए नष्ट हो गया।

चाणक्य ने विधिवत् अपने हाथ से चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्राट पद पर अभिषिक्त करके सन्तोषपूर्वक अपनी चोटी बाँधते हुये कहा—

कोई साधन न होने पर भी मेरी प्रतिज्ञा पूरी हुई, राष्ट्र विदेशी प्रभाव से मुक्त हुआ और देश में एक छात्र साम्राज्य की स्थापना हुई। किस प्रकार? केवल एक श्रेष्ठ कर्तव्य-शीलता, आत्म-विश्वास, अविरत प्रयत्न तथा अन्य के पक्ष में रहने के बल पर। चन्द्रगुप्त! जब तक तुममें न्याय, सत्य, आत्मविश्वास, साहस एवं उद्योग के गुण सुरक्षित रहेंगे, तुम और तुम्हारी सन्तानें इस पद पर बनी रहेंगी और यदि तुम और तुम्हारी संतानें इन गुणों से विरत हुई तो पतन का उत्तरदायित्व देश, काल अथवा परिस्थितियों पर नहीं तुम पर और तुम्हारी सन्तानों पर होगा।

How Britain stole $45 trillion from India and lied about it






How Britain stole $45 trillion from India and lied about it

by Jason Hickel

There is a story that is commonly told in Britain that the colonisation of India - as horrible as it may have been - was not of any major economic benefit to Britain itself. If anything, the administration of India was a cost to Britain. So the fact that the empire was sustained for so long - the story goes - was a gesture of Britain's benevolence.
New research by the renowned economist Utsa Patnaik - just published by Columbia University Press - deals a crushing blow to this narrative. Drawing on nearly two centuries of detailed data on tax and trade, Patnaik calculated that Britain drained a total of nearly $45 trillion from India during the period 1765 to 1938.
It's a staggering sum. For perspective, $45 trillion is 17 times more than the total annual gross domestic product of the United Kingdom today.
How did this come about?
It happened through the trade system. Prior to the colonial period, Britain bought goods like textiles and rice from Indian producers and paid for them in the normal way - mostly with silver - as they did with any other country. But something changed in 1765, shortly after the East India Company took control of the subcontinent and established a monopoly over Indian trade.
Here's how it worked. The East India Company began collecting taxes in India, and then cleverly used a portion of those revenues (about a third) to fund the purchase of Indian goods for British use. In other words, instead of paying for Indian goods out of their own pocket, British traders acquired them for free, "buying" from peasants and weavers using money that had just been taken from them.
It was a scam - theft on a grand scale. Yet most Indians were unaware of what was going on because the agent who collected the taxes was not the same as the one who showed up to buy their goods. Had it been the same person, they surely would have smelled a rat.
Some of the stolen goods were consumed in Britain, and the rest were re-exported elsewhere. The re-export system allowed Britain to finance a flow of imports from Europe, including strategic materials like iron, tar and timber, which were essential to Britain's industrialisation. Indeed, the Industrial Revolution depended in large part on this systematic theft from India.
On top of this, the British were able to sell the stolen goods to other countries for much more than they "bought" them for in the first place, pocketing not only 100 percent of the original value of the goods but also the markup.
After the British Raj took over in 1858, colonisers added a special new twist to the tax-and-buy system. As the East India Company's monopoly broke down, Indian producers were allowed to export their goods directly to other countries. But Britain made sure that the payments for those goods nonetheless ended up in London.
How did this work? Basically, anyone who wanted to buy goods from India would do so using special Council Bills - a unique paper currency issued only by the British Crown. And the only way to get those bills was to buy them from London with gold or silver. So traders would pay London in gold to get the bills, and then use the bills to pay Indian producers. When Indians cashed the bills in at the local colonial office, they were "paid" in rupees out of tax revenues - money that had just been collected from them. So, once again, they were not in fact paid at all; they were defrauded.
Meanwhile, London ended up with all of the gold and silver that should have gone directly to the Indians in exchange for their exports.
This corrupt system meant that even while India was running an impressive trade surplus with the rest of the world - a surplus that lasted for three decades in the early 20th century - it showed up as a deficit in the national accounts because the real income from India's exports was appropriated in its entirety by Britain.
Some point to this fictional "deficit" as evidence that India was a liability to Britain. But exactly the opposite is true. Britain intercepted enormous quantities of income that rightly belonged to Indian producers. India was the goose that laid the golden egg. Meanwhile, the "deficit" meant that India had no option but to borrow from Britain to finance its imports. So the entire Indian population was forced into completely unnecessary debt to their colonial overlords, further cementing British control.
Britain used the windfall from this fraudulent system to fuel the engines of imperial violence - funding the invasion of China in the 1840s and the suppression of the Indian Rebellion in 1857. And this was on top of what the Crown took directly from Indian taxpayers to pay for its wars. As Patnaik points out, "the cost of all Britain's wars of conquest outside Indian borders were charged always wholly or mainly to Indian revenues."
And that's not all. Britain used this flow of tribute from India to finance the expansion of capitalism in Europe and regions of European settlement, like Canada and Australia. So not only the industrialisation of Britain but also the industrialisation of much of the Western world was facilitated by extraction from the colonies.
Patnaik identifies four distinct economic periods in colonial India from 1765 to 1938, calculates the extraction for each, and then compounds at a modest rate of interest (about 5 percent, which is lower than the market rate) from the middle of each period to the present. Adding it all up, she finds that the total drain amounts to $44.6 trillion. This figure is conservative, she says, and does not include the debts that Britain imposed on India during the Raj.
These are eye-watering sums. But the true costs of this drain cannot be calculated. If India had been able to invest its own tax revenues and foreign exchange earnings in development - as Japan did - there's no telling how history might have turned out differently. India could very well have become an economic powerhouse. Centuries of poverty and suffering could have been prevented.
All of this is a sobering antidote to the rosy narrative promoted by certain powerful voices in Britain. The conservative historian Niall Ferguson has claimed that British rule helped "develop" India. While he was prime minister, David Cameron asserted that British rule was a net help to India.
This narrative has found considerable traction in the popular imagination: according to a 2014 YouGov poll, 50 percent of people in Britain believe that colonialism was beneficial to the colonies.
Yet during the entire 200-year history of British rule in India, there was almost no increase in per capita income. In fact, during the last half of the 19th century - the heyday of British intervention - income in India collapsed by half. The average life expectancy of Indians dropped by a fifth from 1870 to 1920. Tens of millions died needlessly of policy-induced famine.
Britain didn't develop India. Quite the contrary - as Patnaik's work makes clear - India developed Britain.
What does this require of Britain today? An apology? Absolutely. Reparations? Perhaps - although there is not enough money in all of Britain to cover the sums that Patnaik identifies. In the meantime, we can start by setting the story straight. We need to recognise that Britain retained control of India not out of benevolence but for the sake of plunder and that Britain's industrial rise didn't emerge sui generis from the steam engine and strong institutions, as our schoolbooks would have it, but depended on violent theft from other lands and other peoples.

Sunday, December 16, 2018

Ram Prasad Bismil: A great Martyr



Ram Prasad Bismil: A great Martyr
Dr. Vivek Arya
[Published on the occasion of Death Anniversary on 19th December]
Ram Prasad Bismil was a freedom fighter, patriot, role model, born leader, philosopher, poet, a reformer and an ardent follower of Swami Dayanand who life was dedicated towards freedom of Motherland. His illustrative contributions to the freedom movement were noted in the Mainpuri Conspiracy of 1918, and the Kakori conspiracy of 1925 against the British rule. His love for motherland, patriotism and revolutionary kind of national spirit were kindled and he started an organization where he had got the incredible chance of leading a team with great freedom fighters including Chandrashekhar Azad, Sukhdev, Bhagat Singh, Ashfaqulla Khan, Govind Prasad, Rajguru, Bhagawati Charan, Premkishan Khanna, Thakur Roshan Singh and Rai Ram Narain.
His early childhood suffered in the hands of poverty. He had to quit his studies to support his family. Later he started visiting Aryasamaj and met Swami Somdev. Swami Somdev inspired him to read Satyarth Prakash, a revolutionary book authored by Swami Dayananda, the founder of Aryasamaj. Ram Prasad influenced by its teachings started practicing strict celibacy as well as controlled diet. He started performing daily Agnihotra and Sandhya. His disciplined life and exercise schedule transformed him into an impressive athlete with great stamina. This was not his stop. He went ahead with his oratory skills and pen. He assumed his pen name as “Bismil” and authored patriotic poems in Urdu/Hindi and many books. His nationalist poems inspired many. The main inspiration that made him pen his poems were his incomparable love for India, revolutionary spirit and a burning zeal to free India from the foreign rule. He was ever ready to lay down his very life in the altar of the freedom struggle. “Sarfaroshi ki Tamanna” the most famous poem of Indian Freedom was authored by Bismil. Bismil authored his Autobiography while waiting for his hanging sentence in Jail. This is considered one of the finest works in Hindi literature. The autobiography of Ram Prasad Bismil was published under the cover title of Kakori ke shaheed by Ganesh Shankar Vidyarthi in 1928 from Pratap Press, Kanpur. A rough translation of this book was got prepared by the Criminal Investigation Department of United Province in British India. Translated book was circulated as confidential document for official and police use throughout the country.
In jail he came up with song “Mera rang de basanti chola.” It became one of the most iconic songs of the pre-Independence era. His other notable literary contributions are Bolshevikon Ki Kartoot: A revolutionary noble on Bolshevism, A Sally of the Mind (Man Ki Lahar), Swadeshi Rang, Swadhinta ki devi: Catherine,  ( A message to my countrymen).
He came across Ashfaqullah Khan and both of them became intimate friends despite hailing from different communities. Later in his autobiography, Bismil devotes a huge segment to discuss the friendship he had with Ashfaqullah. In fact, both of them were tried and hanged in different jails on the same day for the same conspiracy.
Together with Ashfaqullah Khan and six others, Ram Prasad Bismil looted the government treasury box that was moved in Saharanpur-Lucknow passenger on 9 August 1925. This brave incident nearly stunned the British government that viewed them as a great threat to their peaceful existence in the subcontinent. It created a great upheaval in British India. The retribution was severe when more than 40 revolutionaries were arrested from all over India. Ram Prasad Bismil defended his case himself and refused to take any help from the Government. In an 18-month long drawn case, Ram Prasad Bismil, Ashfaqullah Khan, Thakur Roshan Singh and Rajendra Nath Lahiri were sentenced to death under section 121(A), 120(B), 302 and 396 of Indian Penal Code.
On 19 December 1927 Bismil woke up at 3.30 a.m. as usual in the morning, did his formal duties of daily routine, meditated for half an hour, bore new dhoti-kurta and sat in the waiting of his long awaited beloved death. At the appropriate time the Magistrate came along with the jailer, unlocked the condemned cell and asked Bismil to get ready. The Magistrate was astonished to see him smiling. Bismil rose up immediately and said - "Let us move!"
He went cheerfully up to the gallows saying his last good bye to whosoever met in the way. He stood up at the altar of gallows, kissed the noose and spoke very loudly his last wish - "I wish the downfall of British Empire!" Then he whispered the Vedic prayer "Om vishvaani dev savitur duritaani paraasuv, yad bhadram tann aasuv." (O God of all creature! let the ill will be removed and the good prevail in our souls.) And put the noose around his neck like a garland.
The hangman pulled the lever of gallows and the body of Bismil hanged in the open air. For half an hour he was kept hanging to safeguard the certainty of death. In this way a daredevil son of Mother India departed for the common cause of every Indian's freedom.
Looking into the huge rush at the main gate of the jail authorities broke open the wall in front of gallows, the dead body was brought out and handed over to his parents Murlidhar and Moolmati. A huge rush of about 1.5 lakh people had gathered from all over the country. They took the dead body of Ram Prasad and carried it to the bank of Rapti under a grand procession.
The dead body of Bismil was kept at Ghantaghar of Gorakhpur for the last view of the public in the City. From there it was taken to the Rapti River where the last funeral of this great martyr was performed under the proper Vedic Cremation System on the bank of the river.
Bhagat Singh in January, 1929 wrote an article on Kakori in magazine ‘Kirti’ under the pseudonym name ‘Vidrohi’. This article included a concluding letter from Bismil. The letter is as follows:
“I am very happy. I am ready for what is going to happen on the morning of December 19. God will grant me enough strength. It is my belief that I will be born again to serve the people. Please convey my regards to all. Kindly also convey on my behalf my last Namaskar to Pandit Jagat Narain (the government advocate who tried hard to see that Bismil was awarded a death sentence.) Let him get a sleep soundly with the money stained with our Blood. May God grant him good sense in his old age?”
Interestingly, few know that realizing that he’ll never see independent India during his life, Bismil had penned a poem, wishing to be reborn to serve his motherland again. His poetry is a lamp lighted at the altar of the motherland.”
Here’s the full text of Ram Prasad Bismil’s iconic poem,
Sarfaroshi Ki Tamanna:
Sarfaroshi ki tamanna ab hamaare dil mein hai
Dekhna hai zor kitna baazu-e-qaatil mein hai
Karta nahin kyun doosra kuch baat-cheet
Dekhta hun main jise woh chup teri mehfil mein hai
Aye shaheed-e-mulk-o-millat main tere oopar nisaar
Ab teri himmat ka charcha ghair ki mehfil mein hai
Sarfaroshi ki tamanna ab hamaare dil mein hai
Waqt aanay dey bata denge tujhe aye aasman
Hum abhi se kya batayen kya hamare dil mein hai
Khainch kar layee hai sab ko qatl hone ki ummeed
Aashiqon ka aaj jumghat koocha-e-qaatil mein hai
Sarfaroshi ki tamanna ab hamaare dil mein hai
Hai liye hathiyaar dushman taak mein baitha udhar
Aur hum taiyyaar hain seena liye apna idhar
Khoon se khelenge holi gar vatan muskhil mein hai
Sarfaroshi ki tamanna ab hamaare dil mein hai
Haath jin mein ho junoon katt te nahi talvaar se
Sar jo uth jaate hain voh jhukte nahi lalkaar se
Aur bhadkega jo shola-sa humaare dil mein hai
Sarfaroshi ki tamanna ab hamaare dil mein hai
Hum to ghar se nikle hi the baandhkar sar pe kafan
Jaan hatheli par liye lo barh chale hain ye qadam
Zindagi to apni mehmaan maut ki mehfil mein hai
Sarfaroshi ki tamanna ab hamaare dil mein hai
Yuun khadaa maqtal mein qaatil kah rahaa hai baar baar
Kya tamannaa-e-shahaadat bhi kisee ke dil mein hai
Dil mein tuufaanon ki toli aur nason mein inqilaab
Hosh dushman ke udaa denge humein roko na aaj
Duur reh paaye jo humse dam kahaan manzil mein hai
Wo jism bhi kya jism hai jismein na ho khoon-e-junoon
Kya lade toofaanon se jo kashti-e-saahil mein hai
Sarfaroshi ki tamanna ab hamaare dil mein hai.
Dekhna hai zor kitna baazuay qaatil mein hai