Wednesday, March 31, 2021

देश विभाजन और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी

 



देश विभाजन और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी 


#डॉ_विवेक_आर्य 


देशवासी प्रायः यह सोचते हैं कि देश विभाजन का कार्य जिन्ना ने किया। मगर बहुत कम को ज्ञात हैं कि मुसलमानों को राष्ट्रविरोधी बनाने में अलीगढ मुस्लिम का हाथ रहा है। इसके संस्थापक सर सैय्यद अहमद खान ने लिखा था कि-मैं किसी भी रूप में हिंदुस्तान को एक राष्ट्र मानने को तैयार नहीं हूँ।  


अपनी इस मान्यता का प्रचार व प्रसार करने के लिए सर सैय्यद अहमद खां ने 1857 में मुहम्मद-एंग्लो-ओरिएण्टल-कॉलेज की स्थापना की जिसने 1920 में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का रूप धारण किया। 1883 में बैंक नमक एक अंग्रेज की नियुक्ति इस कॉलेज के प्रिंसिपल के पद पर हुई। 1899 तक यह व्यक्ति अपने पद पर रहा। इन 16 वर्षों की अवधि में सर सैय्यद इसके पूरी तरह प्रभाव में रहे। परिणाम ये दोनों राष्ट्र विरोधी गतिविधियों का केंद्र बन गये। बैंक ने इंग्लैंड से भारत रवाना होने से पूर्व एक भाषण दिया जिसमें उसने बोला था कि-


भारत के मुसलमान हिन्दुओं के दवाब में है। वहां के मुसलमान इसका विरोध करते हैं और इसलिए वो इसे चुप रहकर स्वीकार नहीं करेंगे।   


1885 में कांग्रेस की स्थापना के 3 वर्ष बाद बैंक की सलाह पर सैय्यद अहमद ने Patriotic Association के नाम से एक संगठन बनाया जिसका उद्देश्य  पार्लियामेंट को यह विश्वास दिलाना था कि भारत के मुसलमान स्वराज्य आदि के संघर्ष में हिन्दुओं के साथ नहीं हैं। 1899 में इंग्लैंड की संसद में सर चार्ल्स ब्रैडला ने भारत में अंशत: लोकतंत्रात्मक शासन पद्यति लागू करने के लिए पार्लियामेंट में एक बिल प्रस्तुत किया। बैंक ने इस बिल का विरोध करने के लिए अलीगढ़ कॉलेज के विद्यार्थियों को देश के कौने-कौने में भेजा और मुसलमानों के हस्ताक्षर कराये। कुछ विद्यार्थियों को लेकर वह स्वयं दिल्ली पहुँचा और जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठ गया। ज़ुम्मे की नमाज़ से लौटते मुसलमानों से इस ज्ञापन पर यह कहकर हस्ताक्षर करवाये कि यह ज्ञापन मुसलमानों की ओर से सरकार से यह अनुरोध किया गया है कि वह गौहत्या पर रोक लगाकर मुसलमानों के धार्मिक अधिकारों में हस्तक्षेप न करे। इस प्रकार बिल के विरोध में 

20375 मुसलमानों हस्ताक्षर कराके इंग्लैंड भेजें गये। 


1895 में बैंक ने इंग्लैंड में एक भाषा दिया था जिसमें उसने कहा था-अंग्रेजों के साथ तो मुसलमानों का मेल हो सकता है, परन्तु अन्य किसी मत वाले के साथ नहीं। 


इस प्रकार की भावना के रहते सांप्रदायिक सद्भाव तथा देशभक्ति का ख्याल भी मुसलमानों के भीतर कैसे ठहर सकता था। अहमद खान और बैंक के निधन के बाद उसके उत्तराधिकारी थियोडोर मेरीसन ने बैंक का काम जारी रखा। उसने मुस्लिम छात्रों को यह कहकर भड़काया कि भारत में लोकतंत्र का अर्थ होगा-अल्पसंख्यकों का लकड़हारे, घसियारे और पानी भरने वाले झींवर बन जाना। उसके बाद प्रिंसिपल पद पर आर्चिवाल्ड नामक अंग्रेज आया। उन दिनों बंग विभाजन की धूम थी। यह अंग्रेज शिमला जाकर वाइसराय से मुसलमानों को विशेष प्रतिनिधित्व देने की अपील करता है। उसके द्वारा तैयार किये गए ज्ञापन को लेकर सर आगा खान के नेतृत्व में 1 अक्टूबर 1906 को एक शिष्ट मण्डल वाइसराय से इसके लिए मिला। अंग्रेज पहले से तैयार थे। वाइसराय की पत्नी लेडी मिण्टो को एक अधिकारी ने लिखा कि- इस प्रकार 6 करोड़ मुसलमानों को राष्ट्र मुख्य धारा से काटकर उन्हें हिन्दू और हिंदुस्तान दोनों का विरोधी बना दिया गया। लेडी मिण्टो ने अपनी डायरी में लिखा कि- इस प्रकार के खादपानी से साम्प्रदायिकता का विषवृक्ष फलता-फूलता रहा। बहुत जल्दी इसकी शाखा प्रशाखा दूर तक फैल गयी। 3 महीने बाद 30 दिसंबर 1906 को ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना के 3 महीने बाद ही अलीगढ के विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए वकारुल मालिक ने कहा-


साम्प्रदायिकता से विषाक्त अलीगढ कॉलेज की नींव पर ही अलीगढ़ यूनिवर्सिटी खड़ी हुई। अलीगढ़ यूनिवर्सिटी की एक-एक ईंट, वहां के पेड़-पौधों की एक-एक पत्ती में इतना विष भरा है कि उसे जड़ मूल से उखाड़े बिना सांप्रदायिक विद्वेष की भावना को दूर नहीं किया जा सकता। इस्लाम के नाम पर मुसलमानों को राष्ट्रविरोधी बनाने में अलीगढ़ यूनिवर्सिटी का बड़ा हाथ रहा है। अपनी परम्पराओं के अनुरूप यहाँ से शिक्षित दीक्षित मुसलमानों ने 1920-1947 तक जजों कुछ किया उसी के परिणाम स्वरूप 1947 में बंटवारा हुआ। 


मार्च 1947 में वाइसराय बनकर भारत आये माउंट बेटन आने से पहले भारत के धुर विरोधी चर्चिल से मिला। 


 ने उससे कहा-मुझे खेद है कि तुमको भारत को स्वतंत्रता देनी पड़ रही है। मैं यह नहीं कहूंगा कि कैसे देनी है। पर यह अवश्य कहूंगा कि किसी भी मुसलमान का बाल भी बांका नहीं होना चाहिये। ये  ये वो लोग हैं, जो हमारे मित्र है। और ये वो है जिन्हें हिन्दू अब दबा कर रखेगा। इसलिए आपको ऐसे कदम उठाने चाहिए कि हिन्दू ऐसा न कर सकें। 


चर्चिल की सलाह पर भारत का ऐसा विभाजन हुआ कि मुसलमानों को पाकिस्तान के रूप में एक स्वतंत्र देश मिल गया भारत पर उनका पूर्ण अधिकार ज्यों का त्यों बना रह गया। यही हिन्दू मुस्लिम समस्या आज भी ऐसी ही बनी हुई है। आज भी भारत के अधिकांश मुसलमानों के मन में पाकिस्तान के प्रति जो प्यार है।  वो भारत के लिये नहीं है। स्वर्गीय बलराज मधोक ने इंदिरा गाँधी को कभी सलाह दी थी कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का डीएवी कॉलेज, लाहौर से बदल देना चाहिये ताकि यह विष वृक्ष सदा के लिए उखड़ जाये। पर इंदिरा गाँधी ने तुष्टिकरण के चलते उनकी सलाह पर ध्यान नहीं दिया।  

      


पाठकों को अंत में एक ही बात कहकर लेख को विराम दूंगा- जिस कौम ने अपने इतिहास से नहीं सीखा। उसका वर्तमान ही नहीं भविष्य भी अंधकारमय होने वाला है। 


[सन्दर्भ ग्रन्थ-स्वामी विद्यानन्द सरस्वती अभिनन्दन ग्रन्थ, डॉ रघुबीर वेदालंकार (संपादक), श्री सत्य सनातन वेद मंदिर, दिल्ली,1995, पृ. 49-52]  


Tuesday, March 30, 2021

पंडित लेखराम जी के अमृत विचार




 पंडित लेखराम जी के अमृत विचार 


#डॉ_विवेक_आर्य 



आर्यसमाज के अमर बलिदानी पं लेखराम अपने विपक्षी पक्ष को अपनी बुद्धिमत्ता से निरुत्तर कर देते थे। उनकी पुस्तक 'तकज़ीब बुराहिन अहमदिया' अर्थात अहमदी युक्तियों का खंडन जो उन्होंने मिर्जा गुलाम अहमद की आर्यसमाज के विरोध में लिखी गई पुस्तक का प्रति उत्तर था। इस पुस्तक में पंडित जी ने मिर्जा द्वारा उठाये गए आक्षेपों का बहुत खूबी से समाधान किया था। यह पुस्तक मूलतः उर्दू में प्रकाशित हुई थी। इसका हिंदी में अनुवाद मास्टर श्री लक्ष्मण जी आर्योपदेशक ने किया था। पाठकों के ज्ञान अर्जन हेतु इस कालयजी पुस्तक में से कुछ समाधान प्रस्तुत है। 


1. एक दिन कादियान में मिर्जा साहिब के मकान पर पं जी  आर्यसमाज के अन्य सदस्यों के साथ पहुंच गए। प्रकरण  भविष्यवाणी का था।  पं जी ने मिर्जा को खुली चुनौती दी कि वो कादियान में एक वर्ष तक रहेंगे। मिर्जा इस दौरान अपने दावे के अनुसार चमत्कार दिखाकर अपने दावे को सिद्ध करे। इसी दौरान बातचीत करते हुए 'ख्वारीके आदात्' शब्द की व्याख्या होने लगी। पं जी ने कहा की इसका अर्थ स्वाभाव को तोड़ने को कहते हैं। चाकू में काटने का स्वभाव है, और आग में जलाने का, वृक्ष में अचलता और मनुष्य में  चलने का स्वभाव है  इत्यादि। आप यदि उन स्वभावों को ईश्वर की बरकत से तोड़ दें तब मैं मुसलमान हो जाऊँगा। अन्यथा आप आर्य हो जावें और मिथ्या प्रतिज्ञाओं से हट जावें। मिर्जा ने दावा किया कि क़ुरानी परिभाषा में इस शब्द के यह अर्थ नहीं हैं। लेखक ने कहा कि यह शब्द ही क़ुरान में नहीं है अन्यथा दिखाओ कहाँ है। मिर्जा अपनी बात पर अडिग रहे। पं जी ने अपने थैले से क़ुरान निकाल कर उसी समय सामने रख दिया और कहा कि खुदा के वास्ते निकालिये। मिर्जा कुछ देर तक पन्ने पलटता रहा पर वह शब्द क़ुरान में नहीं मिला। मरता क्या न करता।  मिर्जा ने बोला मैं अपनी प्रतिज्ञा वापिस लेता हूँ। पं जी के पांडित्य का इस प्रकरण से हमें पता चलता है। 


2. मिर्जा गुलाम अहमद ने वेदों के ईश्वर पर आक्षेप लगाया कि इस्लाम का अल्लाह दुनिया में छा रहे अंधेरों को बार बार दूर करने के लिए इलहाम (ईश्वरीय वाणी) भेज देता है।  जबकि वेद का ईश्वर एक ही बार ज्ञान प्रकट करके कुछ ऐसा सोया कि फिर ना जागा। कुछ ऐसा खिसका कि फिर ना आया। उसके पास जो ज्ञान था वो वेदों पर ही खर्च कर दिया। फिर हमेशा के लिए खाली हाथ हो गया। इससे तो वेद का ईश्वर अशक्त सिद्ध हुआ। 


पं जी ने मिर्जा के आक्षेप का उतर देते हुए लिखा कि  परमात्मा शुद्ध और एकरस है। उसी प्रकार से उनका दिया हुआ ज्ञान भी शुद्ध और परिवर्तन रहित होना चाहिए। न कि त्रुटिपूर्ण और परिवर्तनशील। पूर्ण और शुद्ध को बदलने की आवश्यकता होती है। अपूर्ण और दोषयुक्त का पूर्ण और सर्वज्ञ से प्रकट होना असंभव है। सृष्टि के आदि काल में चार ऋषियों से लेकर श्री राम , श्री कृष्ण से लेकर मूसा, मसीह के समय से लेकर वह ज्ञान आज भी वही है। सूर्य सदा विद्यमान रहता है, मगर आंखें खोलना और पक्षपात या आवरण रहित होकर देखना और विचार करना तथा लाभ उठाना योग्यता पर निर्भर है। 

   जो आक्षेप तुमने वेद पर लगाया है वो क़ुरान पर भी लागु होता है। क़ुरान के खुदा के पास जो ज्ञान की पूंजी थी।  वह क़ुरान में बाँट चूका। और फिर कयामत अर्थात प्रलय तक खाली रह गया और उसके मुख पर मुहर लग गई। मुहम्मद के पश्चात किसी रसूल को भेजने की उसमें शक्ति न रही।  परिवर्तन की आवश्यकता भूल में होती है और बढ़ाने की आवश्यकता अपूर्ण में, जहाँ अशुद्धि हो वहां से दूर रहना पड़ता है और जहाँ भूल हो वहां से सावधान होना। फिर इलहाम के बारबार परस्पर विरुद्ध और अपूर्ण भेजने की क्या आवश्यकता थी? यह ईश्वरीय नियम है या सरकार के नियम। पर ऐसा प्रतीत होता है कि बार बार इलहाम भेजने से आपको इलहामी (ईश्वर द्वारा प्रेरित), मुजदद (सुधारक), मसीह सानी (ईश्वर दूत), मुरशिद (पीर), छोटा नबी आदि कौन कहे और चढ़ावे किस को चढ़े। 


 3. मिर्जा ने वेदों के तीन या चार होने पर पंडितों के ऐसा कथन होने का आक्षेप किया।  तो पं जी ने बड़ी विद्वता से उसका उत्तर दिया।  पं जी लिखते है कि पंडित चार प्रकार के  होते हैं-


1) वह अनपढ़ पंडित जो शनिवार को तेल एकत्र कर लोगों को लुटता है और खुद मौज करता है।  ये लोग मूर्खों के समाने पंडित है और किसी भी दशा में विश्वास के योग्य नहीं है। 


2) ब्राह्मणों के वो बेटे-पोते जिनके बाप दादा किसी समय पूर्ण विद्वान थे। कितनी खुद नौकरी, दुकानदारी आदि कार्य करते है पर संस्कृत से शून्य हैं। इनके पूर्वजों के कारण मुर्ख लोग इनको पंडित समझते है जो सर्वथा भूल और अज्ञान है। इनका प्रयोग कोई भी धन आदि प्रलोभन देकर अपने पक्ष में साक्षी के लिए करता हैं।  जैसे मिर्जा साहिब संस्कृत से अनभिज्ञ ऐसे लोगों की गवाही की ओर संकेत करते है। मिर्जा ऐसे लोगों से अपने आपको कादियानी परमेश्वर सिद्ध करने में लगे है। 


3) वे लोग जो विद्या की योग्यता तो रखते हैं, किन्तु उदर पूर्ति के लिए गलत पक्ष का साथ देते हैं। पंडित होने पर भी महामूर्ख के काम करते हैं।  जैसे अकबर के समय  पंडितों ने धन लेकर 'अकबर सहस्त्र नाम' और 'अल्लोपनिषद' या 'अल्लाह सूक्त' रचकर अकबर को पैगम्बरी की बधाई पहुंचाई थी। अँधा पिसे धोये धान की कहावत को चरित्रार्थ करते हुए बादशाह हुए उसके खुशामदी वजीरों ने इन्हें मालामाल कर दिया। अकबर के समय यह कलमा भी बनाया गया था कि लाइला इल्लिल्लाह अकबर ख़लीफ़तुल्लाह।  सलाम अलेकुम के स्थान पर अल्लाह अकबर तथा जल्ल जलालहु प्रचलित किया गया। 


4) वे लोग हैं, जो ज्ञान और महत्व से पूर्ण, सच्चाई और सत्य भाषण में अद्वितीय हैं।  लोभ और लालच से परे ईर्ष्या और द्वेष से किनारे, जुठ से घृणा करने वाले और सत्य से प्रेम रखने वाले हो। सत्य शास्त्रों में इन्हीं को पंडित बताया गया है। जिसको आत्मज्ञान आलस्य से रहित हो, सुख-दुःख, मान-अपमान, लाभ हानि, स्तुति निंदा, हर्ष-शोक कभी न करे। धर्म में ही नित्य निश्चित रहे। जिस के मन को विषय सम्बन्धित वस्तु खींच न सके। वह पंडित कहलाता है। 



4. मिर्जा ने आक्षेप किया कि आज वेद संसार में कहाँ प्रचलित है? वेद के नाम पर तो जड़ पूजा जैसे मूर्तिपूजा, गृह पूजा, सूर्य आदि की पूजा आदि बहुदेवता पूजा नजर आती हैं। सारा हिन्दू समाज इसी में डूबा हुआ है। 


पं जी ने उत्तर दिया कि वेदों से समस्त संसार में एकेश्वरवाद फैला। जो मिर्जा ने आक्षेप किये है वः वेद की शिक्षा न होने का परिणाम हैं और वेद विरुद्ध चलने के कारण। हिन्दू मुसलमानों की अपेक्षा की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छे है। मुसलमानों में देखो कहीं कोई मुहम्मद पूजा, अली पूजा, गौस आजम की पूजा, पीर पूजा, कब्र पूजा, सरवरपरस्ती, मदीना परस्ती, काबा परस्ती, करबला परस्ती, तक़लीद परस्ती, किताब परस्ती, संग अस्वद परस्ती, जमजम परस्ती, मुइनुद्दीन परस्ती, ताजियां परस्ती, आदम परस्ती, भूत -जिन्न परस्ती करता दिखता है। सारांश यह है कि मुसलमानों में अज्ञान और अविद्या क़ुरान के होते हुए कहाँ से फैली?  मिर्जा साहिब पहले अपनी चारपाई के नीचे लाठी फेर लो फिर किसी पर उँगली उठाना। 


5. पं जी को पंजाब के एक प्रसिद्ध रईस रेल में यात्रा करते हुए मिले। उन्होंने पं जी को कहा कि स्वामी जी बड़े ऊँचे दर्जे के महात्मा और सत्य कर्म परायण थे। उन्होंने स्वामी जी के उपदेश से ये 3 लाभ बताये-


1) मुझे पूर्ण विश्वास हो गया कि ईश्वरीय न्याय के आगे सिफारिश ठग विद्या है , वहां न कोई सिफारिश है और न ही कोई वकील। अब में सच्चे हृदय से मानता हूँ कि सत्य कर्मों के बिना किसी भी प्रकार से मुक्ति नहीं हो सकती। 


2) आत्मा का अनादि होना भी उन्हीं की कृपा से मेरे मनोगत हुआ। और मेरा पूर्ण विश्वास हुआ कि यदि आत्मा का अनादि होना न माना जावे, तो खुदा पर उनके उत्पन्न  करने की आवश्यकता अनिवार्य है, जो परमेश्वर को जीव का मोहताज बनाती है। उत्पन्न करने से उसके सारे गुणों की अनादिता हाथ से जाती रहती है और न कारण उत्पन्न करने की आवश्यकता को सिद्ध करता है। 


3) आवागमन अर्थात पुनर्जन्म पर भी मेरा स्वामी जी  विश्वास हो गया। बिना आवागमन के सैकड़ों प्रकार के आक्षेपों से जो तर्क उठते हैं किसी भी प्रकार से परमेश्वर की सत्ता को शुद्ध और पवित्र सिद्ध नहीं करते। इसलिए पुनर्जन्म का सिद्धांत ठीक है और उसको न मानने वाला ईश्वर को अत्याचारी ठहराता है।  इसके अतिरिक्त मैंने मांस भक्षण भी छोड़ दिया। 


यह था स्वामी दयानन्द के धर्मोपदेश और तर्कों का प्रभाव। 


6. मिर्जा गुलाम अहमद चमत्कारी होने का दावा किया करता था। पं लेखराम ने अपनी पुस्तक में उनके चमत्कारों के दावों की बखूबी पोल खोली है। घटना 2 दिसंबर 1885 की है। कादियान निवासी बिशनदास को बुलाकर कहा कि मुझे तुम्हारे विषय में इलहाम हुआ है कि तू लड़के पढ़ाता है और नाम तेरा अजीज उद्दीन है, परिणाम यह है कि तू एक वर्ष तक मुसलमान हो जायेगा। नहीं तो मर जायेगा। बिशनदास ने पूछा कि यदि यह बात अवश्य होने वाली है, तो मेरा क्या वश है।  किन्तु मैं आप से परामर्श करता हूँ कि मेरा मरना अच्छा है या मुसलमान होना। मिर्जा ने इलहामी भाषा में कहा कि मुसलमान होना। एक दो दिन बाद बिशनदास का मिर्जा से मिलना हुआ तो मिर्जा ने फिर कहा कि मुझे स्वप्न आया था और स्वप्न पत्र निकाल कर दिखाया जिसमें लिखा था 'जूद बमीरद या मुसलमान शूअद' अर्थात कि जल्दी ही मुसलमान होगा या मरेगा। इसलिए तुम अपना प्रबंध करो अन्यथा मेरा स्वप्न अवश्य सत्य होगा। बिशनदास यह सुनकर खूब घबराया। संयोग से उसकी मुलाकात पं लेखराम जी से हो गई। उन्होंने उसे समझाया कि यह केवल धोखेबाजी और चालाकी है और उसे आर्यसमाज के सिद्धांत समझाये। वह आर्यसमाज का सदस्य बन गया और खुलम-खुला मिर्जा का मुकाबला करने लग गया। मिर्जा हाथ मलता रह गया क्योंकि चिड़िया उसके हाथ से निकल गई। एक वर्ष ऐसे ही निकल गया। मिर्जा ने अनेक पत्र बिशनदास को भेजे पर वो उनके काबू में नहीं आया। पाठक इससे अनुमान लगा सकते है कि मिर्जा के कार्य करने की शैली क्या थी?


7.  पं लेखराम आर्यसमाज के सदस्यों के साथ मिर्जा के मकान पर गए। मिर्जा ने उन दिनों अपने चमत्कारों के अनेक दावे किये थे। मिर्जा ने शेखी बघारते हुए कहा कि मुझे फरिश्ते दिखाई देते है। पं जी ने कहा कि क्या सच कहते हो? मिर्जा ने कहा-हाँ। पं जी ने कागज़ पर पेंसिल से ओ३म् अक्षर लिखकर अपने हाथ में रख लिया कि कृपा करके फरिश्तों  पूछ कर बताओ कि मैंने कौन सा अक्षर लिखा है। कुछ समय तक मुंह में मिर्जा गुनगुनाता रहा। फिर बोला इसे किसी और स्थान पर रखो। पं जी ने अपनी जेब में रख लिया। मिर्जा कुछ काल तक बनावटी हरकतें करता रहा। पर कुछ बतला न सका और लज्जित हुआ। मिर्जा के ऐसे कल्पित दावों की पं जी ने बहुत पोल खोली थी। 


पं जी कि पुस्तक में अनेक ऐसे संदर्भ है।  स्वाध्याशील पाठक उन्हें पढ़कर अपना ज्ञानार्जन कर सकते है। 

Saturday, March 27, 2021

जातिवाद को मिटाने के हमारे पूर्वजों का एक विस्मृत प्रयास




 जातिवाद को मिटाने के हमारे पूर्वजों का एक विस्मृत प्रयास 

#डॉ_विवेक_आर्य 

1926 में पंजाब में आद धर्म के नाम से अछूत समाज में एक मुहिम चली। इसे चलाने वाले मंगू राम, स्वामी शूद्रानन्द आदि थे। ये सभी दलित समाज से थे। स्वामी शूद्रानन्द का पूर्व नाम शिव चरन था। उनके पिता ने फगवाड़ा से जालंधर आकर जूते बनाने का कारखाना लगाया था। उन्होंने आर्यसमाज द्वारा संचालित आर्य हाई स्कूल में 1914 तक शिक्षा प्राप्त की थी। बाद में आर्यसमाज से अलग हो गये।  इनका उद्देश्य दलित समाज को यह सन्देश देना था कि वो हिन्दू धर्म त्याग कर चाहे सिख बने, चाहे मुसलमान और चाहे ईसाई। पर हिन्दू न रहे। सत्य यह है जातिवाद एक अभिशाप है जिसका समाधान धर्म परिवर्तन से नहीं होता। उस काल में संयुक्त पंजाब के दलित स्यालकोट, गुरुदासपुर में ईसाई या सिख बन गये और रावलपिंडी, लाहौर और मुलतान में मुसलमान बन गए।  पर इससे जातिवाद की समस्या का समाधान नहीं निकलता था। सिख बनने पर उसे मज़हबी कहा जाने लगा, ईसाई बनने पर मसीही और मुसलमान बनने पर मुसली। अपने आपको उच्च मानने वाले गैर हिन्दू अभी भी उसके साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध नहीं रखते थे।  सिखों के हिन्दू समाज का पंथ के रूप में सम्मान था पर जो दलित हिन्दू जैसे रहतियें, रविदासिए, रामगढिये आदि थे उनके साथ उच्च समझने वाले सिखों का व्यवहार भी छुआछूत के समान था। आर्यसमाज ने ऐसी विकट परिस्थिति में अछूतोद्धार का कार्य प्रारम्भ किया। अछूतों के लिए आर्यों ने सार्वजनिक कुएँ खोले तो उनके बच्चों को पढ़ाने के लिए पाठशालाएँ और शिल्प केंद्र। पंडित अमीचंद शर्मा ब्राह्मण परिवार में जन्में थे। आपके ऊपर अछूतोद्धार की प्रेरणा ऐसी हुई कि आपने वाल्मीकि समाज में कार्य करना प्रारम्भ किया। आपने वाल्मीकि प्रकाश के नाम से पुस्तक भी लिखी थीं। इस पुस्तक में वाल्मीकि समाज को उनके प्राचीन गौरव के विषय में परिचित करवाया गया था। 

आद धर्म सामाजिक सुधार से अधिक राजनीतिक महत्वाकांक्षा की ओर केंद्रित गया। 1931 की जनगणना में आद धर्म को जनगणना में हिन्दुओं से अलग लिखवाने की कवायद चलाई गई। इसके लिए अछूत समाज में जनसभायें आयोजित की जाने लगी। आर्यों ने इस स्थिति को भांप लिया। उन्हें कई दशक से अछूतोद्धार और विधर्मी बन गए अछूतों को वापिस शुद्ध कर सहधर्मी बनाने का अनुभव था। ऐसी ही एक जनसभा में शूद्रानन्द भावनाओं को भड़काने का कार्य कर रहा था। वो कहता था कि मुसलमान बन जाओ पर हिन्दू न रहो। आर्यों को उनकी सुचना मिली। आर्यसमाज के दीवाने पंडित केदारनाथ दीक्षित (स्वामी विद्यानंद के पिता) और ठाकुर अमर सिंह जी ( महात्मा अमर स्वामी) उस सभा में जा पहुंचे। कुछ देर सभा को देखकर दोनों खड़े हो गये। फिर ऊँची आवाज़ में बोले- 'मैं बिजनौर का रहने वाला जन्म का ब्राह्मण हूँ, और ये अरनिया जिला बुलंदशहर के रहने वाले राजपुर क्षत्रिय हैं।  स्वामी शूद्रानन्द कहते हैं कि हम तुम से घृणा करते हैं। तुम लोगों में से कोई दो गिलास पानी ले आये।  पानी आ गया। एक गिलास पंडित जी ने पिया हुए एक अमर सिंह जी ने। दो मिनट में शूद्रानन्द का बना बनाया खेल बिगड़ गया। और हज़ारों लोग मुसलमान बनने से बच गये। पंडित केदारनाथ स्वामी दर्शनानन्द के उपदेशों को सुनकर आर्य बने थे। उस काल में जब अछूत के घर का कोई पानी पीना तक पाप मानता था ,तब आर्यों के उपदेशकों ने जमीनी स्तर कर अछूतोद्धार का कार्य किया था। उनका लक्ष्य राजनीतिक महत्वाकांशा को पूरा करना नहीं था अपितु मानव मात्र के साथ बंधु और सखा के समान व्यवहार करना था। आजकल के दलितोद्धार के नाम से दुकान चलाने वाले क्या शूद्रानन्द के राह पर नहीं चल रहे। 

Wednesday, March 24, 2021

शराब बंदी को बढ़ावा दीजिये शराब को नहीं।


 


शराब बंदी को बढ़ावा दीजिये शराब को नहीं। 


#डॉ_विवेक_आर्य 


दिल्ली सरकार ने शराब पीने की आयु आधिकारिक रूप से घटाकर 25 से 21 करने का निर्णय लिया है। देश के किसी भी प्रान्त में चाहे किसी की भी सरकार हो। शराब पीने को प्रोत्साहन देना गलत है। सरकार के लिए यह आय का प्रमुख साधन है परन्तु निष्पक्षता से अगर सोचा जाये तो यह आय नहीं बर्बादी का साधन है।  कुछ लोग कुतर्क करेंगे कि थोड़ी सी पीने में क्या हानि है। मैं कहता हूँ कि आज जो थोड़ी सी पी रहा है। वही कल दिन-रात पीने वाला शराबी बनेगा। आरम्भ में चोर छोटी चोरी ही करता है, अपराधी छोटा अपराध ही करता है, अधिकारी छोटी रिश्वत ही लेता है। क्या इन सभी को आप प्रोत्साहन देते हैं? नहीं। तो फिर एक युवा को शराबी बनाने के लिए प्रोत्साहित क्यों किया जा रहा है?


1. स्वास्थ्य हानि - शराब पीने से होने शारीरिक हानियों के विषय में सब परिचित है। अनेक लोग अपने जवानी में अस्पतालों के चक्कर शराब पीने से लीवर ख़राब होने के कारण लगाते देखे जाते हैं। अगर शराब जैसा नशा नहीं होता तो इन शराबियों के परिवार कितने सुखी होते। 


2. सामाजिक हानि- जिस परिवार में शराबी आदमी होता है। उस परिवार का नाश हो जाता है। उसकी पत्नी अपना सम्मान खो देती है। उसकी संतान अनपढ़ या अशिक्षित रह जाती है। घरेलू हिंसा, शारीरिक शोषण आदि आम बात है। शराबी खुद तो बर्बाद होता ही है। उसकी संतान भी बर्बाद हो जाती है। इससे समाज की कितनी हानि होती है। अपराध कितने बढ़ते है। राष्ट्र के लिए उत्तम नागरिक बनने के स्थान पर अपराधी जन्म लेते है। इस पर कोई चिंतन नहीं होता। शासक के लिए प्रजा संतान के समान होती है। क्या कोई अपनी संतान को ऐसे गर्त में केवल टैक्स के लिए धकेलता है? 


3. सरकार की आय बढ़ाने का दावा मुझे सदा खोखला दिखता है। यह कुछ ऐसा है आप पहले गड्डा खोदते है। फिर उसमें लोगों को गिरने देते है। फिर उसे बचाने के लिए रस्सी, सीढ़ी और क्रेन खरीदते है। ताकि निकाल सके। शराबी व्यक्ति के कारण अपराध बढ़ते है। उसके लिए आपको पुलिस, कोर्ट, जेल आदि को विस्तार देना पड़ता है।  स्वास्थ्य सेवाओं की अतिरिक्त आवश्यकता पढ़ती है। उसके लिए आपको अस्पताल, डॉक्टर आदि रखने पड़ते है। सड़कों पर दुर्घटना अधिक होती है। उससे हानि होती है वो अलग।  इस सबसे क्या सरकार की आय  बढ़ती हैं? नहीं अपितु खर्च बढ़ता है। यह साधारण सा तर्क किसी को क्यों समझ नहीं आता।  


4. भ्रष्टाचार को बढ़ावा। इस पर टिप्पणी करने की आवश्यकता ही नहीं है। सरकारी या गैर सरकारी क्षेत्र में यह प्रचलित हो चला है कि जो काम विनती से नहीं बनता।  वह बोतल से बन जाता है। यह गिरावट का लक्षण है। क्या पहले शराबी बनाने और फिर भ्रष्टाचारी बनाने में परोक्ष रूप से यह सरकार का समर्थन नहीं हैं। 


5.धार्मिक कारण। धर्म सदाचार रूपी आचरण का नाम है। शराबी आदमी सदाचारी नहीं अपितु दुराचारी हो जाता है। इसीलिए वेदों में किसी के नशे का निषेध है। वेद मन्त्रों के उदाहरण देखिये-


1.ऋग्वेद 10/5/6 के अनुसार वेद में मनुष्य को सात प्रकार की मर्यादा का पालन करने का निर्देश दिया गया हैं।   यह सात अमर्यादा  हैं- चोरी, व्यभिचार, ब्रह्म हत्या, गर्भपात, असत्य भाषण, बार बार बुरा कर्म करना और शराब पीना।


2.ऋग्वेद 8/2/12  सुरापान से दुर्मद उत्पन्न होते हैं। सुरापान बल नाशक तथा बुद्धि कुण्ठित करनेवाला है। 


3.ऋग्वेद 7/86/6 के अनुसार सुरा और जुए से व्यक्ति अधर्म में प्रवृत होता है। 


4.अथर्ववेद 6/70/1के अनुसार मांस, शराब और जुआ ये तीनों निंदनीय और वर्जित हैं।


5. मनुस्मृति का सन्दर्भ देकर स्वामी दयानंद किसी भी प्रकार के नशे से बुद्धि का नाश होना लिखते है।

वर्जयेन्मधु मानसं च – मनु जैसे अनेक प्रकार के मद्य, गांजा, भांग, अफीम आदि – बुद्धिं लुम्पति यद् द्रव्यम मद्कारी तदुच्यते।। जो-जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ हैं। उनका सेवन कभी न करें।


इस विषय में बहुत विस्तार से न लिखकर मैं यही कहूंगा कि शराब पर रोक की तुरंत आवश्यकता है। शराबबंदी पूरे देश में लागु होनी चाहिये। ताकि आने वाली पीढ़ी का भविष्य बचाया जा सके। 

Friday, March 19, 2021

महाड से दिल्ली तक





 


महाड से दिल्ली तक 


#डॉ_विवेक_आर्य


आज 20 मार्च है। आज ही के दिन 1927 में डॉ अम्बेडकर ने महाराष्ट्र के महाड में पानी के टैंक से जाकर अछूत कहे जाने वाले भाइयों को सार्वजनिक रूप से पानी पिलाया था। इसे आजकल के दलित लेखक महाड सत्याग्रह के नाम से महिमा मंडित करते है और दलितों की ब्राह्मणों पर विजय के रूप में प्रदर्शित करते है। ईश्वर ने जल, पृथ्वी, अग्नि आदि पदार्थ से लेकर वेद विद्या, धार्मिक अधिकार सभी के लिए समान रूप से ग्रहण करने के लिए बनाया हैं। मध्यकाल में कुछ अज्ञानियों ने इस व्यवस्था को विकृत कर दिया। इसलिए दोष उन अज्ञानियों का बनता हैं। जबकि दलित लेखक ब्राह्मण वाद के नाम से दलितों को भड़काते है ताकि उनके तुच्छ लाभ और राजनीतिक स्वार्थों को पूर्ण हो सके। 


बहुत कम लोगों को यह बताया जाता है कि महाड सत्याग्रह (कोलाबा जिला बहिष्कृत परिषद 19-20 मार्च 1927)  में कार्यक्रम के अंत में डॉ. अंबेडकर की अगवानी में एक विशाल रैली निकालकर चवदार तालाब में प्रवेश करके पानी पीने का प्रस्ताव रखने वाले अनंतराव विनायक चित्रे (1894-1959) भी कायस्थ ब्राह्मण थे।  जिन्होंने बाद में डॉ. अंबेडकर को सामयिक जनता साप्ताहिक में एडिटर के रूप में वर्षों तक सेवा दी थी। सन् 1928 में इन्दौर में दलित छात्रावास भी चलाते थे। महाड़ सत्याग्रह केस (20 मार्च 1927) दीवानी केस 405/1927 में शंकराचार्य डॉ. कृर्तकोटि डॉ. अंबेडकर के पक्ष में साक्षी रहे थे । उनकी साक्षी लेने वाले कोर्ट कमिशन भाई साहब महेता भी ब्राह्मण थे । डॉ. अंबेडकर के पक्ष में वह फैसला आया था। और 405-1927 केस का फैसला देने वाले न्यायमूर्ति वि. वि. पण्डित भी ब्राह्मण ही थे। दस साल बाद 17. 3. 1937 के दिन हाइकोर्ट ने डॉ. अंबेडकर के पक्ष में फैसला सुनाया था। दिल्ली अलीपुर के अम्बेडकर संग्रहालय में महाड सत्याग्रह में डॉ अम्बेडकर की सहायता करने वाले सवर्ण समाज के सदस्यों के चित्र और परिचय दिए गये हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि निष्पक्ष लोग अत्याचार के विरुद्ध थे। उनके योगदान को जातिवाद की संकीर्णता ने भुला दिया है।  


डॉ अंबेडकर से कई दशक पहले आर्यसमाज ने इस दिशा में बहुत कार्य किया। स्वामी दयानन्द के जीवन में अनेक प्रसंग मिलते है जब उन्होंने अछूत के हाथ से पानी और रोटी खाई। लोगों ने आपत्ति कि तो उन्होंने कहा कि रोटी तो भगवान की देन है और किसी शूद्र का हाथ लगने से अशुद्ध कैसे हो गई? उस काल में एक ब्राह्मण कुल उत्पन्न सन्यासी के लिए ऐसा दृढ़ सामाजिक सन्देश देना अपने आप में एक क्रान्तिकारी कदम था। शूद्रों को धार्मिक अधिकार जैसे वेद पढ़ना, यज्ञ करना, गायत्री जाप करना आदि का धर्मशास्त्रों से प्रामाणिक विधान करना स्वामी दयानन्द की सबसे बड़ी देन था। 


स्वामी जी के पश्चात आर्यों ने अनेक ऐसे महान कार्य किये जिससे अछूतों पर अत्याचार बंद हो। कुछ का यहाँ वर्णन है-


दिल्ली के अछूतों ने की मांग थी कि उन्हें सार्वजनिक कुओं से पानी भरने दिया जाये। उन्हें यमुना का गदेला पानी पीना पड़ता था। स्वामी श्रद्धानन्द से यह अत्याचार देखा नहीं गया। उन्होंने यह घोषणा कर दी कि वो सार्वजनिक जुलूस निकालेंगे और इस जुलूस के माध्यम से दलितों को सार्वजनिक कुओं से पानी भरने का अधिकार दिलाएंगे। अछूतों को उनका अधिकार मिलते देख दिल्ली के मुसलमानों ने यह घोषणा कर दी कि वो दलितों को पानी नहीं भरने देंगे। क्योंकि वे सूअरों का मांस खाते है और इस्लाम में सूअर हराम है। स्वामी जी ने प्रति उत्तर दिया कि मांस तो मुसलमान भी खाते हैं। क्या वे उन पर भी पाबन्दी लगाएंगे? आर्यसमाज के प्रभाव से दलितों ने मांसाहार त्याग दिया है और उन्हें आर्यसमाज के प्रचारक शिक्षित एवं संस्कारित भी कर रहे है। तय दिन स्वामी जी के नेतृत्व में जुलूस निकाला गया। आज जो जय भीम -जय मीम का नारा लगाते है।  उनके पूर्वज मुसलमानों ने देखा कि अछूतोद्धार हो गया तो उनके हाथ से शिकार निकल जायेगा। इसलिए उन्होंने जुलूस पर पथरबाजी आरम्भ कर की। पुलिस ने आकर बीच बचाव किया। स्वामी जी ने सार्वजनिक कुएँ से सभी को पानी पिलाया। इस प्रकार से इस अत्याचार का अंत हुआ। ध्यान दीजिये कि स्वामी श्रद्धानन्द ने डॉ अम्बेडकर से करीब एक दशक पहले सार्वजनिक कुओं से पानी पिलाने का कार्य देश की राजधानी दिल्ली में किया था। स्वामी जी सवर्ण थे जबकि डॉ अम्बेडकर महार समाज से थे। आज कोई दलित लेखक स्वामी जी को इस योगदान के लिए स्मरण तक नहीं करता। 


महात्मा नारायण स्वामी उन दिनों वृन्दावन गुरुकुल में प्रवास करते थे। गुरुकुल की भूमि में गुरुकुल का स्वत्व में एक कुआँ था। उस काल में एक ऐसी प्रथा थी कुओं से मुसलमान भिश्ती तो पानी भर सकते थे। मगर चमार कहे जाने वाले अछूतों को पानी भरने की मनाही थी। मुसलमान भिश्ती चाहते तो पानी चमारों को दे सकते थे। कुल मिलाकर चमारों को पानी मुसलमान भिश्तीयों की कृपा से मिलता था। जब नारायण स्वामी जी ने यह अत्याचार देखा तो उन्होंने चमारों को स्वयं से पानी भरने के लिए प्रेरित किया। चमारों ने स्वयं से पानी भरना आरम्भ किया तो उससे कोलाहल मच गया। मुसलमान आकर स्वामी जी से बोले की कुआँ नापाक हो गया हैं क्योंकि जिस प्रकार बहुत से हिन्दू हम को कुएँ से पानी नहीं भरने देते उसी प्रकार हम भी इन अछूतों को कुएँ पर चढ़ने नहीं देंगे। स्वामी जी ने शांति से उत्तर दिया "कुआँ हमारा हैं। हम किसी से घृणा नहीं करते। हमारे लिए तुम सब एक हो। हम किसी मुसलमान को अपने कुएँ से नहीं रोकते। तुम हमारे सभी कुओं से पानी भर सकते हो। जैसे हम तुमसे घृणा नहीं करते, हम चाहते है कि तुम भी चमारों से घृणा न करो।" इस प्रकार से एक अनुचित प्रथा का अंत हो गया। आर्यसमाज के इतिहास में अनेक मूल्यवान घटनाएँ हमें सदा प्रेरणा देती रहेगी। 


भागपुर गांव, तहसील बेरी, जिला झज्जर, हरियाणा प्रान्त के निवासी चौधरी शीश राम आर्य गांव के बड़े जाट जमींदार थे। आपने अपने खेत में स्थित कुएँ को दलितों के लिए पानी भरने हेतु खोल दिया। आपके इस महान कर्म की प्रशंसा करने के स्थान पर आपका पुरजोर विरोध आप ही की बिरादरी ने किया। आपको दो वर्ष के लिए बिरादरी से निष्कासित कर दिया गया। आपके सुपुत्र शेर सिंह उस समय आठवीं कक्षा में थे तो उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार आपका विवाह जाट गोत्र की कन्या से तय हो गया था। जब शेर सिंह के ससुराल पक्ष को मालूम चला कि अपने अपने कुओं पर दलितों को चढ़ा दिया है।  तो उन्होंने आपत्ति कर दी। चौधरी शीशराम पर रिश्ता तोड़ने का दवाब तक बनाया गया। शीशराम जी ने कहा मुझे रिश्ता तोड़ना स्वीकार है, मगर दलितों के साथ हो रहे अन्याय का समर्थन करना स्वीकार नहीं हैं। अंत में शेर सिंह का रिश्ता टूट गया। मगर स्वामी दयानंद के सैनिक जातिवाद को मिटाने में कामयाब हुए। बाद में जनसामान्य ने उनकी चेष्टा को समझा और दलितों को सार्वजनिक कुओं से पानी भरने का किसी ने कोई विरोध नहीं किया। प्रोफेसर शेर सिंह जी ने आगे चलकर अंतर्जातीय विवाह किया एवं जाने माने राजनीतिज्ञ एवं भारत सरकार के केंद्र में मंत्री भी बने।


स्वामी श्रद्धानन्द के अछूतोद्धार के अभियान से प्रेरित होकर दो नवयुवकों ने अपने ग्राम के भंगी समाज के युवक को ग्राम के कुँए पर चढ़ा दिया। जैसे ही ग्राम के लोगों को ज्ञात हुआ। उन्होंने कुआँ घेर लिया। वो युवक तो भाग गया पर दोनों नवयुवकों को भीड़ ने पकड़ लिया। दोनों को मार पिट के बाद कान पकड़वा कर दंड बैठक लगवाई गई और जुर्माना किया गया। स्वामी श्रद्धानन्द को जब यह ज्ञात हुआ तो वे उस ग्राम में गये और दोनों युवकों को सम्मानित किया। 


आर्यसमाज ने सहभोज, अंतर्जातीय विवाह, गुरुकुल और विद्यालयों में शिक्षा आदि का जातिवाद उन्मूलन के लिए अभियान चलाया। आज के दिन केवल डॉ अम्बेडकर को ही स्मरण न कीजिये। सभी समाज सुधारकों को स्मरण कीजिये। 

अछूतोद्धार और शुद्धि: आपका भविष्य आपके इन दो क़दमों पर निर्भर करता है।


 


अछूतोद्धार और शुद्धि: आपका भविष्य आपके इन दो क़दमों पर निर्भर करता है।


#डॉ_विवेक_आर्य

1947 से पहले की घटना है। आर्यसमाज मीरपुर (वर्तमान पाकिस्तान द्वारा कब्ज़ा किया हुआ कश्मीर का भूभाग) ने स्थानीय अछूतों के उत्थान का निर्णय लिया। उस क्षेत्र में रहने वाले अछूतों को वशिष्ठ कहा जाता था। इनके पूर्वज कभी ब्राह्मण थे। मुग़लों के अत्याचार से इन्हें मृत पशु उठाने का कार्य करने विवश होना पड़ा। न ये हिन्दू मान्यताओं का पालन कर पा रहे थे और ना ही इस्लामिक। आर्यसमाज ने इन्हें पुन: शुद्ध करने का संकल्प लिया। कार्य प्रारम्भ हुआ। वशिष्ठों को शुद्ध होता देख अपने आपको विशुद्ध सनातन धर्मी कहने वाले और मुस्लिम दोनों आर्यसमाज के विरोध में खड़े हो गए। अपने बिछुड़े भाइयों को गले लगाने के स्थान पर उन्होंने आर्यसमाज के दलितों को यज्ञ में भाग लेने, यज्ञोपवीत पहनने का पुरजोर विरोध किया।

शुद्ध हुए वशिष्ठ युवक गोपीनाथ को उसके कुछ साथियों के साथ कुछ बदमाशों ने घेर लिया। उन्हें पकड़ कर बोले ये आर्यसमाजी यज्ञोपवीत पहराना क्या जानें। हम ऐसा यज्ञोपवीत पहना देते हैं, जो मरण पर्यन्त विनष्ट न हो; अत: वे स्वधर्म में पुन: दीक्षित उन भाइयों को जबरन पकड़ कर लोहे की दरांती अग्नि पर लाल करके उनके शरीर पर गहरी रेखा बना देते हैं। यह अत्याचार देश भर में सुर्खियों में छा गया। गाँधी जी से लेकर डॉ अम्बेडकर ने इस अत्याचार की आलोचना की। मामला न्यायालय तक गया। दुष्टों को 10-10 वर्ष की सजा हुई।

ऐसे घृणित अत्याचार पर भी कोई आर्य नेता हतोत्साहित नहीं हुआ। अनेक भूख-प्यास के कष्ट सहते हुए भी कार्य करते रहे। आर्यसमाज ने 12 हज़ार वशिष्ठों की शुद्धि कर डाली। शुद्ध हुए परिवारों के बच्चों के लिए पाठशालाएं खोली गई। उन्हें शिक्षित कर उनके जीवन को सुधारने का कार्य प्रारम्भ हुआ। शिल्प विद्यालय खोल कर उन्हें सक्षम बनाने का कार्य आरम्भ किया गया। यह कार्य केवल मीरपुर ही नहीं अपितु सियालकोट के मेघों आदि अछूतों में भी प्रारम्भ हुआ। मेघों के पुनर्वास के लिए आर्यसमाज ने भूमि खरीदकर आर्य नगर की स्थापना की।

जम्मू के महाशय रामचंद्र अखनूर में मेघों में सुधार कार्य को करने लगे। आपने उनके लिए विद्यालय खोला। अब आप अपनी सरकारी सेवा के अतिरिक्त अपना पूरा समय इन पहाड़ों में घूम घूम कर मेघों के दुःख , दर्द के साथी बन उनकी सेवा, सहायता तथा उन्हें पढ़ाने व उनकी बीमारी आदि में उनकी हर संभव सहायता करने लगे थे। इस सब का परिणाम यह हुआ कि जो लोग दलितों को उन्नति करता हुआ न देख सकते थे , उन्होंने सरकार के पास आप की शिकायतें भेजनी आरम्भ कर दीं , मुसलमानों को आप के विरोध के लिए उकसाने लगे , आप के व्याख्यानों का भी विरोध आरम्भ कर दिया ।

एक बार अछूतोद्धार के लिए जम्मू से रामचन्द्र जी भी अपने आर्य बन्धुओं व विद्वानों सहित बटौहड़ा के लिए रवाना हो गए । इनके साथ लाला भगतराम, लाला दीनानाथ, लाला अनन्तराम, ओ३मप्रकाश तथा सत्यार्थी जी आदि थे । मार्ग में ही आर्योपदेशक सावनमल जी भी अपने दल के साथ आ कर मिल गए । इस मध्य ही पता चला कि गांव में विरोधियों ने भारी षड्यन्त्र रच रखा है तथा हालात बेहद खराब हैं । इस कारण लौट जाने का निर्णय लेकर यह सब वापिस चल पड़े किन्तु इस की सूचना भी तत्काल गांव में राजपूतों को मिल गई । वह तो भड़के ही हुए थे अत: भगतू नामक एक व्यक्ति के नेतृत्व में मुसलमान, गुर्जरों के डेढ़ सौ के लगभग राजपूतों के सवारों व पैदल लोगों ने पीछे से इन पर आक्रमण कर दिया । सब पर लाठियाँ बरसाईं गई । सब और से एक ही आवाज आ रही थी कि खजान्ची को बचने नहीं देना । इस को मारो । यह सुन भगतराम जी उन्हें बचाने के लिए आगे आए किन्तु उन पर भी भारी मात्रा में लाठियों की मार पड़ी । अन्त में रामचन्द्र जी उनके हाथ आ गये तथा उन पर लोहे की छड़ों से प्रहार किया गया । वह जब बुरी तरह से घायल व बेहोश हो गये तो यह आक्रमणकारी इन्हें मरा समझ कर लौट गए । घायल व बेहोश वीर रामचन्द्र जी को अस्पताल में भर्ती किया गया । यहां निरन्तर छ: दिन तक बेहोश रहते हुए मौत से युद्ध करते रहे किन्तु अन्त में प्रभु की व्यवस्था ही विजयी हुई तथा मात्र 23 वर्ष की आयु में यह योद्धा आर्य समाज को अपना जीवन समझते हुए तथा दलितों को ऊँचा उठाने का यत्न करते हुए अन्त में दिनांक 20 जनवरी 1923 को रात्रि के 11 बजे वीरगति को प्राप्त हुआ। अछूतों के उद्धार के लिया किसी सवर्ण द्वारा दिया गया बलिदान स्वामी दयानन्द के शिष्य का ही हो सकता है।

आर्यसमाज ने 1947 में कभी मुस्लिम बने चंदेल राजपूतों को भी शुद्ध कर दिया था। शेख अब्दुल्ला ने उन्हें पुन: मस्जिद ले जाकर मुसलमान बना डाला। आर्य समाज के अछूतों के उद्धार के कार्य को अगर हिन्दू समाज का सहयोग मिलता तो न जाने कितने मुसलमानों को शुद्ध कर दिया जाता। कश्मीर का प्रथम मुस्लिम शासक रींचान बौद्ध था जो हिन्दू बनना चाहता था। देवास्वामी धर्मगुरु ने उसे हिन्दू बनाने से इनकार कर दिया तो बुलबुल शाह फकीर ने उसे मुसलमान बना दिया। उसी से कश्मीर में सर्वप्रथम इस्लाम को प्रवेश और प्रोत्साहन मिला। यही गलती बाद में भी हुई। एक समय जब कश्मीर के राजा ने मुस्लिम बने हिन्दुओं को शुद्ध करने का निर्णय लिया तो इन्हीं संकीर्ण विचारधारा वाले ब्राह्मणों ने झेलम में कूद कर आत्महत्या करने की धमकी दी थी। इस धमकी से राजा को अपना निर्णय वापिस लेना पड़ा। हज़ारों मुस्लिम हिन्दू बनने से रह गए। फारूक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आज़ाद आदि के पूर्वज यही हिन्दू थे। जो बाद में कट्टर मुसलमान बन गए। यही गलती आर्यसमाज का विरोध कर की गई। आपने अपने बिछुड़े भाइयों को गले नहीं लगाया। उनके लिए अपने द्वार बंद रखे। तो वो गैरों के चले गए। उसी का परिणाम 1990 में सामने मिलता है। जब कश्मीरी पंडितों को अपने पूर्वजों की धरती छोड़कर भागना पड़ा। अब भी समय है। इस इतिहास से सीख लीजिये। जो जातियां अपने इतिहास की गलतियों से सीख नहीं लेती उनका भविष्य भी अंधकारमय हो जाता है।

Thursday, March 18, 2021

नोआखाली के दंगे और गाँधी जी






 


नोआखाली के दंगे और गाँधी जी 

#डॉ_विवेक_आर्य 

10 अक्टूबर 1946 का दिन है। अविभाजित बंगाल के नोआखाली में 80% मुस्लिम बहुल जनसंख्या वाले प्रान्त में 20 % हिन्दू अल्पसंख्यक जनसंख्या पर मजहबी कहर बरपाना आरम्भ कर दिया। हिन्दुओं की घर संपत्ति लूट ली गई। हज़ारों की संख्या में उन्हें मार डाला गया। महिलाओं की इज्जत लूटी गई। अनेकों का धर्म परिवर्तन कर उन्हें जबरन मुसलमान बनाया गया। हिन्दू भाग कर बंगाल की राजधानी कोलकाता आने लगे। हिन्दुओं की लाश उठाने वाला तक कोई नहीं बचा था। महात्मा गाँधी एक समय कहते थे कि भारत का विभाजन उनकी लाश पर होगा। कोलकाता और नोआखली के दंगों के समय जब हिन्दू समाज द्वारा प्रतिक्रिया होने लगी तो वो अनशन पर बैठ गए। नोआखली का दौरा किया मगर दंगे के मूल कारण जिन्नाह और उसके जिगरी सुहरावर्दी को दो कड़वे बोल भी न बोले। पाकिस्तान से आये हिन्दुओं को खाली मस्जिदों में रुकने का विरोध किया। मुसलमानों को भारत से न जाने के लिए अनुरोध किया। 

6 नवंबर, 1946 को पूर्वी बंगाल के एक राहत शिविर से मिस मयूरील लेस्टर ने लिखा-

'महिलाओं की दशा सबसे दयनीय थी। अनेक महिलाओं की आँखों के सामने उनके पतियों को मौत के घाट उतार दिया गया और उनका निकाह  उनके पति के हत्यारों से कर दिया गया। उन महिलाओं की ऑंखें पथरा गयी थीं। यह नैराश्य नहीं था। यह तो निरी कालिमा थी। ... जीवन रक्षा के लिए हज़ारों लोगों को इस्लाम ग्रहण करना पड़ा और गोमांस खाना पड़ा। ... हिंसा और आगजनी के इस भीषण कुचक्र के बारे में एक बात निश्चयपूर्वक कही जा सकती है कि यह ग्रामीणों का सहज , स्वत:स्फूर्त विपल्व नहीं था।'  

वी पी मेनन ने लिखा कि यह मुस्लिम लीग द्वारा संचालित एक संगठित आक्रमण था और प्रशासी अधिकारीयों ने इसकी अनदेखी की। आक्रमणकारियों के पास बंदूकें तथा अन्य घातक हथियार थे। सड़कों के गड्ढे कर दिये गये थे। संचार के अन्य साधनों को तोड़-फोड़ दिया गया ताकि किसी भी प्रकार का संपर्क स्थापित न हो सके। 

आचार्य कृपलानी अपनी पत्नी सुचेता कृपलानी के साथ उपद्रवों से त्रस्त ग्रामों में गये तो सुचेता कृपलानी अपने साथ पोटैशियम साइनाइड का कैपसूल ले जाना नहीं भूली /वहां से लौटकर वे गवर्नर और हिन्दू महिलाओं के बड़े पैमाने पर अपहरण की चर्चा की तो गवर्नर ने धृष्टता से उत्तर दिया- इसमें अस्वाभाविक क्या है? हिन्दू महिलाऐं मुस्लिम महिलाओं से अधिक सुन्दर होती ही हैं।  यह सुनकर कृपलानी तिलमिला उठे। उनके मन में उठा कि गवर्नर को धुन डाले। 

इस हत्याकांड के विरोध में 26 अक्टूबर , 1946 को हिन्दुओं ने काली दीवाली शोक दिवस के रूप में बनाने का निर्णय किया। 

छपरा में एक स्थानीय मुस्लिम नेता ने अपने अनुगामियों को भड़काया कि वे अपने घरों में  'हर्ष मनायें'। गाँधी जी ने कहा हे भारतवासियों! आज दीपावली की प्रथा मना कर प्रसन्न होने का दिन नहीं है। आज तुम प्रसन्नता मनाने योग्य नहीं रहे। आज मर्यादा पुरुषोत्तम आम के विजय का दिवस नहीं है।  विजय-प्रसन्नता उन्हीं के साथ विदा हो चुकी है।  आज तुम पराजय दिवस मनाओ। गाँधी जी के अनुसार हिन्दू दीवाली  निषेध करके वीरों की भांति मरना सीखे। पर वह यह भूल गये थे कि दुराचारी के दुराचार को मिटाने के लिए दुराचारी को समाप्त करना भी अनिवार्य हो जाता है।  उन्होंने छत्रपति शिवाजी के काल से सीख नहीं ली जब यवन हिन्दू औरतों को उठा ले जाते थे।  तब वीर मराठे मौन रहकर अत्याचार नहीं सहते थे। वे उनके शिविरों पर यम बनकर टूट पड़ते थे।  हिंसा की बाढ़ को रोकने के लिए शस्त्र- अस्त्र की आवश्यकता होती है।  हिंसा को सहना , हिंसा को बढ़ावा देने के समान है। अत: उसका प्रतिकार करना ही अहिंसा का सर्वोत्तम उपाय-सूत्र है। जो क्षत्रीय अपने देश की रक्षा नहीं कर सकते, ईश्वर उनका सहायक कभी नहीं होता। अत्याचार न सहते हुए धर्म पर आरूढ़ क्षत्रिय ही ईश्वर के कृपा के आकांक्षी हैं। आलसी रहकर पिटते हुओं की प्रार्थना वह नहीं सुनता और न वह उन्हें उत्तान भोग प्रदान करता है, क्यों कि दिए गए अपने भोग की भी वे रक्षा नहीं कर सकते। अत: क्षत्रिय अपनी ही सीमा में रहें, ब्राह्मण का रूप , कातर बनकर अहिंसकतत्व को न अपनायें।  गाँधी जी ने यह वेद का सिद्धांत समझ लिया होता तो न मुस्लिम लीगियों का मनोबल बढ़ता और न ही हिन्दुओं की इतनी व्यापक हानि होती। पर वे तो अति अहिंसावाद के स्वपनलोक में जी रहे थे। जिसके अनुसार कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो। इतिहास इस बात का साक्षी है कि गाँधी जी द्वारा चलाया गया एक भी अहिंसक आंदोलन कभी सफल नहीं हुआ। ब्रिटिश सरकार गर्म दाल के नेताओं और वीर क्षत्रिय क्रांतिकारियों से सदा भयभीत रही। वीर नेताजी सुभाष के प्रयासों एवं नौसेना विद्रोह ने मूलत: उसे समझा दिया कि वब उसे देश छोड़ना पड़ेगा। पर अपनी पूरी जिंदगी गद्दी के लिए आतुर कांग्रेस के नेताओं ने यह स्वतंत्रता देश के विभाजन के साथ स्वीकार की। मौत के तांडव, लाखों महिलाओं के बलात्कार और हत्या, हज़ारों को अनाथ बनाकर मिली इस आज़ादी पर उस काल में देशवासी यही सोचते थे कि वे हँसे या रोये। खैर इतिहास से हिन्दुओं ने कुछ नहीं सीखा। यह 1947 से आज तक का इतिहास बता रहा है।  बाकि समझदार को ईशारा ही बहुत होता है।  

Wednesday, March 17, 2021

मालाबार में मोपला हिंसा और गाँधी जी

 



मालाबार में मोपला हिंसा और गाँधी जी 


#डॉ_विवेक_आर्य 


देश के इतिहास में सन् 1921 में केरल के मालाबार में एक गांव में मोपलाओं ने हिन्दू जनता पर अमानवीय क्रूर हिंसा की थी।  इस घटना पर देशभक्त जीवित शहीद वीर सावरकर जी ने ‘मोपला’ नाम का प्रसिद्ध उपन्यास लिखा था। हिन्दू विरोधी इस कुकृत्य को जानने के लिए हिन्दू जनता द्वारा इस उपन्यास को अवश्य पढ़ा जाना चाहिये। 


अंग्रेजो को लगा कि यदि भारतीयों में यह एकता इसी प्रकार मजबूत होती गई तो उनकी जड़े उखड़ते देर नहीं लगेगी। उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ का हथकण्डा अपनाया। मालाबार के मोपला मुसलमानों की पीठ थपथपाकर उसने ऐसा नर-संहार कराया कि वहां हिन्दुओं का अस्तित्व ही उखड़ने लगा। पुरुषों को जान से मार डाला गया, स्त्रियों का सतीत्व लूट लिया गया, तीर्थ-स्थलों और पूजा-गृहों को मटियामेट कर दिया गया, दुकानें लूट ली गईं, मकान जला दिये गए, निरीह बच्चों और बूढ़ों तक को न छोड़ा गया। कटे हुए मुण्डों के ढेर लग गए। लावारिस पड़ी लाशों को कुत्ते नोचने लगे।  पूरे काण्ड को ‘मोपला-विद्रोह’ का नाम देकर यह प्रमाणित करने का यत्न किया गया कि हिन्दुओं के संत्रास से तंग आकर ही मोपलाओं ने अपने दिल की भड़ास निकाली। अंग्रेज सरकार ने प्रेस की स्वतन्त्रता का भी गला घोंट दिया, ताकि मालाबार में हिन्दुओं के सफाये का समाचार तक न छप सके। 


किन्तु, जिनका सब-कुछ लुट-पिट गया हो, उनकी चीखों को कौन रोकता? जिन्होंने यह विनाश-लीला स्वयं अपनी आंखों से देखी थी अथवा जिन लोगों ने वहां से भागकर अपनी जान बचाई थी, वे तो फूट-फूटकर धाड़ें मार रहे थे। देर से ही सही, समाचार को पंख लग गए। जिसने भी सुना, कलेजा थाम के रह गया। महात्मा हंसराज जी ने खुशहालचन्द जी को बुलाकर कहा--‘‘दूसरे लोग भले ही इस नर-मेध से आंखें मूंद लें, परन्तु आर्य होने के नाते हमें अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना है। आप कुछ लोगों को अपने साथ लेकर मालाबार जाइए और उन लोगों के लिए राहत-शिविर लगाइए जिनका कुछ नहीं बचा और कोई नहीं रहा। जिन्हें जबर्दस्ती इस्लाम ग्रहण कराया गया है, उनके दोबारा अपने धर्म में लौटने की व्यवस्था कीजिए। आप स्थिति का जायजा लेकर लिखते रहें कि कितने अन्न और धन की आवश्यकता पड़ेगी। इसका जुगाड़ मैं यहां से करके भेजता रहूंगा।” 


‘‘मैं तो कब का वहां पहुंच चुका होता, बस आपके ही इस आदेश का इन्तजार था।” खुशहालचन्द जी (महात्मा आनन्द स्वामी, लाहौर) ने कहा--‘‘आप कहें तो मैं आज ही चल पडूं।” 


‘‘थोड़ा रुकिए। पहले समाचार-पत्रों में इस नर-संहार को छपवाना होगा, ताकि देशवासियों को पीड़ितों की सहायता के लिए तत्पर किया जाय। ‘आर्य गजट’ में आप कितना ही प्रचारित कर दें, उसका प्रभाव एक सप्ताह बाद ही होगा, क्योंकि साप्ताहिक पत्र रोज-रोज नहीं छप सकता। पंडित ऋषिराम जी बी0ए0 और पंडित मस्तानचन्द जी आपके साथ जाएंगे। आप तीनों तैयार रहें, किसी भी क्षण आपको यहां से चल देना होगा।” 


‘‘जी अच्छा।” कहकर खुशहालचन्द जी मुस्करा दिए। मुस्कराने का कारण यह था कि उनका नन्हा-सा बिस्तर तो हमेशा ही बंधा रहता था। दफ्तर में यह सन्देश पाते ही कि अमुक आर्य-सत्संग या सभा अथवा जलसे-जुलूस में उन्हें पहुंचना है, वह बंधा-बंधाया बिस्तर बगल में दबाकर चल देते थे। घर में कौन बीमार है और उसे किस तरह की सेवा-टहल दरकार है, यह सब पत्नी को समझाकर वह पलक झपकते चल पड़ते थे। 


मालाबार के पीड़ितों की व्यथा-कथा सुनकर हर कोई आठ-आठ आंसू बहाने लगता था, किन्तु आंसू बहाने या हाथ मलकर अफसोस कर देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता था। दुःखियों को दिलासा तभी मिलता है जब भूखे को रोटी, नंगे को कपड़ा, रात बिताने को आसरा और पीठ थपथपाने को कोई स्नेह भरा हाथ मिले। खुशहालचन्द और उसके साथियों ने अपने घर-बार की सुध भुलाकर बेसहारों को ऐसा सहारा दिया कि इतिहास में चाहे उनका नाम आए या न आए, प्रभु के दरबार में उनके नाम स्वर्ण-अक्षरों में अंकित हो गए। सैकड़ों हिन्दू, जो प्राण बचाने को पूरे परिवार के साथ इस्लाम में दीक्षित हो गए थे, पुनः निज-धर्म में लौट आए। एक-एक के दिल पर बीसियों घाव थे, जिन्हें अपनेपन की दिव्य मरहम से भर दिया गया। खोया हुआ विश्वास लौटाना कोई सरल काम नहीं था, किन्तु लगन और तन्मयता से त्रस्त हिन्दुओं को पहली बार ज्ञात हुआ कि आर्यसमाज का प्रत्येक सदस्य उसकी पीठ पर था और मालाबार के हिन्दू अकेले नहीं थे। 


यहां इस बात की चर्चा आवश्यक जान पड़ती है कि मालाबार को जाते समय खुशहालचन्द जी की पारिवारिक स्थिति क्या थी। सबसे पहली बात तो यह कि निरन्तर दौड़-धूप के कारण स्वयं खुशहालचन्द जी भी स्वस्थ नहीं थे, दूसरी बात यह थी कि हाल ही में उनके यहां पांचवें पुत्र युद्धवीर ने जन्म लिया था, तीसरी बात यह थी कि यश बेटा उन दिनों निमोनिया की लपेट में था। पत्नी ने बहुतेरे आंसू बहाए, बार-बार हाथ-पैर पकड़े, मगर जो मनुष्यता की भलाई के लिए समर्पित हो चुका हो उसे कौन रोक पाता? 


मालाबार वह पहली बार जा रहे थे। वहां की बोली उनके लिए अजनबी थी, वहां हिन्दू होना ही जान से हाथ धोने के समान था, फिर भी खुशहालचन्द जी वहां गए और ऐसा पुण्य कमाया कि अंग्रेज सरकार भी अचम्भे में पड़ गई। अंग्रेजों को पहली बार आभास हुआ कि उनका तो एक ही ईसा था, मगर भारत में खुशहालचन्द (तथा महात्मा हंसराज जी) जैसे सैकड़ों ईसा जान हथेली पर लिये मनुष्यता की सेवा में जी-जीन से तत्पर थे। मोपला मुसलमानों ने खुशहालचन्द और उनके साथियों को सूली पर नहीं चढ़ाया तो इसका एक-मात्र कारण उनका आर्य होना था, क्योंकि आर्यजन के लिए सारा संसार अपना परिवार है। खुशहालचन्द जी पीड़ितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए मालाबार गए थे। उनके लिए ‘न कोई वैरी था, न बेगाना’, सभी धर्मों के लोग उनके लिए आदरणीय थ। उन्हें तो एकमात्र यह सन्देश देना था कि मिल-जुलकर रहो। उन्हें उस विचारधारा को तोड़ना था जो मनुष्य को मजहब के नाम पर पशु बना देती है। वह हिन्दू ही क्या जो मनुष्य नहीं और वह मुसलमान ही क्या जो इन्सान नहीं? मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना। यह सन्देश भूले-भटके लोगों को भी सही राह पर ले आता है। प्रभु के प्यारों के आगे हिंसा, मजहबी पागलपन या भाषा और प्रदेश की दीवारें अपने-आप ढहने लगती हैं। 


खुशहालचन्द और उनके साथी मालाबार में लगभग छह महीने रहे । डरे-सहमें लोगों में ऐसा आत्म-विश्वास जाग उठा कि जो घरों में दुबके बैठे थे, वही सीना ताने गली-बाजारों में दनदनाने लगे। दक्षिण भारत के लोगों को पहली बार पता चला कि ‘आर्यसमाज’ भी एक संस्था है जो निस्स्वार्थ और निर्लिप्त भाव से दूसरों की सेवा करना ही अपना परम धर्म समझती है। मालाबार के हिन्दुओं के लिए तो आर्यसमाज के कर्मचारी देवदूतों के समान थे--न कोई जान न पहचान, मगर सैकड़ों मील दूर से जो बाहें पसारे चले आए थे और एक-एक को गले लगाकर जिन्होंने महीनों तक अन्न भी दिया, धन भी दिया, वस्त्र भी दिये, जीने के सभी सहारे जुटाए और मुस्कराते हुए अपने प्रदेश को लौट गए। ऐसे आर्यसमाज पर वे कैसे बलिहारी न जाते। दक्षिण भारत में जगह-जगह आर्यसमाज स्थापित हो गए और दलित वर्ग को तो जैसे नया जीवन मिल गया। जिन हिन्दुओं से सवर्ण हिन्दू घृणा से नाक-भौंह सिकोड़ लेते थे, आर्यसमाज ने उन सबको यह सन्देश दिया कि सभी मनुष्य उसी परम पिता की सन्तान हैं और पिता की दृष्टि में सभी पुत्र लाडले और प्यार-सम्मान के अधिकारी हैं। यह एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था, जिसने निम्न कही जानेवाली जातियों को एक ही झटके में उठाकर सबके बराबर बिठा दिया। दक्षिण भारत में आर्यसमाजों की स्थापना एक महान् उपलब्धि थी। आर्यसमाज द्वारा भेजे गए देवदूतों ने दक्षिण भारत में सेवा-कार्य में महान् यश कमाया। 


अहिंसा के पुजारी गाँधी जी ने दक्षिण में हुई हिंसा को सुनकर भी अनुसना कर दिया। खिलाफत के मुस्लिम नेताओं ने मोपला दंगाइयों को दंगों को धर्मयुद्ध के नाम पर बधाई दी। हिन्दू मुस्लिम एकता के नाम पर यह बहुत बड़ी कीमत थी। पर किसी भी कीमत पर हिन्दू-मुस्लिम एकता की इच्छा रखने वाले गाँधी जी ने मोपलाओं को वीर ईश्वर से डरने वाले योद्धा कहा।  उनके अत्याचारों पर उन्होंने हिन्दुओं को सलाह दी कि -


'हिन्दुओं में ऐसे मज़हबी उन्मादों को झेलने के लिए होंसला और हिम्मत होनी चाहिये। मोपला मुसलमानों के उन्माद की हिन्दू मुस्लिम एकता से परीक्षा नहीं हो सकती। मुसलमानों को स्वाभाविक रूप से जबरन धर्मान्तरण और लूट फसाद के लिए शर्मिन्दगी महसूस होनी चाहिये। उन्हें इतनी शांति से प्रभावपूर्वक काम करना चाहिए की मुस्लिम समाज के कट्टरपंथियों के मध्य कोई प्रतिक्रिया न हो। मेरा मानना है कि हिन्दुओं ने मोपला मुसलमानों के उन्माद को सहा है और सभ्य मुसलमान इसके लिए क्षमार्थी हैं।'


16 जनवरी 1922 को कांग्रेस ने मोपला दंगों पर प्रस्ताव पारित किया। उसमें इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था कि मुसलमानों की भावनाओं को कोई ठेस न पहुंचे। प्रस्ताव में कहा गया-


'कांग्रेस वर्किंग कमेटी मालाबार में हुए मोपला दंगों पर खेद प्रकट करती है। इन दंगों से यह सिद्ध होता है कि देश में अभी ऐसे लोग है जो कांग्रेस और केंद्रीय ख़िलाफ़त कमेटी के सन्देश को समझ नहीं पा रहे है। हम कांग्रेस और खिलाफत के सदस्यों से अनुरोध करते है कि वो अहिंसा का सन्देश किसी भी सूरत में देश के कौने कौने तक पहुँचाये। कमेटी सरकार एवं अन्यों द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट को जिसमें दंगों का अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन मिलता है।  उन्हें अस्वीकार करती है। कमेटी को कुछ जबरन धर्मान्तरण की तीन घटनाएं ज्ञात हुई है जो मजेरी के निकट रहते थे। इससे यही सिद्ध होता है कि कुछ मतान्ध समूह ने ऐसा किया है जिनका खिलाफत और असहयोग आंदोलन में कोई विश्वास नहीं था।'


पाठक देख सकते है कि किस प्रकार से कांग्रेस ने उस काल में गाँधी जी के नेतृत्व में लीपा-पोती की थी। जबकि इसके विपरीत अंग्रेज सरकार द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में मोपला दंगाइयों के अत्याचारों का रक्त-रंजीत वर्णन था।  उसके लिए हिन्दुओं को आंख बंद करने की सलाह दी गई। 


स्वामी श्रद्धानन्द ने 26 अगस्त 1926 को लिबरेटर अख़बार में लिखा था-


' कांग्रेस की सब्जेक्ट कमेटी में पहले हिन्दुओं पर अत्याचार के लिए मोपला दंगाइयों की हिन्दुओं के क़त्ल और उनकी संपत्ति की आगजनी और इस्लाम में जबरन परिवर्तन के लिए सार्वजानिक आलोचना का प्रस्ताव रखा गया था। कांग्रेस के ही हिन्दू सदस्यों ने इस प्रस्ताव में परिवर्तन की बात करते हुए उसे कुछ लोगों की आलोचना तक सीमित कर दिया था। इस पर भी  मौलाना फ़क़ीर और अन्य मौलानाओं ने इस कामचलाऊ प्रस्ताव का भी विरोध किया। मुझे तब सबसे अधिक आश्चर्य हुआ जब राष्ट्रवादी मौलाना हसरत मोहानी ने कहा की मोपला क्षेत्र अब दारुल अमन नहीं बल्कि दारुल हरब (इस्लाम द्वारा शासित ) बन गया है और उन्हें सन्देश है कि हिन्दुओं ने शत्रु अंग्रेजों के साथ मिलकर मोपला के साथ भिड़त की हैं।  इसलिए मोपला का हिन्दुओं को क़ुरान और तलवार का भेंट करना जायज़ है। और अगर किसी हिन्दू ने अपनी प्राण रक्षा के लिए इस्लाम स्वीकार कर लिया है। तो यह स्वेच्छा से किया गया धर्म परिवर्तन है। जबरन नहीं। इस प्रकार का फोरी प्रस्ताव भी कांग्रेस की कमेटी में सर्वसम्मति से पारित नहीं हो पाया। उसके लिए भी बहुमत से पास करने के लिए वोटिंग करनी पड़ी। 

इससे यही सिद्ध होता है कि मुसलमान कांग्रेस को केवल सतही रूप से सहिष्णु मानते है और अगर वो उनकी विशिष्ट मांगों की अनदेखी करती है।  तो वे उसे त्याग देने में देर नहीं करते।'


पाठक स्वयं समझदार है। गाँधी जी को मुसलमान जितना झुकाते रहे। वो हिन्दू मुस्लिम एकता के नाम पर उतना झुकते रहे। झुकते झुकते देश का विभाजन हो गया।  पर मर्ज यूँ का यूँ बना रहा। 2021 में मोपला दंगों का शताब्दी वर्ष है। 100 वर्ष में हमें क्या सीखा। आप स्वयं आत्मचिंतन करे।   

Tuesday, March 16, 2021

महात्मा गाँधी और राष्ट्रभाषा




महात्मा गाँधी और राष्ट्रभाषा 

#डॉ_विवेक_आर्य 

महात्मा गाँधी के जीवन को मैं जितना पढ़ता जाता हूँ। उतना मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि वर्तमान में देश की जितनी भी समस्याएं है। उन सभी की जड़ में उनका एकपक्षीय चिंतन है। अति-अहिंसावाद और मुस्लिम तुष्टिकरण की उनकी विचारधारा में देश के विभाजन होने एवं लाखों हिन्दुओं की हत्या होने के बाद भी कोई परिवर्तन न होना।  केवल उनकी हठधर्मिता को सिद्ध करता है। राष्ट्रभाषा हिन्दू और उसकी लिपि देवनागरी को लेकर भी उनकी यही स्थिति थी। 17 जुलाई 1947 को भारतीय विधान परिषद की सभा में बहुमत से हिंदी को राष्ट्रभाषा और देवनागरी लिपि को राष्ट्रलिपि के रूप में घोषित करने का प्रस्ताव पारित हो गया। आश्चर्य तब हुआ जब प्रजातन्त्र के सभी नियमों का उल्लंघन करते हुए गाँधी जी ने कांग्रेस द्वारा स्वीकृत इस प्रस्ताव को अगले अधिवेशन में नहीं आने दिया। हिंदी या हिंदुस्तानी शीर्षक लेख में 3 अगस्त को 'हरिजन सेवक' में उन्होंने लिखा कि 'राष्ट्रभाषा का सवाल करीब दो माह के लिए मुल्तबी (स्थगित) हो गया है। जब विधानसभा फिर मिलेगी तब इस चीज का फैसला होगा। इससे से लोगों को ठन्डे दिल और साफ़ दिमाग से सोचने का मौका मिलेगा।'


गाँधी जी ने एक भी प्रबल युक्ति इस सन्दर्भ में नहीं दी कि क्यों हिंदी को राष्ट्रभाषा और देवनागरी को लिपि न बनाया जाए और क्यों एक कृत्रिम और कल्पित हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा घोषित किया जाए। उनके अनुसार न तो देवनागरी लिपि में लिखी हुई और संस्कृत शब्दों में भरी हुई हिंदी और न फारसी लिपि में लिखी हुई फारसी लफ्जों से भरी हुई उर्दू ही हिंदुस्तान की दो या ज्यादा जातियों को एक दूसरी से बांधने वाली जंजीर बन सकती है। यह काम तो दोनों के मेल से बनी हुई हिंदुस्तानी ही कर सकती है जो दोनों से ज्यादा स्वाभाविक है और देवनागरी या फारसी लिपि में लिखी आती है। ... जिस तरह में उर्दू भाषा और लिपि सिख रहा हूँ उसी तरह मेरा मुसलमान भाई भी मेरी भाषा और लिपि सिखने-समझने की कोशिश करता है या नहीं। ... करीब-करीब सब मौलवी हिंदी या हिंदुस्तानी नहीं जानते। उस में नुकसान उनका है, इत्यादि। 10 अगस्त के 'हरिजन सेवक' में 'गरविला गुजरात भी' इस शीर्षक लेख में महात्मा जी ने यह स्वीकार किया है कि -' मैं यह कबूल करता हूँ कि हिंदुस्तानी पर मेरा जोर मुसलमान भाइयों के खातिर है। यहाँ में गुजरात के मुसलमानों की बात नहीं करता। वे तो उर्दू जानते ही नहीं। वे बहुत मुश्किल से उर्दू सीखते है। इत्यादि। '


इन विचारों से स्पष्ट है कि गाँधी जी अपनी चिर परिचित मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते मुसलमानों को प्रसन्न करने के लिए उर्दू मिश्रित हिंदी को अपनाने पर जोर दे रहे थे। उन्होंने एक अन्य कथन दिया कि -' मुझे तो दिल्ली में रोज हिन्दू और मुसलमान मिलते रहते हैं। इनमें से ज्यादातर हिन्दुओं की भाषा में संस्कृत के शब्द कम से कम रहते हैं, फारसी के हमेशा ज्यादा। नगरी लिपि तो वे जानते ही नहीं। उनके खत या तो उर्दू में या टूटी-फूटी अंग्रेजी में होते हैं। अंग्रेजी में लिखने के लिए मैं उन्हें डांटता हूँ तो वे उर्दू लिपि में लिखते हैं। अगर राष्ट्रभाषा हिंदी  लिपि नागरी, तो इन सबका क्या हाल होगा? (हरिजन सेवक 10-8-47)


गाँधी जी के विचारों का प्रति उत्तर देते हुए धर्मदेव जी विद्यामार्तण्ड ने सार्वदेशिक पत्रिका के सम्पादकीय में लिखा कि-


'गाँधी जी ने यहाँ केवल कुतर्क किया। उत्तर भारत में रहने वाला हिन्दू विगत शताब्दियों में मुसलमानों के संग से उर्दू-फारसी का अधिक प्रयोग करने लग गया है। तो इस आधार पर बंगाल, गुजरात, उड़ीसा, महाराष्ट्र आदि प्रान्त निवासियों जिनकी संख्या बहुतायत हैं। उनके ऊपर  उर्दू-फारसी को जबरदस्ती लादना कहाँ तक उचित है? इन प्रदेशों एवं उनकी प्रान्तीय भाषाओं में संस्कृतनिष्ठ आर्यभाषा के शब्द बहुतायत में पाए जाते हैं। इसलिए उन पर उर्दू-फारसी लादना अत्याचार नहीं तो क्या है? जो देवनागरी लिपि और हिन्दू नहीं जानते उन्हें इसका अभ्यास करवाने की आवश्यकता है अथवा उनके ऊपर कृत्रिम हिंदुस्तानी लादने की आवश्यकता है। जैसे गुजरात के मुसलमान उर्दू नहीं जानते वैसे अन्य प्रांतों के मुसलमान भी उर्दू नहीं जानते।  फारसी लिपि लादना भी अव्यावहारिक है। इसलिए यह सभी के ऊपर अत्याचार हैं। संस्कृतनिष्ठ हिंदी और देवनागरी लिपि से सम्पूर्ण राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोया जा सकता हैं। ' 


इतिहास इस बात का साक्षी है कि देश की भाषा की समस्या को 1947 में सरलता से सुलझाया जा सकता था। उसे सुलझाने के स्थान पर भाषावाद, प्रान्तवाद, क्षेत्रवाद आदि में इस प्रकार से उलझा दिया गया कि देश की अखण्डता और अस्मिता को चुनौती मिलने लगे। इस समस्या की जड़ में खाद डालने का काम गाँधी जी ने किया। यह अतिश्योक्ति नहीं कटु सत्य है।  

Monday, March 15, 2021

महात्मा गाँधी और गौ


 


महात्मा गाँधी और गौ 


#डॉ_विवेक_आर्य 

1947 के दौर की बात है।  देश में विभाजन की चर्चा आम हो गई थी। स्पष्ट था कि विभाजन का आधार धर्म बनाम मज़हब था। भारतीय विधान परिषद के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद के पास देश भर से गौवध निषेध आज्ञा का प्रस्ताव पारित करने के लिए पत्र और तार आने लगे। महात्मा गाँधी ने 25 जुलाई की प्रार्थना सभा में इसी इस विषय पर बोलते हुए कहा-

"आज राजेंद्र बाबू ने मुझ को बताया कि उनके यहाँ करीब 50 हज़ार पोस्ट कार्ड, 25-30 हज़ार पत्र और कई हज़ार तार आ गये हैं। इन में गौ हत्या बकानूनन बंद करने के लिये कहा गया है। आखिर इतने खत और तार क्यों आते हैं? इन का कोई असर तो हुआ ही नहीं है। हिंदुस्तान में गोहत्या रोकने का कोई कानून बन ही नहीं सकता। हिन्दुओं को गाय का वध करने की मनाही है इस में मुझे कोई शक नहीं हैं। मैंने गौ सेवा का व्रत बहुत पहले से ले रखा है। मगर जो मेरा धर्म है वही हिंदुस्तान में रहने वाले सब लोगों का भी हो यह कैसे हो सकता है? इस का मतलब तो जो लोग हिन्दू नहीं हैं उनके साथ जबरदस्ती करना होगा। हम चीख-चीख कर कहते आये हैं कि जबरदस्ती से कोई धर्म नहीं चलाना चाहिये। जो आदमी अपने आप गोकशी  रोकना चाहता उसके साथ में कैसे जबरदस्ती करूँ कि वह ऐसा करें? अगर हम धार्मिक आधार पर यहाँ गौहत्या रोक देते हैं और पाकिस्तान में इसका उलटा होता है तो क्या स्थिति रहेगी? मान लीजिये वे यह कहें कि तुम मूर्तिपूजा नहीं कर सकते क्योंकि यह शरीयत के अनुसार वर्जित है। ... इसलिए मैं तो यह कहूंगा कि तार और पत्र भेजने का सिलसिला बंद होना चाहिये।  इतना पैसा इन पर बेकार फैंक देना मुनासिब नहीं है। मैं तो आपकी मार्फ़त सरे हिन्दुस्तान को यह सुनाना चाहता हूँ कि वे सब तार और पत्र भेजना बंद कर दें। ( हिंदुस्तान 26 जुलाई, 1947)"

"हिन्दू धर्म में गोवध करने की जो मनाई की गई है वह हिन्दुओं के लिए है सारी दुनियाँ के लिए नहीं। ( हिंदुस्तान 10 अगस्त 1947)"

" अगर आप मज़हब के आधार पर हिंदुस्तान में गो कशी बंद कराते हैं तो फिर पाकिस्तान की सरकार इसी आधार पर मूर्तिपूजा क्यों नहीं बंद करा सकती! (हरिजन सेवक 10 अगस्त 1947) "

गाँधी जी के गौ वध निषेध सम्बंधित बयानों की समीक्षा आर्यसमाज के प्रसिद्द विद्वान पं धर्मदेव विद्यामार्तण्ड ने सार्वदेशिक पत्रिका के अगस्त 1947 के सम्पादकीय में इन शब्दों में की-

माहात्मा जी के उपर्युक्त वक्तव्य से हम नितांत असहमत हैं।  प्रजा जिस बात को देशहित के लिए अत्यावश्यक समझती है क्या अपने मान्य नेताओं से पत्र, तार आदि द्वारा उस विषयक निवेदन करने का भी उसे अधिकार नहीं है? क्या देश के मान्य नेताओं का जिन के हाथों स्वतन्त्र भारत के शासन की बागडोर आई है यह कहना कि प्रजा द्वारा प्रेषित हज़ारों तारों और पत्रों का कोई प्रभाव तो हुआ ही नहीं सचमुच आस्चर्यजनक है।  क्या प्रजा की माँग की ऐसी उपेक्षा करना देश के मान्य नेताओं को उचित है? हिंदुस्तान में गौहत्या रोकने का कोई कानून बन ही नहीं सकता। ऐसा महात्मा जी का कहना कैसे उचित हो सकता है? क्या विधान परिषद् की सारी शक्ति महात्माजी ने अपने हाथ में ले रक्खी है जो वे ऐसी घोषणा कर सकें? यह युक्ति देना कि ऐसा करने से हिन्दुओं के अतिरिक्त दूसरे लोगों पर जबर्दस्ती होगी सर्वथा अशुद्ध है। इसके आधार पर तो किसी भी विषय में कोई कानून नहीं बनना चाहिये क्योंकि बाल्यविवाह, अस्पृश्यता, मद्यपान निषेध, चोरी निषेध, व्यभिचार निषेध आदि विषयक किसी भी प्रकार के कानून बनाने से उन लोगों पर एक तरह से जबर्दस्ती होती है जो इन को मानने वा करने वाले हैं। जिस से समाज और देश को हानि पहुँचती है उसे कानून का आश्रय लेकर भी अवश्य बंद करना चाहिये। स्वयं महात्मा गांधीजी की अनुमति और समर्थन में गत वर्ष 11 फरवरी को वर्धा में जो गौरक्षा सम्मलेन हुआ था उसमें एक प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकृत किया गया था कि 'इस सम्मेलन का निश्चित विचार है कि भारत के राष्ट्रीय धन के दृष्टीकौन से गौओं, बैलों और बछड़ों का वध अत्यंत हानिकारक है इसलिए यह सम्मेलन आवश्यक समझता है कि गौओं, बछड़ों और बैलों का वध कानून द्वारा तुरंत बंद कर दिया जाए। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि जो पूज्य महात्माजी गत वर्ष तक गोवध को कानून द्वारा बन्द कराने के प्रबल समर्थक थे वही अब कहें कि इस विषय में कानून नहीं बनाना चाहिए। गोवध निषेध और मूर्तिपूजा निषेध की कोई तुलना नहीं हो सकती। गोवध निषेध की मांग धार्मिक दृष्टि से नहीं किन्तु आर्थिक और संपत्ति से भी की जा रही है क्योंकि गोवध के कारण गोवंश का नाश होने से दूध घी आदि उपयोगी पौष्टिक वस्तुओं की कमी से हिन्दू, मुसलमान,ईसाई, सिख और सभी को हानि उठानी पड़ती है।  बाबर, हुमायूँ, अकबर, शाह आलम आदि ने अपने राज्य में इसे बंद किया था।  गोवध निषेध  के समान कोई चीज पाकिस्तान सरकार कर सकती है तो वह सुअर के मांस के सेवन और बिक्री पर प्रतिबन्ध है। इससे कोई हानि न होगी यदि उसने ऐसा प्रतिबन्ध लगाना उचित समझा। गौवध निषेध विषयक प्रबल आंदोलन अवश्य जारी रखना चाहिए। 

इस लेख से यही सिद्ध होता है कि गाँधी जी सदा हिन्दू हितों की अनदेखी करते रहे। खेद जनक बात यह है कि उनकी तुष्टिकरण उनके बाद की सरकारें भी ऐसे हो लागु करती रही। नेहरू जी की सरकार ने और 1966 में प्रबल आंदोलन के बाद इंदिरा गाँधी ने भी गोवध निषेध कानून लागु नहीं किया। मोदी जी को भी 6 वर्ष हो गए है। यह कानून कब लागु होगा?  हिन्दुओं में एकता की कमी इस समस्या का मूल कारण है। 

Sunday, March 14, 2021

महात्मा गाँधी और वाल्मीकि मंदिर की घटना


 


महात्मा गाँधी और वाल्मीकि मंदिर की घटना 


#डॉ_विवेक_आर्य 


घटना 2 मई, 1947 की है।  दिल्ली के वाल्मीकि मंदिर में प्रार्थना करने के लिए उपस्थित हुए महात्मा गाँधी ने क़ुरान की कुछ आयतों का पाठ किया। इस पर प्रस्तुत सज्जन ने आक्षेप किया तो उसे पुलिस ने पकड़ लिया। गाँधी जी ने प्रार्थना बंद कर दी और अपने भाषण में कहा कि ऐसी संकुचित ह्रदयता पर उन्हें बड़ा हुआ और उन्होंने कहा कि कुछ हिन्दू प्रार्थना में कुरान की आयतें पढ़ने पर क्यों आक्षेप करते हैं? इन वाक्यों में ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना की गई है। इस से हिन्दू धर्म को क्या हानि पहुंच सकती है? 



1.   11 मई, 1947 के हरिजन अख़बार में इस प्रसंग के विषय में लिखा -


मुझे एक मित्र ने बताया है कि कुरान की आयतों का जो आशय है वो यजुर्वेद में भी मिलता है। जिन्होंने हिन्दू धर्म को पढ़ा है वे जानते है कि 108 उपनिषदों में से एक अल्लोपनिषद भी है।  क्या जिस व्यक्ति ने उसे लिखा उसे अपने धर्म का ज्ञान न था?


समीक्षा-


गाँधी जी के हरिजन अख़बार में छपी टिप्पणी का प्रतिउत्तर आर्यसमाज के दिग्गज विद्वान पं धर्मदेव विद्यामार्तण्ड ने सार्वदेशिक पत्रिका के मई 1947 के अंक में सम्पादकीय के रूप में दिया। पं जी लिखते है-गाँधी जी ने अल्लोपनिषद का वर्णन किया। वास्तविकता में ईश, केन, कठ आदि 11 उपनिषद् ही ऋषिकृत उपनिषदें हैं।  इसके अतिरिक्त 100 से ऊपर उपनिषदें सांप्रदायिक लोगों ने बना लिए थे जिनमें एक अल्लोपनिषद भी है। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 14वे समुल्लास के अंत में भंडाफोड़ करते हुए लिखा है- ' 


यह तो अकबरशाह के समय में अनुमान है कि किसी ने बनाई है। इस का बनाने वाला कुछ अर्बी और कुछ संस्कृत भी पढ़ा हुआ दीखता है क्योंकि इस में अरबी और संस्कृत के पद लिखे हुए दीखते हैं। देखो! (अस्माल्लां इल्ले मित्रवरुणा दिव्यानि धत्ते) इत्यादि में जो कि दश अंक में लिखा है, जैसे-इस में (अस्माल्लां और इल्ले) अर्बी और (मित्रवरुणा दिव्यानि धत्ते) यह संस्कृत पद लिखे हैं वैसे ही सर्वत्र देखने में आने से किसी संस्कृत और अर्बी के पढ़े हुए ने बनाई है। यदि इस का अर्थ देखा जाता है तो यह कृत्रिम अयुक्त वेद और व्याकरण रीति से विरुद्ध है। जैसी यह उपनिषद् बनाई है, वैसी बहुत सी उपनिषदें मतमतान्तर वाले पक्षपातियों ने बना ली हैं। जैसी कि स्वरोपनिषद्, नृसिहतापनी, रामतापनी, गोपालतापनी बहुत सी बना ली हैं। देखिये इसका नमूना-


अस्मांल्लां इल्ले मित्रवरुणा दिव्यानि धत्ते। इल्लल्ले वरुणो राजा पुनर्द्ददु । ह या मित्रे इल्लां इल्लल्ले इल्लां वरुणो मित्रस्तेजस्काम ।।१।। होतारमिन्द्रो होतारमिन्द्र महासुरिन्द्रा ।अल्लो ज्येष्ठं श्रेष्ठं परमं पूर्णं ब्रह्माणं अल्लाम्।।२।।अल्लोरसूलमहामदरकबरस्य अल्लो अल्लाम्।।३।। आदल्लाबूकमेककम्।। अल्लाबूक निखातकम्।।४।। अल्लो यज्ञेन हुतहुत्वा। अल्ला सूर्यचन्द्रसर्वनक्षत्र ।।५।। अल्ला ऋषीणां सर्वदिव्याँ इन्द्राय पूर्वं माया परममन्तरिक्षा ।।६। अल्ल पृथिव्या अन्तरिक्षं विश्वरूपम्।।७।। इल्लां कबर इल्लां कबर इल्लाँ इल्लल्लेति इल्लल्ला ।।८।। ओम् अल्ला इल्लल्ला अनादिस्वरूपाय अथर्वणा श्यामा हुं ह्रीं जनानपशूनसिद्धान् जलचरान् अदृष्टं कुरु कुरु फट्।।९।। असुरसंहारिणी हुं ह्रीं अल्लोरसूलमहमदरकबरस्य अल्लो अल्लाम् इल्लल्लेति इल्लल्ला ।।१०।।


इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि किसी ने मुस्लिम मत को वेद और उपनिषद् के अनुकूल दिखाकर हिन्दुओं को भ्रमित करने केलिए इसे रचा था। गाँधी जी का ऐसे विषयों में बिना प्रामाणिक जानकारी के कुछ बी लिखना गलत है। 

 


2.   हरिजन में गाँधी जी लिखते है-


'मैं एक सनातनी हिन्दू होने का दवा करता हूँ और चूकिं हिन्दू मज़हब और दूसरे सब मज़हबों का निचोड़ मज़हबी रवादारी या धार्मिक सहिष्णुता है, इसलिए मेरा दावा है कि अगर में एक अच्छा हिन्दू हूँ तो एक अच्छा मुसलमान और एक अच्छा ईसाई भी हूँ अपने मज़हब को दूसरे मज़हबों से बड़ा मानना सच्ची मज़हबी भावना के खिलाफ है। अहिंसा के लिए नम्रता जरुरी है।  क्या हिन्दू धर्म शास्त्रों में भगवान के हज़ारों नाम नहीं बतलाये गए हैं? रहीम भी उसमें से एक क्यों न हो? कलमे में तो सिर्फ भगवान की तारीफ़ की गई है और मुहम्मद साहिब को उनका पैगम्बर माना गया है।  जिस तरह में बुद्ध, ईसा और जरदुश्त को मानता हूँ उसी तरह मुझे खुदा की तारीफ़ करने मुहम्मद साहब को पैगम्बर मानने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती।'


समीक्षा-


पं जी लिखते है-धार्मिक सहिष्णुता का यह अर्थ है कि दूसरे मत वालों को सुनकर हम उन पर विचार करें और युक्तियों से ही उनके विचारों को बदलने का प्रयत्न करें न कि जबरदस्ती व तलवार के बल से। किन्तु इसका अर्थ उनकी बुद्धि विरुद्ध असंगत बातों को मानना नहीं है। क्या महात्मा जी कह सकते है कि अहिंसा, ब्रह्मचर्य, दयालुता आदि का जो आदर्श आर्यों के धर्म शास्त्रों में बतलाया गया है वही कुरान इत्यादि में भी पाया जाता है?  इसी प्रकार से कहाँ वेद का एक पत्नीव्रत आदर्श सिद्धांत और कहाँ अपनी सगी बहन को छोड़कर किसी से भी बहुविवाह। कहाँ निराकार वेद विदित ईश्वर और कहाँ आसमान में तख़्त पर बैठने वाला शरीरधारी खुदा। जहाँ तक कलमा की बात है उसकी दूसरी पंक्ति कि मुहम्मद उस खुदा का दूत है ऐसा कहना और जो मुहम्मद साहिब को पैगम्बर नहीं मानते चाहे वो कितने भी अच्छे क्यों न हो उनको दोजख अर्थात नर्क जाना पड़ेगा। यह सर्वदा अनुचित और युक्ति विरुद्ध है। 


3. क़ुरान की आयतों पर टिप्पणी करते हुए पं जी ने ख्वाजा हसन निज़ामी के क़ुरान भाष्य पृ. 2  से एक प्रमाण पं जी ने प्रस्तुत किया जिसमें लिखा है- जो मार्ग से भटके हुए है अल्लाह उन पर क्रोध करता है। पं जी इसकी तुलना यजुर्वेद 'अग्ने न्य सुपथा' मन्त्र से कि जिसका अर्थ है हे ज्ञान स्वरुप परमेश्वर! हमें सब प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए सदा उत्तम धर्ममार्ग पर चला।  आगे पं जी लिखते है कि गाँधी जी को सभी मतों की समानता पर अधिक बल देने के स्थान पर स्वामी दयानन्द के इस सन्देश को समझना चाहिए कि सभी मतों में कई सच्ची तथा अच्छी बातें है। हिन्दू मंदिरों में क़ुरान पढ़ना सही नहीं है। 


पं जी के सम्पादकीय के कुछ प्रमुख अंशों को हमने यहाँ प्रस्तुत किया है। वास्तव में मुझे अभी तक गाँधी जी द्वारा किसी मस्जिद में वेद मन्त्र को प्रार्थना रूप में पढ़ने का कोई प्रमाण देखने में नहीं आया है। मैं कई बार सोचता हूँ गाँधी जी के बारे में कुछ लेखकों ने विशेष पुस्तक लिखी हैं जैसे मौलाना गाँधी, काश गाँधी जी ने कुरान पढ़ी होती?,  गाँधी बेनकाब आदि। इन पुस्तक को लिखने वालों का प्रयोजन क्या था।  इस लेख को पढ़ने के पश्चात शायद पाठक इस विषय पर प्रकाश डाल सके। 


खिलाफत के दौर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। मुसलमानों ने कांग्रेस के मंच से क़ुरान की आयतें पढ़ी। वो आयतें गैर मुसलमानों के विषय में सख्त थी।  स्वामी श्रद्धानन्द ने गाँधी को इस विषय में सचेत किया तो गाँधी जी ने उसे गंभीरता से नहीं लिया और कहां कि ये आयतें अंग्रेजों के लिए है। स्वामी जी फिर कहा कि कल को ये हिन्दुओं के विरोध में कहीं जाने लगे। तब आपका रवैया अभी भी ऐसा ही होगा क्या?  गाँधी जी मौन हो गए। 


कांग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन में मंच से अली बंधू कहे जाने वाले मौलाना अली ने कहा कि देश में 6 करोड़ अछूत है। उन्हें आधा हिन्दुओं में और आधा मुसलमानों में बाँट देना चाहिये। स्वामी श्रद्धानन्द ने इस विषय पर रोष प्रकट किया पर गाँधी जी मौन रहे। 


कांग्रेस के ही मंच से इन्हीं मौलाना ने एक बार गाँधी जी पर आक्षेप करते हुए कहा कि गाँधी जी को कभी जन्नत में जगह नहीं मिलेगी चाहे उनके विचार कितने अच्छे हो, कितने पवित्र हो क्योंकि वे मुसलमान नहीं है। गाँधी जी मंच से कुछ न बोले।  अधिक दवाब पड़ने पर केवल यही बोले कि मौलाना मुझ वृद्ध से मज़ाक अच्छा कर लेते है। 


ये कुछ घटनाएं है। जो पाठकों को गाँधी जी के अनसुने जीवन का परिचय देती है। 

Saturday, March 13, 2021

सत्यार्थ प्रकाश और क़ुरान: इतिहास के दर्पण में

 




  सत्यार्थ प्रकाश और क़ुरान: इतिहास के दर्पण में 


#डॉ_विवेक_आर्य 


समाचार पत्र से ज्ञात हुआ। क़ुरान की 26 आयतों को बाद में मिलाई हुई आयतें करार देकर उन्हें क़ुरान से हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में सैय्यद वसिम रिजवी ने याचिका लगाई है। इस समाचार में ये कौन सी आयतें हैं। इस पर प्रकाश नहीं डाला गया। अनुमान से ये वो आयतें होनी चाहिये जो मुसलमानों को गैर मुसलमानों के प्रति हिंसा करने का सन्देश देती हैं। इस अनुमान का कारण निराधार नहीं है। क्योंकि क़ुरान की आयतों में समीक्षा करने का विचार आज से लगभग 140 वर्ष पुराना है। स्वामी दयानन्द ने  ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के 14वें सम्मुलास में क़ुरान की आयतों की समीक्षा ईश्वरीय ग्रन्थ होने की कसौटी पर की गई थीं। स्वामी जी इस समुल्लास की भूमिका में लिखा है कि- 'यह लेख हठ, दुराग्रह, ईर्ष्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिये किया गया है, न कि इन को बढ़ाने के अर्थ।' मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि अगर सम्पूर्ण मानव समाज इस कसौटी पर सत्य-असत्य का निर्णय करने लगे तो निश्चित रूप से संसार स्वर्ग बन जाये। 


सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान की आयतों की समीक्षा के कुछ उदहारण देखिये-


५४-और काफिरों पर हम को सहाय कर।। अल्लाह तुम्हारा उत्तम सहायक और कारसाज है।। जो तुम अल्लाह के मार्ग में मारे जाओ वा मर जाओ, अल्लाह की दया बहुत अच्छी है।। -मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १४७। १५०। १५८।।


(समीक्षक) अब देखिये मुसलमानों की भूल कि जो अपने मत से भिन्न हैं उन के मारने के लिये खुदा की प्रार्थना करते हैं। क्या परमेश्वर भोला है जो इन की बात मान लेवे? यदि मुसलमानों का कारसाज अल्लाह ही है तो फिर मुसलमानों के कार्य नष्ट क्यों होते हैं? और खुदा भी मुसलमानों के साथ मोह से फंसा हुआ दीख पड़ता है, जो ऐसा पक्षपाती खुदा है तो धर्मात्मा पुरुषों का उपासनीय कभी नहीं हो सकता।।५४।।


७९-और काटे जड़ काफिरों की।। मैं तुम को सहाय दूंगा। साथ सहस्र फरिश्तों के पीछे पीछे आने वाले।। अवश्य मैं काफिरों के दिलों में भय डालूंगा। बस मारो ऊपर गर्दनों के मारो उन में से प्रत्येक पोरी (सन्धि) पर।। -मं० २। सि० ९। सू० ८। आ० ७। ९। १२।।


(समीक्षक) वाह जी वाह! कैसा खुदा और कैसे पैगम्बर दयाहीन। जो मुसलमानी मत से भिन्न काफिरों की जड़ कटवावे। और खुदा आज्ञा देवे उन की गर्दन पर मारो और हाथ पग के जोड़ों को काटने का सहाय और सम्मति देवे ऐसा खुदा लंकेश से क्या कुछ कम है? यह सब प्रपञ्च कुरान के कर्त्ता का है, खुदा का नहीं। यदि खुदा का हो तो ऐसा खुदा हम से दूर और हम उस से दूर रहें।।७९।।


८१-और लड़ो उन से यहां तक कि न रहे फितना अर्थात् बल काफिरों का और होवे दीन तमाम वास्ते अल्लाह के।। और जानो तुम यह कि जो कुछ तुम लूटो किसी वस्तु से निश्चय वास्ते अल्लाह के है पाँचवाँ हिस्सा उस का और वास्ते रसूल के।। -मं० २। सि० ९। सू० ८। आ० ३९। ४१।।


(समीक्षक) ऐसे अन्याय से लड़ने लड़ाने वाला मुसलमानों के खुदा से भिन्न शान्तिभंगकर्ता दूसरा कौन होगा? अब देखिये यह मजहब कि अल्लाह और रसूल के वास्ते सब जगत् को लूटना लुटवाना लुटेरों का काम नहीं है? और लूट के माल में खुदा का हिस्सेदार बनना जानो डाकू बनना है और ऐसे लुटेरों का पक्षपाती बनना खुदा अपनी खुदाई में बट्टा लगाता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसा पुस्तक, ऐसा खुदा और ऐसा पैगम्बर संसार में ऐसी उपाधि और शान्तिभंग करके मनुष्यों को दुःख देने के लिये कहां से आया? जो ऐसे-ऐसे मत जगत् में प्रचलित न होते तो सब जगत् आनन्द में बना रहता।।८१।।


मुसलिम समाज ने स्वामी जी के उद्देश्य को समझने के स्थान पर उसका प्रतिरोध आरम्भ कर दिया। उनके लिए यह पहली बार था कि किसी गैर मुस्लिम ने क़ुरान की समीक्षा करने के लिए प्रेरित किया था। अनेक पुस्तकें 14वें समुल्लास के विरोध में प्रकाशित की गई थीं। आर्य विद्वानों ने उनका यथोचित उत्तर समय समय पर लिखा। पं लेखराम ने 1892 में जहाद के नाम से एक ट्रैक्ट प्रकाशित किया। इस ट्रैक्ट में क़ुरान और हदीस की आयतों के गैर मुसलमानों के साथ सख्त व्यवहार के प्रमाण थे और अरब से लेकर भारत में इस्लाम कैसे फैला इसका विवरण था। इस ट्रैक्ट का उद्देश्य भी क़ुरान की समीक्षा करने के लिए संवाद की स्थापना करना था। पर इसके भी विपरीत प्रतिक्रिया हुई थीं। इसके बाद के दौर में कई सौ पुस्तकें दोनों ओर से लिखी गई थीं। 1920 के दशक में देश में अनेक दंगे हुए जिनमें मोपला, मुलतान और कोहाट के दंगे सबसे प्रसिद्ध रहे। स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा हिन्दू संगठन और शुद्धि आंदोलन चलाने पर अनेक पुस्तकें पक्ष-विपक्ष में प्रकाशित हुई। स्वामी जी की हत्या के पश्चात जो साहित्य प्रकाशित हुआ उसमें उनकी हत्या का प्रमुख कारण क़ुरान की उत्तेजक आयतों का होना बताया गया था जिससे कट्टरवाद को बढ़ावा मिलता था। 



    


 इन सभी के मध्य रँगीला रसूल पुस्तक को लेकर उसके प्रकाशक महाशय राजपाल की हत्या का प्रसंग इंग्लैंड की संसद पर गया। इसी कड़ी में सिंध सरकार ने सत्यार्थ प्रकाश के 14वें समुल्लास पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस प्रतिबन्ध का आर्यसमाज ने प्रतिकार किया। सार्वदेशिक पत्रिका में आर्यसमाज के दिग्गज विद्वान जैसे पं धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, पं गंगा प्रसाद उपाध्याय, पं सूर्यदेव ने इस्लाम के इतिहास, क़ुरान की आयतों की समीक्षा करते हुए अनेक लेख प्रकाशित किये थे। ये सभी लेख अत्यंत पठनीय थे।  20 फरवरी 1944 को दिल्ली में एक विशाल आर्य सम्मेलन ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर प्रतिबन्ध लगाने के प्रयास की कड़ी भर्त्सना की थीं। इसके अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। वायसराय को हजारों तार भेजकर इस अन्यायपूर्ण कदम का विरोध किया गया था। 


हिन्दू महासभा के नेता भाई परमानंद जी ने कहा – “ सिंध के मुस्लिम मंत्रिमंडल ने “सत्यार्थ प्रकाश” पर प्रतिबन्ध लगाकर सारी हिन्दू जाति को ही चुनौती दी है | यदि यह मान लिया जाये की चौदहवें समुल्लास को इस्लाम धर्म के खंडन के नाते प्रतिबंधित कर दिया जाये तो क़ुरान का प्रत्येक शब्द ही हिन्दुओं के विरुद्ध पड़ता है | समस्त कुरान को भी क्यों न जब्त किया जाये ?”


वीर सावरकर जी ने सार्वजनिक घोषणा की –“ जबतक सिंध में सत्यार्थ प्रकाश पर पाबंदी लगी है, तब तक कांग्रेस शासित प्रदेशों में कुरान पर प्रतिबन्ध लगाने की प्रबल मांग की जानी चाहिए |”  सावरकर जी ने भारत के वायसराय और सिंध के गवर्नर को तार देकर कहा –“ सिंध सरकार द्वारा “सत्यार्थ प्रकाश” पर प्रतिबन्ध लगाने से सांप्रदायिक वैमनस्य उत्पन्न होगा| यदि सत्यार्थ प्रकाश से प्रतिबन्ध नहीं हटाया गया तो हिन्दू कुरान पर प्रतिबंध लगाने के लिए आन्दोलन प्रारम्भ कर देंगे। अतः मैं केन्द्रीय सरकार से अनुरोध करता हूँ कि सत्यार्थ प्रकाश पर लगे प्रतिबन्ध को अविलंब रद्द करे।” इतना ही नहीं 27 नवम्बर 1944 को सावरकर जी ने स्वयं वायसराय से भेंट की और “सत्यार्थ प्रकाश’ से प्रतिबन्ध हटाने की मांग की थीं। सिंध सरकार ने आर्य नेताओं के खुले आम सत्यार्थ प्रकाश लेकर सिंध में भ्रमण करने पर कोई रोक टोक नहीं लगाई। इससे यह प्रतिबन्ध हवाई किला सिद्ध हुआ। सीहोर भूपाल मुस्लिम रियासत के अंतर्गत था। यहाँ भी सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। सार्वदेशिक जून 1947 में यह समाचार मिलता है कि यहाँ पर आर्य समाज ने आचार्य द्विजेन्दरनाथ के सभापतित्व में आर्य महा सम्मेलन कर इसे धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप बताया। संभवत विभाजन के पश्चात यह प्रतिबन्ध स्वयमेव उठ गया। 


महात्मा गाँधी की भूमिका यहाँ पर वर्णन करे बिना यह लेख अधूरा है। सत्यार्थ प्रकाश के विषय में गाँधी जी ने नकारात्मक टिप्पणी लिखते हुए लिखा कि सत्यार्थ प्रकाश ने  हिंदुत्व को संकीर्ण बना दिया। स्वामी दयानन्द ने जैन, इस्लाम और हिन्दू धर्म की गलत व्याख्या की। यह भी दोष लगाया कि ऐसे सुधारवादी व्यक्तित्व की कृति देखकर उन्हें निराशा हुई। गाँधी जी को अनेक आर्य लेखकों ने उस समय यथोचित उत्तर दिया। पं चमूपति ने गाँधी जी के आरोपों का बड़ा सुन्दर प्रतिउत्तर दिया था। आजीवन गाँधी जी मुसलमानों को प्रसन्न करने के चक्कर में हिन्दू हितों की अनदेखी करते रहे। परिणाम देश के विभाजन के रूप में निकला। मोपला आदि दंगों, शुद्धि, हिन्दू संगठन, वेद, मूर्तिपूजा-कर्मकांड, क्षात्र धर्म और अति-अहिंसावाद मत-मतान्तर समीक्षा, गौरक्षा, मुस्लिम कट्टरता, स्वामी श्रद्धानन्द, रंगीला रसूल और महाशय राजपाल, हैदराबाद आंदोलन, सिंध सत्याग्रह, नोआखली और डायरेक्ट एक्शन डे, देश विभाजन आदि विषयों पर आर्यसमाज और महात्मा गाँधी के मतभेद जीवन पर्यन्त रहे।  2 मई 1947 को गाँधी जी  वाल्मीकि मंदिर नियमित प्रार्थना के पश्चात क़ुरान की कुछ आयतें पढ़वाई। कुछ लोगों ने आक्षेप किया तो गाँधी ने उनकी मानसिकता को संकीर्ण बताया। गाँधी ने आगे हरिजन अख़बार में यहाँ तक कह दिया कि 108 में से एक उपनिषद् अल्लोपनिषद भी है। साथ में लिखा कि- 'मुझे इस का कोई कारण नहीं दिखाई देता कि मैं कलमा क्यों न पढूं, अल्लाह की स्तुति क्यों न करूँ और मोहम्मद साहब को अपमा पैगम्बर मान कर उनकी इज्जत क्यों न करूँ? गाँधी जी के इस कृत्य की भारी आलोचना हुई और पं धर्मदेव विद्यामार्तण्ड ने गाँधी से से क़ुरान के आधार पर यही प्रश्न पूछ लिया कि क्या क़ुरान में गैर मुसलमानों के लिए बताई गई आयतों को भी गाँधी जी सही मानते है जिनके अनुसार अल्लाह उन पर कभी मेहरबान नहीं होता जो चाहे कितने अच्छे कर्म करते हो पर वो न पैगम्बर पर विश्वास रखते है और न ही क़ुरान में। वे दोज़ख में जायेंगे।  इन विषयों पर प्राय: गाँधी मौन ही रह जाते थे। अच्छा होता वो अपनी नीति स्पष्ट करते। 



 आर्यसमाज ने उस काल में क़ुरान के दिग्गज विशेषज्ञ पं रामचंद्र दहेलवी जी ने एक ट्रैक्ट हिंदी में लिखा। इस ट्रैक्ट का शीर्षक था 'सत्यार्थ प्रकाश चतुर्दश समुल्लास में उद्धृत  क़ुरान की आयतों का देवनागरी में  उल्था और अनुवाद' । इसमें मुसलमानों द्वारा इस समुल्लास पर लगाए गए आक्षेपों का प्रति उत्तर था। इस बीच देश का विभाजन हुआ। देश विभाजन के पश्चात 20 जुलाई,1984 को हिमांग्शु किशोर चक्रवर्ती ने कोलकाता में क़ुरान की उत्तेजक आयतों को हटाने के लिए कोर्ट में याचिका दायर की थीं। इस याचिका को कोर्ट ने निष्कासित कर दिया। इस याचिका के विरुद्ध मुसलमानों ने बांग्लादेश तक में प्रदर्शन किया। सीता राम गोयल ने इस याचिका को बाद में प्रकाशित किया। उनका कहना था कि इसे गैर मुसलमानों को अवश्य पढ़ना चाहिए कि क़ुरान उनके विषय में क्या कहती है।  कोलकाता में ही एक बार आर्यसमाज के उत्सव में रखी बंगला सत्यार्थ प्रकाश को पुलिस ने जब्त कर लिया था। आर्यसमाज ने उमाकांत जी उपाध्याय ने धरना कर इस कदम का विरोध किया। पुलिस ने ससम्मान सत्यार्थ प्रकाश की प्रतियां वापिस कर प्रकरण को निपटाया। कश्मीर में भी एक बार फारूक अब्दुल्लाह ने ऐसा ही दुस्साहस किया था। एक आर्य व्यक्ति को अरब में सत्यार्थ प्रकाश रखने पर जेल भेज दिया गया था। तत्कालीन आर्य नेताओं ने राजीव गाँधी तत्कालीन प्रधानमंत्री के सहयोग से उन्हें मुक्त करवाया था। 


अब इस याचिका का क्या हश्र होगा? क्या मुस्लिम समाज परिवर्तन के लिए मानसिक रूप से तैयार है? उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी? इन प्रश्नों का उत्तर भविष्य की गर्भ में है। 

Friday, March 12, 2021

हैदराबाद आंदोलन और आर्यसमाज




 


हैदराबाद आंदोलन और आर्यसमाज 

#डॉ_विवेक_आर्य 

आपको इतिहास की किसी भी इतिहास पुस्तक में आर्यसमाज द्वारा 1939 में चलाये गये हैदराबाद आंदोलन के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलेगी। स्वतन्त्र भारत के पहले मदरसा पठित शिक्षा मंत्री अब्दुल कलाम को यह खास हिदायत मिली थीं कि इतिहास में हिन्दुओं पर जितने भी अत्याचार हुए हैं।  उनका किसी इतिहास पुस्तक में वर्णन मत करना। भारतीयों के प्राचीन इतिहास का जिस पर वो गौरव कर सके। उसका भी वर्णन मत करना। उसे सदा पराजित दर्शाना ताकि भारतीयों को यह लगने लगे कि तुम शासक बनने के कभी योग्य ही नहीं थे। इसलिए तुम पर विदेशी शासन करने के लिए आये। यही तुम्हारी नियति थी। 

24 फरवरी 1939 को हैदराबाद से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र 'रहबरे दकिन' में  हैदराबाद के तत्कालीन निज़ाम मीर उस्मान अली की एक ग़ज़ल प्रकाशित हुई। जिसका एक पद्य यह था-

'बन्द नाकूस हुआ सुनके नदाये तकबीर। जलजला आ ही गया सिलसिले जुन्नार पै भी।।'

अर्थात मस्जिदों में मुसलमानों की अल्लाह अकबर की आवाज़ सुनकर हिन्दू लोगों के दिन दहल गये। उनके मंदिरों के शंख बंद हो गये और उनके (जुन्नार) जनेऊ शरीर की कंपकंपी के कारण हिल थे।  

पं गंगा प्रसाद उपाध्याय ने अपनी आत्मकथा में इस ग़ज़ल का उत्तर इस प्रकार से दिया था-

'तीन धागे थे फ़कत सूत के कच्चे लेकिन। बाजी जुन्नार ने ली हैदरी तलवार पै भी।।'

अर्थात तीन धागे थे सूत के कच्चे पर फिर भी हैदरी तलवार पर जनेऊ अर्थात यज्ञोपवीत भारी पड़ा। 

यह पद्य आर्यसमाज द्वारा सुदूर दक्षिण में हैदराबाद में निज़ाम द्वारा चलाये जा रहे दमन के विरोध अहिंसक आंदोलन की विजय का समाचार देता है।  हैदराबाद रियासत में प्रजा में 89% हिन्दू थे और 10% मुस्लिम। जबकि सरकारी नौकरियों में यह प्रतिशत विपरीत था।  शासक मतान्ध निजाम था जो दुनिया का सबसे धनी आदमी समझा जाता था। जिसके पुत्र का विवाह तुर्की के खलीफा की पुत्री से हुआ था। निजाम के लोगों को लगता था कि उनका पोता तुर्की का खलीफा बनेगा और मुसलमानी जगत की बागडोर आसफिया वंश के हाथों में होगी। अलीगढ में सर सैय्यद अहमद खान के लगाए हुए अलगाववादी वृष में निज़ाम मतान्धता की घुट्टी पीकर आया। तेलगू भाषी प्रदेश पर उर्दू लाद दी। हिन्दुओं को नए मंदिर बनाने, उत्सव बनाने, जुलूस निकालने, पुराने मंदिरों की मरम्मत करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस्लाम में मत परिवर्तन को प्रोत्साहन दिया। उसे अपनी मतान्ध नीति में आर्य समाज बाधा लगी तो उसने रियासत में आर्य प्रचारकों पर प्रतिबन्ध लगा दिया।  अंत में विवश होकर आर्यसमाज को 25 दिसंबर 1938 में शोलापुर में आंदोलन करने की घोषणा करनी पड़ी। यह काल था जब देश में गाँधी का सिक्का बोलता था। आर्यों का अहिंसक आंदोलन भी गाँधी को असहनीय था। गाँधी ने घोषणा कर दी कि कोई भी कांग्रेसी हैदराबाद आंदोलन में भाग ना ले। अगले कुछ दिनों में दिल्ली में कांग्रेस का दफ्तर त्यागपत्रों से भर गया। तब जाकर गाँधी की आँख खुली और आर्यसमाज की जमीनी ताकत का उन्हें अहसास हुआ। ऐसा ही गलत आकलन निज़ाम ने भी किया था। हज़ारों आर्यों ने निज़ाम की जेलें भर दी। आर्यों के जनेऊ ने निज़ाम की हैदरी तलवार कुंठित कर दी। निजाम सोचता था कि चींटी चींटी ही है। हाथी के एक पैर से कुचली जा सकती है। पर निज़ाम सृष्टि का नियम भूल गया था। जब समय आ जाता है तो ईश्वर चींटियों के द्वारा ही हाथी का विनाश भी कर देता है। हैदराबाद के सर अकबर हैदरी ने एक महंत के समक्ष कहा कि- यह हमारा क्या करेंगे? महंत ने उत्तर दिया कि आप क्या करने की बात कहते हैं। यह न सोवेंगे और न आपको सोने देंगे। वस्तुतः: ऐसा ही हुआ। 

 आर्यों के न परिवारों में लगातार कई महीनों तक न कोई सोया न ही निज़ाम को सोने दिया। सर्वप्रथम आर्य समाज के सार्वदेशिक सभा के प्रधान महात्मा नारायण स्वामी जी ने अपनी गिरफ़्तारी दी। पीछे जत्थे के जत्थे अपने अपने सर्वधिकारियों के संग जेल जाते रहे। जत्थों का जहाँ रेलवे स्टेशन पर आर्य जनता स्वागत करती थी। वही शहरों से निकलते हुए जत्थों के जुलूसों पर मस्जिदों से पथरबाजी होती थी। स्वामी स्वतंत्रानन्द जी शोलापुर में बैठे हुए फील्ड मार्शल के समान उनका नेतृत्व करते रहे। आखिर में निज़ाम की जेलों में स्थान नहीं रहा। इस आंदोलन की गूंज ब्रिटेन तक गई। निज़ाम ने यह भ्रम भी फैलाने का प्रयास किया कि आर्यों ने असत्य प्रचार उन्हें बदनाम करने के लिए फैला रखा है। आर्यों ने हैदराबाद में बहुत से पत्र, फरमान, आदेश-पत्र, पुराने हिन्दू मंदिरों पर मुसलमानी झंडों के चित्र, टूटे हुए हिन्दू मंदिरों के चित्र , भग्न मूर्तियों के चित्र एकत्र कर उनकी रिपोर्ट बनाकर ब्रिटेन की पार्लियामेंट को भेज दी। निज़ाम का पाँसा यहाँ भी उलट गया। अंत में विवश होकर निज़ाम ने घुटने टेक दिए। आर्यों की ऐतिहासिक विजय हुई। यही आर्यों की विजय बाद में जाकर सरदार पटेल के अनुसार आपरेशन पोलो द्वारा हैदराबाद को भारत में मिलाने के लिये कारगर सिद्ध हुई। 

कुछ लोग कहेंगे कि आज के सन्दर्भ में हैदराबाद आंदोलन की क्या प्रासंगिकता है? तो मैं उन्हें बताना चाहूंगा कि आज कल हैदराबाद से ही एक स्वयंभू नेता के नाम पर देश में भ्रामक बयान देता रहता है। उसकी मजलिस ने उस काल में भी आर्यों का पूरा विरोध करने में और रजाकारों के माध्यम से हिन्दुओं को प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।  हमारे पूर्वजों ने उसकी बीमारी की अहिंसात्मक तरीके से तब भी चिकित्सा की थी।