Shri Krishna and Arya Samaj
Wednesday, September 20, 2023
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Wednesday, September 6, 2023
स्वामी श्रद्धानन्द का वध और गवर्नमेंट
Thursday, August 10, 2023
श्री भक्त फूलसिंह जी का बलिदान
श्री भक्त फूलसिंह जी का बलिदान
लेखक -स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती
प्रेषक- #डॉ_विवेक_आर्य
स्रोत्र - सार्वदेशिक मासिक पत्रिका, सितम्बर 1942
(1.) जिन दिनों पंजाब केसरी श्री लाला लाजपत राय जी ब्रह्मदेश को निर्वासित किये गए थे प्रायः उन्हीं दिनों श्रीमान महात्मा मुन्शीराम जी की अनुमति से हरियाणा प्रान्त के त्रसित आर्यों के बीच प्रचार करने के लिये मैं रोहतक आया था। थोड़े दिनों के बाद ही श्री भक्त जी के साथ मेरा परिचय हुआ और श्री भक्त जी मुझे बारम्बार अपने जन्मस्थान ग्राम माहरा (जिला रोहतक) में ले गए और वैदिक धर्म का प्रचार करवाया। धीरे धीरे धर्म के भाव उनके मन में इतना जम गया कि वह वैदिक धर्म के प्रचार के लिए व्याकुल होने लगे।
(2.) जिला रोहतक में बवाना एक ग्राम है। जब कि श्री भक्त जी वहां माल विभाग की ओर से पटवारी का काम करते थे। समालखा (जिला करनाल) के लोग उनके पास पहुंचे और समालखा में गोघात के लिए हत्था ( जबह खाना) खुलने वाला है। इस बात को बड़े दुःख के साथ वर्णन किया। श्री भक्त जी ने तुरंत ही अपने विभाग के अफसर से छुट्टी ले ली और उक्त जबहखाना के विरुद्ध घूम-घूमकर आंदोलन करने लगे। नियत तिथि पर कई सहस्त्र जनसमूह साथ लेकर समालखा पहुंचे और विरोधियों के हृदय में भय छा गया । श्रीमान डिपुटी कमिश्नर साहब करनाल ने बलवे की सम्भावना देख आज्ञा दी की समालखा में हत्था नहीं खुलेगा और कुपित जन समुदाय ने शान्त हो अपने २ ग्रामों को प्रस्थान किया। श्री भक्त जी गोमाता के पुजारी थे और यथा सम्भव उसकी रक्षा के लिये सदा तत्पर रहते थे।
(3.) कुछ दिनों बाद उनके हृदय में पश्चाताप की आग बलने लगी और उन्होंने माल विभाग की नौकरी छोड़ दी और इस विभाग में कार्य करते हुए जो रिश्वत इन्होंने ली थी उसे या करने के लिये अपनी जमीन बेच दी और प्रत्येक रिश्वत देने वाले की सेवा में उपस्थित होकर ग्राम के पंचों के सम्मुख रिश्वत का रुपया वापस कर दिया। हिसाब लगाने पर मालूम हुआ कि लगभग साढ़े चार हजार 4500) रूपये रिश्वत के उन्होंने वापिस किये।
(4.) अब उन्होंने समझा कि वह वैदिक धर्म की सेवा कर सकते हैं। इस कारण उन्ह ने प्रस्ताव किया कि इस प्रान्त में एक उपदेशक विद्यालय खोलकर वेद धर्म के प्रचारक तयार किये जायें । मैंनै सम्मति दी कि गुरुकुल खोलिये और उसके स्नातकों के द्वारा वैदिक धर्म का प्रचार कराये। तद्नुसार श्री भक्त जी ने 23 मार्च सन् 1920 को गुरुकुल भैंसवाल की स्थापना की और इसके संचालन के लिये तप करने लगे जिस दिन इस गुरुकुल की स्थापना हुई थी उस दिन लगभग सहस्र रुपये 20000 ) नक़द दान में आए थे ।
(5.) गुरुकुलार्थ धन संग्रह का काम करते हुए जिस ग्राम में भक्त जी पहुँचते थे वहां महर्षि दयानन्द का सन्देश सुनाते हुए विशेष रूप से यह यत्न करते थे कि उस ग्राम के परस्पर के झगड़े मिट जावें, पंचायत की रीति से उनके मामले मुक़दमे समाप्त हो जावें, रिश्वत देने की रीति मिट जावे। इन कार्यों में उन्हें प्रायः आशातीत सफलताएँ प्राप्त होती थीं। ग्रामीणों को उपदेश देते हुए प्रायः कहा करते थे कि “जुल्म करना पाप है और जुल्म को सहना महापाप है।" श्री भक्त जी के प्रचार से रिश्वत देना लोगों ने बन्द करना आरम्भ किया और रिश्वतखोर भक्त जी से मन ही मन चिढ़ने लगे ।
(6.) अब भक्त जी का काम अधिक विस्तृत होने लगा। मूले ( मुसलमान ) जाटों की शुद्धि का काम उन्होंने आरम्भ किया। जिला गुड़गांव के क़स्बा होडल के पास उन्होंने उक्त शुद्धि के लिये लोगों को समझाया परन्तु लोग न माने, तब अगस्त 1926 में लोगों पर दबाव डालने के लिये उन्होंने अनशन व्रत धारण किया अर्थात् अठारह दिनों तक सिवाय जल पीने के और कुछ भी नहीं खाया । इस व्रत के कारण लोगों के हृदय पिघलने लगे और भक्त जी का व्रत खुलवाने के लिये बड़े बड़े लोग उनकी सेवा में उपस्थित हुए और श्री भक्त जी को विश्वास दिलाया कि शुद्धि हो जावेगी। जिस पर श्री भक्त जी ने उपवास तोड़ा परन्तु बड़े लोग भी अपने वचनों की पालना न कर सके और उस समय वहां शुद्धि नहीं हुई।
(7.) अपने भ्रमण काल में नारी जाति की दुर्दशा उन्होंने देखी और संकल्प किया कि यथाशक्ति इनके उद्धार के लिये भी यत्न करेंगे। तदनुसार सन् 1926 में ग्राम खानपुर ( जिला रोहतक) के जंगल में कन्या गुरुकुल की स्थापना की जहां कन्याएँ आर्य सिद्धान्तों की शिक्षा पा रही हैं। अखिल भारतीय आर्य युवक संघ की परीक्षा सिद्धान्त शास्त्रिणी में उक्त कन्या गुरुकुल की तीन छात्राएँ उत्तीर्ण हो चुकी हैं और कन्या गुरुकुल में शिक्षा देती हुई अवकाश काल में कई ब्रह्मचारियों को साथ लिए हुए वैदिक धर्म के प्रचार में संलग्न रहती है। उक्त परीक्षोत्तीर्ण कन्याओं में श्री भक्त जी की दो पुत्रियां श्रीमती सुभाषिणी जी तथा श्रीमती गुणवती जी भी हैं जो उक्त कन्या गुरुकुल में अवैतनिक मुख्याधिछात्री तथा अवैतनिक आचार्या का काम इन दिनों कर रही हैं ।
(8.) एक अबला की पुकार - सूबा दिल्ली में सरसा जांटी एक ग्राम है। वहां की एक हिन्दू अबला रोती हुई श्री भक्त जी के पास गुरुकुल भैंसवाल पहुँची और कहने लगी कि उसकी एक कन्या दश ग्यारह वर्ष की लापता है, बहुत खोजी गई परन्तु नहीं मिली, भक्तजी की कृपा हो तो वह मिले और मेरा व्याकुल हृदय शान्त हो । उसके विलाप से भक्त जी का हृदय विशेष दुःखी हुआ और उस खोई हुई कन्या की खोज में वह चल पड़े। विशेष जाँच के बाद पता लगा कि कन्या मुसलमान रांघड़ों के गांव गूगाहेड़ी में है। श्री भक्त जी ने जाटों के गांव निदाणा में पंचायत की और गूगाहेड़ी बालों से कन्या मांगी। गूगाहेड़ी वालों ने कहा कि उनके यहां कन्या नहीं है। निदाणा वालों के पास कोई ऐसा दृढ़ प्रमाण नहीं था जिससे वे सिद्ध करते कि गूगाहेड़ी वालों के पास ही कन्या है । तथापि न मालूम किस प्रकार और कहां से कन्या श्री भक्त जी के पास रात्रि समय पहुंचा दी गई और श्री भक्त जी ने रोती हुई माता की गोद में उसकी पुत्री को जा बिठाया । "श्री भक्त जी निबलों के सहायक हैं, अत्याचारियों के अत्याचार दूर करते हैं" यह किम्बदन्ती चारों ओर फैल गई और दुखी लोग त्राण पाने के लिये श्री भक्त जी की शरण लेने लगे ।
(9.) धीरे धीरे सन् 1939 ई० का कठिन समय भी आन पहुंचा। निजाम साहब हैदराबाद के राज्य में आर्यों पर अत्याचार होने लगे जिनके समाचार श्रवण कर बाहर के आर्य सत्याग्रह के लिए कटिबद्ध हुए। रोहतक के सत्याग्रहियों के अग्रणी श्री भक्त फूलसिंह जी हैदराबाद की यात्रा के लिये तैयार हुए परन्तु उनके साथ काम करने वाले सज्जनों ने (विशेषकर सत्याग्रह की स्पिरिट फूंकने वाले आये भजनोपदेशकों ने) श्री भक्त जी को रोक लिया और वह हैदराबाद न जाकर लगातार सत्याग्रहियों के भर्ती करने में तत्पर हुए आर्य जगत् को यह बात मालूम है कि श्री भक्तजी और उनके सहायक सज्जनों ( विशेषकर आर्य भजनोपदेशकों) के पुरुषार्थ से इस ओर से लगभग 700 सत्याग्रही हैद्राबाद के लिये रवाना हुए थे, और बहुत से सत्याग्रही जाने को तैयार थे।
13 मई 1939 को जब कि मैं ( ब्रह्मानन्द सरस्वती ) अपने एक सौ सत्याग्रहियों के साथ हैदराबाद को रवाना होने वाला था, श्री भक्त फूलसिंह जी गुरुकुल भैंसवाल के लगभग तीस ब्रह्मचारियों तथा कार्य कर्ताओं के साथ चार सौ के रुपये लिए हुए मुझे मान-पत्र ( ऐड्रेस ) देने आ रहे थे। रोहतक की सड़क जो बड़ी मस्जिद के पास से गुजरती है वहाँ श्री भक्त जी की मंडली भजन गाती हुई जब आर्य मन्दिर की ओर आ रही थी तो कतिपय मुसलमान उक्त मण्डली पर लाठियाँ वर्षाने लगे जिससे गुरुकुल के उपप्रधान हरद्वारी सिंह जी का सर फूट गया गुरुकुल के कोषाध्यक्ष श्री स्वरूप लाल जी का हाथ टूट गया. और भी कइयों को कठिन चोट आई, श्री भक्त जी भी अनेक लाठियां लगीं। समाज में पहुँचाये जाने के बाद सभी जख्मी सरकारी हस्पताल में पहुंचाए गए। हस्पताल में जख्मियों ने मुझ से कहा कि वह लोग तो हैदराबाद जाने के लिए आए थे। मैंने उत्तर दिया कि बलिदान का आधा पुण्य आप लोगों को प्राप्त हो गया इत्यादि । मुक़दमा हुआ परन्तु मुसलमान सरदारों के माफ़ी माँगने पर श्री भक्त जी ने माफ़ी दे दी और किसी के विरुद्ध भी कुछ नहीं किया। श्री भक्त जी का कैसा विशाल हृदय था। घोर अपराधी को भी क्षमा माँगने पर क्षमा प्रदान करते थे ।
(10.) हैदराबाद सत्याग्रह का काम समाप्त करके श्री भक्त जी हरिजनों की शुद्धि की ओर झुके और अनेक स्थानों में कार्य करते हुए दो सितम्बर 1940 को मुसलमान राँगड़ों के ग्राम मोठ ( जिला हिसार) में पहुंचे जहाँ चमारों के खोदे हुए कुएँ को मुसलमानों ने मिट्टी आदि डाल कर बन्द कर दिया था। श्री भक्त जी एक मुसलमान के दरवाजे पर जा बैठे और उक्त कुआँ खोलने के लिए मुसलमानों से प्रार्थना करने लगे जब उन्हें तीन दिन बिना खाए पीये हो गए और दरवाजे से न हटे तब दस बारह मुसलमान उन्हें पकड़ कर ले चले, नाना विधि से उनकी बेइज्जती करते हुए उन्हें मार डालने की धमकी देते हुए मोठ गाँव से प्रायः एक मील के फासले पर उन्हें छोड़ आये। भूखे प्यासे भक्त जी चलने में असमर्थ थे। कुछ देर तो वहीं बैठे रहे फिर एक दयालु मुसलमान और एक वणिक सज्जन की सहायता से लगभग दो मील चलकर हिन्दुओं के पास में आए और वहाँ जल पिया। वहाँ से श्री भक्त जी नारनोंद ग्राम में और वहाँ के चौपाल में छः सितम्बर को व्रत किया कि जब तक मोठ के चमारों का बंद किया हुआ कच्चा कुआँ न खुल जाये और वह पक्का न बन जाये और चमार उससे वे रोक टोक पानी न भरने लगे तब तक सिवाय जल पीने के वह कुछ भी खाएंगे। इस व्रत की खबर जब भैंसवालादि स्थानों में पहुंची तो भक्त जी के सैकड़ों प्रेमी नारनोंद आ गए। प्रतिदिन मेला सा होने लगा। नारनोंद के मुसलमान सब इंस्पेक्टर श्री भक्त जी के प्रेमी थे। उन्होंने मोठ के अपराधी मुसलमानों को लाकर श्री भक्त जी के पैरों पर गिराया और श्री भक्त जी ने उन्हें क्षमा कर दिया। उक्त मुसलमान यह भी कह गए ये कि मोठ के चमारों के कुएँ को अब वह बनने देंगे। परन्तु कुवाँ न बना। जब सत्रह अठारह दिन व्यतीत हो गए और लोगों को श्री भक्त जी के प्राणों की चिन्ता सताने लगी तब श्री सेठ युगलकिशोर जी बिड़ला नारनोंद पहुंचे और श्री भक्त जी के चरण पकड़ लिये और कहा कि एक नहीं, दश कुएँ हम चमारों के लिये बनवा देते हैं आप उपवास छोड़िए। श्री भक्त जी ने उन्हें धन्यवाद दिया और कहा कि चमारों के प्रति जो लोगों की घृणा है उसे हम मिटाना चाहते हैं, लोगों की हठ जो चमारों पर अत्याचार करने का है उसे हम दूर करना चाहते हैं। जब तक यह दूर न हो कुंवों के बनने से भी कार्य सिद्ध न होगा। श्री बिड़ला जी निराश हो चले गए। फिर भी सर छाजूराम जी साहब कलकत्ता, श्री महात्मा गाँधी जी महाराज, श्री सर छोटूराम साहब मिनिस्टर लाहौर के तार आए कि श्री भक्त जी को उपवास छोड़ना चाहिए और श्री सर छोटूराम साहब ने श्री भक्त जी के प्राण बचाने के लिये अन्य भी अनेक उद्योग किए। श्री महात्मा गांधीजी महाराज के प्रमुख कार्यकर्ता श्री वियोगी हरि जी आए और उन्होंने भी श्री भक्त जी से बहुत प्रार्थना की परन्तु श्री भक्त जी ने उपवास न तोड़ा । फिर श्री डिप्टी कमिश्नर साहब हिसार ने पुलिस की एक गारद मोठ में भेजी और अनेक प्रतिष्ठित मुसलमानों ने मोठ के मुसलमानों को समझाया तब चमारों का उक्त कुआं तैयार हुआ। चमारों ने उससे पानी भरा और भक्त जी ने उस कुएँ का जल पान कर अपना उपवास ता० 26 सितम्बर 1940 को अर्थात् चौबीसवें दिन तोड़ा। श्री भक्त जी हरिजनों को छाती से लगाने के लिये लालायित रहते थे।
(11.) हरिजन सम्बन्धी नारनोंद के व्रत से श्री भक्त जी का कृशित शरीर अभी पूर्ण पुष्ट भी नहीं हुआ था जब कि उन्हें नवाब साहब लोहारू की राजधानी में वहां के आर्यसमाज के उत्सव समय जाना पड़ा। 26 मार्च 1941 को जब वहाँ नगर कीर्तन हो रहा था श्री स्वा० स्वतन्त्रानंद जी तथा श्री भक्त फूलसिंह जी पर अधिक लाठियां वर्षी। श्री भक्त जी के शीश से मुख से रक्त बहने लगा, पसली की एक हड्डी टूट गई, चौबीस घण्टे तक भक्त जी बेहोश रहे। फिर जागे और इरविन हस्पताल दिल्ली के डाक्टरों की चिकित्सा से बच गये।
(12) परन्तु इतनी दुर्घटनाओं से बचे हुए महात्मा, गत चौदह अगस्त 1942 को रात्रि समय लगभग 6 बजे स्थान कन्या गुरुकुल खानपुर में घातकों की गोलियों से अपनी उनसठ वर्ष की आयु में मारे गये। हरियाणा प्रान्त अपने अपूर्व प्रेमी के वियोग के कारण विलाप कर रहा है। श्री भक्त फूलसिंह जी वानप्रस्थी मेरे प्रिय शिष्य थे। पूज्य पाद श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज मेरे गुरु थे। दोनों विशेष धर्म प्रेम के कारण बलिदान हो गए। न मालूम मैं अभागा उस पुनीत प्रसाद से वंचित क्यों हूँ ?
आर्यों का सेवक -ब्रह्मानन्द सरस्वती ।
गांधी जी का भारत छोड़ो आन्दोलन और वीर सावरकर
गांधी जी का भारत छोड़ो आन्दोलन और वीर सावरकर
#डॉ_विवेक_आर्य
8 अगस्त 1942 को आज से ठीक 100 वर्ष पहले गाँधी जी ने भारत छोड़ो आंदोलन का आरम्भ किया था। उनका नाम था अंग्रेजों भारत छोड़ो।
डॉ० सीतारामैया कांग्रेस का इतिहास में इस विषय में लिखते है कि
'कांग्रेस ने हाल में अपनी 22 वर्ष की नीति परिवर्तित करके यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि आजादी मिलने के बाद साम्प्रदायिक ऐक्य स्वयं ही स्थापित हो जायेगा जबकि इससे पहले वह कहा करती थी कि स्वाधीनता प्राप्ति से पहले साम्प्रदायिक ऐक्य आवश्यक है।
हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर गांधी जी के करीब 22 वर्षों तक साम्प्रदायिक एकता का प्रयास करने के बावजूद जब एकता स्थापित न हो सकी तब कांग्रेस ने अपना दृष्टिकोण बदला कि भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात हिन्दू-मुस्लिम एकता स्वयं स्थापित हो जायेगी। श्री मुहम्मद अली जिन्ना की 'पाकिस्तान मांग पर ध्यान दिये बिना गांधी जी ने 8 अगस्त को 'भारत छोड़ो' की घोषणा कर दी ।
इस आंदोलन के अनुयायी मुख्य रूप से हिन्दू थे। यह आंदोलन इतनी प्रबल गति से चल पड़ा जैसे कि पूरे भारतवर्ष में एक ही आंदोलन चलाया जा रहा हो । 9 अगस्त को कांग्रेस के प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । परिणामस्वरूप पूरे भारतवर्ष में क्रान्ति फैल गयी। जनता की भीड़ चलती हुई रेलों पर पत्थर बरसाने लगी, गाड़ियों और कारों को रोकने लगी, रेलवे स्टेशनों को नुकसान पहुंचाने लगी, तथा उनकी सम्पत्ति को अग्नि की भेंट करने लगी, अनाज की दुकानें लूटी जाने लगीं, टेलीफोन के तार काटे जाने लगे, कारों के टायरों को खोल दिया गया । एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 9 अगस्त रविवार को बम्बई नगर के उपद्रवों में 9 व्यक्ति मारे गये और 169 घायल हुए जिसमें 27 पुलिस के सिपाही भी थे।
आर सी मजूमदार स्ट्रगलफॉर फ्रीडम में लिखते है कि मुहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों को भारत छोड़ो आंदोलन से पृथक करने के लिए अपील करते हुए कहा कि गहरे दुःख की बात है कि कांग्रेस पार्टी ने सभी के हितों की तिलांजलि देकर मात्र अपने व्यक्तिगत लाभ हेतु सरकार से युद्ध की घोषणा कर दी है। अतः मैं मुसलमानों से यह निवेदन करता हूं कि वे इस आंदोलन से पूर्ण रूप से पृथक रहें ।
20 अगस्त 1942 को मुस्लिम लीग की कार्यकारिणी की बैठक बम्बई में सम्पन्न हुई जिसमें श्री जिन्ना ने स्पष्ट किया कि कांग्रेस पार्टी का मुख्य उद्देश्य भारत में हिन्दू राज स्थापित करना है । अतः 10 करोड़ मुसलमानों के हितों की सुरक्षा के लिए मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में उनके लिए पुण्य भूमि की स्थापना की जाये ।
हिन्दू महासभा तथा पाकिस्तान योजना के कटु विरोधी नेताओं ने गांधी जी के 'भारत छोड़ो' आंदोलन को अनुचित बतलाया। उनके दृष्टिकोण से इस विकट परिस्थिति में सरकार को सहयोग देकर देश को खण्डित होने से बचाया जाना चाहिए था । हिन्दू महासभा के नेताओं ने भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल न होते हुए जेल से बाहर रहने का निर्णय किया। उन्हें पता था कि यदि सारे हिन्दू नेता जेल में चले जायेंगे तो श्री जिन्ना अपनी 'पाकिस्तान योजना' को सफल बनाने के लिए अंग्रेज सरकार से समझौता करने में सफल हो जाएगा । मुस्लिम लीग की इस कूटनीति का जायजा लेने के लिए सावरकर जी ने हिन्दू नेताओं से जेलों से बाहर रहने के लिए अनुरोध किया। उन्हें चिन्ता थी कि कहीं भारत छोड़ो, भारत तोड़ो में न बदल जाय ।
डॉ० सीतारामैया के अनुसार
'यद्यपि कि महासभा ने गांधी जी के 'भारत छोड़ो आंदोलन को समय के प्रतिकूल बतलाया फिर भी देशभक्त नेताओं की गिरफ्तारी पर महासभा ने तथा अन्य धार्मिक एवं राजनैतिक संगठनों ने गहरा दुःख व्यक्त किया, साथ ही उनकी रिहाई की मांग की । यह मांग भारत के प्रमुख उद्योगपतियों की ओर से नहीं की जा रही थी, बल्कि सम्प्रदायवादियों की ओर से की जा रही थी जो युद्ध प्रयत्नों में सक्रिय भाग लेने के समर्थक थे । इसके अलावा यह मांग ट्रेड यूनियन कांग्रेस, नरम दल, मिल मालिकों, सिखों, भारतीय ईसाईयों, एंग्लो इण्डियन ऐसोसिएशनों, स्थानीय बोर्डो, म्यूनिसिपल्टियों, धार्मिक संस्थाओं, हिन्दू महासभा, तथा डॉ० सप्रू और श्री जयकर सरीखे उदारवादी नेताओं की ओर से की जा रही थी। लेकिन सरकार ने इन मांगों, सुझावों और अनुरोधों की कोई परवाह नहीं की और मदान्ध होकर दमन चक्र चलाती रही । '
हिन्दू महासभा के अध्यक्ष श्री सावरकर ने कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी पर गहरा दुःख व्यक्त करते हुए कहा, 'निश्चित रूप से गांधी जी सहित कांग्रेस दल के महान एवं देशभक्त नेताओं को गिरफ्तार करके जेल में बन्द कर दिया गया है, उनके प्रति हिन्दू महासभा की व्यक्तिगत सहानुभूति है और मुख्य रूप से हिन्दू देशभक्त होने के कारण उन नेताओं के साथ जाकर कष्ट उठा रहे हैं।
मैं सरकार को एक बार पुनः चेतावनी देता हूं कि भारतीय असंतोष को शान्त करने का मात्र एक प्रभावशाली रास्ता है कि ब्रिटिश पार्लियामेंट यह घोषणा करे कि भारत पूर्ण रूप से राजनैतिक तौर पर स्वतंत्र हो गया है।
वीर सावरकर की सोच उस काल में कितनी दूरदर्शी थीं। इस इतिहास से हमें यह ज्ञात होता है।
(अनिल कुमार मिश्र, हिन्दू महासभा: एक अध्ययन, अखिल भारतीय हिन्दू महासभा, दिल्ली, 1988, पृ. 230-232)
Sunday, July 30, 2023
दयामय दयानन्द
Wednesday, July 19, 2023
Swami Dayananda – A True Soldier of Light
Thursday, June 29, 2023
हमारे देश के क्रान्तिकारी केवल और केवल महान है परन्तु गद्दार कभी नहीं।
डॉ विवेक आर्य
वीर सावरकर को एक कथित नेता ने गद्दार कहा हैं। भारत देश की विडंबना देखिये जिन महान क्रांतिकारियों ने अपना जीवन देश के लिए बलिदान कर दिया। उन क्रांतिकारियों के नाम पर जात-पात, प्रांतवाद, विचारधारा, राजनीतिक हित आदि के आधार पर विभाजन कर दिया गया। इस विभाजन का एक मुख्य कारण देश पर सत्ता करने वाला एक दल भी रहा। जिसने केवल गांधी-नेहरू को देश के लिए संघर्ष करने वाला प्रदर्शित किया। जबकि जो क्रान्तिकारी कांग्रेस की विचारधारा से अलग रहकर कार्य कर रहे थे उनके योगदान की चर्चा कम ही सुनने को मिलती है। इस कारण से यह भ्रान्ति पैदा हो गई हैं कि देश को स्वतंत्रता गांधी जी/कांग्रेस ने दिलाई थी? सत्य यह हैं कि इस नये विकृत इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई हैं।
हमारे विचार की पुष्टि हमारे महान क्रांतिकारी करते है। पेशावर कांड के मुख्य क्रांतिकारी चन्द्र सिंह गढ़वाली भेंट वार्ता में कहते है। इस आज़ादी का श्रेय कांग्रेस देना कोरा झूठ हैं। मैं पूछता हूँ की ग़दर पार्टी, अनुशीलन समिति, एम.एन.एच., रास बिहारी बोस, राजा महेंदर प्रताप, कामागाटागारू कांड, दिल्ली लाहौर के मामले, दक्शाई कोर्ट मार्शल के बलिदान क्या कांग्रेसियों ने दिए हैं, चोरा- चौरी कांड और नाविक विद्रोह क्या कांग्रेसियों ने दिए थे? लाहौर कांड, चटगांव शस्त्रागार कांड, मद्रास बम केस, ऊटी कांड, काकोरी कांड, दिल्ली असेम्बली बम कांड , क्या यह सब कांग्रेसियों ने किये थे? हमारे पेशावर कांड में क्या कहीं कांग्रेस की छाया थी? अत: कांग्रेस का यह कहना की स्वराज्य हमने लिया, एकदम गलत और झूठ हैं। कहते कहते क्षोभ और आक्रोश से चन्द्र सिंह जी उत्तेजित हो उठे थे। फिर बोले- कांग्रेस के इन नेताओं ने अंग्रेजों से एक गुप्त समझोता किया था। जिसके तहत भारत को ब्रिटेन की तरफ जो 18 अरब पौंड की पावती थी, उसे ब्रिटेन से वापिस लेने की बजाय ब्रिटिश फौजियों और नागरिकों के पेंशन के खातों में डाल दिया गया। साथ ही भारत को ब्रिटिश कुम्बे (commonwealth) में रखने को मंजूर किया गया और अगले 30 साल तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सेना को गैर क़ानूनी करार दे दिया गया। मैं तो हमेशा कहता हूँ- कहता रहूँगा की अंग्रेज वायसराय की ट्रेन उड़ाने की कोशिश कभी कांग्रेस ने नहीं की तो क्रांतिकारियों ने ही। हार्डिंग पर बम भी वही डाल सकते थे न की कांग्रेसी नेता। सहारनपुर-मेरठ- बनारस- गवालियर- पूना-पेशावर सब कांड क्रांतिकारियों से ही सम्बन्ध थे, कांग्रेस से कभी नहीं।
(सन्दर्भ- श्री शैलन्द्र जी का पांचजन्य के स्वदेशी अंक 16 अगस्त 1992 में लेख)
वीर सावरकर का यह चिंतन भी गढ़वाली जी की टिप्पणी को सिद्ध करता हैं जब उन्होंने कहा था की आज़ादी केवल अहिंसा से मिली हैं उन हज़ारों गुमनाम शहीदों का अपमान हैं जिन्होंने अत्याचारी अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष लिया एवं अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। भारतीय स्वतंत्रता के लिये आरम्भ से ही समय-समय पर भारत के विभिन्न भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विप्लव होते रहे। भारतीय स्वतंत्रता के लिये आरम्भ से ही समय-समय पर भारत के विभिन्न भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विप्लव होते रहे। इसकी पुष्टि इस सूची को देखकर पता चलती हैं।
1757 से अंग्रेजी राज द्वारा जारी लूट तथा भारतीय किसानों, मजदूरों, कारीगरों की बर्बादी, धार्मिक, सामाजिक भेदभाव ने जिस गति से जोर पकड़ा उसी गति से देश के विभिन्न हिस्सो मे विद्रोंह की चिंगारियाँ भी फूटने लगीं, जो 1857 में जंग-ए-आजादी के महासंग्राम के रूप में फूट पड़ी। 1757 के बाद शुरू हुआ सन्यासी विद्रोह (1763-1800), मिदनापुर विद्रोह (1766-1767), रगंपुर व जोरहट विद्रोह (1769-1799), चिटगाँव का चकमा आदिवासी विद्रोह (1776-1789), पहाड़िया सिरदार विद्रोह (1778), रंगपुर किसान विद्रोह (1783), रेशम कारिगर विद्रोह (1770-1800), वीरभूमि विद्रोह (1788-1789), मिदनापुर आदिवासी विद्रोह (1799), विजयानगरम विद्रोह (1794), केरल में कोट्टायम विद्रोह (1787-1800), त्रावणकोर का बेलूथम्बी विद्रोह (1808-1809), वैल्लोर सिपाही विद्रोह (1806), कारीगरों का विद्रोह (1795-1805), सिलहट विद्रोह (1787-1799), खासी विद्रोह (1788), भिवानी विद्रोह (1789), पलामू विद्रोह (1800-02), बुंदेलखण्ड में मुखियाओं का विद्रोह (1808-12), कटक पुरी विद्रोह (1817-18), खानदेश, धार व मालवा भील विद्रोह (1817-31,1846 व 1852), छोटा नागपुर, पलामू चाईबासा कोल विद्रोह (1820-37), बंगाल आर्मी बैरकपुर में पलाटून विद्रोह (1824), गूजर विद्रोह (1824), भिवानी हिसार व रोहतक विद्रोह (1824-26), काल्पी विद्रोह (1824), वहाबी आंदोलन (1830-61), 24 परगंना में तीतू मीर आंदोलन (1831), मैसूर में किसान विद्रोह (1830-31), विशाखापट्टनम का किसान विद्रोह (1830-33), मुंडा विद्रोह (1834), कोल विद्रोह (1831-32) संबलपुर का गौंड विद्रोह (1833), सूरत का नमक आंदोलन (1844), नागपुर विद्रोह (1848), नगा आंदोलन (1849-78), हजारा में सय्यद का विद्रोह (1853), गुजरात का भील विद्रोह (1809-28), संथाल विद्रोह (1855-56) तक सिलसिला जारी रहा। 1857 का संघर्ष संयुक्त भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। नील विद्रोह (सन् 1850 से 1860 तक),कूका विद्रोह (सन् 1872),वासुदेव बलवंत फड़के के मुक्ति प्रयास (सन् 1875 से 1879),चाफेकर संघ (सन् 1897 के आसपास),बंग-भंग आंदोलन (सन् 1905),यूरोप में भारतीय क्रांतिकारियों के मुक्ति प्रयास (सन् 1905 के आसपास),अमेरिका तथा कनाडा में गदर पार्टी (प्रथम विश्वयुद्ध के आगे-पीछे),रासबिहारी बोस की क्रांति चेष्टा, हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ (सन् 1915 के आसपास), दक्षिण-पूर्व एशिया में आजाद हिंद आंदोलन,नौसैनिक विद्रोह (सन् 1946) आदि अनेक संघर्षों में से कुछ संघर्ष हैं जिनमें कांग्रेस या गांधीजी का कोई योगदान नहीं हैं। इसलिए इस बात को स्वीकार करना चाहिए की देश को आज़ादी हमारे महान क्रांतिकारियों के कारण मिली हैं नाकि कांग्रेस के कारण मिली हैं।
महात्मा गांधी जी निश्चित रूप से महान थे मगर अन्य का सहयोग भी कोई कम नहीं था। ,उनके योगदान को भुला देना कृतघ्नता है। उन क्रांतिकारियों को सम्मान पूर्वक श्रद्धांजलि देने का सबसे कारगर प्रयास यही होगा की निष्पक्ष रूप से इतिहास के पुनर्लेखन द्वारा उनके त्याग और समर्पण को आज की युवा पीढ़ी को अवगत करवाना चाहिए।जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली, उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। अनेकों को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। ये शब्द उन्हीं पर लागू होते हैं-
उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके, बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।।