Monday, June 28, 2021

मेरे प्रेरणास्त्रोत स्वामी भीष्म जी महाराज लेखक - स्वामी ओमानंद सरस्वती


मेरे प्रेरणास्त्रोत स्वामी भीष्म जी महाराज 
लेखक :- स्वामी ओमानंद सरस्वती 
स्त्रोत :- स्वामी भीष्म अभिनन्दन ग्रंथ 

        हरियाणा प्रदेश में आर्य समाज का जितना भी प्रचार प्रसार हुआ उसका सबसे अधिक श्रेय आर्य समाज के भजनोपदेशकों को है। क्योंकि इस प्रदेश में पहले व्याख्यान को कोई सुनता ही नहीं था। अच्छे से अच्छे विद्वान व्याख्याता के 5-7 मिनट से अधिक व्याख्यान को कोई नहीं सुनता था। कुछ ही मिनट में सुनने के पश्चात हरियाणा की अशिक्षित जनता कोलाहल करके उपदेशक को बैठने के लिए विवश कर देती थी। क्योकिं उनको व्याख्यानो में कोई रुची नहीं थी। 

     एक सच्ची घटना है। महात्मा भक्त फूल सिंह जी ने गुरुकुल भैंसवाल के उत्सव पर स्वामी श्रद्धानन्द जी को व्याख्यान देने के लिए बुलाया। उन्होने दो चार मिनट ही भाषण दिया कि एक चौधरी खड़ा होकर बोला - बाबा जी " आपकी बात तो अच्छी हैं!! हमने सुनली!  अब चौधरी ईश्वर सिंह के भजन होने दे! विवश होकर स्वामी श्रद्धानंद जी को बैठना पड़ा। उनके देखते देखते आर्यसमाज के एक बड़े महात्मा का तिरस्कार हुआ, यह उनके लिए असह्य था, इससे दुखी होकर पुन: उन्होने ईश्वर सिंह को कभी नहीं बुलाया। हजारों वर्षों से वेदादिशा स्त्रों के प्रचार करने वाले विद्वान उपदेशकों का इस प्रांत में अभाव चला आ रहा था। स्वांग, नाच, रासलीला, रामलीला, आदि नृत्यगान लोगों की रुचिकर थे। इस लिए अच्छे गाने वाले भजनोपदेशक ही आर्य समाज के प्रचार कार्य में आरंभिक काल में सफल उपदेशक सिद्ध हुये। उस समय के आर्य भजनोपदेशक अपनी धुन के धनी थे। वे प्राय: सभी त्यागी तपस्वी, श्रद्घालु,और अत्यंत पुरुषार्थी थे। सब प्रकार के दुख सहकर भी आर्य समाज के प्रचार में दिन रात जुटे रहते थे। 

      ऐसे ही पुराने उपदेशको में श्री स्वामी भीष्म जी महाराज हैं। उन्होने भी अपना सारा जीवन आर्यसमाज के प्रचार में लगाया है। आज से पचास वर्ष से भी अधिक पुरानी बात है। आप अपनी भजन मंडली सहित नरेला ग्राम में बड़े बड़े चौधरी नम्बरदार आदि प्राय: सभी आर्यसमाजी थे। इसलिए इनके प्रचार की व्यवस्था बहुत अच्छी हो गई थी और इनका प्रचार नरेला के पाना उद्यान में चौधरी हीरासिंह और चौधरी जोतराम के मोहल्ले में लगातार कई दिन से हो रहा। उन्हीं दिनों इसी पाने में हस्पताल के सन्मुख रामलीला भी हो रही थी और सारा पाना देखने जाता था। किंतु दो तीन दिन तक श्री स्वामी भीष्म जी का प्रचार होने पर सारा ग्राम प्रचार सुनने के लिए आने लगा और रामलीला वाले भागने के लिए विवश हो गए। स्वामी भीष्म जी उन दिनों रामलीला को "हरामलीला" कहकर उसका खंडन किया करते थे। 
   

      मैं भी उन दिनों रामलीला देखने जाता था। किंतु अपने आर्यसमाजी वृद्धों की प्रेरणा पर उसे छोड़कर स्वामी भीष्म जी के प्रचार में जाने लगा। संस्कार तो पहले भी आर्य समाजी ही थे। किंतु उस समय ज्ञात नहीं था रामलीला देखना आर्य सिद्धांतो के खिलाफ है। स्वामी भीष्म जी के प्रचार से हमारी आंखे खुली। इनके प्रचार का इतना अच्छा प्रभाव पड़ा कि बहुत से विद्यार्थी और युवकों ने नये यज्ञोपवित धारण किये और आर्यसमाज में प्रवेश किया। आर्य समाज के प्रति मेरी श्रद्धा अधिक बढ़ गई। स्वामी भीष्म जी उस समय अपनी भरी हुई जवानी में थे। इनका अत्यंत मीठा और ऊंचा स्वर था। इनके पीछे भजनों की टेक आदि बोलने वाले इनके शिष्य 15-16 वर्ष की आयु के ही थे। मुझे ऐसा याद पड़ता है कि वे रामचन्द्र जी, हरिदत्त जी, श्री ज्ञानेन्द्र जी थे। उनमें से श्री हरिदत्त जी तो आज भी अच्छा गाते हैं। 

     श्री स्वामी भीष्म जी महाराज एक दिन प्रचार करते करते बीच में ही रुक गए। और कहने लगे कि मुझे कई दिन यहां प्रचार करते हो गए। मुझे यह भी पता पड़ गया की यहां बहुत से आर्यसमाजी हैं। यहां मुख्य मुख्य चौधरी भी प्राय आर्य समाजी ही हैं। इसलिए प्रचार तब करुंगा जब आप लोग यहां आर्यसमाज की स्थापना करोगे। स्वामी जी ने गाना बंद कर दिया। प्रचार बंद हो गया। लोग बड़ी रुची व श्रद्धा से सुन रहे थे, स्तब्ध रह गये। सारी सभा में शांति और सन्नाटा छाया हुआ था। सभी मौन होकर आश्चर्य से देख रहे थे। यह क्या हुआ  ??
सामान्य लोगों को तो यह भी नहीं पता था कि आर्य समाज की स्थापना होती कैसे है। मैं ओर मेरे साथी इस घटना को आश्चर्य और ध्यान से देखते रहे। मैं बार बार यही सोच रहा था कि स्वामी भीष्म जी की बात ये लोग मानते क्यों नहीं!! 
चुपचाप क्यों बैठे हैं?? आर्यसमाज की स्थापना क्यों नहीं करते। इस प्रकार के अनेक प्रश्न मेरे मन में उठ रहे थे। मैं विचार कर रहा था कि आर्य समाजी तो बहुत कायर कमजोर नपुसंक और भीरु हैं। इन्हें अभी आर्यसमाज बना देना चाहिए। मैं बालक होने के कारण विवश था। नहीं तो खड़ा होकर कुछ कहने की इच्छा होती। ऐसे ही समय एक आर्यसमाजी सज्जन उठकर नम्रतापूर्वक कहने लगा - स्वामी जी महाराज!  हमने यहां आर्यसमाज बनाया था। कुछ दिन तो उसका कार्य चला। हम सब किसान है। हमें अपनी खेड़ी बाड़ी के धंधे से अवकाश नहीं मिलता। हम में पढ़े लिखे भी बहुत कम हैं। नगरों के समान यहां आर्य समाज का कार्य बहुत कठिन हैं। तो हम आपके समान उपदेशको का प्रचार यहां करवाते हैं। हमारी पीढ़ी जब पढ़ लिखकर आयेगी तो वह आर्य समाज की स्थापना करेगी। यही विचार मेरे मन में आये हुए थे कि हम आर्य समाज बनाएगें। हमारे अनेक साथियों ने यज्ञोपवित धारण किये हुए थे। मैने उनसे परामर्श किया और दिन में पूज्य स्वामी भीष्म जी से मेैं मिला। 

      रात्री को गाने से पूर्व प्रतिदिन गाकर ईश्वर भजन दोहा बोलते थे ----------

     सब जगह मोजुद है पर नजर आता नहीं। 
    योग साधना के बिना कोई उसे पाता नहीं।। 

     मैं इस दोहे को सुनता था तो यह सोचता था कि आर्य समाज के सभी उपदेशक योगी होते हैं।  मैं उससे पूर्व उर्दूं की तहकीके धर्म पुस्तक पढ़ चुका था।  योग में रुची भी थी। मैने जिज्ञासु रुप में स्वामी जी से अनेक प्रशन्न किये। पते भी पूछे। पूज्य स्वामी जी ने मुझे संध्या रहस्य, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और संस्कार विधि पढ़ने को कहा। ये पुस्तकें मैने उन्हीं दिनों खरीद ली। मेरी इच्छा स्वामी इच्छा स्वामी भीष्म जी से यज्ञोपवित लेने की थी। मैने उन दिनों तक जनेऊ धारण नहीं किया था। मुझे यह भी पता नहीं था कि यज्ञोपवित किस आयु में धारण किया जाता है ?? मैने यज्ञोपवित लेने के लिए पिता जी के सन्मुख इच्छा प्रकट की। क्योकिं उस समय मात पिता की आज्ञा को कुछ नहीं कर सकते थे। मात पिता का बड़ा आतंक होता था। इसलिए जब मैने यज्ञोपवित लेने की आज्ञा मांगी तो उन्होने कहा --- नहीं!  "यज्ञोपवित संस्कार हम अपने घर करवाएगें"।  और उन्होने किया भी ऐसा ही। कुछ समय पीछे आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली के महोपदेशक पं. गंगाशरण जी को बुलाकर घर पर ही मेरा तथा बनवारी लाल जी (भाणजे) का यज्ञोपवित संस्कार करवाया। 

      इस प्रकार मुझे स्वामी भीष्म जी से आर्य समाज का कार्य करने कि प्रेरणा बचपन से ही मिली और एक दो वर्ष पीछे ही आर्य समाज की स्थापना करके स्वामी जी की इच्छा पूरी कर दी। मैने नरेला आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर स्वामी जी को बुलाने का यत्न किया किंतु वो किसी कारणवश न आ सके। मैं स्वंय उनको बुलाने गाजियाबाद करहैड़ा आश्रम भी गया। स्वामी जी महाराज को अनेक उत्सवों पर हम बुलाते रहे ओर प्रचार करवाते रहे। लगातार अनेक वर्षों तक हमारा इनके साथ संबंध रहा। इनकी कृपा दृष्टि बनी रही। 

    इस प्रकार स्वामी जी महाराज ने 99 साल अपने जीवन के आर्य समाज था वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार में लगाए हैं। अनेक शिष्यों ने भारतवर्ष का भ्रमण कर आर्यसमाजों की स्थापना करके देश के लिए अनेक बलिदानियों को तैयार किया।  खूद स्वामी जी महाराज अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेते रहे।  गुलाम भारत में घरौंडा स्थान पर गुरुकुल खोलकर तिंरगा फहरा दिया। 1957 के हिंदी आंदोलन, गौरक्षा आंदोलन में जेल की यात्रा की। लगभग दस हजार से अधिक भजन लिखे। 250 से अधिक पुस्तकें लिख कर किर्तीमान स्थापित कर दिया। 

प्रस्तुती :- श्री सहदेव समर्पित, अमित सिवाहा 

स्वामी भीष्म जी महाराज को शत शत नमन

वर्ष 1966 का गोरक्षा आंदोलन हरयाणे की आर्य जनता का सत्याग्रह


वर्ष 1966 का गोरक्षा आंदोलन 
हरयाणे की आर्य जनता का सत्याग्रह 

लेखक :- श्री विरजानंद दैवकरणि, डॉ० रघुवीर वेदालंकार 
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 

            गोरक्षार्थ हरयाणा से जत्थे निरन्तर जा रहे थे। ९ सितम्बर १९६६ को जत्थेदार स्वामी सन्तोषानन्द जी ( रेवाड़ी ) के नेतृत्व के कुछ व्यक्तियों ने सत्याग्रह किया। गुरुकुल झज्जर के ब्रह्मचारी तथा कर्मचारी पूर्णरूपेण इस आन्दोलन के प्रति समर्पित थे। आचार्य भगवान्देव जी तो अपना समस्त समय गुरुकुल से बाहर रह कर सत्याग्रह के लिए लगा रहे थे , गुरुकुल से भी ब्रह्मचारियों तथ कर्मचारियों के जत्थे निरन्तर जा रहे थे। १२ अक्तूबर १९६६ को गुरुकुल झज्जर के ब्रह्मचारी यज्ञवीर किसरेंटी , रणवीर आसन , हरिदेव गौरीपुर और राजेन्द्र भालौठ रात को भागकर झज्जर से बहादुरगढ़ तक पैदल गये। सत्यार्थप्रकाश तथा ओम्ध्वज लिए हुए इन्होंने प्रात: काल इन्दिरा गांधी की कोठी पर सत्याग्रह किया और सात दिन तक तिहाड़ जेल में रहे। पुनः छोड़ दिये गये। ये दुबारा सत्याग्रह करना चाह रहे थे , किन्तु गुरुकुल से ब्रह्मचारी इन्द्रदेव मेधार्थी इनको लेने आगये और कहा कि आप अभी विद्यार्थी हैं , पढ़ाई करो , सत्याग्रह में हम बड़ी आयु के व्यक्ति जायेंगे। 

          ३० अक्तूबर १९६६ को ' हरयाणा गोरक्षा सम्मेलन रोहतक ' में आचार्य भगवान्देव जी ने भी सत्याग्रह कर जेल जाने की घोषणा कर दी। तभी से हरयाणो में उत्साह की लहर दौड़ गई और भारी संख्या में सत्याग्रह के लिये नाम आने प्रारम्भ हो गये। 

          ३ नवम्बर १९६६ को दुर्गाभवन रोहतक में सत्याग्रहियों का विदाई समारोह हुआ। जिस में हजारों की संख्या में उपस्थित जनता के समक्ष आचार्य जी ने घोषणा करते हुए कहा कि - " जब तक भारत में पूर्णरूप से गौ वंश की हत्या बन्द नहीं होगी तब तक हरयाणा से सत्याग्रहियों के जत्थे इसी प्रकार चलते रहेंगे। अब हम निश्चय कर चुके हैं कि हमारी गोमाता जीवित रहेगी तो हम जीयेंगे। यदि गौ के लिए हमें अपना सर्वस्व न्यौछावर करना पड़े तो सौभाग्य समझेंगे। " उपस्थित जनता ने उच्च जयघोषों के साथ इस घोषणा का स्वागत किया। 

         ४ नवम्बर १९६६ को आचार्य जी के नेतृत्व में ४०० सत्याग्रहियों का यह विशाल जत्था दयानन्दमठ रोहतक से रेलवे स्टेशन की ओर उत्साह का संचार करता हुआ जुलूस के रूप में आगे बढ़ा। मार्ग में रोहतक की जनता ने स्थान - स्थान पर इन धर्मवीरों का अभिनन्दन फलों , फूलों , मालाओं और जयकारों से किया। सत्याग्रह में भाग लेने हेतु गुरुकुल झज्जर के ६० ब्रह्मचारी , १० अध्यापक एवं कार्यकर्ता झज्जर से सीधे आर्यसमाज करोल बाग दिल्ली में पहुंच रहे थे। इस प्रकार कुल मिलाकर यह जत्था ४७० वीरों का हो गया था। इस जत्थे में ब्रह्मचारियों का उत्साह विशेष श्लाघनीय था।

          ४ नवम्बर १९६६ को सायंकाल करोल बाग आर्यसमाज मन्दिर में सत्याग्रहियों के स्वागत में एक विशाल सभा हुई। जिसका उद्घाटन आर्य नेता पंडित जगदेवसिंह सिद्धान्ती संसद् सदस्य ने किया। अध्यक्ष पद से श्री प्रकाशवीर जी शास्त्री एम० पी० ने बोलते हुये कहा कि - " अब सारा देश जाग चुका है। अत: सरकार को गोहत्या बन्द करनी ही पड़ेगी। " ५ नवम्बर १९६६ को प्रात: काल यह सत्याग्रही जत्था करोलबाग आर्यसमाज दिल्ली से जयघोषों से गगन को गुंजाता हुआ बाहर निकला। सत्याग्रह का नेतृत्व स्वामी धर्मानन्द जी एवं आचार्य भगवान्देव जी कर रहे थे। इस विशाल जत्थे के अनेक विभाग थे , जिनके विभागाध्यक्ष भी पृथक् - पृथक् थे। जैसे गुरुकुल झज्जर तथा तहसील झज्जर के सत्याग्रहियों के अध्यक्ष स्वामी शान्तानन्द जी , महम चौबीसी के जत्थे के वैद्य बलराज जी , पाकस्मा मण्डल के जत्थे के पं० रामचन्द्र जी आर्य ( भालोठ ) , गुरुकुल सिंहपुरा से सम्बन्धित जत्थे के श्री राममेहर जी एडवोकेट ( मकड़ौली ) , तथा रोहणा और निस्तौली आदि सत्याग्रहियों के श्री दरयावसिंह तथा पहलवान् बदनसिंह थे । 

          " गोरक्षा आन्दोलन में अब तक यह जत्था सब से विशाल तथा अपूर्व था। जिस भी बाजार से सत्याग्रही गोमाता की जय बोलते हुये निकलते थे वहीं की जनता इन्हें देखने के लिए उमड़ पड़ती थी। इस प्रकार ५ , ६ मील पैदल चलकर ये हरयाणे के वीर गृहमंत्री श्री गुलजारीलाल जी नन्दा की कोठी पर पहुंचे। जहां पुलिस पहले से ही भारी संख्या में पंक्ति बद्ध मोटा रस्सा पकड़े खड़ी थी। पुलिस के एक उच्च अधिकारी ने आचार्य जी से कहा कि आप से नन्दा जी मिलना चाहते हैं अत: थोड़ी देर आप लोग शान्ति से बैठे। दो घण्टे प्रतीक्षा करने के बाद नन्दा जी आये और आचार्य जी को वार्ता के लिए अन्दर ले गये। आचार्य जी के साथ रामगोपाल शालवाले , स्वामी धर्मानन्द जी आर्यसमाज करौलबाग दिल्ली और राममेहर वकील ( रोहतक ) भी थे। बातचीत में श्री गृहमंत्री जी ने सहानुभूति एवं विवशता प्रकट की। जिस पर आचार्य जी ने बाहर आकर सत्याग्रहियों को सत्याग्रह करने का आदेश दे दिया। हरयाणे के वीर गोमाता की जय बोल कर नन्दा जी की कोठी की ओर बढ़े। जिस पर पुलिस ने निर्दयता के साथ लाठी चार्ज कर के पीछे धकेलने का असफल प्रयास किया। सत्याग्रहियों को नितान्त अहिंसात्मक सत्याग्रह करने का आदेश था और वे इसका पालन भी पूर्ण निष्ठा से कर रहे थे। इधर पुलिस लाठी चूंसे तथा शिर के लोहे के टोप आदि का प्रयोग कर रही थी। यह हिंसा और अहिंसा का संघर्ष दर्शनीय था। जो हरयाणे के वीर डोगराई क्षेत्र में पाकिस्तान के गोले गोलियों की अग्निवर्षा में भी आगे बढ़ने का अभ्यास कर चुके थे वे इन बेचारे पुलिस वालों की लाठियों की क्या परवाह करते। इस संघर्ष में दिलीपसिंह मकड़ोली एवं खेमराज जी झज्जर को काफी चोटें आई और उन्हें बेहोश अवस्था में जेल ले जाया गया। 

           सत्याग्रहियों का उत्साह विशेष प्रशसनीय था। ५ नवम्बर १९६६ को रात्रि तक सब सत्याग्रही तिहाड़ जेल में पहुंचा दिये गये। वहां जेल अधिकारियों का व्यवहार नितान्त निन्दनीय था। प्रात: ३ , ४ बजे से सायंकाल तक सत्याग्रहियों को निराहार रहना पड़ता था। कभी आटा कम मिलता तो कभी लकड़ी कम होती थी। ७ नवम्बर १९६६ को यह जत्था निरपराधी मानकर जेल से छोड़ दिया। सब लोग ८ , ९ मील दौड़ते हुए रात्रि को पटेल नगर आर्यसमाज में पहुंचे। नगर में कर्फयू होने से भोजन की व्यवस्था न हो सकी अतः कुछ चने चबाकर ही सो गये। हरयाणे के इस वीर जत्थे से सरकार अधिक भयभीत थी अतः अगले दिन प्रात : काल ही पुलिस ने आर्यसमाज मन्दिर पटेल नगर , दिल्ली का घेरा डाल लिया तथा सबको बन्द गाड़ियों में बैठाकर तिहाड़ जेल भेज दिया। 

        जो सत्याग्रही कार्यवश आर्यसमाज मन्दिर से बाहर गये होने से गिरफ्तार न हो सके उन्होंने स्वामी धर्मानन्द जी के नेतृत्व में करोलबाग आर्यसमाज मन्दिर से सत्याग्रह किया। जिन पर पुलिस ने क्रूरता से लाठी चलाई। १३ सत्याग्रहियों को घातक चोटें लगी। जिन में स्वामी धर्मानन्द , श्री बनीसिंह आसन , श्री ब्रह्मचारी निजानन्द , कसानसिंह गांधरा , प्रीतसिंह आर्य पौली एवं राममेहर एडवोकेट का नाम विशेष उल्लेखनीय है। 

        गोरक्षा सत्याग्रह में ७ नवम्बर १९६६ का दिन सर्वदा स्मरण रहेगा जबकि देश भर के लगभग दस लाख गो भक्तों ने दिल्ली आकर संसद् भवन पर गोवध बन्दी की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। लोकसभा भवन के सामने मंच पर साधु महात्मा और नेता बैठे थे। स्वामी रामेश्वरानन्द जी ( घरौंडा ) ने अपील की कि यदि सरकार नहीं सुनती है तो पार्लियामेंट को घेर लो। यह सुनते ही लोग संसद् भवन के द्वार पर लगे सीखचों पर चढ़ने लगे। तभी किसी ने माईक का तार काट दिया और आंसू गैस , लाठी तथा गोली चलने लगी। इस भीड़ में गुरुकुल झज्जर के ७ व्यक्ति थे। जैसे वैद्य बलवन्तसिंह ( बलियाना ) , मनुदेव ( फरमाणा ) , धर्मदेव ( हुमायूंपुर ) , योगानन्द शास्त्री ( भदानी ) , विरजानन्द ( भगड्याणा ) , धर्मपाल महाराष्ट्र आदि। इस गोलीकांड में शतश : साधु तथा अन्य लोग मारे गये , जिन्हें रात में ही कहीं ले जाकर जला दिया गया। गोभक्तों पर इतना बड़ा अत्याचार पहले कभी नहीं हुआ था। जब गोली चली तो भगदड़ मच गई। इसी अफरा - तफरी में गुरुकुल के सभी लोग बिछुड़ गये। योगानन्द शास्त्री और विरजानन्द लोकसभा भवन से कश्मीरी गेट , बस अड्डे तक पैदल आये और रात को गुरुकुल पहुंचे। शेष लोग दूसरे दिन प्रात: काल झज्जर पहुंचे।

          जेल के अन्दर अनेक सम्प्रदायों के महात्मा एवं भारत के कोने - कोने से आये गोभक्त सत्याग्रहियों का अति प्रेम से सत्संग होता था। प्रत्येक वार्ड में यज्ञ , सन्ध्या , कथा , व्याख्यान , सत्संग की व्यवस्था थी। अनेक प्रकार की कठिनाइयों के होते हुये भी सत्याग्रही एक अद्भुत मस्ती का अनुभव करते थे। जेल अधिकारियों के दुर्व्यवहार से दुखित होकर स्वामी रामेश्वरानन्द जी ने अनशन आरम्भ कर दिया। सात दिन होने पर भी जब अधिकारियों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो जेल के सभी सत्याग्रहियों ने भी अनशन आरम्भ कर दिया जिस पर सरकार को झुकना पड़ा।

           इस जत्थे की पेशी २२ नवम्बर १९६६ को थी किन्तु मजिस्ट्रेट ने अचानक १९ नवम्बर को ही जेल से बाहर कर दिया। जेल में ब्रह्मचारी नियम पूर्वक व्यायाम , स्नान , संध्या , स्वाध्याय करते रहे। वहां का वातावरण गुरुकुल के समान ही पवित्र बन गया था। लोग उसे जेल न कहकर सत्संग भवन कहा करते थे और किसी प्रकार का कष्ट अनुभव नहीं करते थे। जेल के भीतर प्रतिदिन सायं चार बजे धार्मिक , भजन , उपदेश आदि होते थे। महात्मा रामचन्द्र वीर विराटनगर ( अलवर ) के सुपुत्र आचार्य धर्मेन्द्रनाथ जी के व्याख्यान तथा #श्री_नत्थासिंह आर्य भजनोपदेशक के भजन नित्यप्रति होते थे। 

          इसके बाद सत्याग्रह निरन्तर चलता रहा , गिरफ्तारियां होती रही। आचार्य भगवानदेव जी ने ३०० गोभक्तों के साथ १८ जनवरी १९६७ को तीसरी बार सत्याग्रह किया। इस बार भी गरुकुल झज्जर के अनेक ब्रह्मचारी इस सत्याग्रह में सम्मिलित थे। इस प्रकार ६ मास तक चलने वाले गोरक्षा आन्दोलन में गुरुकुल के ब्रह्मचारी तथा कार्यकर्ता कई बार सत्याग्रह करके जेल गये । न केवल गुरुकुल के ब्रह्मचारी ही अपितु गुरुकुल की विद्यार्य सभा के अधिकारी भी कई बार जेल गये थे । इस सत्याग्रह में गुरुकुल झज्जर तथा अन्य हरियाणा वासियों के योगदान के विषय में डॉ० सत्यकेतु ने लिखा है हिन्दी सत्याग्रह के समान अब गोरक्षा सत्याग्रह में भी हरयाणा का कर्त्तव्य प्रमुख रहा। हरियाणा के अनेक गुरुकुलों के प्राध्यापकों , ब्रह्मचारियों तथा कर्मचारियों ने भी सत्याग्रह में भाग लिया।

         इस बार आचार्य भगवानदेव जी के सत्याग्रही जत्थे को फिरोजपुर ( पंजाब ) की जेल में भेजा गया तथा एक मास की कैद की गई। इस जत्थे में गुरुकुल झज्जर के ब्रह्मचारियों के साथ रोहणा ग्राम के ५२ सत्याग्रही भी थे। तीन दिन बाद दिल्ली से सूचना आई कि सत्याग्रह के विषय में सरकार समझौता करना चाहती है अतः आचार्य जी को फिरोजपुर से दिल्ली बुलाया गया। इनके साथ दरयावसिंह आर्य रोहणा और ब्रह्मचारी दयानन्द कितलाना भी गये। दिल्ली जाकर पता लगा कि गोरक्षा की सफलता हेतु कोई समझौता न होकर केवल राजनीतिक दृष्टि से लाभ उठाने के लिए तत्कालीन जनसंघ के नेताओं ने गोरक्षा आन्दोलन के सूत्रधार चारों शंकराचार्य , स्वामी करपात्री , जैनमुनि सुशील कुमार आदि को झांसा देकर प्रभुदत्त ब्रह्मचारी और शंकराचार्य का अनशन तुड़वाया क्योंकि १९६७ के चुनाव निकट थे अत: गोरक्षा के कारण जनमत को कांग्रेस के विरुद्ध हुआ जानकर जनसंघ ने सत्ता प्राप्त करने का अवसर ढूंढा। सरसंघ चालक गुरु गोलवलकर को बीच में डालकर यह दांव खेला गया। गोरक्षा आन्दोलन के प्राण आचार्य भगवान्देव जी और प्रोफेसर रामसिंह इस चाल को समझ गये और उन्होंने समझौता करने से निषेध कर दिया। परन्तु जनसंघ के नेताओं को चुनाव की जल्दी थी , इसलिए जनता से विश्वासघात करके सत्याग्रह बन्द कर दिया और ये बलिदान तथा पुलिस के अत्याचार सहने वाले लोगों का तप , त्याग सब व्यर्थ होगया। 

            एक मास पश्चात् जब फिरोजपुर जेल से गुरुकुल के अध्यापक और ब्रह्मचारी छूटने थे तब श्री योगानंद शास्त्री और श्री बलवानसिंह इंजीनियर ( झाड़ली ) इनके पास फिरोजपुर गये और इन्हें लेकर भगतसिंह आदि के समाधि स्थल दिखाने ले गये। वहां उस स्थल की दुर्दशा देखकर सभी को कष्ट हुआ कि जिन वीरों ने देश की स्वतन्त्रता हेतु बलिदान दिया उनका समाधि स्थल उजाड़ जैसा पड़ा हो उनके फोटो फटे हुए हों। वहां कोई दार्शनीय स्थल जैसा कुछ नहीं था। अत: योगानन्द शास्त्री ने ज्ञानी जैलसिंह को पत्र लिखकर प्रार्थना की कि ऐसे वीरों की यादगार को भव्य रूप दिया जाना चाहिए। फलतः इस विषय में सरकार ने पूरा ध्यान दिया और अब वह स्थान अत्यन्त भव्य और दार्शनीय हो गया है।

नीचे फोटो में श्री आचार्य भगवान देव जी (स्वामी ओमानन्द जी) एवं महाशय रामपत वानप्रस्थी जी आसन्न वाले हैं।

Thursday, June 24, 2021

ऋषि दयानंद के अनन्य भक्त चौधरी चरण सिंह जी


ऋषि दयानंद के अनन्य भक्त 
चौधरी चरण सिंह जी 
जब उन्होनें आर्यसमाज के सिद्धांत की लाज रखी 

         जब चौधरीचरण सिंह ने आर्यसमाज के सिद्धान्त की लाज रखो घटना उस समय की है जब भारत के प्रसिद्ध उद्योगपति स्वानामधन्य घनश्याम दास बिड़ला का देहावसान हो गया था और दिल्ली नाग एक परिषद् ने उनकी स्मृति में एक शोक सभा का आयोजन पिक्की हाल , नई दिल्ली में किया था। 

          इस अवसर पर कुछ वक्ता थे सर्वजी अटल बिहारी वाजपेयी , डा० कर्णसिंह , कंवल लाल गुप्त , हेमवती नन्दन बहुगुणा तथा बलराज मधोक। संचालक महोदय ने सभी वक्ताओं से एक - एक करके सभी वक्ताओं से कहा कि वे स्वर्गीय बिड़ला जी की मूर्ति पर माल्यार्पण करें , सभी ने एक - एक करके उनकी मूर्ति पर माल्यार्पण किया। 

         जब चौधरी चरण सिंह से माल्यार्पण हेतु कहा गया तो उन्होंने मूर्ति पर माल्यार्पण नहीं किया। हाल में बैठे हुए कुछ श्रोतागणों ने कहा कि देखो ये चौधरी भी कितना घमण्डी है। मैं भी इन्हीं श्रोताओं के बीच में बैठा हुआ था और मैं चौधरी साहब के प्रति ऐसे विचार नहीं सुन सका। मैंने उन व्यक्तियों से कहा कि चौधरी साहब ने घमण्ड के कारण नहीं , बल्कि आर्य विचारधारा से सम्बन्धित होने के कारण बिड़ला जी की मूर्ति पर माल्यार्पण नहीं किया। आर्य समाज इसे वेद विरुद्ध मानता है। जब कार्यक्रम समाप्त हुआ और सभी नेतागण हाल से बाहर आ गये तब मैंने चुप चाप एक स्लिप पर यह लिखा- " आदरणीय चौधरी साहब , मैं समस्त आर्य जनों की ओर से आपका अभिनन्दन करता हूं क्योंकि आपने आर्य समाज के सिद्धान्त की रक्षा की है। " यह लिख कर वह चिट मैंने चुपचाप चौधरी साहब को देकर एक किनारे खड़ा हो गया। चौधरी साहब ने उस चिट को पढ़ कर खड़े हुए लोगों से पूछा कि मामचन्द रिवारिया कौन से हैं ? मेरा नाम सुन कर श्री बलराज मधोक ने कहा कि मामचन्द रिवारिया तो ये खड़े हैं। 

         तब चौधरी साहब ने कहा कि इतनी बड़ी भीड़ में एक ने तो मेरे आर्य होने की प्रशंसा की। उन्होंने मेरा धन्यवाद किया और उस चिट को अपनी जेब में रख लिया। आज भी मैं उस घटना का याद कर रोमांचित हो उठता हूं। सच्चा स्वामी दयानन्द का भक्त वहीं जो किसी भी कीमत पर सिद्धान्तों से समझौता नहीं करता है। संसार में उन्हीं महापुरुषों की परमगाथा को गाया जाता है जो सिद्धान्तों पर चट्टान की तरह अडिग रहते हैं। 

-मामचन्द्र रिवारिया

Wednesday, June 23, 2021

हैदराबाद सत्याग्रह बलिदानी सुनहरा सिंह आर्य


हैदराबाद सत्याग्रह के वीर बलिदानी #सुनहरा_सिंह_जी_आर्य 
(बुटाना, सोनीपत) 8 जून 1939

उसे तेज बुखार थी, शरीर में विष फैला हुआ था,जेल में उसे लाठियों से पीटा गया लेकिन वह अंतिम सांस तक भारत माता और सनातन धर्म के जयकारे लगाता रहा-----

 सुनहरा #हरियाणा के सोनीपत जिले में बुटाना गांव का एक गाभरु नौजवान था। वह हंसमुख, स्वस्थ और सुंदर एवं बलिष्ठ शरीर का धनी था। वह मल्ल युद्ध(कुश्ती) का शौकीन अपने माता पिता का एकमात्र पुत्र था। वह बहुत धार्मिक एवं देशभक्त था।

    सुनहरा सिंह जी का जन्म जिला #सोनीपत के गांव #बुटाना में एक कुलीन #जाट परिवार में चौधरी जगराम सिंह जी के घर हुआ था। पिता जी सम्पन्न थे। माता के बाल्याकाल में ही देहान्त हो जाने पर पिता ने अपना समस्त स्नेह इन पर उडेल दिया। लालन पालन बड़े प्रेम से होने के एवं घर के एकमात्र लाडले चिराग होने के कारण इन्हें पाठशाला में बैठाने की बजाय घर पर ही हिंदी भाषा की योग्यता प्राप्त की। 

  1938-39 में अंग्रेजों का अत्याचार चरम सीमा पर था। हैदराबाद के निजाम से सांठ गांठ करके हिंदुओं की पूजा अर्चना पर रोक लगा दी थी। तब आर्य समाज ने सरकार व निजाम के विरुद्ध सत्याग्रह छेड़ दिया था। इस घड़ी में धर्मभक्त सुनहरा कैसे पीछे रह सकते थे वे भी भारत माता और सनातन धर्म के जयकारे लगाते हुए आंदोलन में कूद पड़े। उस समय इनके गौने के दिन निश्चित हो चुके थे। ये उससे पहले ही सत्याग्रही जत्थे में भर्ती होकर हैदराबाद के लिए तैयार हो गये। कई सम्बन्धियो ने एकलौता पुत्र होने के कारण रोकना चाहा पर देशभक्ति से ओत प्रोत सुनहरा ने किसी की एक न सुनी। है हमेशा अपने विचारो पर दृढ़ रहते थे। जो निश्चय किया उस पर वह पूरा करके ही दम लेते थे।
 श्री महाशय कृष्ण जी के साथ 5 जून को इन्होंने औरंगाबाद में सत्याग्रह किया और सत्याग्रह से डरकर  सरकार ने इन्हें व इनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया। जेल में इन्हें तेज बुखार हो गया और उस बुखार ने शीघ्र ही भयानक रुप धारण कर लिया था। उनकी बगल में एक फोड़ा भी निकल आया। ज्वर 105° डिग्री तक पहुंच चूका था। और उनकी इस स्तिथि में  उन्हें खाना तक न दिया गया 30 घण्टे बाद मात्र ज्वार की आधी रोटी दी गयी और उनके शरीर पर लाठियों से अनेकों प्रहार किए गए अनेक यातनाएं दी गई लेकिन वे यह सब सहते हुए भी सनातन धर्म और भारत माता के जयकारे लगाते रहे। बाद में लोक दिखावे के लिए इन्हें सिविल अस्पताल भेजा गया। सरकार ने अपनी निर्दयता छिपाते हुए बताया कि फोड़े का विष शरीर में फैल गया और उनको सन्निपात हो गया और रोग दानवी गति से बढ़ गया। अस्पताल में 8 जून 1939 को सुबह 7 बजे सुनहरा सिंह जी देश व धर्म हेतु वीरगति को प्राप्त हो गए। महाशय कृष्ण जी तथा अन्य सत्याग्रहियों को उनकी मृत्यु की सूचना कई घण्टो बाद दी गई। 

  माननीय श्री अणे ने औरंगाबाद जेल में हुए लाठी चार्ज पर वक्तव्य देते हुए लिखा था कि - 5 जून को महाशय कृष्ण के साथ 700 सत्याग्रही गिरफ्तार हुए थे। इतने व्यक्तियों के एकाएक आ पहुंचने से जेल के अधिकारी घबरा गये और उनके लिए रहन सहन और भोजन की व्यवस्था का करना कठिन हो गया।  गिरफ्तार हो जाने के 30 घण्टे के बाद उनको ज्वार कि सिर्फ आधी रोटी दी गई। इसके विरुद्ध असन्तोष होना स्वभाविक था। असन्तोष फैला तो जेलर ने मुंह बन्द करना चाहा। उसे सफलता नहीं मिली। इस पर वह झल्ला उठा। उसने पुलिस को लाठी चलाने की आज्ञा दी। पुलिस ने हाथ खोलकर लाठियां चलाई और बाद में घायलों को घसीट कर कोठरी में बन्द कर दिया। 
   इसके आगे लिखते हैं हैदराबाद सरकार को कुछ सलाह देते हुए लिखते हैं - कि मैने देखा के - श्री सुनहरा जी की मृत्यु बड़ी सन्दिग्ध अवस्था में हुई है। उनके शव पर गम्भीर चोटों के चिन्ह थे।

     जिस समय नगर औरंगाबाद में सुनहरा की मृत्यु का पता लगा तब बहुत से प्रतिष्ठित पुरुष वहां पहुंच गए। उनकी इच्छा थी कि हम शव को शहर में से ले जाएगें। कर्मचारी इससे सहमत न थे। अन्त में यह समझोता हुआ कि जिस मार्ग से कर्मचारी चाहते हैं महाशय कृष्ण और सत्याग्रही उसी मार्ग से शव को श्मशान भूमि में ले जायें।  नगर निवासी पुन: अन्तिम दर्शन के लिए श्मशान भूमि में आये।  ऐसा ही किया गया। श्मशान भूमि के सहस्त्रों नगर निवासी उस वीरात्मा की अंत्येष्टि में उपस्थित हुए। सुनहरा के शव को विभावसु की शिखाओं को भेंट करके सत्याग्रही अपने साथी के भाग्य के साथ ईर्ष्या करते हुए जेल वापिस आ गये। हुतात्मा श्री सुनहरा को शत शत नमन।

आज इन्हें और कहीं तो छोड़िए इनके गांव तक में कोई न जानता। न ही इनका कोई स्मारक है। हमें शर्म आनी चाहिए बलिदानियों के कर्ज को खाते हुए उन्हें स्मरण भी न करते।

प्रस्तुतकर्ता- अमित सिवहा, चौधरी जयदीप सिंह नैन

पंजाब का हिन्दी रक्षा आंदोलन - श्री स्वामी भीष्म जी का सत्याग्रह


पंजाब का हिन्दी रक्षा आंदोलन 
श्री स्वामी भीष्म जी का सत्याग्रह 

 प्रस्तुति :- श्री सहदेव समर्पित 

                 स्वामी रामेश्वरानंद जी की गिरफ्तारी के पश्चात् हरयाणे की आर्य जनता उग्र हो उठी। आचार्य भगवानदेव जी दक्षिण ओर मध्य हरयाणे की कमान संभाली तथा श्री स्वामी भीष्म जी महाराज ने जीटी रोड़ बेल्ट तथा उत्तरी हरयाणे की, आन्दोलन में स्वामी जी ने बढ़ चढ़ कर भाग हुआ लिया। स्वामी जी अपने जत्थे का नेतृत्व करते अम्बाला से दिल्ली चले। पानीपत में जत्था पहुंचा तो दो पुलिसकर्मी स्वामी जी को पकड़ने के लिए आगे बढ़े, स्वामी जी जवानी में जाने माने पहलवान रहे, स्वामी जी ने दांव लगाकर उन दोनों की गर्दन को दबोच लिया। पुलिसकर्मियों की सांसे फुलने लगी। अन्य सत्याग्रहियों के कहने पर स्वामी जी ने उनको छोड़ा। 

              वहां से चण्डीगढ़ पहुंच कर आर्य समाज मन्दिर में पहुंचे। वहां भोजन इत्यादि किया। वहीं पर पता लगा कि 3 बजे मोर्चा लगेगा। 3 बजे स्वामी जी सचिवालय के सामने डट गये। स्वामी जी के जत्थे में स्वामी जी के साथ 126 व्यक्ति थे। वहीं पर लाला जगत नारायण भी खड़े थे उन के साथ 10-11 व्यक्ति थे। सिपाहियों ने लाठियों से घेरा बना रखा था। वे किसी को अन्दर घुसने नहीं देते थे। जब स्वामी जी ने लाला जगत नारायण से पूछा कि क्या आप इस घेरे को तोड़ेगें तो लाला जगत नारायण ने यह कहते हुए इन्कार कर दिया कि हम तो गान्धी जी के शिष्य हैं , तोड़ फोड़ में विश्वास नहीं करते। 

          स्वामी जी ने , अपने तीन पहलवान साथियों सहित , धक्का मार कर सिपाहियों की पंक्ति तोड़ डाली। आगे भी सिपाहियों की पंक्ति लगी थी। स्वामी जी को पुलिस कप्तान ने पीछे से पकड़ लिया। किन्तु स्वामी जी के आगे उसकी एक न चली। स्वामी जी ने झटका देकर उसे अलग कर दिया। इसी कार्यक्रम में उसका टोप पास पड़े पानी में जा पड़ा। इससे वह कप्तान बड़ा लज्जित हुआ। स्वामी जी को पकड़ने का आदेश देकर एक तरफ चला गया। जो थानेदार स्वामी जी को पकड़ने आया वह स्वामी जी का बचपन में शिष्य था। वह बोला कि स्वामी जी यदि पापको पकड़ता हूं तो बड़ी कृतघ्नता होगी यदि नहीं पकड़ता तो नौकरी को खतरा है। आप इस समस्या का हल करें। स्वामी जी बोले कि तू ही बता। तब उसने कहा कि आप को गाड़ी में बिठा कर कहीं पास ही छोड़ आएंगे। उस थानेदार पर रहम खा कर स्वामी जी ने यह बात मान ली। गाड़ी में साथियों सहित बैठ गये। एक अन्य थानेदार चार सिपाही आदि लेकर चला। 

           वर्षा हो रही थी चण्डीगढ़ से 30-32 कि० मीटर आने पर थाने दार ( अन्य ) बोला कि स्वामी जी बड़ी देर हो गई आप को बैठे - बैठे , उतर कर पेशाब आदि कर लो। स्वामी जी बोले - कि मुझे पता है तुम हमें नीचे उतार कर भाग जाओगे हम यहां धक्के खाते रहेंगे , हम नीचे नहीं उतरते। एक नौजवान , नातजुबें कार इंस्पैक्टर बोला कि फिर हम नीचे उतारेंगे , अगर खुद नहीं उतरोगे तो। स्वामी जी बोले कि आ जा , यदि तू मुझे उतार दे तो सब स्वयंमेव उतर जायेंगे। थानेदार बोला कि स्वामी जी , कुछ तो समाधान करो , इस बात का। स्वामी जी बोले , वापिस ले चल। चण्डीगढ़ से 1 कि.मी. बाहर छोड़ देना। इस बात पर सहमति हो गई , किन्तु यह शर्त रखी गई कि नारेबाजी नहीं की जाएगी। वापिस लाकर एक कि० मीटर के पत्थर पर उतार दिये गये। जत्थे के साथियों ने खूब नारे लगाये। पुनः आर्यसमाज के मन्दिर में आकर खाना आदि खाया। अगले दिन फिर सत्याग्रह किया। 

           फिर स्वामी जी को हवालात में बन्द कर दिया गया किन्तु तीन दिन बाद उन्हें छोड़ दिया गया। अब स्वामी जी सिकन्दराबाद की ओर प्रचार हेतु चले गये। यहां उन्हें पता चला कि उनकी गिरफ्तारी का वारन्ट निकल गया है। उन्होंने सोचा कि लोग कहेंगे कि वारन्ट के डर से भाग रहा है। यह सोच स्वामी जी वापिस घरोण्डा आ गये। घरौण्डे के थानेदार स्वामी जी को थाने ले आये वहां से उन्हें नाभा ( पंजाब ) जेल में भेज दिया गया। उन्हें ' बी ' क्लास में रखा गया। स्वामी जी का प्रबन्ध अलग से कर दिया गया क्योंकि बैरक में लोग बीड़ी सिगरेट इत्यादि पीते थे। 

            रोज हवन यज्ञ होता , उपदेश होता। स्वामी जी अपने भजनों के क्रान्तिकारी विचार लोगों को देते। जेल में स्वामी जो अन्य सत्याग्रहियों के साथ हवन यज्ञ किया करते थे किन्तु एक व्यक्ति जिसका नाम ' तपस्वी ' था यज्ञ के समय , शोर करके विघ्न डाला करता था। एक दिन स्वामी जी को बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने उसे उठा कर भट्ठी में डालने की सोची। ऐसा करते देख बलराम जी दास टण्डन ने उसे बचाया। फिर कभी उसने शोर नहीं किया। जब सब लोग जेल से छूट रहे थे , तो स्वामी जी ने सोचा कि यह जो कम्बल , जुराब आदि जेल से मिला है , इसे अपने साथ लेकर जाना है। जब जेल के दरवाजे पर पहुंचे , तो पुलिस कर्मचारी कपड़े वापिस ले रहा था। स्वामी जी ने ' न ' कर दी। सब सिपाहियों को पता था कि बाबा क्रान्तिकारी है , बगावत कर देगा। जब दो बार कहने पर भी नहीं दिया और स्वामी जी बोले कि - अरे मुर्दे पर भी कफ़न डाल देते हैं , तुम इस ठण्ड में कपड़े लेकर मुझे मारोगे। आदमी हो कि कसाई। 

         चण्डीगढ़ हैड क्वार्टर पर टेलीफोन किया गया। पता लगा कि रसीद पर हस्ताक्षर करवा कर दे दो तथा जाने दो। इस चक्कर में 5 घण्टे लग गये। स्वामी जी ने देखा कि बाहर अन्धेरा है। स्टेशन अढ़ाई मील दूर है पैदल ठण्ड में जाना कठिन है। स्वामी जी फिर अड़ गये। स्वामी जी बोले कि पहले हमारे लिए तांगा मंगवाओ तब जायेंगे। जेलर बोला कि बाहर बेंच पड़ी है , उन पर बैठ जाओ। स्वामी जी ने सोचा कि यदि गेट पर हम चले गये तो ये पूछेगे भी नहीं , फिर पैदल जाना पड़ेगा। इन्होंने साफ इन्कार कर दिया। तंग होकर तांगा मंगवाया गया , तब स्वामी जी अपने साथियों सहित स्टेशन पर आए।

      हिन्दी सत्याग्रह, हैदराबाद सत्याग्रह की तरह आर्यसमाज का सफल सत्याग्रह रहा। आर्यसमाज का प्रचार ओर अत्यधिक हुआ।

Monday, June 21, 2021

पंजाब का हिन्दी रक्षा आन्दोलन - गुरुकुल झज्जर का महातप


पंजाब का हिन्दी रक्षा आन्दोलन 
गुरुकुल झज्जर का महा तप 

लेखक :- डॉ रघुवीर वेदालंकार 
         श्री विरजानंद देैवकरणि जी 
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 

              आचार्य भगवान्देव जी आर्यप्रतिनिधि सभा पंजाब के उपप्रधान एवं कार्यकर्ता प्रधान भी थे। ऐसी परिस्थिति में हिन्दी आन्दोलन को हरयाणा से चलाने का उत्तरदायित्व भी इन्हीं पर आ गया। इसी कार्य में तीव्रता लाने के लिए २८ जुलाई १८५७ को रोहतक में हिन्दी आन्दोलन के विषय में बृहत् सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन के पश्चात् आर्यसमाज के बड़े नेताओं की गिरफ्तारी की सम्भावना थी अतः श्री जगदेवसिंह जी सिद्धान्ती तो दिल्ली चले गये। आचार्य भगवान्देव जी वैद्य बलवन्तसिंह जी की मोटर साईकल पर बैठकर सायंकाल बोहर से पूर्व बांई ओर पीपल के पेड़ के नीचे एक कोटड़ा बना हुआ है उसकी छत पर दोनों ने रात व्यतीत की। 

        प्रात: काल आचार्य जी रोहणा गांव में श्री दरियावसिंह जी के पास गये। वहां आचार्य जी को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस पहुंच गई। आचार्य जी पीछे के दरवाजे से मोटर साईकल पर बैठकर निकल गये। वहां से चौ० हीरासिंह जी के पास मुखमेलपुर ( दिल्ली ) गये। कुछ दिन पश्चात् जमना के खादर के खेतों में बनी झोंपड़ियों में रहे। वहां पतला ग्राम निवासी फूलसिंह जी उनके पास भोजन , समाचारपत्र आदि पहुंचाते थे। वहां भी गिरफ्तारी की शंका हुई तो आचार्य जी मेरठ जिले की टटीरी मंडी आदि होते हुए साईकल पर ही मुजफ्फरनगर के निकट रसूलपुर जट्ट गांव में चौ० आशाराम के घर पर गये और वहां से सत्याग्रह का संचालन किया। वहां ब्र० वेदपाल शास्त्री ने आचार्य जी की सेवा और सुरक्षा की थी। अकेले हरयाणा से ही ५० हजार सत्याग्रही इस आन्दोलन में भेजे थे। यद्यपि सत्याग्रह का केन्द्र चण्डीगढ़ था किन्तु हरयाणावासियों के प्रबल उत्साह को देखते हुए दयानन्द मठ रोहतक में भी इसका एक केन्द्र खोल दिया गया था।३० जुलाई १९५७ को रोहतक के जिलाधीश सरदार लालसिंह की कोठी पर सात जत्थों द्वारा सत्याग्रह का दूसरा मोर्चा खुल गया। 

       इन जत्थों का नेतृत्व विधान सभा के सदस्य डॉ० मंगल आचार्य शिवकरण , चौधरी रामकला , श्री रामनारायण बी० ए० , ची भरतसिंह , मास्टर बीरबल , चौधरी ज्ञानसिंह ने किया। सत्याग्रहियों के साथ २० हजार के लगभग अन्य जनता भी थी। पुलिस थोड़ी थी , अत : भीड़ पर नियन्त्रण न कर सकी। पुलिस के लाठी प्रहार से सात सत्याग्रही सख्त घायल हो गये। इस द्वितीय मोर्चे के उद्घाटन से पूर्व एक विराट सभा २८ जुलाई १९५७ को अनाज मण्डी रोहतक में हुई , जिसमें हरयाणा के सभी प्रतिनिधियों ने भाग लिया। उसी दिन स्वामी रामेश्वरानन्द जी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। स्वामी जी की गिरफ्तारी से जनता में बड़े जोश और रोष की लहर विजली की तरह दौड़ गई। 

       अत: चण्डीगढ़ और रोहतक के मोचें को तन मन धन से सर्वप्रकारेण सफल बनाने की तैयारियां प्रारम्भ कर दी गई। अब प्रतिदिन हजारों की संख्या में सत्याग्रही रोहतक जाकर सत्याग्रह करते थे। " हिन्दी भाषा अमर रहे " " देश का बच्चा बच्चा होगा , हिन्दी भाषा पर बलिदान " " कैरोंशाही नहीं चलेगी " इत्यादि भांति भांति के नारे जिस जोश के साथ लगाए जाते थे वह दृश्य तो वास्तव में स्वयं दर्शनीय होता था। उसको देखकर सभी व्यक्ति यह कहते थे कि हरयाणा वाले पंजाबी को बलपूर्वक कभी नहीं पढ़ेंगे। ६ अगस्त १९५७ को झज्जर में मध्याह्न १२ बजे पंजाब के स्वास्थ्य मंत्री चौ० सूरजमल जी आर रणवीरसिंह जी हुड्डा एम.पी. पधारे। तहसील में उन्होंने ग्रामों के पंच और सरपंचों को बुलाया। जनता को प्रोग्राम का ठीक - ठीक पता भी न दिया गया । फिर भी पर्याप्त जनता वहां पहुंच गई। जब चौधरी रणवीरसिंह जी हिन्दी के विरुद्ध में बोलने लगे तब उनको काले झंडे दिखाये गये और भाषण भी ठीक नहीं होने दिया। इसी प्रकार चौधरी सूरजमल ने भी हिन्दी भाषा के विपरीत बोलना प्रारम्भ किया। 

         तब उनको भी काले झण्डे दिखाये गये तथा " हिन्दी भाषा अमर रहे ' " " देश का बच्चा - बच्चा होगा हिन्दी भाषा पर बलिदान " " सूरजमल गद्दी के लिए डूब गया " इत्यादि नारे उच्च स्वर से लगाये गये और तालियाँ पीटकर लोग चल पड़े। जब चलते समय चौधरी सूरजमल अपनी कार में जाकर बैठे तब कार के अन्दर उनके सिर के ऊपर भी एक काला झण्डा लहरा कर " हिन्दी भाषा अमर रहे ' ' का नारा लगाया। इस विरोध प्रदर्शन में गुरुकुल का सक्रिय योगदान था। फतेहसिंह भण्डारी तथा वेदव्रत आदि अनेक गुरुकुलीय लोग वहां सक्रिय थे। उन्होंने माइक का तार भी काट दिया था। इस सत्याग्रह के कारण चौ० सूरजमल ने अपनी मानसिक व्यथा एक बार इस प्रकार व्यक्त की मुझे बुढ़ापे में वजारत मिली थी , इस पर यह ' हिन्दगी ' आगे अड़ गई। इसके पश्चात् चौधरी सूरजमल बोहर ( रोहतक ) आयुर्वेद विद्यालय में गये। वहाँ भी इसी भांति काले झण्डों से स्वागत किया गया। एक और विशेष घटना घटी - चौधरी रणवीरसिंह हुड्डा एम० पी० जनता के भय के कारण अपना आसन छोड़कर खिड़की से भाग निकले , इस पर भी जनता ने उनका पीछा किया। २६ अगस्त १९५७ को पंजाब के निर्माण मंत्री राव वीरेन्द्रसिंह सिलानी ग्राम में पधारे । जब उन्होंने हिन्दी रक्षा आन्दोलन के विरुद्ध विष वमन प्रारम्भ किया और जाति के आधार पर फूट डालने का प्रयत्न किया , तब ग्रामीण जनता ने उनको काले झण्डे दिखलाये और हिन्दी भाषा अमर रहे आदि नारे लगाये। गुरुकुल झज्जर इस आन्दोलन से अछूता कैसे रह सकता था। 

         गुरुकुल झज्जर तथा कन्या गुरुकुल नरेला दोनों ने इस आन्दोलन में अपने जत्थे भेजे। अन्याय की यह पराकाष्ठा थी कि इस आन्दोलन में भाग लेने के कारण कन्या गुरुकुल नरेला की भूमि भी सरकार ने जब्त कर ली थी। आचार्य जी की पैत्रिक सम्पत्ति पर भी १२ अगस्त १९५७ को जब्त करने का नोटिस लगा दिया गया तथा इनकी गिरफ्तारी के वारंट जारी कर दिये गये। आचार्य भगवान्देव जी हरयाणा में हिन्दी आन्दोलन के प्राण ही थे। उन्होंने इन धमकियों की कुछ परवाह नहीं की। आन्दोलन में कूदने के कारण आपने गुरुकुल झज्जर के आचार्य पद से लिखित त्याग पत्र देकर रात दिन अपने आपको आन्दोलन के अर्पित कर दिया। इनके स्थान पर वेदव्रत जी को कुछ समय के लिए आचार्य बना दिया गया तथा गुरुकुल की विद्यार्यसभा के प्रधान कप्तान रामकला जी बने। आचार्य जी को इस आन्दोलन में रातदिन अथक परिश्रम करना पड़ा। अनेक दिनों तक भूमिगत भी रहना पड़ा तथा लम्बी लम्बी यात्राएं भी करनी पड़ी जिस कारण आपका स्वास्थ्य भी बिगड़ गया। 

            आचार्य जी का व्रत गोघृत तथा गोदुग्ध सेवन करने का एवं नमक , मिर्च , मीठे के बिना भोजन करने का था। आन्दोलन के दिनों में भागते दौड़ते रहने के कारण खान - पान की समुचित व्यवस्था न हो सकने के कारण स्वास्थ्य खराब होना स्वाभाविक ही था। भूमिगत अवस्था में आचार्य जी उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में रसूलपुर जाटान नामक ग्राम में छिप कर रहे। वहां उड़द की दाल खाने के कारण आपका पेट खराब हो गया। उड़द की दाल पश्चिमी उत्तरप्रदेश को प्रिय दालों में से है। यह पौष्टिक भी है। अतिथि के लिए उड़द की दाल तथा चावल बनाना उसके स्वागत के लिए विशेष भोजन माना जाता है। रसूलपुर में भी गृह स्वामिनी माता जी आदर सत्कार के कारण ही आचार्य जी को लगातार उड़द की दाल खिलाती रही। 

         आचार्य जी हरी सब्जी तथा मूंग की दाल के अभ्यासी थे , अत : पेट खराब होना स्वाभाविक ही था । यहां आचार्य जी गुप्त रूप में रह कर सत्याग्रह का संचालन रहे थे। पंजाब सरकार उनको गिरफ्तार करना चाहती थी । समाचार पत्रों में घोषणा कर दी गयी थी कि आचार्य भगवान्देव को पकड़ कर लाने वाले को पचास हजार रुपये ईनाम में दिये जायेंगे। इतने पर भी पंजाब सरकार आचार्य जी को पकड़ नहीं सकी। आचार्य जी की अनुपस्थिति में भी गुरुकुल से हिन्दी रक्षा सत्याग्रह के लिए जत्थे जाते रहे। ११ अक्तूबर १९५७ को ११ व्यक्तियों का जत्था गुरुकुल से गया। इसके बाद भी लगातार जत्थे जाते रहे। इस सत्याग्रह में गुरुकुल के सभी ब्रह्मचारियों तथा कर्मचारियों ने भाग लिया। 

         बीस अक्तूबर १९५७ को झज्जर नगर का थानेदार बलायाराम गुरुकुल में आचार्य जी को निगृहीत करने आया। आचार्य जी इन दिनों रसूलपुर जाटान गये थे। अत : थानेदार को खाली हाथ वापस आना पड़ा। वह इक्कीस तारीख को पुनः आया। उसे आशंका थी कि आचार्य जी कहीं पास में ही छिपे हुए होंगे तो पकड़ में आ जायेंगे। उसे दोबारा भी असफलता मिली तथा ' लौटकर बुद्धू घर को आए ' के अनुसार उसे पुनः खाली हाथ वापस लौटना पड़ा। आचार्य जी के रसूलपुर जाटान प्रवास के दिनों में वेदव्रत जी उनसे मिलने रसूलपुर गये तथा वहां जाकर आचार्य जी से जत्थे भेजने के विषय में परामर्श किया। किसी न किसी भांति वेदव्रत जी रसूलपुर पहुंच तो गये किन्तु वापस गुरुकुल आने में पर्याप्त परिश्रम करना पड़ा। इसके लिए वे मुजफ्फरनगर से दिल्ली तक रेलगाड़ी द्वारा पहुंचे। दिल्ली स्टेशन से सराय रोहिल्ला साईकिल द्वारा गये। इस प्रकार चलने से विलम्ब हो गया था। 

       फलत: ट्रेन या बस आदि कोई भी साधन आगे जाने के लिए न मिल सकने के कारण सराय रोकि से ट्रक में बैठकर बहादुरगढ़ पहुंचे। यहां पहुंचने तक तो पर्याप्त विलम्ब हो चुका था अत: यहां से आगे गुरु जाने के लिए कोई भी साधन उपलब्ध न था। ' त्याज्यं न धैर्य विधुरेऽपि काले ' के अनुसार वेद्रवत जी हार न मानी तथा रात्री में ही गुरुकुल के लिए पैदल चल दिये। २० मील की यात्रा करने के पश्चात् ११ को गुरुकुल में पहुंचे। ग्यारह अक्तूबर १ ९ ५७ को गुरुकुल का जत्था सत्याग्रह के लिए प्रस्थान कर ही चुका था। जत्थे की झज्जर कस्बे में प्रवेश करते ही पकड़ लिया गया जिसे पहले झज्जर हवालात में रखकर बाद में रोहतक जेल भेज दिया गया। पूर्वचर्चित थानेदार महाशय गुरुकुल में २३ अक्तूबर को पुनः आए। जत्थे के विषय में वेदव्रत जो से सामान्य पूछताछ की किन्तु इस बार भी आचार्य जी को यहां न पाकर निराश होकर वापस लौट गया। वेदव्रत जो रोहतक जेल में बन्द जत्थे से निरन्तर सम्पर्क बनाए हुए थे तथा २८ अक्तूबर १९५७ को वे जेल में जत्थे के लिए आवश्यक वस्तुएं दे आए। थानेदार ने अपना उद्यम नहीं छोड़ा , उसने सात नवम्बर १९५७ को गुरुकुल में हैड कांस्टेबल तथा कुछ सिपाही पुनः भेजे। इस बार थानेदार स्वयं नहीं आया। इन सब का प्रयोजन तो आचार्य जी के विषय में पूछताछ करना था। पूछने पर कोई भी उत्तर अपने पक्ष में न पाकर ये भी खाल्ली हाथ , निराश वापस लौट गये। 

       १९ अक्तूबर १९५७ को वेदव्रत जी आचार्य जी मिलने के लिए रसूलपुर जट्ट ( उत्तरप्रदेश ) गये थे तब आचार्य जी का स्वास्थ्य ठीक था। १० नवम्बर को विद्यार्य सभा की बैठक गुरुकुल झज्जर में हुई। उसमें ज्ञात हुआ कि आचार्य जी बीमार होगये हैं। ११ नवम्बर को प्रातःकाल ६ बजे गुरुकुल झज्जर से चलकर वेदव्रत जी बस द्वारा सायंकाल आचार्य जी के पास पहुंचे। आचार्य जी ने बताया कि हलका ज्वर और दमे की शिकायत होगई है। सर्दी का मौसम है। तर इलाका है , ऊपर से उड़द की दाल में घी डालकर भोजन में दे देते हैं। किसी शुष्क स्थान पर जाने से स्वास्थ्य सुधर सकता है। वेदव्रत जी ने कहा कि मेरी जन्मभूमि घासीकाबास झुंझनूं ( राजस्थान ) सब से बढ़िया शुष्क और सुरक्षित स्थान है। वहां चलो। आचार्य जी सहमत होगये। किन्तु राजस्थान जाने के लिए देहली और रेवाड़ी में पकड़े जाने की सम्भावना। पंजाब सरकार आचार्य जी को जीवित या मृत किसी भी रूप में पकड़ना चाहती थी। गिरफ्तारी से बचने के लिए लम्बा रास्ता चुना। १२ नवम्बर को रसूलपुर से शाहपुर , मुजफ्फरनगर , मेरठ , हाथरस , मथुरा , भरतपुर , बांदीकुई होते हुए १३ को रात्रि में जयपुर पहुंचे। १४ तारीख को प्रातःकाल जयपुर से वापस सीकर , झुंझनू होते हुए नारी खेतड़ी रेलवे स्टेशन पर उतरकर पैदल ही घासीकाबास ( अजीतपुरा ) पहुंच गये। वहां सत्याग्रह की समाप्ति ( २८ दिसम्बर १ ९ ५७ ) तक पुराने साथी बृजलाल आर्य के खेत के कुएं पर रहे। उसी ने सेवा और सुरक्षा की। सत्याग्रह समाप्ति पर उसी दिन गुरुकुल के ब्रह्मचारियों का जत्था रोहतक जेल से वापिस गुरुकुल पहुंचा। उसी दिन वेदव्रत जी आचार्य जी को अपने घर से वापिस लेने के लिए गये। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रतापसिंह कैरों ने भड़काऊ भाषण के आरोप लगवाकर १९५८ में सत्याग्रह समाप्ति के पश्चात् आचार्य जी को गिरफ्तार करवाकर जेल में डलवाया था। प्रतापसिंह कैरों और आचार्य भगवान्देव सैंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली में एक साथ पढ़े थे। दोनों का एक दूसरे के घर पर आना जाना भी था। सत्याग्रह का कार्य पूरे जोर के साथ चल रहा था। गुरुकुल वासी , हरयाणा निवासी तथा अन्य सभी हिन्दी प्रेमी सत्याग्रह को सफल बनाने में जुटे हुए थे। 

        कुछ हिन्दी भक्त सत्याग्रह करके गिरफ्तारियां दे रहे थे तो अन्य व्यक्ति जनता में प्रचार करके जन सामान्य में उत्साह का संचार कर रहे थे। सत्याग्रहियों का सत्याग्रह भी विभिन्न प्रकार का होता था। अधिकांश सत्याग्रही आर्यसमाजी होते थे अत: सत्याग्रह के दिनों में भी वे यज्ञ करना न भूलते थे। चण्डीगढ़ में चौधरी नौनन्दसिंह ( कलोई सुहरा ) ने सड़क के किनारे ही तम्बू लगाकर यज्ञ करना प्रारम्भ किया किन्तु सरदार प्रतापसिंह ' कैरो'ने तम्बू को उखड़वा दिया। पुनरपि चौधरी साहब ने अपना यज्ञ करके ही छोड़ा। 

          आन्दोलन अबाधगति से चलता रहा। हिन्दी प्रेमियों का उत्साह बढ़ता ही जा रहा था। गुरुकुलवासी भी हर प्रकार से इसमें अपनी आहुति देने में लगे हुए थे। एतदर्थ कुछ तो जत्थे बनाकर सत्याग्रह करते थे तथा शेष व्यक्ति जनता में घूमकर आन्दोलन के पक्ष में प्रचार कर रहे थे। सरकार प्रयास था कि सत्याग्रह असफल हो जाए। इसी उद्देश्य से सरकारी मन्त्री तथा अन्य व्यक्ति भी जगह - जगह आन्दोलन के विपक्ष में प्रचार कर रहे थे। इस सत्याग्रह में गुरुकुल के योगदान की चर्चा करते हुए डॉक्टर सत्यकेतु विद्यालंकार ने आर्यसमाज के इतिहास में लिखा है ' रोहतक जिले में गुरुकुल झज्जर आर्यसमाज की प्रमुख शिक्षण संस्था है। वहां के कितने ही ब्रह्मचारियों ने सत्याग्रह में भाग लिया। केवल ब्रह्मचारी ही नहीं अपितु वहां के कितने ही कर्मचारी भी हिन्दी की रक्षा के लिए जेल गये। 

          आन्दोलन अपना उग्ररूप धारण करता जा रहा था , इसके साथ ही सरकार का दमनचक्र भी तेज हो रहा था। फिरोजपुर जेल में सत्याग्रहियों पर योजनाबद्ध रूप से आक्रमण कराकर अनेक सत्याग्रहियों को इंडियां तोड़ दी गयी तथा अनेक वीरों को प्राणाहुति देनी पड़ी। रोहतक जिले के नयाबास ग्रामवासी युवक सत्याग्रही सुमेरसिंह का प्राणान्त भी इसी लाठीचार्ज में हुआ था। ८ नवम्बर १९५७ को जवाहरलाल नेहरू चण्डीगढ गये। वहां पहुंचकर उन्होंने विधानसभा में घोषणा की कि हिन्दीरक्षा समिति की ९० प्रतिशत मांगें मान ली गयी हैं और शेष १० प्रतिशत मांगों का आपसी बातचीत द्वारा निर्णय किया जा सकता है। गृहमंत्री पंडित गोविन्दवल्लभ पंत ने बातचीत के लिए भाषा स्वातन्त्र्य समिति के अध्यक्ष श्री घनश्यामसिंह गुप्त को बातचीत के लिए आमन्त्रित किया इसके परिणाम स्वरूप गुप्त जी ने गृहमंत्री के अनुरोध पर सत्याग्रह समाप्ति की घोषणा कर दी। इस प्रकार ६ मास तथा ८ दिन बाद सत्याग्रह समाप्त  हुआ।

पुनर्जन्म


पुनर्जन्म

-सहदेव समर्पित

1  सृष्टि के जड़ पदार्थों में भी पुनर्जन्म है। यथा- पानी गर्म होकर भाप बन जाता है। वह ऊपर जाकर बादल के रूप में बरसता हुआ पुनः पृथ्वी पर आ जाता है। अधिक शीतलता पाकर वही बर्फ का रूप ले लेता है। अर्थात् सृष्टि के आरम्भ से अब तक पानी की एक बूंद भी कम नहीं हुई है। वैज्ञानिकों का कथन है कि कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं होता, केवल स्वरूप बदल जाता है।
2   प्राणी का किसी भी योनी में जन्म लेने का आधार क्या है? क्योंकि सूअर, पशु, कीड़ा आदि कोई भी प्राणी स्वेच्छा से नहीं बनता। अर्थात् कोई अन्य सत्ता उसे ऐसा बनाती है। अन्य सत्ता भी स्वेच्छा से नहीं बनाती है, इसमें निश्चित रूप से आत्मा के पूर्वजन्म कृत कर्म ही कारण बनते हैं। क्योंकि बिना कारण कार्य नहीं होता।
3 पैदा होते ही प्राणी अपनी योग्यता के अनुसार क्रिया करता है। वह निश्चित रूप से उसके पूर्व अभ्यास का परिणाम है,क्योंकि इस जन्म में तो उसे किसी ने सिखाया नहीं होता। जैसे मनुष्य या पशु का बच्चा माँ के स्तन से दूद्द चूसता है।
4  प्रत्येक प्राणी मृत्यु से सदा भयभीत रहता है। इसका कारण यह है कि मृत्यु उसका अनुभूत विषय है। वह मृत्यु के समय होने वाली पीड़ा को अनुभव कर चुका है। तभी तो वह उससे बचना चाहता है। 
5 कर्मफल भोगने के लिए पुनर्जन्म आवश्यक है। जैसे किसी व्यक्ति ने कुछ लोगों की हत्या कर दी और इसके कुछ समय बाद वह मर गया। ऐसी अवस्था में न्यायालय तो उसे दण्ड नहीं दे सका। तो उसे दण्ड कैसे मिलेगा। निश्चित रूप से पुनर्जन्म होगा। 
6 यदि यह कहें कि यह जन्म तो ईश्वर ने स्वेच्छा से दिया है तो किसी को सुख और किसी को दुःख क्यों दिए हैं। यदि कोई कहे कि परीक्षा करने के लिए दिए हैं, तो ईश्वर अज्ञानी ठहरता है, क्योंकि परीक्षा की आवश्यकता उसको होती है जिसको पता न हो। ईश्वर अन्यायकारी भी ठहरता है क्योंकि किसी की परीक्षा ली, किसी की नहीं।
7 यदि यह भी मान लिया जाए और यह भी कि वह कर्मों के फल कयामत के दिन देता है तो यह भी अन्याय है कि अधिकतम 100 वर्षों का जीवन और सजा अनन्त काल तक! और न्याय के लिए अनिश्चित काल तक प्रतीक्षा!
8 पं0 रामचन्द्र देहलवी का तर्क- जब कयामत के दिन न्याय के दिन सभी मनुष्य उठ खड़े होंगे तो उनको दूसरा शरीर मिलता है या यही? उत्तर दिया गया- दूसरा। क्योंकि यह  शरीर तो कहा नहीं जा सकता। यह तो मिट्टी और कीड़े खा गए। यदि दूसरा शरीर मिलता है तो पुनर्जन्म से क्यों इन्कार करते हो? यही तो पुनर्जन्म है कि आत्मा को दूसरा शरीर प्राप्त होना।
9 वस्तुतः आत्मा को अनादि न मानना ऐसा ही है जैसे एक झूठ छुपाने के लिए हजार झूठ बोलना। जो अनादि नहीं है वह अनन्त भी नहीं हो सकता। कयामत के दिन सबका न्याय करके सबको बहिश्त या दोजख में भेजकर खुदा क्या करेगा? और यह दुनिया बनाने से पहले क्या कर रहा था? 
10  वैदिक सिद्धान्त के अनुसार तीन सत्ताएँ अनादि हैं- ईश्वर जीव और प्रकृति। जीव बार बार जन्म लेता है। परमात्मा शरीर धारण नहीं करता। यही सत्य है।
(शांतिधर्मी में प्रकाशित)

सरदार घुन्नासिंह जी


आर्यसमाज के बलिदान 
सरदार घुन्नासिंह जी                   लुधियाना पंजाब 

पुस्तक :- आर्यसमाज के बलिदान 
लेखक :- स्वामी ओमानन्द जी महाराज 
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 

     मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्।। 
  अच्छे बुरे सभी पर ही , एक संकट का दिन प्राता है। 
दुःख सुख चक्र समान फिरे,यह सभी विधान विधाता है।।

         घुन्नासिंह का जन्म स्थान लताला जि ० लुधियाना है। यह ग्राम खंगूडे जाटों का है। इनका जन्म संवत् १९३८ सन् १८८१ ईस्वी में हुआ था। घुन्नासिंह अपने पिता थम्मरणसिंह के एकमात्र पुत्र थे। इनकी माता का नाम श्रीमती भागण देवी था। सात वर्ष की आयु में इनको ग्राम में ही एक उदासी साधु के पास गुरुमुखी पढ़ने भेजा गया। इन्होंने कुछ गुरुमुखी का अभ्यास किया , पश्चात् घरवालों ने पढ़ाई बन्द कर दी। ९ वें वर्ष में इनका विवाह शेरसिंह जी की कन्या जयकौर देवी से ग्राम बुरज लिटा में हो गया और १४ वें वर्ष में मुकलावा अर्थात् गौणा हो गया। 

       इनके ६ सन्तानें हुईं जिनमें चार पुत्र तथा दो कन्यायें थीं। ज्येष्ठ पुत्र का देहान्त १८ वर्ष की आयु में आर्य स्कूल लुधियाना में जब कि वह १० बी श्रेणी में पढ़ता था हो गया। उसका नाम भजन सिंह था। शेष तीन पुत्र बख्तावरसिंह , सुखदेव , बलभद्र अब हैं। बड़ी कन्या का विवाह डॉक्टर इन्द्र सिंह ग्राम बुरज नकलीया में हुआ जो सुखपूर्वक गृहस्थ बिता रही है। छोटी कन्या का स्वर्गवास हो गया। 

      इनके गृह में कृषि का काम होता था। ग्राम में इनका परिवार कृषिपटु समझा जाता था। अतः इनके पिता ने अपने पिता श्री भगवान्सिंह जी की सम्मति से घुन्नासिंह को कृषि के काम में लगा लिया । अब यह कृषक हो गये। 

       सत्संग का अभ्यास आरम्भ से ही था। अब यह पं० यमुनादास जी एवं पं० विष्णुदास जी की संगति में आने लगे। यह दोनों महानुभाव उदासी साधु थे। पं० यमुनादास जी अपने समय के उत्तम वैय्याकरण तथा नैय्यायिक माने जाते थे। पण्डित विष्णुदास जी अपने काल के अद्वितीय वैद्य थे। पं० यमुनादास जी तो बाहर आर्यसमाजी हो गये और पं० विष्णुदास जी को सरदार हरिसिंह जी भैरणीरोडा वाले ने प्रथम पं० लेखराम जी की पुस्तकें पश्चात् ऋषि की पुस्तकें देकर आर्यसमाजी विचारों का बनाया। इनकी संगति से धुन्नासिंह आर्यसमाजी हुये। आर्यसमाजी होकर नागरी लिपि सीखी तथा हिन्दी भाषा पढ़ी। आर्यसमाज के ग्रन्थ नाममात्र पढ़े परन्तु वंगवासी या भारतमित्र के ग्राहक नियम पूर्वक रहे। इससे संसार के सामान्य ज्ञान में विशेष वृद्धि हो गई। 

        इनके आर्यसमाजी होने का ज्ञान इनकी पूज्या माता के देहावसान पर हुआ। क्योंकि इन्होंने उस समय किसी पौराणिक कृत्य का अनुष्ठान नहीं किया। इनका परिवार सम्पन्न था। ये किसी को रुपया देकर उस पर वृद्धि ( सूद ) नहीं लेते थे। जिसको जितना रुपया देते थे उससे उतना ही लेते थे। जिस समय गृह कार्य इनके हाथ में आया उस समय इन्होंने धन को भूमि में न दबाकर डाकघर में रखकर उस पर वृद्धि प्राप्त की। पिता की मृत्यु के पश्चात् आपने कृषि का कार्य छोड़कर पनसारी की दुकान करली। साथ ही जरूमों , आंखों की बीमारियों और छोटे छोटे रोगों की दवायें भी मुफ्त में देनी शुरू कर दी।

      ग्राम इन्होंने अपनी कन्या का विवाह वैदिक रीति से किया। किसी पण्डित के न आने पर यह विवाह श्री पं० विष्णुदास जी उदासीन ने पढ़ाया था। इस विवाह में घुन्नासिंह ने सुधार भी किया। बारात में एक वर दूसरा भाई , तीसरा नापित और चौथा गाड़ीवान ये चार ही व्यक्ति प्राये थे। रात को विवाह करके प्रातःकाल कन्या को विदा कर दिया। कोई दहेज न दिया। इस से लोगों को इनके प्रार्यसमाजी होने का विश्वास हो गया और यह आर्यसमाजी प्रसिद्ध होगये। 

         यदि कोई समीप में आर्यसमाज का उत्सव हो जैसे लुधियाना , रायकोट आदि में तो यह सम्मिलित हुआ करते थे। लताला में भी इन्होंने एक या दो उत्सव करवाये थे। ग्राम में कुछ अकाली भी थे। अब यह आर्यसमाजी हो गये थे। दोनों अपने अपने पक्ष के पोषक थे। गांव में एक कन्या पाठशाला खुली। इस पर पक्ष बन गये। कई बार बाहर के सज्जन भी समझौते के लिये गये। धुन्नासिंह का दल कहता था - कि धन राशि नियत कर दो। जो उतना धन दे उसका एक सदस्य हो। अकाली पार्टी वाले कहते थे कि जितने घुन्नासिंह दल के सदस्य हों उतने ही हमारे हो परन्तु धन हम एक चौथाई देंगे और तीन चौथाई यह दें। यद्यपि इस प्रकार समझौता असम्भव था परन्तु धुन्नासिंह ने स्वीकार कर लिया और यह शर्त रखी कि पाठशाला में स्त्री अध्यापिका हो। उस समय पाठशाला का अध्यापक एक अकाली था। अकालियों ने इस शर्त को स्वीकार नहीं किया और समझौता टूट गया। घुन्नासिंह दल ने स्त्री अध्यापिका रख कर एक अलग पाठशाला खोली। घुन्नासिंह के प्रभाव से वह पाठशाला खूब चल निकली। पीछे इस पाठशाला को इन लोगों ने डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अधीन कर दिया। अब तक यह पाठशाला अच्छी तरह चल रही है और अब मिडिल बन चुकी है। पाठशाला में स्त्री अध्यापिका रखने की शर्त पर समझौता टूट जाने पर कई अकाली इनके दल में आ मिले थे जिनमें हवलदार वीरसिंह , रसाईदार भोलासिंह , जमादार चन्दनसिंह इनमें मुख्य थे। ये लोग घुन्नासिंह के मित्र बन गये और पाठशाला के कार्यों में सहयोग दिया। 

         अनुचित हठ को लेकर पराजित होने पर अकालियों ने अपने यश को कलंकित करने वाला षड्यन्त्र रचा। उन्होंने घुन्नासिंह के जीवन को समाप्त करने के लिये एक व्यक्ति को तैयार कर लिया। सामान्य रूप से घुन्नासिंह को भी पता लग गया। यह बात श्री रामलाल जी , प्रिसिंपल आर्य स्कूल लुधियाना ने बतलाई। मास्टरजी ने बतलाया , -एक दिन घुन्नासिंह ने उनसे कहा - अकाली कुछ बिगड़ रहे हैं। आर्यसमाज और पाठशाला मुख्य विषय हैं। मुझे सन्देह है कि कभी आक्रमण होगा। मास्टर जी को तब भी विश्वास न हुआ उन्होंने कहा - ऐसा असम्भव है परन्तु कुछ दिन पीछे जिस दिन धुन्ना सिंह जी शहीद हुये तब उनकी बात पर विश्वास हुआ , परन्तु उससे अब कोई लाभ न था। 

        अकालियों ने जिस व्यक्ति को उकसाया था उसका घर घुन्नासिंह की दुकान के पास ही था। घुन्नासिंह भी कुछ सावधान रहते थे। इस व्यक्ति ने ग्राम का एक घोगड़ नाम का मुसलमान साथ मिला लिया और दो व्यक्ति किसी अन्य ग्राम के बुलाये। 

        घटनावाले दिन धुन्नासिंह प्रातःकाल ही अर्थात् उषःकाल में शर्बत बनाने के लिये दुकान पर गये। वह अभी ताला ही खोल रहे थे कि वचनसिंह ने पीछे से आकर पकड़ लिया। वह उससे छूटना ही चाहते थे तब तक दूसरे साथी ने आकर केसों से पकड़े लिया। ये खींच कर अपने मकान में ले गये। वहां दो और भी उनके सहायक थे। चारों ने मिलकर डण्डों लाठियों से मारना प्रारम्भ किया। हल्ला सुनकर जनता भी आगई। कुछ व्यक्ति उस घर पर पहुंचे। उस समय वे लोग इन्हें छोड़कर भाग गये। घुन्नासिंह के पास सवले प्रथम ज्वालासिंह दर्जी पहुंचा। उसने बतलाया वीर घुन्नासिंह ने जो सबसे पहली बात कही वह यह थी- " ज्वालासिंह देखले प्रांख में आंसू नहीं हैं" । 

       लोग घुन्नासिंह को उठाकर बाहर लाये। यदि वचनसिंह आदि न भागते तो लड़ाई हो जाती , उनके भाग जाने से न हुई। शफट पर घुन्नासिंह को डाल कर थाना डेहलों को ले चले। जब छपार पहुंचे तो घुन्नासिंह ने कहा - ठहर जावो। शकट टहराया गया । कोई पाँच मिनट के पश्चात् वीर घुन्नासिंह ने कहा - अब काम समाप्त है । पूछा - क्या है ? उसने कहा - अब आत्मा शरीर छोड़ने वाला है। यह कहकर आँखें बन्द की और एक बार ओ३म् कहा तथा वीर आत्मा ने भौतिक शरीर से ११ मई १९३० के प्रातःकाल विदा ली। 

        डॉक्टरी परीक्षा में डाक्टर ने लिखा था - हाथ , टाँग , कमर , छाती की कोई भी अस्थि साबत नहीं है। आश्चर्य है , यह कुछ समय भी कैसे जीवित रहे। 

       अभियोग में वचनसिंह भाग गया। घोगड़ पकड़ा गया। दूसरे दो व्यक्तियों को ठीक ठीक पहचाना ही नहीं गया। घोगड़ कालापानी ( अण्डेमान ) भेजा गया। वहां जाकर कुछ समय पश्चात् उसको वहीं मृत्यु हो गई। वचनसिंह १६ मई १९३१ को फिरोजपुर जिले में पकड़ा गया और उसे फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया। वचनसिंह की सजा को तबदील करने के लिये जस्टिस जयलाल की अदालत में लाहौर अपील की गई। जस्टिस जयलाल ने १२ जनवरी १६३२ को फैसला लिखते हुये अन्त में लिखा है - जहां तक आज्ञा का प्रश्न सम्बन्ध रखता है , वचनसिंह का व्यवहार किसी अनुकम्पा के योग्य नहीं है। यह साफ है कि पहली दुश्मनी की वजह से उसने तीन आदमियों को अपने साथ मिलाया ताकि इस मरने वाले पर पाशविक आक्रमण किया जाये और उसे लगभग मार दिया। यह सच है कि सर पर सिवाय एक के और कोई जख्म नहीं था। लेकिन यह बात अपील करने वाले की सहायता नहीं करती। इसके विरुद्ध आक्रमण की निपुणता को सिद्ध करती है। 

       मेरी सम्मति में मृत्यु की आज्ञा वचनसिंह के बिलकुल अनुरूप है। मैं उसकी अपील खारिज करता है और पहले हुक्म को कायम रखता हूं। 

         वचनसिंह के मित्र से मालूम हुआ कि वह अफसोस करता था कि मैं अकालियों के बहकाने में या गया। मैंने घुन्नासिंह को निरपराध मारा है। मुझे उससे कोई दुश्मनी न थी। शहीद घुन्नासिंह उत्तम मित्र और भयानक शत्रु था। वह धैर्यवान् , निडर , अपनी धुन का पक्का और धर्मप्रेमी था । सम्भव है धर्मप्रेम माता से लिया हो और शेष गुण पिता से। 

                                  धैर्य 

       इनका ज्येष्ठ पुत्र भजनसिंह आर्य स्कूल लुधियाना में पढ़ता था। वह रोगी हो गया। रोग से उसे मूर्छा हो गई। यह पं० विष्णुदास जी को साथ लेकर आये। लुधियाना के सिविल सर्जन ५० गोकुल चन्द्र जी वैद्य श्री तारवाला हकीम प्रभृति अनेक वैद्य बुलाये गये। परन्तु लाभ न हुआ। उस दिनों मैं अचानक लुधियाना पाया। पता लगने पर उनसे मिला। वे तथा परिवार से उनके भ्राता हरनामसिंह जी वहां थे। भजना मूच्छित था। दूसरे दिन मैं बोडिङ्ग हाउस में गया। मास्टर श्री कृष्ण जी भी वहाँ थे। रोगी की जिह्वा कुछ खुश्क हुई थी। श्री कृष्ण जी को बादाम रोगन लाने के लिये भेजा , वह लगाया गाया परन्तु कुछ पल पश्चात् भजने की आत्मा ने शरीर को छोड़ दिया। स्कूल उस दिन बन्द हो गया। अन्त्येष्टि संस्कार उसका किया गया। घुन्नासिंह से मैंने पूछा - लताला रेल से जाना है वा पंदल ? उन्होंने उत्तर दिया पैदल जाने से शीघ्र पहुंच जाऊँगा। अतः पैदल जाऊंगा। मैंने मास्टर रामलाल जी से पूछा - भोजन तैयार है ? उन्होंने कहा घर में नहीं है परन्तु बोडिङ्ग हाउस में है। मैंने कहा - घुन्नासिंह को भोजन करवा दो। वह बोले - इस अवस्था में मेरे मन में भोजन के लिये कहने का उत्साह नहीं है। वह काम मैंने अपने ऊपर लिया। मैंने घुन्नासिंह से कहा - यदि पैदल जाना है तो भोजन कर लें , क्योंकि आप २० मील पैदल जायेगे , घर में रोना आरम्भ होगा , आपको भोजन किसने देना है। उन्होंने मुझ से कहा - आपकी इच्छा है कि मैं भोजन करलू ? मैंने हां में उत्तर दिया । उसने कहा - बहुत अच्छा। भोजन करके वे ग्राम को चल दिये। चलते समय मुझे केवल ये शब्द कहे - कुछ समय के लिये बोर्डिंग हाउस से सम्बन्ध विच्छेद होगया। 

       उनके जाने पर श्री रामलाल जी ने मुझे तो उलाहना दिया कि आपने संन्यासी होने से ही भोजन के लिये कह दिया और घुन्नासिंह के धैर्य्य की प्रशंसा की कि १८ वर्षीय युवक पुत्र का देहान्त हुआ , चिकित्सा पर मुक्तहस्त होकर व्यय किया , परन्तु अन्त्येष्टि के समाप्त होते ही २० मील की यात्रा के लिये चल दिये और भोजन भी कर लिया। 

                                दृढ़ता 

        आर्यसमाजी होने पर माता जी का संस्कार , कन्या का विवाह वैदिक रीति से किया। अपनी दुकान पर अछूतपन मिटा दिया। सब विरोध सहकर सब कुछ किया। अन्त समय में जब कि लाठियों की मार से अस्थिपंजर चूर हो गया था तब भी कहते हैं - देखले आंख से अश्रुपात नहीं हुवा है। कठोर वेदना को सहकर दृढ़ता का परिचय दिया। 

                              धर्म - प्रेम

           ग्राम में आर्यसमाज का प्रचार किया। वैदिक धर्म का झण्डा ऊंचा रखने का पूर्ण प्रयत्न किया। कार्य क्षेत्र में सफल हुये। उस सफलता से चिढ़कर ही विपक्षियों ने प्राण लेने का षड्यन्त्र किया। वीर श्रात्मा ने वैदिकधर्म के लिये वीरगति प्राप्त की।

अज्ञात योद्धा पं० जगतराम हरियाणवी


अज्ञात योद्धा 
पं० जगतराम हरियाणवी

लेखक :- स्वामी ओमानन्द सरस्वती 
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 

           पं० जगतराम का जन्म हरयाणा जिला होशियारपुर के नगमापरू नाम के कस्बे में हुआ। आप सदैव प्रसन्नवदन और मस्त रहते थे। मैट्रिक पास करके दयानन्द कालेज लाहौर में प्रविष्ट हुए , किन्तु परीक्षा देने से पूर्व आप उच्च शिक्षा प्राप्त करने के विचार से अमेरिका पहुंच गए। वहां पहुंचने पर देशभक्त ला० हरदयाल से आपकी भेंट हो गई। दोनों के हृदय में देशभक्ति की आग पहले ही विद्यमान थी। दोनों के मिलते ही और गुल खिल गया। दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया और दोनों मिलकर व्याख्यान तथा लेख द्वारा प्रचार करने लगे। अमेरिका में निवास करने वाले भारतीयों में देशभक्ति की आग लगा दी। कुछ दिन पश्चात् पं० जगत राम जी की यह धारणा हो गई कि भारत की सेवा में रहकर अच्छी हो सकती है। इसी विचार से वे अमेरिका से अपने देश - बन्धुनों से विदाई लेकर भारत को चल दिए। 

         भारत में आकर अपने विचार के कुछ युवकों का सङ्गठन बनाया और कार्य प्रारम्भ कर दिया। सन् १९१४ में पुलिस ने लाहौर षड्यन्त्र का केस पंजाब के अनेक नवयुवकों पर चलाया , इनमें पं० जगतराम भी थे। एक दिन पेशावर जाते हुए रावलपिण्डी में गिरफ्तार कर लिए गए। आप पर हत्या आदि का अभियोग चलाकर अदालत ने आपको फांसी का दण्ड दिया। आपने हंसते - हंसते फांसी का दण्ड सुना। इस समय एक बड़ी कारुणिक घटना घटी। इनके पिता और पत्नी दोनों दुःखी होकर अन्तिम भेंट करने जेल में आये। पण्डित जी जेल में भी बड़े प्रसन्न रहते थे। अपने पिता जी को देखकर बोले - पिता जी क्या आप मुझ से प्रसन्न हैं ? पिता जी की प्रांखों से अश्रुधारा बह निकली और कहने लगे - " पुत्र ! कल तुम फांसी के तख्ते पर लटकने जाते हो । मेरी आशाओं पर वज्रप्रहार होने वाला है। मेरा सर्वस्व लुट रहा है और तुम मुझ से ऐसा प्रश्न कर रहे हो।

       " पं० जगतराम ने उसी प्रकार प्रसन्नतापूर्वक कहा " क्या आपने गुरु गोविन्दसिंह के पुत्रों की बलिदान की कथा नहीं पढ़ी ? ऐसे वीरों के लिये क्या आपके मुख से वाह ! वाह ! नहीं निकलता ? फिर आप आज रो क्यों रहे हैं ? यह वही नाटक तो है जो आपके ही घर खेला जा रहा है। इस पर तो आपको प्रसन्न होना चाहिए। मैं अपना यौवन मातृभूमि के चरणों पर अर्पण करने जा रहा हूं। क्या यह आपके लिये प्रसन्नता की बात नहीं है ? " यह बातें सुनकर उनके पिता जी मौनभाव से पुत्र के मुख की ओर देखते रहे। वृद्ध पिता के अत्यन्त आग्रह करने पर पंडित जी ने हाईकोर्ट में अपील की। अपील में फांसी का दण्ड कालापानी के रूप में बदल दिया। पंडित जी की हजारों रुपये की सम्पत्ति जब्त कर ली गई। परिवार वालों को कहीं खड़े होने को स्थान नहीं था। पंडित जी का स्वास्थ्य सर्वथा नष्ट हो रहा था। 

      आपकी चिकित्सा के लिए डा० अन्सारी , डा० खानचन्द्रदेव और डा० गोपीचन्द आदि को गुजरात के जेलखाने तक जाना पड़ा। रोग से छुटकारा पाने पर अधिकारियों की कृपादृष्टि आप पर हुई और कई वर्षों तक लगातार जेल की अन्धेरी कोठरी में ' डण्डे गारद ' में रखे गये। यहां तक कि छः वर्ष तक दीपक का प्रकाश भी देखने को नहीं मिला। सात वर्षों तक पहनने को जुता नहीं मिला , जिससे बिवाई फटने से आपको असह्य पीड़ा सहनी पड़ी। इस प्रकार से नाना कष्ट आपको सहने पड़े । किन्तु इन भयङ्कर कष्टों का पंडित जी के मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इन कण्टों को अपना तप समझकर पंडित जी मस्त रहते थे। ज्यों - ज्यों आपको कष्ट दिये गये त्यों - त्यों आपका तपोबल बढ़ता गया। जिस जेलखाने में आप आते उसी के कैदी पंडित जी की ओर खिंचे चले आते थे। 

         पंडित जी के व्यक्तित्व में महान आकर्षण था। सभी कैदी आपके शिष्य बन जाते थे। आपके जीवन और उपदेशों का प्रभाव ऐसा पड़ता था कि कैदियों के जीवन में परिवर्तन होकर धार्मिकता आती थी। पंडित जी कैदियों के चरित्र को सुधारने का सदैव यत्न करते थे। जो उनको सदाचार का महत्त्व समझाया करते थे। जो कैदी रोगी हो जाते थे उनकी आप बडी लगन से सेवा किया करते। पीछे तो आपके इस व्यवहार से जेल के अधिकारी भी सदैव आप से प्रसन्न रहते थे।

         यह गुण उनमें आर्यसमाज की कृपा से आये थे। यह दयानन्द कालिज के छात्र रह चुके थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती के उपदेशों का आपके मानस पट पर गहरा प्रभाव पड़ा था। स्वामी विवेकानन्द ओर रामतीर्थ में भी आप श्रद्धा रखते थे। किन्तु आर्यसमाज की शिक्षा ने आपकी काया पलट दी थी। इसी कारण आपका चरित्र बड़ा उच्च और व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली था। आप में प्रचार और सेवा की लगन थी। आप मनुष्यमात्र से प्रेम करते थे। सब को अपने सगे भाई के समान देखते थे। आपका मानस द्वेषरहित था। पंडित जी श्रमद्भगवद्गीता से भी प्रेम रखते थे। आपने जेल में ही संस्कृत , गुरुमुखी और हिन्दी भाषा का अभ्यास किया था। 

           आप इन भाषाओं में सुन्दर गद्य और पद्य लिख लेते थे। आप अपने उपदेशों में गीता के उद्धरणों का प्रयोग किया करते थे। गुजरात जेल में खान अब्दुल गफ्फार खां , डा० अन्सारी साहब , मौलवी मुफती किफायत , उल्ला साहब , खानचन्द्रदेव , डा. गोपीचन्द जी और चौधरी कृष्ण गोपाल आदि विद्वान आपका गीतोपदेश सुनकर मुग्ध हो जाते थे। अब्दुल गफ्फार खां साहब तो आपकी गीता की व्याख्या पर इतने मुग्ध रहते थे कि प्रतिदिन एक घण्टा आप से गीता की व्याख्या सुना करते थे। आज आप जीवित हैं वा नहीं यह कोई नहीं जानता। उधर पंजाब में भयंङ्कर हत्याकाण्ड हो जाने से बहुत प्रयत्न करने पर भी उनका पता नहीं चला। पंडित जी की एक कविता जो अधूरी है , दी जाती है। उनका “ खाको " उपनाम तखुलुस था।

       गर मैं कहूं तो क्या कहूं कुदरत के खेल को। 
       हैरत से तकती है मुझे दीवार जेल की।। 
       हम जिन्दगी से तंग हैं तिस पर भी आशना 
       कहते हैं और देखियेगा धार तेल की। 
       जकड़े गये हैं किस तरह हम गम में क्या कहें , 
       बल खा के हम पे चढ़ गया , मानिन्द बेल की ।। ' 
       खाकी ' को रिहाई तु दोनों जहां से दे। 
       आ ऐ आञ्जल तू फांद के दीवार जेल की।।

कर्मठ समाज सेविका बहिन लक्ष्मी आर्या


स्वतन्त्रता सेनानी कर्मठ समाज सेविका 
बहिन लक्ष्मी आर्या                  रोहणा सोनीपत 

                  महर्षि दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा एवं परम पिता परमेश्वर की विशेष अनुकम्पा से पूज्या बहन लक्ष्मी देवी जी का समस्त जीवन वैदिक धर्म , आर्यसमाज , राष्ट्रीय स्वतन्त्रता प्रान्दोलन एवं गरीबों की सेवा में बीता। आपका जन्म ग्राम रोहणा जिला रोहतक ( अब सोनीपत ) में चौ० भानाराम के घर सन् १९०३ ई० में हुआ। बचपन में ही माता - पिता का स्वर्गवास होने से बहन जी का पालन - पोषण इनके ताऊ एवं बड़े भाई ने किया। ११ वर्ष की आयु में ही इनका विवाह हो गया था। 

           दुर्भाग्य से १६ वर्ष की आयु में ही आप विधवा हो गई। पर आप बहुत साहसी थीं। अमर हुतात्मा भक्त फूलसिंह जो से सम्पर्क करके आप कन्या महाविद्यालय जालन्धर में प्रविष्ट हो गई। अध्ययन करने के बाद कुछ दिन कन्या गुरुकुल खानपुर में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया ही था कि राष्ट्रीय आन्दोलन जोरों पर चल पड़ा। आप भी पूरी तरह से इस कार्य में जुट गई।

         महात्मा गाँधी से आपको विशेष प्रेरणा मिली। आप साबरमती आश्रम में भी रहीं तथा पाकिस्तान बनने पर आपने हिन्दू महिलाओं को भारत लाने के लिए बड़े संघर्ष में अपने आप को झोंक दिया। लाहौर जेल में तथा अन्य जेलों में भी आपने काफी समय व्यतीत किया था। आर्य समाज के नेतृत्व में चलाए गये हर आन्दोलन में आपने बढ़ - चढ़ कर भाग लिया था। आपकी समस्त जिन्दगी कठोर संघर्ष में से गुजरी। आपका स्वभाव एवं कर्म साहसी पुरुषों जैसा था। सबसे महान कार्य बहन जी का यह था कि आपने अपने लिए कुछ नहीं रखा। लाखों रुपए की सम्पत्ति ' सैकड़ों आर्य संस्थानों , सामाजिक कार्यों एवं राष्ट्रहित में दान कर दी । भूदान आन्दोलन में आपने २५ बीघा भूमि दान दी। सर्वोदय में भी आपने काफी रुचि से कार्य किया । - पूज्या बहन जी एक जीवित शहीद के रूप में थी । दिन - रात सामाजिक कार्य में व्यस्त रहती थी। आपकी दिनचर्या बड़ी नियमित थी।

      बहन लक्ष्मी आर्या का फोटो नहीं मिला, लेकिन कन्या गुरुकुल खानपुर का दुर्लभ फोटो है जहां वो कन्याओं को पढ़ाया करती थी।

अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य


अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य

-प्रियांशु सेठ (वाराणसी)

मनुष्य जीवन दो उद्देश्यों से बंधा है- श्रेय: (धर्म-मार्ग) और प्रेय: (भोग-मार्ग)। भोगवादी मनुष्य प्रेय: को अपने जीवन का उद्देश्य चुनकर सदैव क्षणिक सुख के पीछे भटकता रहता है, जबकि ब्रह्मवादी मनुष्य श्रेय: को अपने जीवन का उद्देश्य चुनकर दीर्घकालिक सुख की प्राप्ति में तपोरत रहता है। यह दीर्घकालिक सुख आत्मा का सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा से मेल होना है। भोग से दीर्घकालिक सुख की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती क्योंकि यह अविद्या और दुःखादि दोषों से लिप्त है। दर्शनकारों ने तीन प्रकार के दुःखों (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) से सर्वथा छूट जाना जीवात्मा का अन्तिम लक्ष्य बताया है। इस अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने की कुञ्जी ही "योग" है।

दार्शनिक जगत् में योग को सर्वमहत्त्वपूर्ण और प्रधान स्थान प्राप्त है। योग शब्द की निष्पत्ति युज् धातु से घञ् प्रत्यय से करण और भावार्थ में हुई है। व्याकरणाचार्य्य महर्षि पाणिनी ने गण पाठ में युज् धातु तीन प्रकार से प्रयोग में लायी हैं- "युज् समाधौ" (दिवादिगणीय) - समाधि, "युजिर योगे" (अधदिगणीय) - संयोग और "युज् संयमने" (चुरादिगणीय) - संयमन।
इनमें युज् समाधौ धातु योग को पूर्णतः परिभाषित करता है, क्योंकि शेष दो धातु से योग का उद्देश्य स्पष्टत: परिभाषित नहीं होता। इसमें योगसूत्र "अथ योगानुशासनम्" पर व्यास भाष्य का "योग: समाधि:" और भोज वृत्ति का "युज् समाधौ" वचन प्रमाण है। इससे स्पष्ट है कि समाधि की अवस्था में पहुँचना योग है, क्योंकि यह ब्रह्मसाक्षात्कार का साधन है। इसी को योगसूत्रकार महर्षि पतञ्जलि ने "योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:" लिखकर प्रतिपादित किया है- "चित्त की वृत्तियों का निरोध योग है।" चित्त की कुल ५ अवस्थाएं होती हैं- (१) क्षिप्त (२) मूढ़ (३) विक्षिप्त (४) एकाग्र (५) निरुद्ध। प्रथम तीन अवस्था में योग नहीं हो सकता। एकाग्रावस्था में सम्प्रज्ञात योग और निरुद्धावस्था में असम्प्रज्ञात योग होता है।

प्रायः लोग यह समझते हैं कि योग का अर्थ मात्र आसन और प्राणायाम करना है, जबकि मुनि पतञ्जलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को रोककर ब्रह्म में लीन होने की अवस्था प्राप्त करना योग है। ब्रह्मलीनता की यह अवस्था हमें तभी प्राप्त हो सकती है, जब हम अपनी आत्मा को ब्रह्मरूपी सानु शिखर पर पहुंचायें। अथर्ववेद [६/९१/१] ने "इमं यवमष्टायोगै:" की घोषणाकर आठ योगों द्वारा इस शिखर पर पहुंचने का मार्ग निर्देशित किया है। इन्हीं आठ योगों को मुनि पतञ्जलि ने योगदर्शन [२/२९] के सूत्र "यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि" में पिरोया है, जिन्हें अष्टाङ्ग योग कहा गया है। ब्रह्म शुद्धबुद्धमुक्त-सच्चिदानन्दस्वरूप है, जबकि जीवात्मा दुःख, काम, अविद्यादि बन्धनों से बंध है। इन्हीं दुःखों से पार होने की सीढ़ियों का नाम अष्टाङ्ग योग है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि।

मुनि पतञ्जलि ने योगदर्शन [२/३०] में "यम" को पाँच अवस्थाओं में सन्निविष्ट किया है-
•अहिंसा- मन, वचन और कर्म से किसी भी प्राणी को कष्ट न देना "अहिंसा" है।
•सत्य- मन, वचन और कर्म से सत्यव्यवहार करना यम की दूसरी अवस्था "सत्य" है। सत्य में निष्ठा रखने से साधक वाक्सिद्ध बन जाता है।
•अस्तेय- मन, वचन और कर्म से चोरी (स्तेय) न करना "अस्तेय" है।
•ब्रह्मचर्य्य- वीर्य्यरक्षण करते हुए ज्ञानोपार्जन करना "ब्रह्मचर्य" है। साधक में ब्रह्मचर्य्य का व्रत देखकर मृत्यु भी भयभ्रष्ट हो जाया करती है।
•अपरिग्रह- निराभिमानी बनकर आवश्यकता से अधिक पदार्थों का संग्रह न करना "अपरिग्रह" है।

योगदर्शन [२/३२] के अनुसार "नियम" भी पाँच अवस्थाओं का योग है-
•शौच- द्वेषादि के त्याग से आन्तरिक और जलादि के द्वारा बाह्य शुचिता "शौच" है।
•सन्तोष- धर्मपूर्वक पुरुषार्थ करके लाभ में प्रसन्न और हानि में अप्रसन्न न होना "सन्तोष" है।
•तप- शारीरिक क्रान्ति और इन्द्रियों में सूक्ष्म विषयों को ग्रहण करने की शक्ति "तप" है।
•स्वाध्याय- वेदादि सत्यशास्त्रों को पढ़कर जीवन में चरितार्थ करना "स्वाध्याय" है। स्वाध्याय से ही साधक सम्प्रधारण करने के योग्य बनता है।
•ईश्वरप्रणिधान- ईश्वर की भक्ति या उपासना करते हुए ईश्वर की कृपा और प्रसन्नता का पात्र बनना "ईश्वरप्रणिधान" है। इससे सारे अहं-भाव नष्ट होकर जीवन में नम्रता का सञ्चालन होता है।

योगाभ्यासी के लिए "यम-नियम" का पालन प्रारम्भिक स्तर है। इसके पश्चात् ईश्वर, जीव और प्रकृति को सूक्ष्मता से जानने के लिए वह "आसन" लगाता है तथा मन पर नियन्त्रण पाने के लिए "प्राणायाम" करता है। मन नियन्त्रित हो जाने पर इन्द्रियाँ अपने रूपादि विषयों से पृथक् हो जाती हैं, इसी स्थिती का नाम "प्रत्याहार" है। अधिकार में किए हुए मन को ध्येय पदार्थ के साक्षात्कार के लिए शरीर के किसी एक स्थान हृदयाकाश, भ्रूमध्य, कण्ठ आदि में स्थिर कर देने का नाम "धारणा" है। धारणा की स्थिति सम्पादित करके धारणा के स्थल पर ध्येयवस्तु विषयक चिन्तन का एक प्रवाह बना रहना "ध्यान" है। ध्यान में जब अर्थ- ध्येयमात्र का प्रकाश रह जाए और ध्याता अपने स्वरूप से शून्य-सा हो जाये, उस अवस्था का नाम समाधि है। इन आठ परिश्रमसाध्य योगों के अनुष्ठान से ही आत्मा अविद्यादि दोषों से मुक्त होता है और प्रेयः मार्ग को त्यागकर अपने जीवन की उद्देश्यपूर्ति करता है। अतः उपरोक्त परिशीलन के आलोक में यह स्थापित होता है कि आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक दुःखों से छूटकर ब्रह्म से मेल होना ही अष्टाङ्ग योग का उद्देश्य है।

Wednesday, June 16, 2021

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?


मैं आर्य समाजी कैसे बना?

-श्रीयुत नरदेव शास्त्री वेदतीर्थ

मेरा संक्षेप से यही उत्तर है कि मैं जन्म का आर्यसमाजी हूँ। क्योंकि जब हमारे पूज्य पिता स्वर्गीय पं० श्री निवास राव जी राव महोदय आर्य सामाजिक विचार के हुए थे, तब हमारा जन्म भी नहीं हुआ था। हमारे पिता जी बम्बई पुलिस फोर्स में एक बड़े अफसर थे। उनके दौरे की सीमा बम्बई से दक्षिण में रायपुर तक और उत्तर में अजमेर तक थी। वे प्राय: डाकुओं की देख भाल में रहते थे, इस दशा में कभी किसी अवसर पर जब वे उत्तर भारत में आये हुए थे, तब ठीक नहीं कह सकता, किस स्थान पर, किन्तु जयपुर अथवा अजमेर का अनुमान किया जा सकता है, स्वर्गीय पं० लेखराम जी आर्य मुसाफिर से भेंट हो गई थी। तभी से उनके विचार परिवर्तित हो गये। तभी से हमारे घर में आर्य समाज का प्रवेश समझिये। वैसे तो हमारे पिता जी कट्टर पौराणिक थे। सबसे बड़े भाई नारायण राव और उनके छोटे भाई भीम राव के यज्ञोपवीत संस्कार में ५०००) रुपया लगाया था और उस उत्सव में वैश्या नृत्य भी कराया था। पं० लेखराम जी से भेंट होने के पश्चात् हमारे पिता के विचारों में बहुत परिवर्तन हुआ। परन्तु हमारी माता श्रीमती कृष्णा बाई के विचार कभी नहीं बदले। मरणपर्यन्त उसने पूजा पाठ नहीं छोड़ा। यद्यपि पिता जी के विचार बदल गये थे, तथापि घर में उन्होंने माता जी के किसी कार्य में हस्तक्षेप नहीं किया और न मत परिवर्तन के लिए बल दिया। दुर्भाग्य से उन्हीं दिनों कई ऐसी दुर्घटनायें हुई जिससे माता जी का यह विचार दृढ़ हो गया कि पिता जी के मत परिवर्तन के कारण ही ये दुर्घटना में हुई; जैसे घर में बड़ी भारी चोरी का होना, बैंक में सहस्रों रुपयों का डूबना आदि।

पिता जी ने आर्य समाज के प्रायः सभी ग्रन्थ मंगा लिए थे। दृढ़ स्वाध्यायी थे। हमारा परिवार मधु सम्प्र दाय वैष्णव मत का था और मधु सम्प्रदाय द्वैत वादी सम्प्रदाय है और स्वामी जी भी द्वैत मानने वाले हैं। इसलिए पिता जी को अच्छा लगा कि वे द्वैत मत से बाहर नहीं जा रहे। यद्यपि हमारे पिता जी हृदय से आर्य समाजी हो गये थे परन्तु दक्षिण में जिस परिस्थति और मण्डल में वे रहते थे, अकेले ही थे, तथापि अपनी चाल ढ़ाल सब उधर के रूढ़ि के अनुरूप ही थे। घर में जो भी आता उसको उत्तर भारत के समाचार पत्र सुनाना, कभी सत्यार्थ प्रकाश, कभी आर्याभिविनय और कभी आर्योद्देश्यरत्नमाला आदि सुनाना यह उनका नित्य कर्म था।

जब मैं आठ नौ वर्ष का था, तभी उन्होंने मुझे हिन्दी पढ़ाना आरम्भ कर दिया। यही हिन्दी आगे जाकर हमारे बड़े काम की सिद्ध हुई। मातृभाषा मराठी के साथ हिन्दी का भी सम्पुट लगाने मे हम को बड़ा लाभ हुआ।
इस प्रकार हम जन्म के आर्यसमाजी थे और बड़े होकर गुण और कर्म के आर्यसमाजी बन गये। इस प्रकार हम जन्म और गुण से आर्यसमाजी हैं। जहां तक मेरा अध्ययन, स्वाध्याय और अनुभव है वहां तक मैं इस निश्चय पर पहुंचता हूं कि स्वामी दयानन्द जी ने कोई नई बात नहीं चलाई। और ना ही उनका उद्देश किसी नये मत की स्थापना था। हां उन्होंने प्राचीन बातों को नये रूप में, नये प्रकाश में, सम्पूर्ण बल के साथ प्रकट किया। कहीं कहीं कट्टर रिफारमर-सुधारक की भांति सर्वथा परले सिरे पर जा बैठे हैं। सभी रिफारमर परले सिरे पर जा बैठते हैं, तब कहीं जनता अधि मार्ग तक बढ़ा करती है। महात्मा गांधी ने हाथ के बुने और हाथ की कती खादी पर जब इतना बल दिया तब कहीं लोग स्वदेशी पर आये। यही दशा है। सब से बड़ा स्तुत्य और प्रसंशा के योग्य आपका यह प्रयत्न रहा कि आर्यों के आदि मूलग्रन्थ वेदों को आपने निष्कलंक सिद्ध करने का पूर्ण प्रयत्न किया है और उस में वे बहुत कुछ सफल भी हुए, उनके विचारों की विजय हुई।

[नोट- आर्यसमाज की विचारधारा सामाजिक कुरीतियों की नाशयित्री और बौद्धिक क्रान्ति की प्रकाशिका है। इसके वैदिक विचारों ने अनेकों के हृदय में सत्य का प्रकाश किया है। इस लेख के माध्यम से आप उन विद्वानों के बारे में पढ़ेंगे जिन्होंने आर्यसमाज को जानने के बाद आत्मोन्नति करते हुए समाज को उन्नतिशील कैसे बनायें, इसमें अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। ये लेख स्वामी जगदीश्वरानन्द द्वारा सम्पादित "वेद-प्रकाश" मासिक पत्रिका के १९५८ के अंकों में "मैं आर्यसमाजी कैसे बना?" नामक शीर्षक से प्रकाशित हुए थे। प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

स्व० श्री वैद्य दयाकृष्ण आर्य


हिन्दी - रक्षा - सत्याग्रह के अग्रणी योद्धा 
स्व. श्री वैद्य दयाकृष्ण आर्य    (अहिरका जींद)

हिन्दी सत्याग्रह के वैद्य जी के लिखे संस्मरण 
प्रस्तुति :- श्री सहदेव समर्पित संपादक शांतिधर्मी मासिक 
 

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आरम्भिक योजना
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       सन् १९५७ में आर्यसमाज की ओर से हिन्दी आन्दोलन चलाया गया । हरयाणा की ओर से स्वामी रामेश्वरानन्द गुरुकुल घरौंडा जिला करनाल एवं पंजाब राज्य के निर्देशक स्वामी आत्मानन्द जी महाराज थे। सर्वप्रथम वे तत्कालीन पंजाब के मुख्यमन्त्री श्री प्रतापसिंह कौरो से प्रतिनिधिमण्डल के रूप में मिले , परन्तु बिना किसी निष्कर्ष के यह वापिस आ गया। अगले दिन उस समय के प्रसिद्ध समाचार पत्र वीर अर्जुन में स्वामी रामेश्वरानन्द का ब्यान छपा कि हरयाणा - पंजाब के हिन्दी प्रेमियों द्वारा आन्दोलन चलाया जायेगा। यह वार्ता पंजाब के आर्यों तथा हिन्दी प्रेमियों में बिजली की तरह फेल गई। आन्दोलन के लिए लोग तैयार थे। 

       मैं भी पूर्वनियोजित योजनानुसार जीन्द के रेलवे स्टेशन पर पहुंच गया जहां बहुत ही चहल - पहल थी। वहां नारे भी लग रहे थे। हिन्दी भाषा - अमर रहे। देश धर्म का नाता है - हिन्दी राष्ट्र भाषा हैं। मैंने स्वामी रामेश्वरानन्द जी के चरण - स्पर्श किए एवं सभी रेलगाड़ी में बैठ गए। हम सभी सत्याग्रही अम्बाला छावनी पहुंचे जहां आर्यसमाज अम्बाला के लोग स्वागत के लिए तैयार खड़े थे। यहां भोजन आदि की बहुत उचित व्यवस्था थी। विश्राम के पश्चात् स्वामी जी ने सभी को सरकार से टक्कर एवं संघर्ष के लिए प्रोत्साहित किया। प्रात: काल हम सभी आर्यसमाज सैक्टर २२ ए , चण्डीगढ़ पहुंच गए। यहां स्वामी रामेश्वरानन्द जी का शोले उगलता हुआ भाषण हुआ जिससे सत्याग्रहियों का जोश देखते ही बनता था। 

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पुलिस - प्रशासन की रोक में 
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             आन्दोलन अपनी छटा चण्डीगढ़ की सड़कों पर बिखेर रहा था कि जारों दर्शकों से घिरे एवं साधारण वेशभूषा में पुलिस वालों का तांता लगा था। आगे चलकर पुलिस विभाग की गाड़ियां लगा दी गई एवं हमें कहा गया  कि हम इनमें बैठ लें। जैसे ही स्वामी जी का आदेश मिला सभी गाड़ियों में सवार हो गए। संघर्ष में स्वामी जी के दांत भी टूट गए। लगभग ५० कि० मी० की दूरी पर हमें छोड़कर कहा कि आप सभी उस ट्यूबवैल पर स्नान करके संध्या आदि करलें पुन: आपको जेल ले चलेंगे। हम सभी ज्योंहि ट्यूबवैल की ओर गए तो वे गाड़ियों को भगा  ले गए। रातों रात चलकर प्रात: ७-०० बजे सभी पुनः चण्डीगढ़ पहुंच गए। पुलिस ने फिर गिरफ्तार करके १० कि० मी० चमकौर साहिब के जंगलों में छोड़ आए पुन: वापसी पर गिरफ्तार किए गए एवं नालागढ़ के जंगलों में हमें बाघों के जंगल में छोड़ दिया गया। 

    
        अगले दिन हमें मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश किया गया। उसने हमें न्यायिक हिरासत में भेज दिया एवं हमें अंबाला सैन्ट्रल जेल में रखा गया। यहां के पूर्व कैदियों ने बताया कि यहां केवल ३ रोटियां ही एक समय मिलती हैं - तथा अन्य यातनाएं भी मिलेंगी। हमने हालात देखे तो वैसे ही निकले। हमने वहां भूख हड़ताल कर दी। इस बात से प्रशासन चरमरा गया एवं अलग से रसोइये की व्यवस्था की गई एवं भोजन कुछ काम चलाऊ सा मिलने लगा। हम वहां १० दिनों तक रहे। पुन: ओर अधिक जत्थे वहां आने लगे। 

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पारस्परिक जद्दोजहद एवं जेल स्थानान्तरण
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              जेल में बंद आर्यसमाजियों के अतिरिक्त कुछ पौराणिक हिन्दीप्रेमी भी थे। उनके साथ सामाजिक विषयों पर अधिकांशतया वाक्कलह होता रहा था। पुन : गिरफ्तारी खुल जाने से हमें फिरोजपुर जेल भेजने का आदेश मिला। इस जेल में बंद व्यक्तियों में कुछ न बताया था कि फिरोजपुर जेल एक खतरनाक जेल है। जहां खूंखार लोगों को ही भेजा जाता है। अत: लगभग १०-११ दिनों के उपरान्त हमें रात के ११ बजे फिरोजपुर जेल के लिए रवाना किया गया। लगभग ४०० पुलिस कर्मचारियों के साथ हम फिरोजपुर जेल में पहुंच गए। इस जेल में जानेवाला हिन्दी - सत्याग्रहियों का हमारा पहला जत्था था। यह जेल अम्बाला जेल से कुछ सुविधाजनक थी। भोजन की व्यवस्था वहां से बेहतर एवं वस्त्रादि भी प्रदान किए गए थे। राशन भी उपयुक्त मिलने लगा था। यहां हमारी सन्ध्या हवन की दिनचर्या ठीक हो गई । इस जेल में हमारे जत्थे को हवन - पार्टी के नाम से जाना जाने लगा था। 

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२४ अगस्त १६५७ - हृदय विदारक दिन
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          यह दिन हमारे हिन्दी रक्षा आन्दोलन का एक सर्वाधिक रोंगटे खड़े कर देनेवाला दिन था। समय के ४ बजे थे कोई स्वाध्याय कर रहा था , तो कोई भोजन की तैयारी एवं कुछ गर्मी के कारण इधर - उधर घूम रहे थे।  किसी ने चुपके से बताया कि कैदियों पर लाठी - चार्ज होने वाला है तभी एक पुलिस वाले ने आकर यही चेतावनी दी। सभी सत्याग्रही स्वामी नित्यानन्द के पास आकर बैठने लगे। स्वामी जी ने गायत्री का जाप करने की  सलाह दी। तुरन्त कुछ पुराने कैदी एवं पुलिस वाले लाठियां लेकर आ गए एवं साधुओं एवं अन्य पर गड़ागड़ लाठियों की बौछाए शुरू हो गई। प्रत्येक व्यक्ति को छांट - छांट कर पीटा गया। यह कृत्य घण्टों पर्यन्त चलता रहा एवं वह जेल - बारिग खूनी - बूंदों से लाल हो गई। लगभग ३५० सत्याग्रहियों को चोटें लगी। 

         पुन: हमने अधिक घायलों की देखभाल शुरू की एवं परस्पर सहयोग करते रहे। घण्टो चले इस हृदय विदारक दृश्य ने हिन्दी रक्षा प्रेमियों के दिलों को झकझोर कर रख दिया एवं वह रौंगटे खड़े कर देने वाला दिन आज ४३ वर्ष बाद भी मानस पटल पर दहला देने वाली टीस पैदा करता है। यहां पर कुछ व्यक्तियों को चोटें जान लेवा लगी एवं उन्हें यथा समय चिकित्सा सुविधा उपलब्ध न होने के कारण अत्यधिक व्यथित अवस्था में रहना पड़ा। श्री सुमेरसिंह की शहादत पं० जगदेवसिंह जी सिद्धान्ती जो रोहतक से जत्था लेकर आए थे के साथ एक क्रान्तिकारी विचारों के व्यक्ति थे। इनका नाम श्री सुमेरसिंह था एवं सांपला के पास नयाबास गांव के निवासी थे। इसी उपरोक्त लाठी चार्ज में उन्हें भारी चोटें लगी एवं खून शरीर के अन्दर बह गया। जेल में एक कोई डॉ० थापर से व्यक्ति थे जो विचारों से आर्यसमाजी थे। जेल - इंचार्ज ने श्री सुमेरसिंह की चिकित्सा करने का उनसे आग्रह किया तथा अपने आपको इस लाठी चार्ज से अनभिज्ञ कहा। श्री सुमेरसिंह की हालत बदतर होती जा रही थी एवं यह समाचार जेल से बाहर भी फैल चुका था। लोगों ने धार्मिक स्थानों की ओर बढ़ना शुरू किया। देखते ही देखते ही जेल की ओर बढ़ने लगे। नारे लगने लगे जेलर को बाहर निकालो। वरना जेल तोड़ेंगे। इससे भयभीत होकर हमें वहां के अस्पताल ले जाया गया। यह समय रात्रि ८-३० बजे का था। डॉ० थापर ने शहर के सभी प्राइवेट चिकित्सकों को बुला लिया एवं अत्यधिक गहनता से लोगों की चिकित्सा की जाने लगे। दुर्भाग्य ने अपना परचम जारी रखा। आदरणीय श्री गुनरसिंह की चेतना सचेत न हो सकी। अर्धरात्रि को श्री सुमेरसिंह जी आर्य ने अपनी भौतिक देह को राष्ट्ररक्षा एवं मातृभाषा की बलिवेदी पर समर्पित कर दिया। यह शहादत मेरे जीवन की एक महान् किन्तु हृदयविदारक थी। शहीद सुमेरसिंह तो मातृभूमि पर न्यौछावर हो गए। परन्तु हम उनके सहयोग एवं समर्पणभाव के प्रति नतमस्तक हैं एवं रहेंगे। यह शहादत इतिहास पटल पर सदैव रहेगी एवं लोगों के जीवन में कान्ति का बिगुलवादन करके कुछ करने की प्रेरणा संजोती रहेगी। 

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लोकसभा में हंगामा एवं जेल का निरीक्षण
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       शहीद सुमेरसिंह की मौत का समाचार तत्कालीन दैनिक समाचार पत्रों के मुखपृष्ठों पर छपा। फलस्वरूप लोकसभा में भी हंगामा सड़ा हो गया। श्री घनश्यामदास गप्ता ने प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल महरू से मुलाकात करके रोष प्रकट किया। श्री अलगूराय शास्त्री जेल का निरीक्षण करने आए। उन्होंने तीन दिन पश्चात् रिपोर्ट दी एवं लिखा- “ जेल की इस घटना एवं अत्याचार ने डायर एवं औरंगजेब के जुल्मों - की भी मात दे डालीं। " इस समाचार ने उन लोगों ने हृदयों की भी आघात पहुंचाया जो सत्याग्रहियों के रिश्ते नातेदार एवं परिवारों के थे। बहुतों ने फिरोजपुर की ओर अपने आन्दोलनकारियों से मिलने की ठानी। अत : जन - साधारण में यह चर्चा का विषय बन गया तथा बाहरी वातावरण में गतिशीलता आई।

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ऐतिहासिक - समझौता एवं रिहाई 
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         भाषा - समिति के नेता श्री घनश्यामदास गुप्ता एवं प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू के बीच प्राथमिकता के आधार पर समझौता हो गया। पं० नेहरू ने एक वक्तव्य के माध्यम से बयान जारी करके कहा कि आर्यसमाज की ९० प्रतिशत मांगें मान ली गई हैं। उन्होंने आर्यनताओं से आन्दोलन वापिसल लेने का निवेदन भी किया तथा आश्वासन दिया कि मांगें विचारपूर्वक मान ली जायेंगी। अत: एक ऐतिहासिक समझौते एवं छ: माह के कठोर कारावास के उपरान्त हमें २८ दिसम्बर १९५७ की रात के १२ बजे जेलों से रिहा कर दिया गया।

Monday, June 14, 2021

स्वामी रत्नदेव जी सरस्वती


पूज्य स्वामी रत्नदेव जी सरस्वती    
गुरुकुल कुम्भा खेड़ा एवं कन्या गुरुकुल खरल 
के संस्थापक 

लेखक :- श्री दिलबाग शास्त्री 
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 

         ऋषि - मुनियों की पावन वसुन्धरा हरियाणा जो प्राचीन काल से वेद मन्त्रों एवं यज्ञों की सुगन्धित हवाओं से हमेशा सराबोर रही है। इस पवित्र भूमि में अनेक ऋषि - मुनियों ने अपने तप से हमेशा ही समाज को नई दिशा प्रदान की है। उन्हीं महान आत्माओं में से स्वामी रत्नदेव जी सरस्वती भी एक थे , जिनका सम्पूर्ण जीवन ही समाज के लिए समर्पित था। वे समाज के दुख - दर्द को अपना दुःख मानते हुए , उसे मिटाने में ही सच्चा सन्तोष अनुभव करते थे। इस महान आत्मा के जीवन का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है:- 

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जन्म एवं बाल्यावस्था 
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            हरियाणा के ऐतिहासिक जिला जीन्द से पन्द्रह कि०, मी०, पूर्व की ओर ग्राम निडाना में पूज्यपाद स्वामी रत्नदेव जी महाराज का जन्म जनवरी 1933 में हुआ। आपके दादा का नाम चौ० पन्ना राम जी व पिता का नाम चौ० सही राम था। आपकी माता श्रीमती नन्हीं देवी आपकी बाल्यावस्था में ही स्वर्ग सिर गार गई थी। आपकी चाची समाकौर ने ही आपका पालन - पोषण किया। आपके चाचा श्री बेलीराम जी पहलवान थे , जिनके प्रभाव से आप व्यायाम के प्रति रूचि रखने लगे तथा बाद में श्रेष्ठ खिलाडी बने। आपके दो भाई तथा दो बहने हैं। जिनका आपसे हमेशा बड़ा स्नेह रहा। आपके बड़े भाई धारा राम के शील स्वभाव ने आपके जीवन पर गहरा प्रभाव डाला। अतः धार्मिक विचार आपको पैतृक सम्पत्ति के रूप में प्राप्त हुए। 
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शिक्षा
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          उस समय लोग शिक्षा के महत्व को नहीं समझते थे तथा साधन भी उपलब्ध नहीं थे। आपके पिता जी शिक्षा के प्रति बड़े जागरूक थे , उन्होंने अपने पुत्रों को उच्च शिक्षा दिलवाई। प्रारम्भिक शिक्षा गांव की पाठशाला में ग्रहण कर जाट हाई स्कूल जीन्द से आपने दसवीं की परीक्षा सन् 1951-52 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। पंजाब विश्वविद्यालय से हिन्दी प्रभाकर एवं रत्न की परीक्षा को पास किया। वेदों का अध्ययन करने के लिए व्याकरण महाभाष्य निरूक्त आदि ग्रन्थों को पढ़ने के लिए आप गुरुकुल झज्झर गये। किसी भी प्रकार की सहायता न मिलने के कारणवश आपकी इच्छा पूरी न हो सकी। आपने स्वतन्त्र रूप से आर्षग्रन्थों का स्वाध्याय किया। 

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समाज सेवा व्रत
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             उस समय लोग अधिक पढ़े - लिखे नहीं थे , आप उच्च शिक्षा प्राप्त कर चुके थे। आप चाहते तो कोई सरकारी पद प्राप्त कर आनन्द की जिन्दगी बिता सकते थे लेकिन आप पर तो कोई और ही धुन सवार थी , जिसने आपको इतना आन्दोलित कर दिया कि आप समाज के बन्धनों को तोड़ देव दयानन्द के दिखाये मार्ग पर निकल पड़े। इस मार्ग पर आपको अनेक कष्ट झेलने पड़े , जैसे एक बार आपको गन्नों के खेत में दो रात व एक दिन बिताना पड़ा। आप भूख - प्यास से व्याकुल हो प्रातः काल जब समीप के गांव में गये, वहाँ एक माता जी से रोटिया मांगी और खाकर भूख को शान्त किया। अनेक बार मेरे दिमाग में यह प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों आप इतने कष्ट झेल रहे थे ? परन्तु आप तो अपने मन में समाज सेवा का व्रत धारण कर , समाज का उद्धार करने की ठान चुके थे । किसी ने ठीक ही कहा है - " महान पुरुष महानताओं के लिए जीत हैं , तुच्छ वासनाओं के लिए नहीं। " 

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हिन्दी सत्याग्रह में योगदान 
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           आर्य समाज ने 1957 में हिन्दी सत्याग्रह प्रारम्भ किया। स्वामी जी महाराज ने इसमें बढ़ - चढ़ कर भाग लिया। यह आन्दोलन इस समय पूरे जोरों पर था , लोगों ने बहुत अधिक संख्या में गिरफ्तारियां दी। लोगों ने जगह - जगह पर हड़ताले की , जुलूस व सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किये। स्वामी जी प्रमुख आन्दोलनकारियों में से थे , इसलिए उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। 

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गौरक्षा आन्दोलन व संन्यास ग्रहण
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             देश आजाद होने के बाद भी अनेक जगहों पर गऊ - हत्थे खुल हुए हैं। जिनमें सरेआम गऊओं को काटा जाता है। गऊ हत्या बन्द करवाने के लिए आर्य समाज ने सन् 1966 में गौरक्षा आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन में लगभग एक लाख लोगों ने गिरफ्तारियां दी। स्वामी जी महाराज इस आन्दोलन के प्रमुख नेताओं स्वामी रामेश्वरानन्द , स्वामी ओमानन्द जी के साथ अग्रिम पंक्ति में से थे। अतः आपको पकड़ कर तिहाड़ जेल में डाल दिया गया। इससे पहले आप स्वामी ओमानन्द जी महाराज से गुरुकुल झज्झर में श्रावणी पर्व पर नैष्ठिक की दीक्षा ले चुके थे। इसी दौरान तिहाड़ जेल में ही स्वामी रामेश्वरानन्द जी महाराज से आपने संन्यास ग्रहण किया तथा आप स्वामी रत्नदेव सरस्वती के नाम से विख्यात हुए। 

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शिक्षा के क्षेत्र में योगदान 
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            शिक्षा के क्षेत्र में स्वामी जी महाराज का महान योगदान स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य है। सन 1953 में अपने जीवन की समाज सेवा रूपी यज्ञ में आहुति डाल शिक्षा के क्षेत्र में कूद पड़े। आपने निरन्तर बाहर वर्ष तक ग्राम निडाना में ही बच्चों को शिक्षा देने का कार्य किया। आप बड़े ही लगनशील , ईमानदार व अनुशासपप्रिय थे। आपकी देख - रेख में पाठशाला ने बहुत अधिक तरक्की की। आप अद्भुत प्रतिभा के धनी थे अतः इस संस्था से आपकी तमन्ना शान्त न हुई। आर्यसमाज के भजनोपदेशकों की प्रेरणा से आपने सन् 1968 में गांव कुम्भाखेडा में श्रावणी के शुभ अवसर पर गुरुकुल की स्थापना की। यह गांव जिला जीन्द व हिसार की सीमा पर स्थित है। यहां साधनों का अभाव था फिर भी आपने कठिन परिश्रम से वह सब कर दिखाया जो कल्पना से भी परे था। आपने ऊबड़ - खाबड़ झाड़ - झुण्डों से युक्त सरा जमीन को अपना पसीना बहा कर समतल कर गुरुकुल रूपी पौधे को खड़ा किया जिसकी छत्र - छाया में आज हजारों छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। प्रारम्भ में स्वामी जी स्वयं कुएं से पानी खींच कर बच्चों को नहलाते व वस्त्र साफ करते थे। स्वामी जी की सतत मेहनत से यह गुरुकुल दिन दोगुनी रात चौगुनी प्रगति करता हुआ आज अपनी स्थापना के 52 वर्षों को पूरा कर चुका है। स्वामी जी के निर्देशन में इस संस्था ने जहाँ शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियां प्राप्त की हैं वहीं खेलों के क्षेत्र में भी पीछे नहीं है। स्वामी जी स्वयं वालीवाल के श्रेष्ठ खिलाड़ी रहे है। उनके मार्ग - दर्शन में यहाँ के छात्रों ने राज्य - स्तरीय व अखिल भारतीय क्रीड़ा प्रतियोगिताओं में अनेक बार विजय प्राप्त की है। महान व्यक्तित्व के धनी स्वामी जी के संरक्षण में ही यह सब सम्भव था। 

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स्वामी जी की दृष्टि में नारी का महत्व 
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           महर्षि दयानन्द के सच्चे अनुयायी स्वामी जी महाराज नारी को समाज का महत्वपूर्ण अंग मानते थे। मनु की धारणा के अनुसार “ यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः " के आदर्श का पालन करते हुए स्वामी जी ने हमेशा नारी जगत के लिए अविस्मरणीय कार्य किया। वर्तमान समय में उपेक्षित नारी की दुर्दशा से स्वामी जी अनभिज्ञ नहीं थे। वैज्ञानिक युग में स्त्री शिक्षा को अत्यावश्यक समझते हुए स्वामी जी ने 26 जनवरी 1976 को सुबेदार भरत सिंह , शास्त्री कमल सिंह , मांगेराम यात्री व महाशय रण सिंह आर्य आदि के सहयोग से कन्या गुरुकुल खरल की स्थापना की। इस प्रकार स्वामी जी ने नारी समाज के लिए एक ऐसा पौधा लगाया जो हजारों वर्षों तक नारी जगत का कल्याण करता रहेगा। वर्तमान समय में नारी के प्रति बढ़ रहे अत्याचार को दूर करने के लिए स्वामी जी दिन - रात प्रयत्नशील रहते थे। वे गांव - गांव घूम कर लोगों को दहेज - प्रथा के विरूद्ध जागृत करते। अपनी संस्थाओं में भी अमीर - गरीब सब छात्राओं को समान रूप से शिक्षा का अवसर देते रहे। पुरुषों के समान नारी जाति में स्वाभिमान की भावना जगाने के लिए गुरुकुल में छात्राओं को तलवार , बन्दूक आदि सिखाते हुए खेलों को भी बढ़ावा दिया। बहन दर्शनाचार्या की देखरेख में यह संस्था नारी समाज के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रही है। सन् 1978 में नारी शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए गांव हसनगढ़ ( हिसार ) में भी कन्या पाठशाला की स्थापना की। लोगों का सहयोग न मिलने पर इसे सरकार को सौंप दिया गया। जहाँ स्वामी जी संस्था खोलते थे वहीं स्वयं एक सशक्त प्रशासक के रूप में उसका अनुशासन भी चलाते थे। स्वामी जी महाराज समय और अनुशासन के बड़े पक्के थे , यही कारण है कि आज तक दोनों संस्थाएं अनुशासन में पहले स्थान पर हैं। 

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वर्तमान सन्दर्भ में स्वामी जी महाराज का कार्य क्षेत्र 
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           स्वामी जी महाराज ने 40 वर्षों तक शिक्षा के क्षेत्र में बहुत अधिक काम किया। आप द्वारा स्थापित संस्थाओं ने समाज को अनेक स्नातक व स्नातिकाएं दीं। अनेक कन्याओं को शास्त्री , बी.ए.एम. ए तक शिक्षा दी तथा वर्तमान समय में भी ले रही हैं। आप में अदम्य साहस एवं कर्मठता थी , आपने सामाजिक बुराईयों के विरूद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। 

           आज समाज में शराब , दहेज - प्रथा , साम्प्रदायिकता , जातिवाद जैसी अनेक बुराईयां घर कर चुकी हैं। शराब ने तो इस देश को गर्त में धकेल दिया है , वे जातिवाद का जहर भी समाज को नष्ट कर रहा है। इन सब बुराइयों के खिलाफ स्वामी जी महाराज का अभियान चला रहता था। जिला जीन्द के लगभग 80 गांवों में जाकर लोगों को शराब बन्द करने के लिए प्रेरित किया। दिन - रात पीडित समाज के कष्टों को दूर करने में लगे रहते थे। आपके कन्धों पर अनेक जिम्मेवारियों थीं। 

         आप कन्या गुरुकुल खरल व कुम्भाखेड़ा के कुलपति के साथ - साथ वेद प्रचार मण्डल जिला जीन्द के संयोजक भी रहे। गांव निडाना में कन्या पाठशाला का निर्माण भी आपने स्वयं करवाया। वेदप्रचार मण्डल के अन्तर्गत स्वामी भीष्म भजनोपदेशक महाविद्यालय भी आपने आरम्भ किया था। आपका जीवन एक कर्मयोगी के समान है। आपकी भावनाएं हमेशा देश - धर्म पर न्यौछावर हैं। एक सच्चे दयानन्द के सैनिक के रूप में आप निश - दिन कार्य में लगे रहते थे। 

        गुरुकुल शिक्षा में आपके योगदान को देखते हुए 15-16-17 मई 1992 में पं ० गुरुदत निर्वाण शताब्दी समारोह चरखी दादरी में " गुरुकुल शिक्षा सम्मेलन " का आपको अध्यक्ष बनाया गया। प्रान्तीय आर्य वीर महासम्मेलन आपके संरक्षण में मनाये जाते थे। स्वामी जी महाराज महान देशभक्त , सच्चे ईमानदार , कर्मठ व ईश्वर पर विश्वासी करने वाले साधु थे। आप आखिर दम तक सामाजिक बुराईयों के विरूद्ध डटे रहे। हम स्वामी जी महाराज के जीवन के जिस भी पहलु को उठाएं वहीं से देश सेवा समाज सेवा व वैदिक धर्म की गूंज आती है। धन्य हैं ऐसे महापुरुष जिनका प्रत्येक क्षण दूसरों की भलाई में व्यतीत हुआ। आओ हम भगवान से प्रार्थना करें कि इस महापुरुष द्वारा स्थापित संस्थाएं और प्रगति करे जिससे इनका नाम हमेशा अमर रहे।