Wednesday, June 9, 2021

आर्यवीर भाई बंशीलाल जी


आर्यसमाज के महाधन 
आर्यवीर भाई बंशीलाल जी

पुस्तक :-  आर्यसमाज के बलिदान 
लेखक :- स्वामी ओमानन्द जी महाराज 
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा 

            जिस समय हैदराबाद स्टेट में यवनराज्य का अत्याचार चरम सीमा पर था और वैदिक धर्म अपना अस्तित्व गवां रहा था उसी समय जिला बीदर के माणिकनगर नामक ग्राम में ब्राह्मण घराने में आपने जन्म लिया था। आपके पूज्य पिता जी का नाम भोलाप्रसाद व माता जी का नाम छट्टोबाई था। आपके एक भाई जिसका नाम श्यामलाल जी वकील तथा तीन बहनें थी। आप बाल्यकाल में अत्यन्त चञ्चल प्रकृति के थे। कहा जाता है ९मास में आप दौड़ने चलने लग गये थे। आप को पांच छः वर्ष को अवस्था में पढ़ने भेज दिया। आपने अपनी श्रेणी में कभी अनुत्तीर्ण होना न सीखा। श्राप के पिता जी कट्टर पौराणिक व पुजारी थे अतः आपको कभी कभी पूजा के लिये भेज दिया करते। परन्तु आप वहां मूर्ति पर चढ़ा हुआ नैवेद्य खाकर चले आते। आप की १५ वर्ष की आयु में पिता जी संसार से चल बसे। उनके कारण पढ़ाई में भी विघ्न आया किन्तु आपने साहस न छोड़ा। आप स्वयं भोजनादि पकाते रहे और घोर परिश्रम से वकालत पास की। वकील बनने से पूर्व ही पक्के आर्य व वैदिक धर्मी हो गये थे। 

        वकील होने के पश्चात् आर्यसमाज के प्रचार में जुट गये और स्थान - स्थान पर जाकर सत्यार्थ प्रकाश की कथा व व्याख्यानादि करने लगे। आप का २५ वर्ष की आयु में विवाह सम्पन्न हुआ। यह संस्कार आपने स्वयं वैदिक रीति से ही किया था। आपने स्थान स्थान पर उत्सवादि कराने प्रारम्भ कर दिये। आपकी माता जी आपको कहा करती थी , आप उपदेश कर जनता की सेवा करें , मैं कार्य कर जनता की सेवा करती हूँ। उत्सवों पर आपकी माता भोजनादि की व्यवस्था में सहयोगी देती थी। आपने अपनी माता जी को भी ४० वर्ष की आयु में पढ़ना सिखाया। माता जी के संसार से चल बसने पर अपनी पनपती हुई वकालत को , जो कि हाईकोर्ट की थी , तिलाञ्जलि दे दी। 

           आपने वकालत में कभी पराजय का मुख न देखा। अपने समय में आप वकीलों के सिरमोर थे। वकालत के बाद आप सर्वप्रयत्न से समाज के प्रचार में जुट गये। हैदराबाद से निकलने वाले ' वैदिक सन्देश ' के प्रकाशक भी रहे। आपको प्रचार को कितनी लगन थी यह निम्न उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है। एक बार नीलंगा नामक ग्राम में आर्यसमाज के अन्दर जाकर एक सरकारी अधिकारी ने हवनकुण्ड को लात मारी और चारदीवारी आदि गिराकर समाज को मिटाने का असफल प्रयत्न किया। इसकी सूचना जब आपको मिली तब तत्काल वहां जाकर प्रतिज्ञा की कि जिस ने इसका अपमान किया है उसके धन से दुबारा बनवाकर इसमें यज्ञ करके यहां से जाऊंगा। इधर घर से तार आया कि आपकी पुत्री हैजे से आक्रान्त है। परन्तु आपने अपनी पुत्री की परवाह न की और उत्तर दिया मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी किये बिना यहाँ से नहीं आसकता। 

 
          आपने सरकार में अभियोग चलाया और उस में सफलता प्राप्त की। जिस अधिकारी ने यह कुकृत्य किया था उसके धन से आर्यसमाज व यज्ञवेदी बनवाकर उसमें यज्ञ करके ही लौटे। हैदराबाद राज्य में जहाँ कहीं धार्मिक कृत्यों पर पाबन्दी होती वहां जाकर आप उस कार्य को बड़ी शान से करवाते थे।

            राज्य में जहाँ उत्सव होता था वहाँ शंकासमाधान करने में आप अद्वितीय थे। आपने अनेक स्थानों पर शास्त्रार्थ भी किये थे। उदाहरणार्थ एक मनोरंजक व विचित्र से शास्त्रार्थ का दिग्दर्शन कराता हूं। एक दिन एक विद्वान् लिङ्गायती संन्यासी पधारे। आप भी अपने कुछ साथियों के साथ वहां पर जा धमके। कुछ देर तक वेदविषय पर शास्त्रार्थ होता रहा। अन्त में वह संन्यासी निरुत्तर व क्रोधित होकर कहने लगा- " क्या वेद में सब कुछ है ' ' आपने बलपूर्वक कहा " हाँ "। इस उत्तर को सुनकर साथियों का दम घुटने लगा और आपस में कानाफूसी करते हुए कहने लगे कि वेद में सब कुछ कहां है। एक ने आपके कान में भी कहा कि पण्डित जी आप अपने उत्तर को वापिस ले लें। परन्तु यह दयानन्द का अनन्यभक्त अपने वाक्य को वापिस किस प्रकार लेता। और बलपूर्वक कहा कि वेद में सब कुछ है। तब संन्यासी ने कहा तुम यहां बैठे हो यह वेद में है। आपने उत्तर हाँ में दिया। आपके साथी और भी घबरा गये। परन्तु आप में वेद की अगाध श्रद्धा व भक्ति थी। आपने कहा मैं यहां बैठा हूं यह वेद में है। संन्यासी ने कहा - कैसे ? आपने उत्तर में प्रश्न किया - क्या यह ठीक है मैं यहां बैठा हूं ? उसने उत्तर दिया हां सत्य है। तब आपने कहा कि सत्य को मानना ही वेदों में लिखा है। संन्यासी उत्तर पाकर नतमस्तक हो गया। इस प्रकार के अनेक शास्त्रार्थों में अपने विरोधियों से विजय प्राप्त की।

           जब आप कार्यक्षेत्र में उतरे थे उस समय केवल हैदराबाद में दो समाजें थीं। आपने अपने जीवन काल में अपने परिश्रम से ५०० समाजें स्थापित कीं। इनको एकसूत्र में बांधने के लिये एक प्रतिनिधि सभा की भी स्थापना की। जिसके प्रधान श्री केशवराम जी हाईकोर्ट के जज , और आप महामन्त्री बन गये थे। आदि में केवल तीन उपदेशक नियुक्त किये गये थे। प्रचार कार्य बढ़ता ही गया। परन्तु उपदेशकों को दक्षिणा देने के लिये धन न था। वास्तव में प्रार्यसमाज से प्रेम की परीक्षा का यही समय था। वीर ! धन्य है उस माता को जिसने तुझे जन्म दिया। आपने अपनी धर्मपत्नी की बनारसी साड़ियां बेचकर भी धन की कमी देख आभूषण गिरवी रखकर उपदेशकों का वेतन पूरा किया। इसे ही तो कहते है घर फूक तमाशा। आपके अन्दर एकमात्र धर्मप्रचार की ज्वाला जल रही थी। उसको शान्त करने के लिये ही यह आपका त्याग था। 

           आपने तीन वर्ष तक निशुल्क सभा की सेवा की। मित्र की सहायता से घर का कार्य चलता था। आप दोनों भाई तथा साथ में विनायकराव जी भी होते थे। कभी - कभी हंसी में कहते , राम - लक्ष्मण के बीच में हनुमान भी विद्यमान है। निजाम की नादिरशाही दिन प्रतिदिन बढती हुई देख आपने शिरोमणी सार्वेदेशिक सभा का ध्यान इस ओर आकृष्ट कराया किन्तु आपको वहां से कोई विशेष सहायता न मिली। आपने अपने कौशल के बल पर सत्याग्रह प्रारम्भ कर दिया। आपके सहयोग के लिये महात्मा स्वामी नारायण तथा स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी आगये। आपको जेल जाने का अवसर नहीं दिया गया। इस कारण विरोधियों की ओर से आवाज आई - भाई बन्शीलाल बाहर क्यों ? जेल में क्यों नहीं जाते।

           इधर जब आप जेल जाने की आज्ञा मांगते तो स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी कहते कि आपके जेल जाते ही हम सत्याग्रह बन्द कर देंगे। विवश होकर आपको लोकापवाद सुनना पड़ा। सत्याग्रह विजय का अधिक श्रेय आपको ही है। सत्याग्रह विजय के बाद आप का जगह - जगह बुलावा होता और भव्य स्वागत होता था। आपके घर की दयनीय दशा देखकर नारायण स्वामी जी ने १०० ) रुपये की सहायता दी। परन्तु आपने इस धन को एकत्रित करके सभा के लिये एक प्रेस लेकर दिया। यह है निःस्वार्थ प्रचार का ज्वलन्त उदाहरण। आप के इस प्रकार के प्रचारकार्य को देखकर सरकारी कर्मचारी व विशेषतया यवन आप से जलने लगे। यहां तक कि आपको मारने का भी षड्यन्त्र रचा गया। एक दिन एक यवन वेष परिवर्तन कर आपके घर आया और कहने लगा मुझे धर्मोपदेश दो। आपने अतिथि सत्कार की दृष्टि से भोजनादि कराया। इतने में आपका मित्र आया उसको इस पर सन्देह होगया। उसने इससे नाम इत्यादि पूछा , जब जाति पूछी तब उत्तर में उसके मुख से अचानक मुसलमान निकल गया। तभी उसे घर से बाहर कर दिया। इस प्रकार आप बच गये। 

           आप में साहस भी कमाल का था। एक बार आर्यसमाज लातूर का उत्सव हो रहा था। दो दिन तो आनन्द से बीत गये। तीसरे दिन कुछ अधिकारी व यवनों ने आर्यसमाज पर धावा बोल दिया। आर्यसमाज बन्द कर दिया जिससे कि कोई अन्दर न आ सके। परन्तु वह नीच दीवारों पर चढ़ गये। इधर स्त्री जाति में भय के मारे कोलाहल मच गया। आपने स्त्रियों को आश्वासन दिया कि जब तक में हूं आप का बाल बांका न होगा। आपने अपनी पिस्तौल से एक अधिकारी को गोली मार दी। वह नीचे गिर पड़ा। फिर क्या था सबके सब गीदड़ की भांति भाग गये। जहां आप स्वयं पुरुषों में प्रचार करते थे वहां अपनी धर्मपत्नी को स्त्रियों में प्रचार करने के लिए तैयार किया। 

         अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की शिक्षा पद्धति को पढ़कर आपके मन में गुरुकुल खोलने की प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई। अत: आपने अमर शहीद भाई श्यामलाल जी की पुण्य स्मृति में श्यामार्य गुरुकुल की स्थापना सं० १९९९ विजयादशमी तदनुसार १९४२ ई० में की। यह गुरुकुल परिस्थितियों के वशीभूत होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर परिवर्तित होता रहता था। अन्त में बार्शी शोलापुर में स्थिर हुआ। गुरुकुल का सारा भार आप पर ही था। गुरुकुल की कोई सभा न थी। कुछ दिन बाद श्री आचार्य भगवानदेव जी एवं प्राचार्य राजेन्द्रनाथ शास्त्री जी से आपका सम्पर्क हुआ। तब ही से यह कुल दयानन्द वेदविद्यालय की शाखारूप में चल रहा था। अध्यापन कार्य श्री रुद्रदेव जी व्याकरण शास्त्री कर रहे थे। अन्त समय में इन पंक्तियों के लेखक को भो आठ मास इस गुरुकुल में रहने का होभाग्य प्राप्त हुआ था। सन् ४८ में हैदराबाद की परिस्थितियां बहुत खराब थीं। अतः आपने दिल्ली आकर भारत के गृहमन्त्री लोहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल से मिलकर हैदराबाद की स्थिति का छान करवाया। जिसका परिणाम यह हुआ कि सारा मन्त्रिमण्डल विरोध में होते हुए भी लोहपुरुष ने पुलिस कार्यवाही कर हैदराबाद का भाग्य खोल दिया। परन्तु दुःख से लिखना पड़ता है कि उस स्वर्ग मान दिन के आने से पूर्व ही आप इस संसार से चल बसे। आप का जीवन प्रार्यसमाज के प्रचार और आर्ष शिक्षापद्धति के प्रसार के लिये बलिदान के रूप में पूरा होगया। वृद्ध अवस्था में आपने भी अष्टध्यायो पढ़नी प्रारम्भ की थी , आर्षग्रन्थों से आपको विशेष प्रेम था।

No comments:

Post a Comment