Wednesday, April 20, 2016

दिवान गिदुमल और उनकी बहादुर बेटी



दिवान गिदुमल और उनकी बहादुर बेटी

सिंध की धरती पर सदैव अजेय रहने वाले हिन्दुओं को बुद्धों के विश्वासघात के कारण पहली हार मुहम्मद बिन कासिम से राजा दाहिर को मिली।  अपने पिता की हार और अपने राज्य की तबाही का बदला राजा दाहिर की वीर बेटियों ने उसी के बादशाह से अपने ही सेनापति को मरवा कर लिया था। राजा दाहिर की पुत्रियां इतिहास में इस अमर बलिदान के लिए अमर हो गई। सिंध का अंतिम शासक मीर था। मीर को पता चला की उसके हिन्दू दीवान गिदुमल की बेटी बहुत खुबसूरत है।  मीर ने गुदुमल के घर पर उसकी बेटी को लेने की लिए डोलियाँ भेज दी। बेटी खाना खाने बैठ रही थी तो उसके पिता ने बताया की यह डोलियाँ मीर ने तुम्हे अपने हरम में बुलाने के लिए भेजी है। तुम्हे अभी निर्णय करना है।  यदि तुम तैयार हो तो जाओ। पिता के शब्दों में निराशा और गुस्सा स्पष्ट झलक रहा था। परन्तु स्वाभिमान और धर्मरक्षा से सुशोभित दिवान की बेटी न डरी न घबराई। उसने फौरन अपना निर्णय सुना दिया “आप अभी तलवार लेकर मेरा सर काट दीजिये! जाने का ही नहीं उठता।” पिता को अपनी संस्कारी लड़की से ऐसा ही उत्तर मिलने का पूरा विश्वास था।बिना किसी संकोच के पिता ने तलवार उठाई, भूखी बेटी ने सर झुकाया और बाप की तलवार ने अपना काम कर दिया। वह पिता जिसने बड़े लाड़ प्यार से अपनी बेटी को जवान किया था। एक क्षण के लिए भी न रुका। परिणाम यह हुआ की मीरों ने दीवान गिदुमल को बर्बाद कर दिया। दिवान गिदुमल और उनका परिवार इतिहास में अपने धर्म और स्वाभिमान कि रक्षा के लिए राजा दाहिर के बलिदानी परिवार के समान अमर हो गया।

1200 वर्षों में न जाने कितने घर आक्रमणकारियों ने बर्बाद कर दिए। आज भी उनकी अमर गाथा ठंडी रगों में लहू को उबाल देने वाली है। मातृभूमि और स्वाभिमान के लिए अमर बलिदान देने वाले वीरों को कोटि कोटि प्रणाम।

डॉ विवेक आर्य



Tuesday, April 19, 2016

कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली



कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली

राम राज्य नहीं अशोक राज्य चाहिए। यह बयान एक केंद्रीय मंत्री ने डॉ अम्बेडकर जयन्ती पर एक सार्वजानिक कार्यक्रम में दिया। इस प्रकार के बयान देकर ऐसे राजनेता न केवल राजनीतिक अवसरवादिता का प्रदर्शन कर रहे है। अपितु एक सुनियोजित अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र का भी शिकार दिख रहे है। जब विदेशी लोगों ने भारतीय जनमानस के मन में मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी महाराज के प्रति महान श्रद्धा और विश्वास को देखा तो उन्हें इस बात का अंदाजा आसानी से लग गया था की अयोध्या के श्री राम के विषय में दुष्प्रचार करें बिना भारतीयों को धार्मिक रूप से विखण्डित नहीं किया जा सकता हैं। इसके लिए उन्होंने कूटनीति का सहारा लिया। जैसे नास्तिकता को बढ़ावा देने के लिए श्री राम को मिथक घोषित कर दिया। इस पर भी बात नहीं बनी तो श्री राम को नारी और दलित विरोधी सिद्ध करने का असफल प्रयास किया गया। सीता अग्नि परीक्षा, सीता वनगमन, शम्बूक वध को उछाला गया जिससे श्री राम के प्रति करोड़ों लोगों में भ्रामक प्रचार उत्पन्न हो। इस पर भी बात नहीं बनी तो श्री राम के कद को बौना दिखाने के लिए उसके समकक्ष अशोक के चरित्र को खड़ा किया गया। मगर इतिहास में अनेक ऐसे तथ्य हैं जिन्हें न मिटाया जा सकता हैं और न ही भुलाया जा सकता हैं। इन तथ्यों का विश्लेषण करने पर सत्य पर्वत के समान खड़ा दीखता है।

श्री राम चन्द्र जी महाराज बनाम सम्राट अशोक

रामायण महान चरित्र गाथा में पितृप्रेम, पति-पत्नी सम्बन्ध भ्रातृप्रेम के ऐसे अनूठे विवरण मिलते हैं जो हर समाज के लिए एक आदर्श के समान हैं। राज्याभिषेक होने से ठीक पहले श्री राम को 14 वर्ष का वनवास मिलने पर उनके मुख्य पर तनिक भी क्षोभ अथवा क्रोध नहीं दीखता। अपितु पितृ आज्ञा को तत्क्षण स्वीकार कर राम वन जाने को तैयार हो जाते है। महलों का सुख त्याग कर सीता वनवासी वस्त्र ग्रहण कर उनके साथ चलने को तैयार हैं। पति के कष्ट को अपना कष्ट समझने वाली सीता आदर्श भारतीय नारी का चित्र प्रस्तुत करती है। वीर लक्ष्मण छोटे भाई होने के नाते श्री राम के साथ चलने को इच्छुक है। उनके लिए भाई बिना राजकाज व्यर्थ है। जिन भरत के लिए कैकयी ने राज्य अधिकार माँगा था। वो कैकयी को लताड़ते हुए राजमहल में न रहकर झोपड़ी में जा विराजते हैं। भाइयों में ऐसा सम्बन्ध प्रशंसनीय एवं अनुकरणीय दोनों हैं।

सम्राट अशोक के पिता बिन्दुसार उन्हें नापसंद करते थे क्यूंकि उनका प्रेम अपने बड़े पुत्र में अधिक था। अशोक ने अपने 99 भाइयों को मारकर अपना राज स्थापित किया था। कहां श्री रामचन्द्र जी का काल जहाँ एक भाई दूसरे भाई के लिए अपने सभी सुख त्यागने को तैयार हैं। भ्रातृ प्रेम के समक्ष राजसिंहासन का कोई मोल नहीं है। कहां अशोक का काल जहाँ सिंहासन के लिए एक भाई दूसरे भाइयों की हत्या करता हैं।पाठक स्वयं सोचे।

श्री राम के सम्पूर्ण जीवन में हमें एक भी ऐसा प्रसंग नहीं मिलता जहाँ पर वह न्यायप्रिय एवं दयालु नहीं है। प्राणी मात्र के लिए सद्भावना से भरा हुआ उनका ह्रदय सभी के लिए मित्र भावना वाला है। ऐसे जीवंत व्यक्तित्व को इसी कारण से हम मर्यादापुरुषोत्तम कहते है। रावण के साथ युद्ध से पहले भी श्री राम उसे सीता लौटने का प्रस्ताव रखते है। मगर दुर्बुद्धि रावण उस प्रस्ताव को ठुकरा देता है। मृतशैया पर पड़े रावण के पास राम लक्ष्मण को भेज क़र राजविद्या सिखने का प्रस्ताव रखते है।अपने शत्रु के गुणों का आदर करना कोई श्री राम से सीखे।

अशोक के जीवन का एक पक्ष कलिंग युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। इस युद्ध में लाखों लोगों का संहार करने के बाद अशोक को विजय प्राप्त हुई थी। इस युद्ध के पश्चात ही अशोक को विरक्ति हुई एवं उन्होंने बुद्ध मत स्वीकार कर लिया था। इससे पहले अशोक ने निर्दयता से तक्षशिला के विद्रोह का दमन भी किया था। श्री राम के दयालु हृदय एवं वात्सलय स्वभाव से अशोक की तुलना करना सूर्य से दीपक की तुलना करने के समान है।

रामराज में अयोध्या में राजसत्ता अत्यन्त सुव्यवस्थित थी। राज्य में नशा, व्यभिचार, बलात्कार आदि तो दूर सामान्य चोरी की घटना भी सुनने को नहीं मिलती थी। स्त्रियां अग्निहोत्र कर वेद का स्वाध्याय करती थी। पुरुष व्यापार, कृषक आदि कार्य करते थे। राज्य में कभी अकाल, बाढ़ आदि प्रकोप नहीं आते थे। ऐसे राज्य को आदर्श राम राज्य की संज्ञा इसीलिए दी गई थी। निषाद राज केवट और भीलनी शबरी के जूठे बेर खाने वाले श्री राम पर शम्बूक वध का दोष लगा दिया जाता है। सत्य यह है कि रामायण के उत्तर काण्ड में भारी मिलावट कर श्री राम को जातिवादी दिखाने का असफल प्रयास किया गया हैं। ऐसी ही मिलावट सीता-अग्निपरीक्षा और सीता वनगमन को लेकर करी गई हैं।

अशोक राज के विषय में यह प्रसिद्द है कि अशोक सम्राट ने सड़कें बनवाई, कुँए खुदवाएं, विश्रामशला बनवाई आदि। मगर एक पक्ष ऐसा भी है जिससे बहुत कम लोग परिचित हैं। अहिंसा के महात्मा बुद्ध के सन्देश से प्रभावित होकर अशोक अति-अहिंसावादी हो गए थे। राज्य सैनिकों के कवच और अस्त्र छुड़वा कर अशोक ने उन्हें क्षोर करा भिक्षु वस्त्र धारण करवा दिए थे। अशोक के इस कदम के दूरगामी परिणाम अत्यन्त महत्वपूर्ण थे। भिक्षु बनने से अशोक राज्य में क्षत्रिय धर्म का लोप हो गया। सैनिकों को शस्त्र विद्याग्रहण करने और शस्त्र रखने से रोक दिया गया। राज्य की रक्षा शक्ति समाप्त हो गई। इसका अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि कभी संसार के सबसे शक्तिशाली राज्य मगध को ओड़िसा के राजा खारवेला से अशोक के वंशज शालिशुक को हार माननी पड़ी थी। अति अहिंसावाद के कारण हमारा देश शत्रुओं का प्रतिरोध करना भूल गया था। इसके दूरगामी परिणाम सदियों से भारत भूमि ने भुगते। सिंध के राजा दाहिर जैसा उदहारण हमारे सामने है जब सिंध ने बुद्ध मत को मानने वालों ने राजा का साथ बुद्ध मत की मान्यता के चलते नहीं दिया था। बहुत कम लोग यह जानते हैं कि अशोक को उसी के राज में राजगद्दी से हटा दिया गया था। कारण था अशोक की सनक। बुद्ध मत के प्रचार के चलते अशोक ने अपने राज्य में अनुमान अनुसार 84000 बुद्ध विहार स्थापित किये थे। इस कार्य में अशोक ने राज्य का सारा कोष समाप्त कर दिया। राज्य अधिकारीयों द्वारा धन की कमी के चलते राज्य चलाना कठिन हो गया। अंत में उन्होंने अशोक को सजा देते हुए उसे गद्दी से हटाकर अशोक के अंधे बेटे कुणाल के पुत्र सम्प्रति को राजा बना दिया था। इतिहासकार इस कटु सत्य को छुपाते आये हैं। अशोक राज्य का उत्तरार्ध उतना भव्य नहीं है जितना दर्शाया जाता है।

रामराज और अशोकराज की तुलना करना एक प्रसिद्द मुहावरे को चरित्रार्थ करता है।

"कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली"

( नोट-वैसे आज के राजनेता भी अशोक की इसी नीति का अनुसरण करते दीखते हैं। एक ओर देश में शिक्षा, बिजली, पानी, आदि मकान, ईलाज और भोजन आदि की अत्यन्त कमी हैं, दूसरी और अरबों रुपये व्यय करके हेरिटेज पार्कों में स्वाहा करें जा रहे हैं। )

इस लेख को विस्तार देकर अन्य बहुत सारे बिंदुओं पर चर्चा की जा सकती हैं। मगर यह शोध का विषय हैं।
पाठकों के मन में इस लेख को लेकर अनेक शंकाएं होना स्वाभाविक है। इसलिए शंका करने से इसी विषय से सम्बंधित कुछ अन्य लेखों का अवलोकन करना अनिवार्य हैं। उनके लिंक नीचे दिए जा रहे है।

डॉ विवेक आर्य

Fake theory of persecution of Buddhists in India

http://vedictruth.blogspot.in/2014/05/fake-theory-of-persecution-of-buddhists.html

शम्बूक वध का सत्य

http://vedictruth.blogspot.in/2013/08/blog-post_25.html

क्या श्री राम जी माँसाहारी थे?

http://vedictruth.blogspot.in/2013/08/blog-post_26.html

श्री रामचन्द्र जी के जन्मदिवस के अवसर उनके महान जीवन से प्रेरणा

http://vedictruth.blogspot.in/2015/03/blog-post_27.html

क्या हनुमान आदि वानर बन्दर थे?

http://vedictruth.blogspot.in/2013/09/blog-post_9.html

रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा

http://vedictruth.blogspot.in/2015/10/blog-post_15.html

अहल्या उद्धार का रहस्य

http://vedictruth.blogspot.in/2013/10/blog-post_31.html

क्या विवाह के समय श्री राम चन्द्र जी की आयु 15 वर्ष और सीता जी की आयु 6 वर्ष थी?

http://vedictruth.blogspot.in/2013/10/15-6.html

रावण और बाली का वध – कितना सही कितना गलत

http://vedictruth.blogspot.in/2013/10/blog-post_5788.html

रामायण में उत्तर कांड के प्रक्षिप्त होने का प्रमाण

http://vedictruth.blogspot.in/2013/11/blog-post_30.html

Thursday, April 14, 2016

नवबुद्ध बनना: नौटंकी या फैशन



नवबुद्ध बनना: नौटंकी या फैशन

रोहित वेमुला की माँ और भाई ने बुद्ध मत स्वीकार कर लिया। बुद्ध मत स्वीकार करने वाला 99.9 %दलित वर्ग बुद्ध मत को एक फैशन के रूप में स्वीकार करता हैं। उसे महात्मा बुद्ध कि शिक्षाओं और मान्यताओं से कुछ भी लेना देना नहीं होता। उलटे उसका आचरण उससे विपरीत ही रहता हैं। उदहारण के लिए-

1.
मान्यता- महात्मा बुद्ध प्राणी हिंसा के विरुद्ध थे एवं मांसाहार को वर्जित मानते थे।

समीक्षा-  रोहित वेमुला हैदराबाद यूनिवर्सिटी में बीफ फेस्टिवल बनाने वालों में शामिल था। 99.9% नवबौद्ध मांसाहारी है। बुद्ध मत के दो देश के देश दुनिया के सबसे बड़े मांसाहारी हैं। इसे कहते है "नाम बड़े दर्शन छोटे"

2. मान्यता- महात्मा बुद्ध अहिंसा के पूजारी थे। वो किसी भी प्रकार कि वैचारिक हिंसा के विरुद्ध थे।

समीक्षा- किसी भी नवबुद्ध से मिलो। वह झल्लाता हुआ अवसाद से पीड़ित व्यक्ति जैसा दिखेगा। जो सारा दिन ब्राह्मणवाद और मनुवाद के नाम पर सभी का विरोध करता दिखेगा। वह उनका भी विरोध करता दिखेगा जो जातिवाद को नहीं मानते। हर अच्छी बात का विरोध करना उसकी दैनिक दिनचर्या का भाग होगा। महात्मा बुद्ध शारीरिक, मानसिक, वैचारिक सभी प्रकार की हिंसा के विरोधी थे। नवबुद्ध ठीक विपरीत व्यवहार करते हैं।

3. मान्यता- महात्मा बुद्ध संघ अर्थात संगठन की बात करते थे। समाज को संगठित करना उनका उद्देश्य था।

समीक्षा- नवबुद्ध अलगावावादी कश्मीरी नेताओं का समर्थन कर देश और समाज को तोड़ने की नौटंकी करते दीखते हैं।

4. मान्यता- महात्मा बुद्ध धर्म में विश्वास रखते थे।

समीक्षा- नवबुद्ध देश के विरुद्ध षड़यंत्र करने वाले याकूब मेनन जैसे अधर्मी के समर्थन में खड़े होकर अपने आपको ढोंगी सिद्ध करते हैं।

5. मान्यता- महात्मा बुद्ध छल- कपट करने वाले को छल-कपट छोड़ने की शिक्षा देते थे।

समीक्षा- भारत में ईसाई मिशनरी छल-कपट कर निर्धन हिन्दुओं का धर्मान्तरण करती हैं। नवबुद्ध उनका विरोध करने के स्थान पर उनका साथ देते दीखते हैं।

6. मान्यता- महात्मा बुद्ध अत्याचारी व्यक्ति को अत्याचार छोड़ने की प्रेरणा देते थे।

समीक्षा- 1200 वर्षों से भारत भूमि इस्लामिक आक्रमणकारियों के अत्याचार सहती रही। हज़ारों बुद्ध विहार से लेकर नालंदा विश्वविद्यालय इस्लामिक आक्रमणक्रियों ने तहस-नहस कर दिए। नवबौद्ध उसी मानसिकता की पीठ थपथपाते दीखते हैं।

सन्देश- बनना भी है तो महात्मा बुद्ध कि मान्यताओं को जीवन में , व्यवहार में और आचरण में उतारों।

अन्यथा नवबुद्ध बनना तो केवल नौटंकी या फैशन जैसा दीखता हैं।

डॉ विवेक आर्य

Wednesday, April 13, 2016

डॉ अम्बेडकर का राष्ट्रवादी चिंतन



डॉ अम्बेडकर का राष्ट्रवादी चिंतन

भारतीय राजनीति अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए जैसे अपने क्रांतिकारियों को जाति के आधार पर विभाजित कर लेती है वैसे ही महान व्यक्तित्वों को भी हमने जाति भेद के आधार पर विभाजित कर लेती है। डॉ अम्बेडकर। यह नाम सुनते ही पाठकों के मन में एक दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले नेता  उजागर होगी। मगर डॉ अम्बेडकर के जीवन के एक ऐसा पक्ष भी है जिसमें राष्ट्रवादी चिंतन के महान नेता के रूप में  उनके दर्शन होते है। डॉ अम्बेडकर के नाम पर दलित राजनीति करने वाले लोग जिन्हें हम छदम अम्बेडकरवादी कह सकते हैं, विदेशी ताकतों के हाथों की कठपुतली बनकर डॉ अम्बेडकर के सिद्धांतों की हत्या करने में लगे हुए हैं। अम्बेडकरवाद के नाम पर याकूब मेनन की फांसी की हत्या का विरोध, यूनिवर्सिटी में बीफ फेस्टिवल बनाना, कश्मीर में भारतीय सेना को बलात्कारी बताने, वन्दे मातरम और भारत माता की जय का नारा लगाने का विरोध, दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कवायद, अलगाववादी कश्मीरी नेताओं की प्रशंसा जैसे कार्यों में लिप्त होना डॉ अम्बेडकर की मान्यताओं का स्पष्ट विरोध हैं। अम्बेडकरवादियों के क्रियाकलापों से सामान्य जन कि डॉ अम्बेडकर के विषय में धारणा भी विकृत हो जाति हैं। इस लेख का उद्देश्य यही सिद्ध करना है की अम्बेडकरवादी डॉ अम्बेडकर के सिद्धांतों के हत्यारे है।

1. मैं यह स्वीकार करता हूँ कि कुछ बातों को लेकर सवर्ण हिन्दुओं के साथ मेरा विवाद है, परन्तु मैं आपके समक्ष यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए अपना जीवन बलिदान कर दूँगा। - (राष्ट्र पुरुष बाबा साहेब डॉ भीम राव अम्बेडकर, कृष्ण गोपाल एवं श्री प्रकाश, फरवरी 1940, पृष्ठ 50)

2. शुद्र राजाओं और ब्राह्मणों में बराबर झगड़ा रहा जिसके कारण ब्राह्मणों पर बहुत अत्याचार हुआ। शूद्रों के अत्याचारों के कारण ब्राह्मण लोग उनसे घृणा करने लगे और उनका उपनयन करना बंद कर दिया। उपनयन न होने के कारण उनका पतन हुआ। (डॉ अम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज,खण्ड 13, पृष्ठ 3)

3. आर्यों के मूलस्थान (भारत के बाहर) का सिद्धांत वैदिक सहित्य से मेल नहीं खाता। वेदों में गंगा, यमुना, सरस्वती के प्रति आत्मीय भाव है। कोई विदेशी इस तरह नदियों के प्रति आत्मस्नेह सम्बोधन नहीं कर सकता।   (डॉ अम्बेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज,खण्ड 7, पृष्ठ 70 )

4. हिन्दू समाज ने अपने धर्म से बाहर जाने के मार्ग तो खुला रखा है, किन्तु बाहर से अंदर आने का मार्ग बंद किया हुआ है। यह स्थिति पानी की उस टंकी के समान है जिसमें पानी के अंदर आने का मार्ग बंद किया हुआ है। किन्तु निकास की टोटीं सैदेव खुली है। अंत: हिन्दू समाज को आने वाले अनर्थ से बचाने के लिए इस व्यवस्था में परिवर्तन होना आवश्यक है। (बाबा साहेब बांची भाषणे- खण्ड 5, पृष्ठ 16)

5. हिन्दू अपनी मानवतावादी भावनाओं के लिए प्रसिद्द हैं और प्राणी जीवन के प्रति तो उनकी आस्था अद्भुत है। कुछ लोग तो विषैले सांपों को भी नहीं मारते। हिन्दू दर्शन सर्वव्यापी आत्मा का सिद्धांत सिखाता है और गीता उपदेश देती है कि ब्राह्मण और चांडाल में भेद न करो। प्रश्न उठता है कि जिन हिन्दुओं में उदारता और मानवतावाद की इतनी अच्छी परम्परा है और जिनका अच्छा दर्शन है वे मनुष्यों के प्रति इतना अनुचित तथा निर्दयता पूर्ण व्यवहार क्यों करते हैं? (Source: Material editor B.G.Kunte Vol 1 page 14-15)

6. डॉ अम्बेडकर का मत था कि प्रत्येक हिन्दू वैदिक रीति से यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार रखता है और इसके लिए अम्बेडकर जी ने बम्बई में "समाज समता संघ" की स्थापना कि जिसका मुख्य कार्य अछूतों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना तथा उनको अपने अधिकारों के प्रति सचेत करना था। यह संघ बड़ा सक्रिय था। इसी समाज के तत्वाधान में 500 महारों को जनौउ धारण करवाया गया ताकि सामाजिक समता स्थापित की जा सके। यह सभा बम्बई में मार्च 1928 में संपन्न हुई जिसमें डॉ अम्बेडकर भी मौजूद थे। (डॉ बी आर अम्बेडकर- व्यक्तित्व एवं कृतित्व पृष्ठ 116-117)

7. तरुणों की धर्म विरोधी प्रवृति देखकर मुझे दुःख होता है। कुछ लोग कहते हैं कि धर्म अफीम की गोली है। परन्तु यह सही नहीं है। मेरे अंदर जो भी अच्छे गुण हैं अथवा मेरी शिक्षा के कारण समाज हित के काम जो मैंने किये हैं वे मुझ में विद्यमान धार्मिक भावना के कारण ही हैं। मुझे धर्म चाहिए लेकिन धर्म के नाम पर चलने वाला पाखण्ड नहीं चाहिए। (हमारे डॉ अम्बेडकर जी, पृष्ठ 9 श्री आश्चर्य लाल नरूला)

8.  मुस्लिम भ्रातृभाव केवल मुसलमानों के लिए-”इस्लाम एक बंद निकाय की तरह है, जो मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच जो भेद यह करता है, वह बिल्कुल मूर्त और स्पष्ट है। इस्लाम का भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृभाव मानवता का भ्रातृत्व नहीं है, मुसलमानों का मुसलमानों से ही भ्रातृत्व है। यह बंधुत्व है, परन्तु इसका लाभ अपने ही निकाय के लोगों तक सीमित है और जो इस निकाय से बाहर हैं, उनके लिए इसमें सिर्फ घृणा ओर शत्रुता ही है। इस्लाम का दूसरा अवगुण यह है कि यह सामाजिक स्वशासन की एक पद्धति है और स्थानीय स्वशासन से मेल नहीं खाता, क्योंकि मुसलमानों की निष्ठा, जिस देश में वे रहते हैं, उसके प्रति नहीं होती, बल्कि वह उस धार्मिक विश्वास पर निर्भर करती है, जिसका कि वे एक हिस्सा है। एक मुसलमान के लिए इसके विपरीत या उल्टे सोचना अत्यन्त दुष्कर है। जहाँ कहीं इस्लाम का शासन हैं, वहीं उसका अपना विश्वासहै। दूसरे शब्दों में, इस्लाम एक सच्चे मुसलमानों को भारत को अपनी मातृभूमि और हिन्दुओं को अपना निकट सम्बन्धी मानने की इज़ाजत नहीं देता। सम्भवतः यही वजह थी कि मौलाना मुहम्मद अली जैसे एक महान भारतीय, परन्तु सच्चे मुसलमान ने, अपने, शरीर को हिन्दुस्तान की बजाए येरूसलम में दफनाया जाना अधिक पसंद किया।” (बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वाड्‌मय, खंड १५-‘पाकिस्तान और भारत के विभाजन, २०००)


9. Conversion to Islam or Christianity will denationalize the Depressed classes.If they go over to Islam, the number of Muslims would be doubled; and the danger of Muslim domination also become real.If they go over to Christianity, the numerical strength of the Christians becomes five to six crores. It will help to strengthen the political hold of Britain on the country. (Dr Ambedkar Life and Mission. 2nd Edition pp.278-279)

10. You wish India should protect your border, she should build roads on your area, she should supply you food grains, and Kashmir should get equal status as India.But Government of India should have only limited powers and Indian people should have no rights in Kashmir.To give consent to this proposal, would be a treacherous thing against the interests of India and I, as law minister of India will never do it. (Dr B R Ambedkar to Sheikh Abdullah on Article 370)

इस प्रकार से डॉ अम्बेड़कर के वांग्मय में अनेक ऐसे उदहारण मिलते है जिससे यह सिद्ध होता है कि डॉ अम्बेडकर सच्चे राष्ट्रभक्त थे।  अपने राजनीतिक हितों  साधने के लिए  अम्बेडकरवादियों ने डॉ अम्बेडकर के साथ विश्वासघात किया। आइए डॉ अम्बेडकर कि जयन्ती पर उनके राष्ट्रवादी चिंतन से विश्व को अवगत करवाए।

डॉ विवेक आर्य  

बैसाखी के अवसर पर हिन्दू समाज के लिए सन्देश



बैसाखी के अवसर पर हिन्दू समाज के लिए सन्देश

मुगल शासनकाल के दौरान बादशाह औरंगजेब का आतंक बढ़ता ही जा रहा था। चारों और औरंगज़ेब की दमनकारी नीति के कारण हिन्दू जनता त्रस्त थी। सदियों से हिन्दू समाज मुस्लिम आक्रांताओं के झुंडों पर झुंडों का सामना करते हुए अपना आत्म विश्वास खो बैठा था। मगर अत्याचारी थमने का नाम भी नहीं ले रहे थे। जनता पर हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए सिख पंथ के गुरु गोबिन्द सिंह ने बैसाखी पर्व पर आज ही के दिन आनन्दपुर साहिब के विशाल मैदान में अपनी  संगत को आमंत्रित किया। जहां गुरुजी के लिए एक तख्त बिछाया गया और तख्त के पीछे एक तम्बू लगाया गया।  गुरु गोबिन्द सिंह के दायें हाथ में नंगी तलवार चमक रही थी। गोबिन्द सिंह नंगी तलवार लिए मंच पर पहुंचे और उन्होंने ऐलान किया- मुझे एक आदमी का सिर चाहिए। क्या आप में से कोई अपना सिर दे सकता है? यह सुनते ही वहां मौजूद सभी शिष्य आश्चर्यचकित रह गए और सन्नाटा छा गया। उसी समय  दयाराम नामक एक खत्री आगे आया जो लाहौर निवासी था और बोला- आप मेरा सिर ले सकते हैं। गुरुदेव उसे पास ही बनाए गए तम्बू में ले गए। कुछ देर बाद तम्बू से खून की धारा निकलती दिखाई दी। तंबू से निकलते खून को देखकर पंडाल में सन्नाटा छा गया। गुरु गोबिन्द सिंह तंबू से बाहर आए, नंगी तलवार से ताजा खून टपक रहा था। उन्होंने फिर ऐलान किया- मुझे एक और सिर चाहिए। मेरी तलवार अभी भी प्यासी है। इस बार धर्मदास नामक जाट आगे आये जो सहारनपुर के जटवाडा गांव के निवासी थे। गुरुदेव उन्हें भी तम्बू में ले गए और पहले की तरह इस बार भी थोड़ी देर में खून की धारा बाहर निकलने लगी। बाहर आकर गोबिन्द सिंह ने अपनी तलवार की प्यास बुझाने के लिए एक और व्यक्ति के सिर की मांग की। इस बार जगन्नाथ पुरी के हिम्मत राय झींवर (पानी भरने वाले) खड़े हुए। गुरुजी उन्हें भी तम्बू में ले गए और फिर से तम्बू से खून धारा बाहर आने लगी। गुरुदेव पुनः बाहर आए और एक और सिर की मांग की तब द्वारका के युवक मोहकम चन्द दर्जी आगे आए। इसी तरह पांचवी बार फिर गुरुदेव द्वारा सिर मांगने पर बीदर निवासी साहिब चन्द नाई सिर देने के लिए आगे आये। मैदान में इतने लोगों के होने के बाद भी वहां सन्नाटा पसर गया, सभी एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। तभी तम्बू से गुरु गोबिन्द सिंह केसरिया बाना पहने पांचों  नौजवानों के साथ बाहर आए। पांचों नौजवान वहीं थे जिनके सिर काटने के लिए गुरु गोबिन्द सिंह तम्बू में ले गए थे। गुरुदेव और पांचों नौजवान मंच पर आए, गुरुदेव तख्त पर बैठ गए। पांचों नौजवानों ने कहां गुरुदेव हमारे सिर काटने के लिए हमें तम्बू में नहीं ले गए थे बल्कि वह हमारी परीक्षा थी। तब गुरुदेव ने वहां उपस्थित सिक्खों से कहा आज से ये पांचों मेरे पंज प्यारे हैं। गुरु गोविन्द सिंह के महान संकल्प से खालसा की स्थापना हुई। हिन्दू समाज अत्याचार का सामना करने हेतु संगठित हुआ। इतिहास की यह घटना का मनोवैज्ञानिक पक्ष अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

पञ्च प्यारों में सभी जातियों के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इसका अर्थ यही था कि अत्याचार का सामना करने के लिए हिन्दू समाज को जात-पात मिटाकर संगठित होना होगा। तभी अपने से बलवान शत्रु का सामना किया जा सकेगा। खेद है की हिन्दुओं ने गुरु गोविन्द सिंह के सन्देश पर  अमल नहीं किया। जात-पात के नाम पर बटें हुए हिन्दू समाज में संगठन भावना शुन्य हैं। गुरु गोविन्द सिंह ने स्पष्ट सन्देश दिया कि कायरता भूलकर, स्वबलिदान देना जब तक हम नहीं सीखेंगे तब तक देश, धर्म और जाति की सेवा नहीं कर सकेंगे। अन्धविश्वास में अवतार की प्रतीक्षा करने से कोई लाभ नहीं होने वाला। अपने आपको समर्थ बनाना ही एक मात्र विकल्प है। धर्मानुकूल व्यवहार, सदाचारी जीवन, अध्यात्मिकता, वेदादि शास्त्रों का ज्ञान जीवन को सफल बनाने के एकमात्र विकल्प हैं।

1. आज हमारे देश में सेक्युलरता के नाम पर, अल्पसंख्यक के नाम पर, तुष्टिकरण के नाम पर अवैध बांग्लादेशियों को बसाया जा रहा हैं।
 2. हज सब्सिडी दी जा रही है, मदरसों को अनुदान और मौलवियों को मासिक खर्च दिया जा रहा हैं, आगे आरक्षण देने की तैयारी हैं।
3. वेद, दर्शन, गीता के स्थान पर क़ुरान और बाइबिल को आज के लिए धर्म ग्रन्थ बताया जा रहा हैं।
4. हमारे अनुसरणीय राम-कृष्ण के स्थान पर साईं बाबा, ग़रीब नवाज, मदर टेरेसा को बढ़ावा दिया जा रहा हैं।
5. ईसाईयों द्वारा हिन्दुओं के धर्मान्तरण को सही और उसका प्रतिरोध करने वालों को कट्टर बताया जाता रहा हैं।
6. गौरी-ग़जनी को महान और शिवाजी और प्रताप को भगोड़ा बताया जा रहा हैं।
7.1200 वर्षों के भयानक और निर्मम अत्याचारों कि अनदेखी कर बाबरी और गुजरात दंगों को चिल्ला चिल्ला कर भ्रमित किया जा रहा हैं।
8. हिन्दुओं के दाह संस्कार को प्रदुषण और जमीन में गाड़ने को सही ठहराया जा रहा हैं।
9. दीवाली-होली को प्रदुषण और बकर ईद को त्योहार बताया जा रहा हैं।
10. वन्दे मातरम, भारत माता की जय बोलने पर आपत्ति और कश्मीर में भारतीय सेना को बलात्कारी बताया जा रहा हैं।
11. विश्व इतिहास में किसी भी देश, पर हमला कर अत्याचार न करने वाली हिन्दू समाज को अत्याचारी और समस्ते विश्व में इस्लाम के नाम पर लड़कियों को गुलाम बनाकर बेचने वालों को शांतिप्रिय बताया जा रहा हैं।
12. संस्कृत भाषा को मृत और उसके स्थान पर उर्दू, अरबी, हिब्रू और जर्मन जैसी भाषाओँ को बढ़ावा दिया जा रहा हैं।

हमारे देश, हमारी आध्यात्मिकता, हमारी आस्था, हमारी श्रेष्ठता, हमारी विरासत, हमारी महानता, हमारे स्वर्णिम इतिहास सभी को मिटाने के लिए सुनियोजित षड़यंत्र चलाया जा रहा हैं। गुरु गोविन्द सिंह के पावन सन्देश- जातिवाद और कायरता का त्याग करने और संगठित होने मात्र से हिन्दू समाज का हित संभव हैं।

आईये वैसाखी पर एक बार फिर से देश, धर्म और जाति की रक्षा का संकल्प ले।

डॉ विवेक आर्य

#HappyBaisakhi

Saturday, April 9, 2016

स्वामी दयानंद और मेक्समुलर के वेद भाष्यों का तुल्नात्मक अध्ययन



वेद शब्द का वर्णन होते ही आज के युवको को हम मेक्समुलर, ग्रिफ्फिथ आदि विदेशी विद्वानों का उनके योगदान के लिए गुणगान करते पाते हैं। अथवा वेदों के असत्य भाष्य से भ्रमित होकर वेद मन्त्रों से घृणा करने लग जाते हैं। इसमें उन युवाओं का कोई दोष  नहीं हैं। दोष  केवल यह हैं की उन्होंने स्वयं वेदों का स्वाध्याय अथवा वेदों के अधिकारी विद्वानों से उनके वास्तविक सत्य का ग्रहण नहीं किया है। अपितु पश्चिमी विद्वानों ने जो कुछ भी लिख दिया हैं उसका अँधा अनुसरण किया हैं।  वेद विषय पर आज प्राय: सभी विश्व विद्यालयों में पश्चिमी विद्वानों के द्वारा किये गए कार्य पर ही शोध होता देखा जाता हैं। कहीं कहीं राजा रमेश चन्द्र दत (RC Dutt) अथवा राजेन्दर लाल मित्र (Rajender Lal Mitra) जैसे भारतीय विद्वानों का वर्णन आता हैं, जो पश्चिमी विद्वानों का ही अनुसरण करते हुए दिखाई देते है। आधुनिक काल में वेद विषय में सबसे बड़ी क्रांति  स्वामी दयानंद द्वारा प्राचीन ऋषियों की  पद्यति से वेद भाष्य किया जाता था। स्वामी जी ने न केवल ऋषियों कि पद्यति का अनुसरण किया अपितु उसे संस्कृत के साथ साथ हिंदी में भी किया। इसका उद्देश्य सामान्य जन को वेद के मूल अर्थ से परिचित करवाना था। स्वामी दयानंद द्वारा वेद भाष्य करते हुए न केवल सायण महीधर के भाष्य का अवलोकन किया बल्कि मेक्समुलर आदि के भाष्य का भी अवलोकन किया गया।  स्वामी दयानंद के अनुसार वेदों पर भाष्य करने के लिए सत्य प्रमाण, सुतर्क, वेदों के शब्दों का पूर्वापर प्रकरणों, व्याकरण आदि वेदांगों, शतपथ आदि ब्राह्मणों, पूर्वमीमांसा आदि शास्त्रों और शास्त्रान्तरों का यथावत बोध होना अवश्य हैं। केवल शाब्दिक ज्ञान ही नहीं अपितु  परमेश्वर का अनुग्रह, उत्तम विद्वानों की शिक्षा,उनके संग से पक्षपात छोड़ के आत्मा की शुद्धि तथा  महर्षि लोगों के किये गए व्याख्यानों को न देखें हो तब तक वेदों के अर्थ का यथावत प्रकाश मनुष्य के ह्रदय में नहीं होता। कठिन श्रम और अनुसन्धान से स्वामी दयानंद ने न केवल वेदों के सत्य ज्ञान का प्रकाश किया अपितु मैक्समूलर आदि पश्चिमी विद्वानों के ज्ञान की समीक्षा कर सत्य का प्रचार किया। स्वामी  जी लिखते है

जो लोग कहते हैं कि—जर्मनी देश में संस्कृत विद्या का बहुत प्रचार है और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा। यह बात कहनेमात्र है क्योंकि ‘यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते’ अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता उस देश में एरण्ड ही को बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोप देश में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा सा पढ़ा वही उस देश के लिये अधिक है। परन्तु आर्यावर्त्त देश की ओर देखें तो उन की बहुत न्यून गणना है। क्योंकि मैंने जर्मनी देशनिवासी के एक ‘प्रिन्सिपल’ के पत्र से जाना कि जर्मनी देश में संस्कृत चिट्ठी का अर्थ करने वाले भी बहुत कम हैं। और मोक्षमूलर साहब के संस्कृत साहित्य और थोड़ी सी वेद की व्याख्या देख कर मुझ को विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर उधर आर्यावर्त्तीय लोगों की की हुई टीका देख कर कुछ-कुछ यथा तथा लिखा है। जैसा कि
युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि॥
इस मन्त्र का अर्थ घोड़ा किया है। इस से तो जो सायणाचार्य ने सूर्य अर्थ किया है सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ परमात्मा है सो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। उस में इस मन्त्र का अर्थ यथार्थ किया है। इतने से जान लीजिये कि जर्मनी देश और मोक्षमूलर साहब में संस्कृत विद्या का कितना पाण्डित्य है।--सत्यार्थ प्रकाश  एकादश समुल्लास

पश्चिमी देशों के विद्वान भी उसी प्रकार अविद्वानों के बीच में कम ज्ञान होते हुए भी श्रेष्ठ विद्वान गिने जाने लगे।  विडम्बना यह भी रही कि हमारे यहाँ के विद्वानों को नकार कर पश्चिमी विद्वानों का अँधा अनुसरण करने से न केवल वेद के ज्ञान का उचित प्रकाश होने से रह गया, अपितु उसके स्थान पर अनेक भ्रांतियां भी फैल गई। उदहारण स्वरुप मैक्समूलर की एक भ्रान्ति देखिये। उनके अनुसार आर्य लोगों को बहुत काल के पीछे ईश्वर का ज्ञान हुआ था और वेदों के प्राचीन होने का एक भी प्रमाण नहीं मिलता किन्तु इसके नवीन होने के अनेक प्रमाण मिलते हैं। मैक्समूलर के अनुसार ऋग्वेद के मन्त्रों को केवल भजनों का संग्रह हैं।  जो की जंगली वैदिक ऋषियों ने अग्नि, वायु, जल, मेघ आदि की स्तुति में बनाये थे और जिन्हें गाकर वे जंगलियों की भांति नाचा भी करते थे। सत्य यह है की ईश्वर द्वारा वेद ज्ञान के माध्यम से प्राचीन काल में ही अपना ज्ञान मनुष्य जाति को करवा दिया था। इसी प्रकार एक अन्य भ्रान्ति यह है की प्राचीन आर्य लोग अनेक देवताओं और भूतों की पूजा करते थे।जबकि सत्य यह हैं की वेदों में अग्नि,वायु, इन्द्र आदि नामों से उपासना के लिए एक ही परमेश्वर का ही ग्रहण किया गया हैं।  मैक्समूलर आदि पश्चिमी विद्वानों के अंग्रेजी में वेदों पर कार्य करने से विश्वभर के गंवेष्कों का ध्यान वेदों की और आकर्षित तो हुआ पर इससे वेदों का हित होने के स्थान अहित अधिक हुआ। क्यूंकि इससे वेद में वर्णित सत्य, विज्ञान, ईश्वर का स्वरुप, मानव समाज के कर्तव्य आदि पर परिश्रम करने की बजाय वेदों में कौन-कौन से व्यर्थ और निरर्थक बाते हैं (जिनका अस्तित्व ही नहीं हैं) इस पर पूरा ध्यान लगा दिया गया। वेदों को सचमुच बालकों की बुलबुलाहट तथा असभ्यों की घुरघुराहट ही समझ लिया गया। आलोचना का बाज़ार गरम हो गया। एक तरफ हमारे देश में वेदों के सम्बन्ध में निरर्थक व मिथ्या प्रचार हो गया।  ईसाई समाज की संकीर्णता व पूर्वाग्रह भरी नीति सफल होने को थी। आर्यावर्त का दर्शन और ब्रह्मा विद्या के साहित्य लुप्त होने के कगार पर थी ,लाखों भारतीय वेदों पर अश्रद्धा उत्पन्न होने से नास्तिक अथवा ईसाई बनने को तत्पर हो उठे थे।  ईश कृपा से यास्क, पाणिनि, पतंजलि और व्यास जैसे ऋषियों की तपोभूमि पर वेद रुपी भंवर में फँसी हुई नौका को निकलने के लिए एक माँझी ने प्रतिज्ञा कर अपना वेद भाष्य करने का प्रण किया उस माँझी का नाम स्वामी दयानंद था।

आईये मैक्समूलर महाशय द्वारा किये गए ऋग्वेद के भाष्य की तुलना अब हम स्वामी दयानंद द्वारा किये गए भाष्य से करते हैं जिससे पक्षपात रहित होकर सत्य का ग्रहण किया जा सके।

ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र १

मैक्समूलर - वे जो की उसके चारों ओर खड़े हैं जब की वह करता हैं। प्रकाशमान लाल घोड़े को कसते हैं, आसमान में ज्योति चमकती है।

स्वामी दयानंद- जो मनुष्य की उस महान परमेश्वर को , जो की हिंसा रहित, सुख देने वाला, सब जगत को जानने वाला तथा सब चराचर जगत में भरपूर हो रहा हैं, उपासना, योग द्वारा प्राप्त होते हैं. वे उस प्रकाश स्वरुप परमात्मा में ज्ञान से प्रकाशित होकर (आनंद धाम में) प्रकाशित होते हैं।

ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र २

मैक्समूलर  – वे जंगी रथ को जोड़ते है। दोनों ओर उसके (इन्द्र के) दोनों मन को भानेवाले घोड़े भूरा व वीर।

स्वामी दयानंद – जो विद्वान सूर्य ओर अग्नि के सबके इच्छा करने योग्य अपने अपने वर्ण के प्रकाश करनेहारे वा गमन के हेतु दृद विविध कला ओर जल के चक्र घुमने वाले पंखरूप यंत्रों से युक्त अच्छी प्रकार सवारियों में जुड़े हुए मनुष्य आदि को देश देशांतर में पहुँचाने वाले आकर्षण और वेग तथा शुकल पक्ष और कृष्ण पक्ष रूप दो घोड़े जिनसे सबका हरण किया जाता हैं, इत्यादि श्रेष्ठ गुणों को पृथ्वी, जल और आकाश में जाने- आने के लिए अपने रथों में जोड़े।

ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र ३

मैक्समूलर – तू जो प्रकाश करता हैं जहाँ पर की प्रकाश न था और रूप और मनुष्यों  जहाँ की कोई रूप न था। उषाओं के साथ उत्पन्न हुआ है।

स्वामी दयानंद – हे मनुष्य लोगों! जो परमात्मा अज्ञानरुपी अंधकार के विनाश के लिए उत्तम ज्ञान तथा निर्धनता, दारिद्र्य तथा कुरूपता- विनाश के लिए सुवर्ण आदि धन और श्रेष्ठ रूप को उत्पन्न करता है, उसको तथा सब विद्याओं को जो ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वरतने वाले है। उनसे मिल मिल कर जान के प्रसिद्द कीजिये। तथा हे जानने की इच्छा रखने वाले मनुष्य! तू भी उस परमेश्वर के समागम से इस विद्या को अवश्य प्राप्त हो।

ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र ४

मैक्समूलर - उसके पश्चात उन्होंने (मरुतों के) स्वाभाव के अनुसार स्वयं पुन: नवजात शिशुयों का रूप धारण किया अपना पवित्र नाम लेते हुए।

स्वामी दयानंद- जो जल सूर्य व अग्नि के संयोग से चोर छोटा हो जाता है, उसको धारण कर मेघ के आकार का बनके वायु ही उसे फिर फिर वर्षाता हैं, उसी से सबका पालन औए सबको सुख होता हैं।

ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र ५

मैक्समूलर - तूने हे इन्द्र, शीघ्र चलने वाले मरुतों के, जो की गढ़ को तोड़कर भी निकल जाते हैं, उनके छुपने के स्थान में भी चमकीली गउओं को पाया है।

स्वामी दयानंद- जैसे बलवान पवन अपने वेग से भारी भारी दृद वृक्षों को तोड़- फोड़ डालते हैं और उनको ऊपर-नीचे गिराते रहते हैं, वैसे ही सूर्य भी अपनी किरणों से उनका छेदन करता रहता हैं, इससे वे ऊपर नीचे गिरते रहते हैं. इसी प्रकार ईश्वर के नियम से सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश को भी प्राप्त होते रहते हैं।

इन ५ मन्त्रों का हिंदी भाष्य यहाँ प्रस्तुत किया गया हैं जिनसे पाठक यह निष्कर्ष आसानी से निकाल सकते हैं की मैक्समूलर  महोदय का भाष्य शुष्क, निरर्थक, शुद्ध अर्थ का बोध न करने वाला है, अपितु भ्रामक भी हैं।

वेदों का पूर्वाग्रह एवं अज्ञानता के कारण अशुद्ध भाष्य करने के बावजूद भी मैक्समूलर  की आत्मा में वेदों में वर्णित सत्य विद्या का कुछ कुछ प्रकाश अपने जीवन के अंतिम वर्षों में हुआ था जिसका उदहारण उन्ही के द्वारा लिखे गए कुछ प्रसंग हैं-

१. “नहीं, प्रत्युत मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं हैं की उपनिषदों तथा प्राचीन वेदांत दर्शन में प्रकाश की कुछ ऐसे किरणें विद्यमान हैं जो की उन अनेक विषयों पर प्रकाश डालेंगी जो की हमारे ह्रदय के अत्यंत निकट हैं “- सन्दर्भ- Chips from a German Workshop- vol 1 page 55

२. “जिस प्रकार वर्तमान काल का इतिहास अधुरा हैं मध्य युग के इतिहास बिना, मध्यकालीन इतिहास अधुरा हैं बिना रोम के इतिहास के , अथवा रोमे का इतिहास अधुरा हैं बिना यूनान के इतिहास के, इसी प्रकार हम पता करते हैं की इतिहास अधुरा समझा जावेगा बिना आर्य मानवता के उस प्रथम अध्याय (ऋग्वेद) के, जो की हमारे लिए वैदिक साहित्य में सुरक्षित किया गया हैं”- सन्दर्भ- The origin of Religion- page 149

३. भारत के प्राचीन साहित्य की बात कुछ और ही प्रकार हैं…वह साहित्य हमारे लिए मनुष्य जाति की शिक्षा का अध्याय खोल देता हैं जिसका उदहारण हमें कहीं अन्यत्र नहीं मिलता. जो व्यक्ति की अपनी भाषा अर्थात विचारों की उन्नति का सम्मान करता हैं, जो व्यक्ति की धर्म तथा मानवों की सर्वप्रथम वैचारिक अभिव्यक्ति को मान देता हैं, जो व्यक्ति की इन विद्यायों की प्रथम नींव को जानने का प्रथम इच्छुक हैं, जिन्हें की अर्वाचीन काल में ज्योतिष विद्या,चंद, व्याकरण व धातु के नाम से पुकारते हैं, जो व्यक्ति के दार्शनिक विचारों की आरंभिक अभिव्यक्ति को जानना चाहता हैं और साथ ही गृहस्थ, ग्रामीण तथा राजनैतिक जीवन आदि को, धार्मिक रीतियों, पुराण (ब्राह्मण ग्रन्थ) तथा समय के अनुसार चलने के आरंभिक प्रयत्नों को ज्ञात करना चाहता हैं, उसे भविष्य के लिए वैदिक कल के साहित्य पर वही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जो की यूनान, रोम तथा जर्मनी के साहित्य पर किया जाता हैं.सन्दर्भ- India what it can teach us- Max Muller Page 79-80

४. धर्म के सम्बन्ध में भाषा की भांति कहा जा सकता हैं की इसमें प्रत्येक नई बात पुरानी तथा प्रत्येक पुरानी बात नई हैं और की सृष्टि के आदि से कोई भी धर्म सर्वथा नया नहीं निकला- सन्दर्भ- chips from a german workshop-preface page 4

५. आधुनिक युग के लिए केवल एक ही कुंजी हैं अर्थात अतीत काल -सन्दर्भ- chips from a german workshop-page 211

६. संसार का सच्चा इतिहास सदा कुछ व्यक्तियों का ही इतिहास हुआ करता हैं और जिस प्रकार हम हिमालय की ऊंचाई का अनुमान गौरीशंकर पर्वत (everest) से लगाते हैं, उसी प्रकार हमें इंडिया का सच्चा अनुमान वेदवक्ता कवियों, उपनिषदों के ऋषियों, वेदांत व सांख्य दर्शन के रचयिताओं तथा प्राचीन धर्म शास्त्रकारों से लेना चाहिए, न की उन करोरों व्यक्तियों से जो की अपने ग्राम में ही जन्म लेकर मर जाते हैं तथा जो की एक पल के लिए भी अपने ऊँघने से, जीवन के स्वप्न से कभी जागृत ही नहीं हुए- India what it can teach us- Max Muller पेज ७६.

आज संसार में भोग वाद का बोलबाला हो गया है ,चारों तरफ अशांति,मत मतान्तर के झगडे, आतंकवाद, गरीबी, भूखमरी आदि फैल रही हैं। इस अशांत मानव जाति को प्रभु के सत्य ज्ञान अर्थात वेद का सहारा मिल जाये तो समस्त मानव जाती का कल्याण हो जायेगा।


डॉ विवेक आर्य

Wednesday, April 6, 2016

उज्जैन कुम्भ और ईसाई मिशनरी



उज्जैन कुम्भ और ईसाई मिशनरी


उज्जैन में सिंघस्थ कुम्भ का आयोजन होने जा रहा है। भेड़ की खाल में भेड़िये के रूप में ईसाई मिशनरी इस अवसर पर हिन्दुओं को बरगलाने का प्रयास करेगी। मिशनरी किस प्रकार से कार्य करती हैं। यह जानने की अत्यन्त आवश्यकता है। हिन्दू समाज मिशनरी के कार्य करने के तरीकों से बहुत कुछ सीख सकता है। ईसाई समाज द्वारा विभिन्न प्रकार से वृत्तचित्र बनाकर, अलग अलग शोध पत्र लिखकर, अनेक पुस्तकें लिखकर, अनेक परिचर्चा आदि के माध्यम से विश्व के समक्ष कुम्भ की नकारात्मक छवि बनाई जाएगी।
कुछ उदहारणों के माध्यम से हम ईसाईयों के इस षड़यंत्र को समझने का प्रयास करते हैं।

1. विदेशी मिशनरी को हर हिन्दू उत्सव में पर्यावरण प्रदुषण दीखता है। जैसे दीवाली पर पटाखे और होली पर पानी की फिजूलखर्ची। वैसे ही कुम्भ के आयोजन में भी उन्हें पर्यावरण प्रदुषण दिखेगा। कुम्भ में होने वाले हज़ारों यज्ञों को पर्यावरण प्रदुषण से जोड़ा जायेगा। करोड़ो लोग एक स्थान पर एकत्र होंगे तो उनके मल-मूत्र से भूमि एवं जल प्रदुषण होगा। ऐसा दिखाया जायेगा। यह खेल पर्यावरण रक्षा करने वाली विभिन्न NGO के माध्यम से किया जायेगा।

समीक्षा-कुम्भ तो केवल एक माह चलेगा। विश्व में सबसे अधिक प्रदुषण मांसाहार से होता है। केवल शाकाहार अपनाने से सम्पूर्ण विश्व में भारी संख्या में प्रदुषण कम होगा। यज्ञ से पर्यावरण रक्षा पर किसी प्रकार का शोध नहीं किया जाता और अगर किया भी जाता हैं तो उसके परिणामों को आगे नहीं आने दिया जाता।

2. सुधार के नाम पर कुम्भ को महिला विरोधी दिखाया जायेगा। कुम्भ में महामंडलेश्वर पदों पर पुरुष पर्याप्त संख्या में रहते हैं। ऐसे में विदेशी NGO इसे भी नारी जाति पर अत्याचार, नारी के अधिकारों का दमन के रूप में प्रदर्शित करेंगे। हाल में होली पर होलिका जलाने को भी नारी जाति पर अत्याचार करने वाला दिखाया गया है।

समीक्षा- चर्च व्यवस्था में सम्पूर्ण महत्वपूर्ण पदों पर पुरुष विद्यमान है। बाइबिल आदि तो बहुत काल तक नारी को पुरुष की पसली से पैदा हुआ मानने के कारण नारी में रूह (आत्मा) का न होना तक मानते रहे हैं। यूरोप के इतिहास में लाखों नारियों को चुड़ैल कहकर जिन्दा अनेक यातनाएं देकर जला दिया गया। चर्च ने कभी इन कुकृत्यों पर क्षमा नहीं मांगी। सत्य है अपना घर किसी को दीखता नहीं औरों के यहाँ पर सबको कमी दिखती हैं।

3. कुम्भ को जातिवादी करार दिया जायेगा। ऐसा दिखाया जायेगा की कुम्भ मेले में आने वाले सभी महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए लोग केवल ब्राह्मण हैं। अनुसूचित जन-जातियों एवं दलितों को कुम्भ में उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। महिषासुर को भी दलित करार देकर हिन्दुओं को अत्याचारी दिखाया जा रहा है।

समीक्षा- चर्च के इस कदम का मुख्य उद्देश्य तोड़ों और धर्म परिवर्तन करो की नीति हैं। ईसाई सदा से अनुसूचित जन-जातियों एवं दलितों को बरगला कर ईसाई बनाने की फिराक में रहते हैं। छुआछूत को समाप्त करने से ईसाईयों का यह प्रयास असफल होगा।

4. धार्मिकता को अश्लीलता में बदलने का प्रयास किया जायेगा। वेद आदि धर्मशास्त्रों के अनुपम सन्देश को दरकिनार कर विदेशी मीडिया में कुंभ को अश्लील सिद्ध करने का प्रयास किया जायेगा। पहले नागा साधुओं के चित्रों को विदेशी अख़बारों में एलियंस (दूसरे ग्रहों के विचित्र प्राणी) के रूप में चित्रित किया जायेगा। फिर कुम्भ मेले में उन्मुक्त सम्बन्ध जैसा व्यर्थ प्रलाप किया जायेगा। उदहारण के लिए नासिक कुम्भ में Times of India अख़बार में समाचार छपा था कि कुम्भ मेले के दौरान कंडोम की मांग कई गुना बढ़ गई । अंग्रेजी अख़बारों में ऐसी खबरों को पढ़कर शिक्षित हिन्दू युवा कुम्भ मेले से या तो नफरत करने लगेगा अथवा भोगवादी हो जायेगा।

समीक्षा-ईसाई समाज को अपने भीतर चर्च में फैले योन शोषण, पादरियों द्वारा ननों से बलात्कार आदि कभी नहीं दीखते। अपनी शर्म छिपाने के लिए दूसरों को दोष देना ठीक नहीं हैं।

5. दुकानदारी और व्यवसाय। पाठक सोच रहे होंगे की इस षड़यंत्र को करने के लिए विदेशियों के पास धन किधर से आता हैं। चर्च के व्यवसायिक मॉडल को समझने की हिन्दुओं को अत्यन्त आवश्यकता हैं। चर्च हर कार्य को प्रोफेशनल तरीकें से करता हैं, पहले चर्च अपना धन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में लगाता है। उदहारण के लिए Church of England का अरबों पौण्ड इन कंपनियों में लगा हैं। फिर उन्हीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत जैसे देशों में व्यवसाय करने हेतु भेज देता है। देश की अनेक कंपनियों में चर्च विदेश निवेश के नाम पर पैसा लगाता हैं। मीडिया ग्रुप्स में भी चर्च पैसा लगाकर उनसे अपने समर्थन में काम कराया जाता हैं। कुम्भ मेले के दौरान ट्रेवल एजेंसियों, उपभोक्ता केंद्रों आदि के माध्यम से वही से धन कमाता है और वही पर खर्च करता हैं। इस मॉडल को समझने से हिन्दू समाज सम्पूर्ण विश्व में वेदों के सन्देश का प्रचार कर सकता हैं।

समीक्षा- स्वदेशी अपनाने से ईसाईयों के व्यापार की कमर सदा के लिए टूट सकती हैं। हिन्दुओं को भी इसी तरीकें से ईसाईयों को हिन्दू धर्म में दीक्षित करना चाहिए। स्वदेशी से विदेशी ताकतों का यह षड़यंत्र निश्चित रूप से असफल हो सकता है।

6. सेवा प्रकल्प- ईसाई लोग सेवा प्रकल्प के मुखोटे लगाकर कुम्भ में प्रचार करते हैं। जैसे बीमारों आदि के लिए चिकित्सा सुविधा मदर टेरेसा की मिशनरी ननें देंगी। उससे अपरिपक्व हिन्दू जनमानस के मन में इनके प्रति आदर और सम्मान भाव पनपता हैं। इसका दीर्घकालिक परिणाम यह निकलता है कि इनके ईसाई धर्मान्तरण जैसे कुकृत्यों पर हिन्दू समाज मौन धारण कर लेता हैं और अपने भाइयों को विधर्मी बनने देता हैं।

समीक्षा- हिन्दू संगठनों को अपने खुद के सेवा प्रकल्प खोलने चाहिए। ईसाईयों के सेवा की आड़ में किये गए धर्मांतरण के कुचक्र को सभी के समाने प्रकाशित करना चाहिए।

ऐसे अनेक सन्दर्भ हम यहाँ पर दे सकते है। जिनसे चर्च कुम्भ मेलों में अपना सुनियोजित षड़यंत्र कैसे चलाता हैं। पहले से सावधान होकर कार्य करने से इस सुनियोजित षड़यंत्र को नष्ट किया जा सकता हैं।

हिन्दू समाज को क्या करना चाहिए-

1. कुम्भ में वेद आदि धर्म शास्त्रों का प्रचार-प्रसार करना चाहिए। 
2.शिवाजी, महाराणा प्रताप, बन्दा बैरागी, हरि सिंह नलवा जैसे महान क्षत्रियों, स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय सरीखे महान समाज सुधारकों, राम प्रसाद बिस्मिल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्र शेखर आज़ाद सरीखे महान क्रांतिकारियों के जीवन का कुम्भ मेलों में सिनेमा द्वारा मंचन होना चाहिए। 
3. अखाड़ों के नागा साधुओं के माध्यम से शाही स्नान को लेकर वाद-विवाद जैसी बातों को पहले ही सुलझाया जाना चाहिए। उसके स्थान पर ठोस धर्म प्रचार को महत्व देना चाहिए। 
4. मुसलमानों और ईसाईयों पर कुम्भ में कार्य करने पर नियंत्रण होना चाहिए। निस्स्वार्थ भाव से कार्य करने वालो को ही अनुमति होनी चाहिए। 
5. हिन्दुओं को धार्मिक, सदाचारी बनने, संगठित होने एवं छुआछूत मिटाने का संकल्प दिलवाना चाहिए।
6. 1200 वर्षों में मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा किये गए अत्याचारों से हिन्दुओं को परिचित करवाया जाना चाहिए। 
7. गोवा जैसे प्रदेश में ईसाईयों द्वारा किये गए मतान्ध अत्याचार से हिन्दुओं को परिचित करवाया जाना चाहिए।

आप अपने विचार और अनुभव अवश्य लिखे। अच्छा लगे तो शेयर अवश्य कीजिये।

उज्जैन कुम्भ में वैदिक धर्म प्रचार हेतु जो भी युवा अपना सहयोग देना चाहते हैं मुझसे संपर्क करें।

डॉ विवेक आर्य

Sunday, April 3, 2016

सीधे 33 करोड़पति बन जाओगे हास्यपद ।



नमस्ते मित्रो
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बहुत दिनों से एक राग प्रलाप चल रहा है ( कुछ स्वार्थियों द्वारा ) की जब कोई आर्य भाई कोई पोस्ट डालता है तो कुछ भाई कहते है की आप हिन्दुओं को तोड़ रहे है , आज आप को और हमें चिंतन करना और करने की आवश्यकता है की आखिर हिन्दुओं(आर्यों) को तोड़ा किसने ?
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1 - आर्य समाज ने हमें जातिवाद से मुक्ति दिला कर गुरुकुल शिक्षा के लिए प्रेरित किया ,जहाँ सब विधार्थी अपने कर्म और स्वभाव से ही वर्ण चुनते है

2- अब इससे उलट हमारे पोराणिक पंडो (ब्राह्मण नहीं ) ने जातिवाद और छुआ छूत को बढाबा दिया जैसे की एक कहाबत इनकी सभी को मशहुर है की - अगर कोई शुद्र वेद मन्त्र पढ़े य सुने तो उनके कान में पिघला हुआ सीशा डलवा दो

3 - आर्य समाज ने एक ईश् जो सबका मलिक है उसकी पूजा उपासना के लिए लोगों को प्रेरित किया ।

4 - इससे उलट उन लोगों ने तेतीस करोड़ देवी देवताओं में हमें बाँट दिया जिससे की हम अपने तेतीस करोड़ के चक्कर में ही लगे रहे और विधर्मी अपना काम कर जाए ।

5 - आर्य समाज ने हमें अंधविश्वास से दूर रहने और पाखंड को अपने नजदीक न आने की सलाह दी और पुरुसार्थ करने पर जोर देने के लिए कहा ।

6 - लेकिन पंडो ने इससे उलट हमें अंधविश्वास की गलियों में धकेला - उधारण के लिए "सोमनाथ मंदिर " जहाँ पंडो ने अपनी कायरता दिखा कर निर्दोष लोगों को मरवाया और मंदिर लुट्वाया ।

6- आर्य समाज ने जितने भी ये पाखंडी बाबा है उनका विरोध किया ।

7 - पंडों ने इससे उलट कुकरमुत्तो की तरह नए नए उगने बाले बाबाओं का समर्थन किया और उनके धंधे में शामिल भी हुए ( निर्मल बाबा , राधे माँ , रामपाल , लाल किताब बाले बाबा , )

8- आर्य समाज ने सभी को वर्ण उनके कर्म के हिसाब से दिया ।

9- इससे बिलकुल उलट पाखंडी पोपो ने जन्म से शराबियों और वेस्याव्रती करने वालों को भी "ब्राह्मण" कहने पर जोर दिया ।

9- आर्य समाज ने कभी भी साईं , गाजी ,पीर ,फ़कीर , का समर्थन नहीं किया और बल्कि सबसे पहले इसका विरोध किया ...

10- पंडों ने इससे उलट साईं ( मुल्ले ) को अपना धंदा बना लिया की अब राम और कृष्ण की उन्हें जरुरत नहीं ।
.......
..
..अब सोचिये हिन्दुओं को आर्य समाज ने तोडा य कुछ स्वार्थी लोगों की जमात ने ?

साभार- फेसबुक 

Saturday, April 2, 2016

डॉ अम्बेडकर बनाम अम्बेडकरवादी



डॉ अम्बेडकर बनाम अम्बेडकरवादी 

एक नया ड्रामा डॉ अम्बेडकर के नाम पर प्रचलित हुआ है।  इसका उद्देश्य केवल डॉ अम्बेडकर के नाम का प्रयोग कर अपरिपक्व लोगों को भड़काता है। इनकी मान्यताएं डॉ अम्बेडकर की मान्यताओं के सर्वथा विपरीत है। देखिये कैसे-

1. डॉ अम्बेडकर- आर्य लोग बाहर से नहीं आये थे। Aryan invasion theory पश्चिमी लेखकों की एक कल्पना मात्र है। 
 अम्बेडकरवादी- दलित लोग भारत के मूलनिवासी हैं। उन्हें ब्राह्मण आर्यों ने हरा कर इस देश पर कब्ज़ा कर लिया। सभी ब्राह्मण आर्य हैं, सभी दलित अनार्य हैं। 

2. डॉ अम्बेडकर - इस्लाम समभाव एवं भ्रातृभाव का सन्देश देने में व्यवहारिक रूप से सक्षम नहीं है। इसलिए 1947 में पाकिस्तान बनने पर सभी दलित भारत आ जाये। इतिहास इस बात का गवाह है। 
 अम्बेडकरवादी - इस्लाम एकता और भाईचारे का सन्देश देता हैं। हमें इस्लाम स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं हैं। 

3. डॉ अम्बेडकर - ईसाई समाज धन, शिक्षा, नौकरी, चिकित्सा सुविधा आदि के बल पर दरिद्र, अशक्त, पीड़ित हिन्दुओ का धर्म परिवर्तन करता हैं। यह गलत हैं। 
अम्बेडकरवादी- धन लो और ईसाई बनो। बाप बड़ा न भइया सबसे बड़ा रुपया। ईसाईयों की इस कुटिल नीति का कभी विरोध नहीं करना। 

4. डॉ अम्बेडकर - राष्ट्रवाद सबसे ऊपर है और रहेगा। राष्ट्र से ऊपर कुछ नहीं। 
 अम्बेडकरवादी- हम भारत की बर्बादी का नारा लगाने वालों के साथ है। स्वहित पहले राष्ट्रवाद बाद में। 

5. डॉ अम्बेडकर- संविधान का सम्मान करना और उसका पालन करना हमारा नैतिक कर्त्तव्य हैं। 
अम्बेडकरवादी- हम संविधान विरोधी इस्लामिक फतवों का समर्थन करते हैं। हम संविधान के आधार पर फांसी चढ़ाये गए अफ़जल गुरु और याकूब मेनन की फांसी का विरोध करते हैं। जहाँ जैसे काम निकले वैसा करो।  

6. डॉ अम्बेडकर - देश तोड़ने वाली विदेशी ताकतों के हाथ की कठपुतली बनना गलत है। अनेक प्रलोभन मिलने के बाद भी मुझे अस्वीकार है। 
 अम्बेडकरवादी- दुकानदारी पहले देश बाद में। NGO का धंधा तो चलता ही विदेशी पैसे के बल पर हैं। विदेश से पैसे लो देश को बर्बाद करो। 

7.  डॉ अम्बेडकर- देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों और भारत के वीर सैनिकों का सम्मान हो। 
 अम्बेडकरवादी- भारतीय सेना पर हमला करने वाले, पाक समर्थक कश्मीर के आतंकवादियों के लिए ज़िंदाबाद। असली सिपाही वही है। भारतीय सेना ने कश्मीर पर कब्ज़ा किया हुआ हैं। 

8 . डॉ अम्बेडकर - वन्दे मातरम, भारत मत की जय आदि नारा लगाने का मैं समर्थन करता हूँ। 
  अम्बेडकरवादी- जय अम्मी, जय हिन्द का नारा लगाएंगे मगर भारत माता की जय और वन्दे मातरम कहने में दिक्कत हैं। क्यूंकि हम तो सहूलियत पर विश्वास करते है। 

9. डॉ अम्बेडकर - देश की उन्नति करने वालों के साथ मिलकर काम करना गलत नहीं हैं। 
 अम्बेडकरवादी- हम केवल नास्तिकों, मुसलमानों और ईसाईयों का समर्थन करेंगे। क्यूंकि बाकि सभी ब्राह्मणवादी और मनुवादी हैं। 

10. डॉ अम्बेडकर- जीवन में आगे बढ़ने के लिए पुरुषार्थ करो, सकारात्मक कार्य करो। सदाचारी, संयमी, शुद्ध आचरण वाला, प्रगतिशील बनो। 
 अम्बेडकरवादी- हम केवल विरोध करना जानते हैं। चाहे अच्छी बात हो चाहे बुरी बात हो। चिल्ला चिल्ला कर अपना हक लेंगे। मगर काम कुछ नहीं करेंगे। 

11. डॉ अम्बेडकर-  मांस खाना गलत है। 
 अम्बेडकरवादी- बीफ़ पार्टी करना हमारा मौलिक हक हैं। मांस खाने में कोई हिंसा नहीं हैं। गोमांस खाएंगे अम्बेडकरवादी कहलाएंगे। गोमांस खाने से हम मुसलमानों के मित्र बन जाते हैं। 

12  डॉ अम्बेडकर- बुद्ध के अहिंसा के सन्देश पर चलो।
अम्बेडकरवादी- अहिंसा का तगमा गले में लटका कर हम सदा वैचारिक हिंसा और प्रदुषण करते हैं क्यूंकि हम अम्बेडकरवादी मत वाले हैं। 

यहाँ कुछ उदहारण दिए गए हैं। मित्रों अम्बेडकरवादी मत के विषय में अपने विचार अवश्य लिखिए। इस मत को चलाने वालों का डॉ अम्बेडकर की मान्यताओं से कुछ भी लेना देना नहीं हैं। ये लोग केवल डॉ अम्बेडकर के नाम का प्रयोग कर अपनी रजनीतिक रोटियां सेकते हैं। डॉ अम्बेडकर के नाम पर देश विरोधी, समाज विरोधी कार्यों को करते हैं।  इनके दुष्प्रचार के कारण जाने-अनजाने में अनेक दलित युवा भ्रमित होकर अपना और देश का अहित करने में लग गए हैं। 

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नोट- गाली गलोच, असभ्य भाषा आदि का प्रयोग करने के स्थान पर अम्बेडकरवादी इस पोस्ट को पढ़ कर आत्मचिंतन करें की वह डॉ अम्बेडकर के समर्थक हैं अथवा अम्बेडकरवाद मत के समर्थक हैं। 

डॉ विवेक आर्य