ईसायत और हिंदूइस्म में fundamental अंतर -
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*लेखक* - *DR. DAVID FRAWLEY*
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ईसाई धर्मांतरण इस बात पर आधारित है कि
*यीशु में विश्वास के द्वारा सभी पापों की माफ़ी मिल सकती है और हमेशा के लिए उद्धार हो सकता है।*
यह जरूरी है कि हिन्दू और दूसरे लोग जिन्हें धर्मान्तरित करने की कोशिश की जाती है, वे इसके पीछे के गलत विचारों और खयाली पुलाव को समझें।
_ईसाई पंथ पाप और उससे उद्धार (Salvation) की विचारधारा पर आधारित है। ईसाई मत के अनुसार आदम और हव्वा (ईव) पहले पुरुष और महिला थे और बाइबिल के अनुसार वे शैतान के बहलावे में आकर ईश्वर के विरुद्ध गए और पहला पाप किया। उस पहले पाप के कारण हम सभी जन्म से ही पापी पैदा होते हैं। हमारा उद्धार ईश्वर के एक ही बेटे जिनका नाम यीशु है, उनके द्वारा होता है। यीशु को ईश्वर ने धरती पर हमारा उद्धार करने के लिए भेजा था। यीशु ने हमें हमारे और आदम और हव्वा के पहले पाप से बचाने के लिए सूली (cross) पर अपनी जान दी, और उनके खून ने वे पाप धो दिए।_
*जो यीशू को अपना उद्धारक स्वीकार करके ईसाई बनते हैं उनको तुरंत पापों से बचाने का विश्वास दिलाया जाता है। यीशु पर विश्वास ही पाप से मुक्ति का आधार है, न कि हमारे खुद के कर्म।*
ईसाई मत के अनुसार, यीशू को स्वीकार करने के अलावा और कुछ भी करने से हमारा बचाव नहीं हो सकता।
*जो यीशू को स्वीकार नहीं करते वे हमेशा के लिए अभिशप्त हो जाते हैं, चाहे वो कितने भी अच्छे और विवेकशील क्यों ना हों।*
यीशू को स्वीकार करने या ना करने का निर्णय लेने के लिए हर इंसान को सिर्फ एक ही जीवन मिलता है, इसके बाद यह निर्णय अनंतकाल तक बदला नहीं जा सकता।
_मृत्यु के बाद जो लोग बचा लिए गए हैं, वे स्वर्ग जाते हैं, जहाँ यीशु रहते हैं। ईसाई मत में स्वर्ग सामान्यतः एक भौतिक संसार माना जाता है, जिसके लिए भौतिक शरीर की आवश्यकता होती है। यह ईसाई मत के प्रलय के दिन मृत शरीर के पुनर्जीवित होने की धारणा में बताया जाता है, और यही कारण है कि ईसाई मृत शरीर को दफनाते हैं।_
यह ईसाई धर्मशास्त्र का एक संक्षिप्त वृत्तान्त है, इसमें अलग-अलग ईसाई सम्प्रदायों की मान्यताओं में थोड़ा बहुत अंतर है ।
*बिना यीशू के कोई ईसाईयत नहीं और यीशू में विश्वास के अलावा कोई उद्धार नहीं ।*
यीशू में विश्वास के द्वारा उद्धार और स्वर्ग में जगह पाने की धारणा ही ईसाई धर्मपरिवर्तन के प्रयत्नों और ईसाई बनाने के लिए किये जाने वाले *‘बप्तिस्मा’ (baptism)* अनुष्ठान का आधार है।
*यीशू और बाइबल पर जोर देने वाले Evangelical ईसाई , जैसे कि अमेरिका से भारत आते हैं, वे इस पंथ की मान्यता को शब्दशः लेते हैं और यह दावा करते हैं कि संसार बाइबल के अनुसार सिर्फ छह हजार वर्ष ही पुराना है । कुछ आधुनिक ईसाई जो कि अपने धर्म में गैर-ईसाइयों (जो कि मानव जाति का ज्यादातर हिस्सा है) के प्रति अकारण भर्त्सना से शर्मिंदा होते हैं, वे इस भर्त्सना को सांकेतिक कह कर इससे छुटकारा पाने की कोशिश करते हैं।*
वही ,
_हिन्दू धर्म सभी लोगों की मान्यताओं की स्वतंत्रता का सम्मान करता है, यह कहता है कि अंत में केवल एक ही सत्य है और सभी अस्तित्व के पीछे चेतना एक ही है। हिन्दू धर्म कहता है कि हर व्यक्ति को स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वह जिस भी आध्यात्मिक पथ की ओर आकर्षित होता है उसे अपना सके, यहाँ तक कि कोई भी उपलब्ध पथ पर ना जाने की भी स्वतंत्रता होनी चाहिए।_
इस धार्मिक विचारों की बहुलता का यह अर्थ नहीं है कि हिन्दू धर्म सभी धार्मिक धारणाओं को सही या बराबर मानता है। विज्ञान की ही तरह हिन्दू विचार भी अलग अलग सिद्धांतों के अस्तित्व को स्वीकार करता है लेकिन ये सिद्धांत अनुभव के द्वारा सिद्ध होने चाहिएं, केवल किसी के मान लेने मात्र से वे सही नहीं कहे जा सकते।
हिन्दू धर्म हमें अपने अन्दर की प्रकृति के बारे में जानकारी के लिए स्वयं के मन का शोध करके सत्य के प्रत्यक्ष अनुभव पाने को प्रोत्साहित करता है, हिन्दू धर्म अनेक धार्मिक विचारधाराओं और ध्यान की विधियों के द्वारा यह करना सिखाता है।
*उपनिषद और भगवद्गीता जैसे पवित्र हिन्दू ग्रन्थ सर्वोच्च सत्य या ब्रह्म को एक अनंत और चिरंतन (कभी नष्ट ना होने वाली) सत्ता – एक चेतना – और परम आनंद (सच्चिदानन्द) की तरह वर्णित करते हैं जो कि सभी नामों और आकारों से परे हैं। यह अनंत सत्ता ही सभी का ‘स्व’ (खुद) है, जिसे ‘आत्मन’ भी कहते हैं और जो सभी प्राणियों में बसता है।*
यह सर्वोच्च सत्य आपके अन्दर खुद की तरह रहता है, आपके भौतिक शरीर की तरह नहीं, बल्कि आपकी अन्दर की चेतना है, आपकी सारी सोच और अनुभव का आंतरिक प्रेक्षक है।
हिन्दू धर्म में आत्मा व्यक्ति की स्वयं की चेतना की शक्ति को कहते हैं, यह कई जीवन लेती है, जिनमें यह अपनी चेतना का विकास करते हुए परम से अपनी एकात्मता (एक होने) के सत्य को पहचानती है। हरेक आत्मा अज्ञानता और कर्म के बंधन से बंधी होती है, इसके ही कारण उसका पुनर्जन्म होता है और दुःख मिलता है। अतः अपने सही स्वरुप को पहचान ना पाने से ही मनुष्य अपने बाहरी स्वरुप और जन्म और मृत्यु के चक्र के प्रति आसक्त हो जाता है।
_हिन्दू धारणा कर्म और पुनर्जन्म की है, न कि पाप और उससे उद्धार और सिर्फ एक ही जीवन होने की । सभी आत्माएं अंत में मुक्ति पाएंगी और अपने शुद्ध चेतना के स्वभाव में वापस जायेंगी। लक्ष्य स्वर्ग प्राप्ति का नहीं, बल्कि आत्मबोध का है। यह धारणा कोई महिमामंडित भौतिक संसार (स्वर्ग) की नहीं बल्कि एक ऐसे परमानंद से पूर्ण चेतना की है जो शरीर और मस्तिष्क से परे है।_
आस्थाओं के बीच संवाद
दूसरी आस्थाओं से संवाद के समय हमें अपने सिद्धांतों के प्रति बहुत स्पष्ट होने की आवश्यकता है। हमारे यहाँ ईसाई पाप से मुक्ति (salvation) और हिन्दू ‘मोक्ष’ को एक जैसा मानने की एक सतही सोच और बिना प्रश्न किये कुछ भी स्वीकार कर लेने का तरीका चला आ रहा है। यही बात संस्कृत शब्द ‘धर्म’ को आस्था और पंथ (religion) के ही बराबर मान लेने की बात के बारे में कही जा सकती है।
_हिन्दू धर्म में हमारे पूर्वजों या शैतान के कोई ‘पहला पाप’ की धारणा नहीं है, जिसके लिए हमें प्रायश्चित करना पड़े।_
*ग़लत कर्म और अज्ञानता ही हमारे दुखों का कारण है । यह अज्ञानता सत्य के ज्ञान और एक उच्चतर चेतना के विकास से दूर होती है, न कि सिर्फ आस्था से। हमारे हालात हमारे कर्मों के परिणाम स्वरुप हैं और इसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं।*
कुछ कर्म, जैसे दूसरों को नुक्सान पहुँचाना स्वाभाविक रूप से गलत होते हैं। ये किसी देवता की आज्ञा पर निर्भर नहीं करते, बल्कि धर्म और प्राकृतिक नियमों को तोड़ने पर निर्भर करते हैं।
उद्धार या आध्यात्मिक बोध प्रतिनिधि द्वारा नहीं
हिन्दू धर्म में उद्धार या आध्यात्मिक बोध प्रतिनिधि द्वारा नहीं होता। न यीशु और न ही कोई दूसरी हस्ती आपको बचा सकती है या आपको सत्य का बोध करवा सकती है। असलियत तो यह है कि आपको बचाने की जरूरत ही नहीं है!
_आपको केवल अपने वास्तविक रूप और अपने अस्तित्व की वास्तविकता को पहचानना होगा, जो कि दोनों एक ही हैं। यह बोध ही आपको शरीर और मन के प्रति लगाव से उपजी पीड़ा से परे ले जाता है। अज्ञानता से परे जाने के लिए साधना या आध्यात्मिक अभ्यास की जरूरत होती है, जो कि हिन्दू शास्त्रों में धार्मिक जीवन शैली, अनुष्ठान, मंत्र, योग और ध्यान द्वारा परिभाषित होती है।_
केवल किसी पर विश्वास कर लेने या किसी को अपना उद्धारक मान लेने से व्यक्ति अपने कर्मों और अज्ञानता से परे नहीं जा सकता। यह केवल खयाली पुलाव है । जिस प्रकार कोई दूसरा व्यक्ति आपके बदले खाना नहीं खा सकता या आपके बदले शिक्षित नहीं हो सकता, उसी प्रकार आपको अपने शरीर और मन की शुद्धि करके सार्वभौमिक चेतना तक पहुँचने के लिए के लिए स्वयं ही आध्यात्मिक क्रियाएं करनी होती हैं।
ऐसा स्वर्ग जिसके लिए भौतिक शरीर आवश्यक है, वह संसार और भौतिकता के प्रति लगाव का ही दूसरा रूप है, न कि हमारे स्वयं के वास्तविक रूप की समझ। आत्मा को अपने आनंद के लिए शरीर की आवश्यकता नहीं होती। चेतना का शुद्ध प्रकाश ही आत्मा का वास्तविक स्वरुप है।
हम यीशु के द्वारा दिखाई गयी करुणा का सम्मान कर सकते हैं, लेकिन पाप और उद्धार की ईसाई धारणा सत्य से बहुत दूर है। यह धारणा हमारे वास्तविक स्वरुप या जीवन का वास्तविक उद्देश्य सामने नहीं लाती।
हमें विभिन्न धर्म/पंथ की विचारधाराओं और उनके विभिन्न लक्ष्यों की सही समझ होनी चाहिए।
केवल आत्मबोध ही मुक्ति ला सकता है।
*ईसाई पंथ की विचारधारा, और इसमें आज वेटिकन द्वारा समर्थित विचारधारा भी आती है, यह नहीं सिखाती और इसके उद्धार का लक्ष्य बिलकुल अलग है।
नोट- इस लेख के कुछ बिंदुओं पर संपादक मंडल सहमत नहीं है। मगर पदमश्री लेखक का यह लेखक सामाजिक लाभ के चलते पठनीय है।
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