Sunday, March 3, 2019

लोहारू का मुस्लिम नवाब और आर्यसमाज का संघर्ष



लोहारू का मुस्लिम नवाब और आर्यसमाज का संघर्ष

(29 मार्च 1941 को लोहारू कांड के उपलक्ष पर प्रकाशित)

डॉ विवेक आर्य



लोहारू 1947 से पहले एक मुस्लिम रियासत थी।पंजाब प्रांत में हिसार, शेखावाटी और बीकानेर से घिरा हुआ है छोटा सा नवाबी राज्य लोहारु। लोहारू की स्थापना अहमदबक्शखां ने 1803 में की थी। अंग्रेजों ने उन्हें यह रियासत जाट राजा भरतपुर के विरोध में सहायता करने के लिए दी थी। सन् 1935 के मध्य महीनों में तमाम जनता की निगाह में आ गया जबकि यहां के तेजस्वी किसानों ने नवाब की तानाशाही के खिलाफ आवाज बुलंद की।

 रियासत का नवाब मतान्ध मुस्लिम था।
ठाकुर देशराज ने जाट  जनसेवक 1949, पृष्ठ 499-500  में लिखा है

" एक सौ वर्ष तक नवाब अहमदबक्शखां और उसके वंशजों ने शांति के साथ राज्य किया किंतु इस अरसे में भी वे लगान में बढ़ोतरी करते रहे। जमीन के हक भी कम करते रहे। सन् 1909 में उन्होंने पहले पहल बंदोबस्त कराया जिसमें उनका एक विश्वेदारी का हिस्सा स्वीकार किया किंतु सन् 1923 में जो बंदोबस्त कराया उसमें उनके जमीन के हक़ विश्वेदारी को  कम कर दिया और इस तरह की बातें जोड़ दी जिससे हक विरासत का सिलसिला भी खत्म होता था। लगान भी बढ़ाकर 70,000 से 94,000 कर दिया और एक नई लाग ऊंट टैक्स के नाम पर और लगा दी।

प्रजा के भोलेपन से जो भी लाभ उठाये जा सकते हैं, लुहारु के नवाब ने उठाए। वे एक फिजूल खर्च शासक थे। अपने बढे हुये खर्चों की पूर्ति के लिए उन्होंने अनेक टैक्स लगाए। जिनमें विधवा विवाह टेक्स भी था। चूंकि जाटों में विधवा विवाह का चलन है इसलिए उन्हें इस टैक्स से अच्छी आमदनी होती थी। टैक्स और ज्यादतियाँ दिन पर दिन बढ़ती जाती थी। फिर भी नवाब साहब के खर्चों का पूरा नहीं पड़ता था। इतनी छोटी सी रियासत के मालिक नवाब ने रंग बिरंगी की मोटरें खरीदी। यही क्यों हवाई जहाज भी खरीदा। गर्ज यह है कि उनके खरचों को पूरा करने में प्रजा के नाक में दम आ रहा था। नवाब साहब इतने पर भी आतंक के साथ हुकूमत करने के पक्षपाती थे। चाहे जिसे जेल में ठूंस देने, तंग करने, सबक सिखाने की बातें उनके लिए मामूली थी। देहात में शिक्षा का प्रबंध करना तो दूर उन्होंने किसानो द्वारा कायम की हुई पास पाठशालाओं को भी उठवा दिया। सन् 1935 के आरंभ में वहां के किसानों ने आंदोलन आरम्भ कर दिया। आंदोलन कर कम करने और हिन्दुओं के अधिकारों में सरकारी हस्तक्षेप कम करने के लिए था। आंदोलनकारियों के विरुद्ध नवाब ने दमनचक्र शुरू कर दिया। नवाब ने चहड़ के नंबरदार रामनाथ जी और सदाराम जी सिंघाणी के तिरखाराम और सरदाराराम जी तथा उदमीराम जी पहाड़ी को गिरफ्तार कर लिया।
पुलिस ने बड़ी बेरहमी के साथ लाठीचार्ज किया और सैकड़ों आदमी जमीन पर बिछा दिए। इसके बाद गांव की लूट की गई। सामान मोटरों पर लादकर लोहारू को भेजा जाने लगा! चौधरी सहीराम और अर्जुन सिंह के मकानों में पुलिस ने घुसकर नादिरशाही ढंग से लूट की। स्त्रियों को भी बेइज्जत किया। फर्श खोद डाले गए। छत्ते तोड़ दी गई। सवेरे के 9 बजे से लेकर शाम के 6 बजे तक यह लूटपाट जारी रही। उसके बाद पचासों आदमियों को गिरफ्तार किया गया। उसके बाद तारीख 7 अगस्त 1935 को सिंघाणी पर नवाब ने हमला कराया। यहां फायर किया गया जिसे सैंकड़ों आदमी घायल हुए और पचासों मरणासन्न हो गए। गोली चलने का दृश्य बड़ा मार्मिक था। सिंहाणी गोलीकांड में जिन लोगों ने गोली खाकर बलि दी थी उनकी नामावली ‘गणेश’ अखबार के 6 सितंबर सन 1935 के अंक में इस प्रकार प्रकाशित हुई थी।

शहीद-1. लालजी वल्द कमला अग्रवाल वैश्य, 2. श्योबक्स हैंड वल्द धर्मा अग्रवाल वैश्य, 3. दुलाराम वल्द पातीराम जाट, 4. रामनाथ वल्द बस्तीराम जाट, 5. पीरु वल्द जीरान जाट, 6. भोला वल्द बहादुर जाट, 7. शिवचंद वल्द रामलाल जाट, 8. बानी वल्द मामचंद जाट, 9. अमीलाल वर्ल्ड सरदार जाट, 10. गुटीराम वल्द मोहरा जाट, 11. शिवचंद वल्द खूबी धानक सिंघानी के, 12. पूरन वल्द चेता जाट, 13. हीरा वल्द नानगा जाट, 14. कमला वल्द गोमा जाट जगनाऊ के, 15. धनिया जाट, 16. रामस्वरुप जाट का लड़का गोठरा के, 17. अमी लाल पीपली माम्चन्द वल्द गोधा खाती सिंघानी, 18. सुंदरी वल्द झंडू जाट सिंघानी, 19. माला वल्द झादू सिंघानी आदि।

इस अत्याचार की सुचना आर्यसमाज के शीर्घ नेता स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तक पहुंची। उन्होंने आर्यसमाज के कार्य को लोहारू में गति देने का निर्णय लिया। 
आर्यसमाज का जब प्रचार कार्य लोहारू में आरम्भ हुआ तो मुस्लिम नवाब को यह असहनीय हो गया कि आर्यसमाज उसके रहते कैसे समाज सुधार करने की सोच कैसे सकता है। लोहारू में समाज सुधार के लिए आर्यसमाज की स्थापना हेतु आर्यसमाज के प्रधान सेनानी स्वामी स्वतंत्रानन्द जी लोहारू पधारे। उनके साथ स्वामी ईशानन्द, न्योननंद सिंह (स्वामी नित्यानंद), स्वामी कर्मानन्द,भरत सिंह शास्त्री, ठाकुर भगवंत सिंह आदि प्रमुख आर्य सज्जन थे। 29-30 मार्च सन 1941 को आप सभी जुलुस निकालते हुए लोहारू की गलियों से निकले। नवाब ने अपने मुस्लिम गुंडों द्वारा जुलुस पर आक्रमण करवा दिया। स्वामी स्वतंत्रानन्द के सर पर कुल्हाड़े से हमला किया गया। उनका सर फट गया। बाद में रोहतक जाकर दिल्ली के ट्रैन मैं बैठकर उन्होंने टांकें लगवाये। अनेक आर्यों को शारीरिक हानि हुई। मगर जुलुस अपने गंतव्य तक पंहुचा। सम्पूर्ण लोहारू में आर्यों पर हुए अत्याचार को लेकर नवाब की घोर आलोचना हुई। आर्यसमाज की विधिवत स्थापना हुई। आर्यसमाज के सत्यवादी एवं पक्षपात रहित आचरण से नवाब प्रभावित हुआ। नवाब ने स्वामी स्वतंत्रानन्द को अपने महल में बुलाकर क्षमा मांगी। समाज सुधार के लिए आर्यसमाज ने लोहारू और उसके समीप विभिन्न विभिन्न ग्रामों में पाठशाला की स्थापना करी। यह पाठशालाएं आर्यों के महान परिश्रम का परिणाम थी। नवाब के डर से आर्यों को न कोई सहयोग करता था। न भोजन देता था। चार-चार दिन भूखे रहकर उन्होंने श्रमदान दिया। तब कहीं जाकर पाठशालाएं स्थापित हुई। दरअसल लोहारू में उससे पहले केवल एक इस्लामिक मदरसा चलता था जिसमें केवल उर्दू पढ़ाई जाती थी। अधिकतर मुस्लिम बच्चे ही पढ़ते थे। एक आध हिन्दू बच्चा अगर पढ़ता भी था तो उसके ऊपर मौलवी इस्लाम स्वीकार करने का दबाव बनाते रहते थे। इसलिए हिन्दू जनता प्राय: अशिक्षित थी। आर्यसमाज द्वारा स्थापित पाठशाला में सवर्णों के साथ साथ दलितों को सभी को समान्तर शिक्षा दी जाती थी।

1947 के पश्चात नवाब जयपुर चला गया। एक बार स्वामी ईशानन्द उनसे किसी समारोह में मिले। स्वामी जी ने नवाब से पूछा की अपने आर्यों पर इतना अत्याचार क्यों किया जबकि वे तो उत्तम कार्य ही करने लोहारू आये थे। नवाब ने उत्तर दिया। अगर आर्यसमाज के प्रभाव से मेरी रियासत की जनता जागृत हो जाती तो मेरी सत्ता को खतरा पैदा हो जाता। अगर हिन्दू पढ़-लिख जाते तो मेरी नवाबशाही के विरोध में खड़े हो जाते। इसलिए मैंने आर्यसमाज का लोहारू में विरोध किया था।

पाठक समझ सकते है कि हिन्दू जनता पर मुस्लिम शासक कैसे इतने वर्षों से अत्याचार करते आ रहे है। इसीलिए स्वामी दयानंद ने स्वदेशी राजा होने का आवाहन किया था। आर्यसमाज का इतिहास ऐसे अनेक प्रेरणादायक संस्मरणों से भरा हुआ हैं।

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