Monday, March 25, 2019

ईश्वरोपासना


🌿🌹ईश्वरोपासना🌹🌿
क्या शरीर की पुष्टि ही जीवन का लक्ष्य है?
पौष्टिक आहार, व्यायाम और संयम द्वारा मनुष्य को अपना शरीर तो पुष्ट करना ही चाहिए, परन्तु इसी की पुष्टि मात्र ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। भर्तृहरि जी महाराज ने शरीर की स्थिति का बहुत सुन्दर शब्दों में चित्रण किया है―
यदा मेरु: श्रीमान्निपतति युगान्ताग्निनिहित:
समुद्रा: शुष्यन्ति प्रचुरनिकर-ग्राह-निलया:।
धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता
शरीरे का वार्ता करिकलभकर्णाग्रचपले।
―(वै० श० ६०)
भावार्थ― जब प्रलयाग्नि से सुमेरु पर्वत गिर पड़ता है, बड़े-बड़े मगर और ग्राहों का घर समुद्र भी सुख जाता है तथा पहाड़ों से दबी हुई पृथिवी का भी नाश हो जाता है तो हाथी के कान के समान चञ्चल मनुष्य के शरीर की क्या गणना है?
इस प्रकार मनुष्य-शरीर जो अस्थायी है उसकी पुष्टि मानव-जीवन का उद्देश्य नहीं हो सकता।
क्या विषयों की पूर्ति और इन्द्रियों की तृप्ति जीवन का लक्ष्य है? आइए, इस बात पर विचार करें।
विषय-भोग के तीन प्रमुख लक्षण हैं―खाना, पीना और मौज उड़ाना। मनुष्य कितना भी खा ले, परन्तु वह पशुओं से अधिक नहीं खा सकता। कितना भी अधिक पी ले, परन्तु वह पशुओं से अधिक नहीं पी सकता। विषयों को भोगने की भी कोई सीमा है। बड़े-से-बड़े विषय-भोगी के जीवन में एक दिन आ जाता है जब उसकी इन्द्रियाँ विषय-भोग में अपनी असमर्थता प्रकट कर देती हैं। विषय-पूर्ति की साधन इन्द्रियाँ ही जवाब दे देती हैं। मनुष्य इच्छा रखते हुए भी इच्छा-पूर्ति में असफल हो जाता है।
कवि के शब्दों में―
हम फूल चुनने आये थे बागे-हयात में।
दामन को ख़ारज़ार में उलझा के यह गये।।
(ख़ारज़ार=काँटो वाली झाड़ियां)
गीता में इन्द्रियों से होने वाले सुख को राजसिक सुख माना है―
विषयेन्द्रियसंयोगात् यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।।
―(गीता १८/३८)
जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होने वाला, आरम्भ में अमृत के समान और अन्त में विष के समान है, वह सुख रजोगुणी सुख माना गया है। यह इन्द्रियजन्य सुख पहले अमृत के समान सुखद प्रतीत होता है, परन्तु उसका परिणाम जहरीला होता है।
मनु महाराज ने इसी की पुष्टि में कहा है―
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेण दोषमृच्छत्यसंशयम्।
सन्नियम्य तु तान्येव तत: सिद्धिं नियच्छति।।
―(मनु० २/९३)
आत्मा इन्द्रियों के सङ्ग से निस्सन्देह दोष को प्राप्त होता है और उन्हें वश में करके सिद्धि प्राप्त करता है। आत्मा को यदि इन्द्रियों के पीछे चलाया जाएगा तो आत्मा निश्चितरूप से पतन को प्राप्त होगा।
अत: विषयों की पूर्ति और इन्द्रियों की तृप्ति ही जीवन का लक्ष्य नहीं है।
इसी प्रकार केवल धन की प्राप्तिमात्र ही जीवन का लक्ष्य नहीं है। महर्षि याज्ञवल्क्य से उनकी पत्नी मैत्रेयी ने पूछा―
सा होवाच मैत्रेयी―यन्नु म इयं भगो: सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात् कथं तेनामृता स्यामिति। नेति होवाच याज्ञवल्क्यो यथैवोपकरणवतां जीवितं तथैव ते जीवितं स्यात् अमृतत्वस्य तु नाऽऽशाऽस्ति वित्तेनेति।
―(बृहदार०उप० २/४/२)
भावार्थ― मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहने लगी कि यदि मेरे लिए यह सारी पृथिवी धन से परिपूर्ण हो जाए तो क्या मैं अमर हो जाऊँगी? इसपर महर्षि याज्ञवल्क्य कहने लगे कि जिस प्रकार धनवानों का जीवन होता है वैसे ही तेरा जीवन होगा। धन से अमृतत्व की आशा तो नहीं की जा सकती।
इसी प्रकार सांसारिक प्रेम, शानो-शौकत और साम्राज्य की प्राप्ति भी जीवन के लक्ष्य नहीं हैं।
यहाँ हमें इहलोकवाद और परलोकवाद का समन्वय करना होगा। हम शरीर की पुष्टि करें, उदरपूर्ति का साधन जुटाएँ, घर-गृहस्थी के काम भी करें, परन्तु आत्मा और परमात्मा का भी चिन्तन न भूलें। इसके विपरित यदि हम केवल शरीर की पुष्टि, इन्द्रियों की तृप्ति, विषयों की पूर्ति, धन-ऐश्वर्य, घर-गृहस्थी के कामों में ही उलझे रहते हैं तो मानो हम जीवन के लक्ष्य से भटक रहे हैं। हम जीवन के आधे लक्ष्य को पूरा कर रहे हैं। हमारी स्थिति बीजगणित के उस प्रश्न के समान है जो बड़ी लम्बी-चौड़ी रकम के साथ आरम्भ होता है, परन्तु उसका उत्तर शून्य '०' आता है। कवि के शब्दों में―
हो गये बरबाद हम पढ़कर किताबे-ज़िन्दगी।
कुछ वरक हमने फाड़ डाले कुछ हवा में उड़ गये।।
इसलिए ईशोपनिषद् में कहा गया है―
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
―(ईशोप० १५)
भावार्थ― सत्य का मुख स्वर्ण के पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन् ! उस सत्यधर्म के दिखाई देने के लिए तू उस आवरण को हटा दे। प्रार्थना की गई है कि इन भौतिक पदार्थों की चकाचौंध ने मनुष्य की आँख से सत्य को ओझल कर दिया है। भक्त सत्य के दर्शन करना चाहता है। सांसारिकता सोने का ढक्कन है और आत्म-परमात्म-चिन्तन वह सत्य है जिसे सांसारिकता छिपा देती है।
मानव-जीवन की सार्थकता इसी में है कि जीवन के सब कामों को करते हुए हम परमेश्वर का भी चिन्तन करते रहें। उपनिषत्कार ने क्या सुन्दर कहा है―
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्न: पप्रच्छ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।
―(मुण्ड० १/१/३)
बड़े घरवाले शौनक ने मर्यादा के साथ अङ्गिरा ऋषि के समीप जाकर पूछा―हे भगवन् ! निश्चय किसके जानने पर यह सब जाना हुआ हो जाता है?
ऋषि ने ईश्वर के विषय में वर्णन किया और कहा―
अस्मिन् द्यौ: पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मन: सह प्राणैश्च सर्वे:।
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतु: ।।
―(मुण्डक० २/२/५)
जिस परमेश्वर में प्रकाशवाले लोक, प्रकाशरहित लोक, आकाश और समस्त प्राणों के साथ मन समर्पित है, उस परमात्मा को ही जानो और उससे भिन्न अन्य बातों को छोड़ो। यही अमृत का पुल है।
उपनिषत्कार ऋषि ने कहा है―
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचिन्त्य धीरा: प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।।
―(केन० २/५)
यदि इस जन्म में परमेश्वर को जान लिया तो ठीक, परन्तु यदि उसे यहाँ न जाना तो सर्वनाश हो गया। धीर पुरुष प्रत्येक भूत में उसकी खोज करके अमरत्व को प्राप्त करते हैं।
संसार में निकृष्ट व्यक्ति वे नहीं हैं जो धन-धान्य से रहित हैं, अपितु वे निकृष्ट (नीच) हैं जो प्रभु की उपासना नहीं करते। संसार में वे व्यक्ति निकृष्ट नहीं हैं जो भूमि और सम्पत्ति से रहित हैं, अपितु वे व्यक्ति निकृष्ट हैं जो प्रभु का स्मरण नहीं करते। महर्षि व्यास जी ने इस विषय में बहुत सुन्दर कहा है―
केचिद् वदन्ति धनहीनजनो जघन्य:।
केचिद् वदन्ति जनहीनजनो जघन्य:।।
केचिद् वदन्ति दलहीनजनो जघन्य:।
केचिद् वदन्ति बलहीनजनो जघन्य:।।
व्यासो वदत्यखिलवेदविशेषविज्ञ:।
नारायणस्मरणहीनजनो जघन्य:।।
भावार्थ― कुछ लोग कहते हैं कि जिसके पास धन नहीं है, वह व्यक्ति निकृष्ट है। कुछ कहते हैं कि जिस व्यक्ति के साथ पारिवारिक जन नहीं है, वह निकृष्ट है। कुछ व्यक्ति कहते हैं कि जिसके साथ कोई दल नहीं है, वह निकृष्ट है। कुछ कहते हैं कि जिसकी भुजाओं में शक्ति नहीं है, वह घटिया है। वेदविशेष अर्थात् ईश्वर को जाननेवाले महर्षि वेदव्यास ने कहा है कि जो ईश्वर को स्मरण नहीं करता वह नीच है।
जीवन में ईश्वर की प्राप्ति ही सबसे बड़ी उपलब्धि है। कवि के शब्दों में―
हँसके दुनिया में मरा कोई तो कोई रोके भरा।
ज़िन्दगी पाई मगर उसने जो कुछ होके मरा।।
जी उठा मरने से वह जिसकी प्रभु पर थी नज़र।
जिसने दुनिया ही को पाया था वह सब कुछ खोके मरा।।
[साभार: 'वेद सन्देश' पुस्तक से, लेखक: प्रा. रामविचार एम.ए.]

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