मुंशी प्रेमचंद और आर्यसमाज
(31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिवस पर विशेष रूप से प्रकाशित)
डॉ विवेक आर्य
मुंशी प्रेमचंद। यह नाम सुनते ही 20 वीं शताब्दी के प्रसिद्द साहित्यकार का नाम स्मरण हो उठता हैं। जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज सुधार का ऐसा सन्देश दिया जो पढ़ने वालों को आज भी प्रभावित किये बिना नहीं रहता। प्रेमचंद के साथ एक बड़ा अन्याय भी हुआ। अपना नाम चमकाने के चक्कर में अनेक लेखकों ने उनके साथ छल किया। उनके सुधारवादी दृष्टिकोण को देखते हुए कोई उन्हें साम्यवादी बताता है, कोई मार्क्सवादी, कोई गाँधीवादी बताता हैं। सत्य यह है कि मुंशी प्रेमचंद 19 वीं सदी में आरम्भ हुआ क्रांति जिसके पुरोधा स्वामी दयानन्द के क्रन्तिकारी चिंतन से प्रभावित थे। स्वामी दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना करते हुए अपनी अकाट्य तर्कों और युक्तियों से धार्मिक अन्धविश्वास और रूढ़िवादी संकीर्णताओं की बुनियादें हिला दी थी। आर्यसमाज के सामाजिक सुधारों आंदोलन में प्रेमचंद अपनी लेखनी के माध्यम से रण के शूरवीर बने। प्रेमचंद की लेखनी में सुधारवादी और शिक्षात्मक स्वर सुनाई देता है।
प्रारम्भ में प्रेमचंद ने उर्दू में लिखना आरम्भ किया। असरारे माबिद, हमखुर्बा व हमसवाब और किशना उनकी प्रारंभिक उर्दू कृतियां थी। हिंदी अनुवाद गबन और प्रेमा नाम से छपे थे। इन ग्रंथों में प्रेमचंद ने धर्म के नाम पर शोषण करने वाले महंतों व पुजारियों की पोल खोली। जैसे एक आर्यसमाजी प्रचारक धर्म के नाम पर चल रही कुरीतियों का भंडाफोड़ करता हैं। कालांतर में प्रतिज्ञा के नाम से उपन्यास लिखा। इस उपन्यास का पात्र अमृतराय विधवा विवाह वह भी अंतर्जातीय करने का दुस्साहस उस काल में करता हैं। समाज अमृतराय के विरुद्ध है। पर उसके मन में तो जाति उन्नति का सपना है। जिस काल में कोई इस विषय में सोच भी नहीं सकता था। यह चिंतन प्रेमचंद को आर्यसमाज के विधवा विवाह अभियान से मिला।
प्रेमचंद के अगले उपन्यास वरदान में देशोद्धार समाहित है। उपन्यास के चरित्र नायक बालाजी है जो समाज सुधार के लिए समर्पित है। गांव के बच्चे भूखे मरते है। बालाजी उनके कल्याण के लिए गौशाला खुलवाकर उन्हें दूध पिलाते है। समाज के निर्धन बच्चों पर ऐसा उपकार करने का सन्देश स्वामी दयानन्द ने ही तो दिया था। जिसे प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से उकेरा।
प्रेमचंद आर्यसमाज के सदस्य भी बने। फरवरी, 1913 में मझगांव से निगम को लिखा,
" मेरे जिम्मे हमीरपुर आर्यसमाज के दस रुपये बाकि हैं। बार-बार तकाज़ा हुआ है, मगर तंगदस्ती ने इजाज़त न दी कि अदा कर दूँ। आप अगर एफोर्ड कर सकें तो बरारास्त मेरे नाम से हमीरपुर आर्यसमाज के सेक्रेटरी के नाम दस रुपये का मनी आर्डर कर दें। ममनून हूँगा। तकलीफ तो होगी मगर मेरे खातिर इतना सहना पड़ेगा क्यूंकि यहाँ अब जलसा भी अनकरीब होनेवाला है। मुकर्रर अर्ज यह है कि यह दस रुपये जरूर भेज देवें। मैंने जनवरी में अदा करने का इतमी वायदा किया है। "
एक महीने के बाद फिर याद कराया,
"अगर आपने हमीरपुर समाज के नाम दस रुपये रवाना किए हों तो बराहे करम अब कर दीजिए, क्यूंकि मैं 14 मार्च को वहाँ जाऊँगा और तकाजा नहीं सहना चाहता।"
इस जलसे पर आर्यसमाज के प्रचारक मौलवी महेश प्रसाद आलिम फ़ाज़िल अपने साथियों के साथ प्रेमचंद के आवास पर ठहरे। उनकी वार्तालाप का विषय दो थे। पहला आर्यसमाज और उसके कार्य सम्बंधित। दूसरे महोबा में ईसाई मिशनरियों द्वारा हिन्दू लड़के-लड़कियों को ईसाई बनाना।
इसी चिंतन का परिणाम हम प्रेमचंद की अगली कृति खूने सफेद में पढ़ते है। इस कृति में एक अकाल ग्रस्त परिवार के बच्चे को ईसाई पादरी क्रिस्चियन बनाकर पढ़ने के लिए पुणे भेज देता हैं। जब वह लौट कर आता है तो उसका परिवार तो उसे अपनाना चाहता है। मगर उसका समाज उसके विधर्मी बनने के कारण उसे स्वीकार नहीं करता। वह युवक यह कहकर कि जिनका खून सफ़ेद है। मैं उनके बीच में नहीं रह सकता चला जाता है। प्रेमचंद अपनी इस कृति में ईसाई धर्मान्तरण और उसके सामाजिक प्रभाव पर एक आर्यसमाजी के समान चिंतन प्रस्तुत करते है।
आर्यसमाज के देश को स्वतंत्र करवाने के चिंतन से भी प्रेमचंद प्रभावित हुए बिना न रहे। सरकारी नौकरी में होते हुए भी प्रेमचंद ने सोजे वतन के नाम से उपन्यास लिखा जो देशप्रेम की पांच कहानियों का संग्रह था। पुस्तक जब्त हुई। प्रेमचंद को धमकी मिली कि आगे से कुछ भी लिखने से पहले सरकार से इजाज़त लेनी होगी। प्रेमचंद ने नाम बदलकर नवाब राय के नाम से वरदान लिखा। इसके चरित्र सुवामा कि इच्छा स्वामी दयानन्द के समान देशसुधार की हैं। अंग्रेजी की नाक के तले ऐसे पंगे लेने वाला कोई आर्यसमाज ही उस काल में हो सकता था। प्रेमचंद उन्हीं में से एक थे।
1920 के दशक में भारत हिन्दू-मुस्लिम दंगों में जल उठा। प्रेमचंद जानते थे कि इन दंगों के पीछे अंग्रेज है। आपने नवी का नीति निर्वाह, फातिहा, मंदिर और मस्जिद, कर्बला लिखे। कायाकल्प में उन्होंने मुसलमानों को ईद पर गौवध से रोका। कायाकल्प में हिन्दुओं और मुसलमानों के मध्य हुए संवाद का सन्देश सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में दिए गए सन्देश से मिलता हैं।
प्रेमचंद हिंदी के बड़े पक्षधर थे। उर्दू से आरम्भ कर हिंदी में आये। हिंदी के वे बड़े पक्षधर थे। स्वामी दयानन्द देवनागरी के माध्यम से देश को एक सूत्र में जोड़ने का सन्देश दे गए। प्रेमचंद उसी सन्देश को अपने उपन्यास वरदान में देते है। इस उपन्यास के पात्र मुंशी संजीवनलाल अपनी पुत्री बिरजन से कहते हैं कि "बेटी , तुम तो संस्कृत पढ़ती हो। जिस पुस्तक की तुम बात करती हो वः तो भाषा में है। " बिरजन उत्तर देती है, "तो मैं भी भाषा ही पढूंगी। इसमें कैसी अच्छी अच्छी कहानियाँ है। मेरी किताब में तो एक कहानी भी नहीं है।" प्रेमचंद कैसे सरलता से हिंदी का प्रचार कर रहे है। पाठक ध्यान दे।
मुंशी प्रेमचन्द जी ने उर्दू में “आपका चित्र” नामक एक कहानी तीन अध्यायों में लिखी थी जो लाहौर के उर्दू पत्र ‘प्रकाश’ में सन् 1929 में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी के पहले भाग में उन्होंने आर्यसमाज के लोगों द्वारा महर्षि दयानन्द का अपने घरों में चित्र लगाये जाने को मूर्तिपूजा से भिन्न होने या न होने पर बहुत ही मार्मिक शब्दों में प्रकाश डाला है। मूर्तिपूजा व चित्रपूजा का ऐसा सशक्त भावपूर्ण चित्रण इससे पूर्व कहीं पढ़ने को नहीं मिलता। यह उनके आर्य समाजी होने का सबसे बड़ा प्रमाण माना जा सकता है। वह लिखते हैं – ‘लोग मुझ से कहते हैं तुम भी मूर्ति-पूजक हो। तुम ने भी तो स्वामी दयानन्द का चित्र अपने कमरे में लटकारखा है। माना कि तुम उसे जल नहीं चढ़ाते हो। इसको भोग नहीं लगाते। घण्टा नहीं बजाते। उसे स्नान नहीं कराते। उसकाश्रृगांर नहीं करते। उसका स्वांग नहीं बनाते। उसको नमन तो करते ही हो। उसकी ऋषि दयानन्द की विचारयधारा को तोसिर झुकाते हो, मानते ही हो। कभी-कभी माला व फलों से भी उसका सम्मान करते हो। यह पूजा नहीं तो और क्या है?’
इन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए मुंशी प्रेमचन्द जी लिखते हैं – ‘उत्तर देता हूं कि श्रीमन् इस आदर व पूजा में अन्तर है। बहुत बड़ाअन्तर है। मैं उसे अपने कक्ष में इसलिए नहीं लटकाये हुए हूं कि उसके दर्शन से मुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी। मैं आवागमन केचक्कर से छूट जाऊगां। उसके दर्शन मात्र से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे अथवा मैं उसे प्रसन्न करके अपना अभियोग (case)जीत जाऊगां अथवा शत्रु पर विजय प्राप्त कर लूंगा किंवा और किसी ढंग से मेरा धार्मिक अथवा सांसारिक प्रयोजन सिद्ध होसकेगा। मैं उसे केवल इस कारण से अपने कमरे में लटकाये हुए हूं कि स्वामी जी के जीवन का उच्च व पवित्र आचरण सदामेरे नयनों के सम्मुख रहे। जिस घड़ी सांसारिक लोगों के व्यवहार से मेरा मन ऊब जाये, जिस समय प्रलोभनों के कारण पगडगमगायें अथवा प्रतिशोध की भावना मेरे मन में लहरें लेने लगे अथवा जीवन की कठिन राहें मेरे साहस व शौर्य की अग्निको मन्द करने लगें, उस विकट वेला में उस पवित्र मोहिनी मूर्त के दर्शनों से आकुल व्याकुल हृदय को शान्ति हो। दृढ़ता धीरजबने रहें। क्षमा व सहनशीलता के मार्ग पर पग चलते चलें तथा मैं अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि इस चित्र से मुझेलाभ पहुंचा है और एक बार नहीं कई बार।’
कहानी के दूसरे भाग में एक राजा का वर्णन किया गया है जो अपने एक विश्वसनीय सेवक को अपनी पसन्दीदा महिला के प्रेमी की हत्या का कार्य सौंपता है और उस कार्य को करने के बदले में अकूत सम्पत्ति देने का वायदा करता है। युवक प्रलोभनवश तैयार हो जाता है परन्तु घर जाकर दीवार पर स्वामी दयानन्द का चित्र देखकर अपने निर्णय को महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तों के विपरीत जानकर पश्चाताप करता है और, परिणाम की चिन्ता न कर, साहस करके राजा साहब के पास जाकर अपनी असमर्थता व्यक्त करता है। इस पर उसे अनेक कटु बातें सुनने को मिलती है। राजा साहेब होंटों को दांतों से काटकर बोले, “बहुत अच्छा जाओ और आज ही रात को मेरे राज्य की सीमा सेबाहर निकल जाओ। सम्भव है कल तुम्हें यह अवसर न मिले।“ उसी लहर में उन्होंने उस पूर्व विश्वसनीय युवक को नमकहराम, टेढ़ी बुद्धि वाला, अधम और जाने क्या-क्या कहा। प्रणाम कर वह युवक चला जाता है। उसी रात्रि को अकेले ही कुछ वस्त्र और कुछ रुपये एक सन्दूक में रखकर घर से निकल पड़ा। हां ! स्वामी जी का चित्र उसके सीने से लगा हुआ था। इस कहानी में मुंशी प्रेमचन्द जी ने स्वामी दयानन्द व उनके चित्र के प्रति अपने मनोभावों को प्रस्तुत किया है।
प्रेमचंद का सबसे तीव्र प्रहार अपनी लेखनी द्वारा अगर किसी क्षेत्र में सबसे अधिक हुआ। तो वह जातिवाद के विरुद्ध था। जन्मना जातिवाद की कड़ी आलोचना की थी। नीच कहलाने वाली जातियों के सामाजिक उत्थान के लिए उनके हृदय में एक विशेष तड़प थी। जातिवाद और छुआछूत का आवाहन स्वामी दयानन्द ने किया था जिसे आर्यसमाज के शीर्घ नेताओं जैसे स्वामी श्रद्धानन्द, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, लाला गंगाराम ,संत राम बी.ए ने न केवल आगे बढ़ाया बल्कि रोपड़ के पंडित सोमनाथ की माँ, जम्मू के महाशय रामचंद्र, इंदौर के वीर मेघराज जाट ने अपना बलिदान तक दे दिया दिया। प्रेमचंद इसी कड़ी में स्वामी दयानन्द के एक प्रबल संदेशवाहक बनकर जातिवाद के विरुद्ध अपने लेखनी थामते दिखे।
जहाँ एक ओर प्रेमचंद हंस पत्रिका के मुख पृष्ठ पर 1933 में डॉ अम्बेडकर का चित्र यह कहकर छापते है कि
"आपने सतत उद्योग से अनेक परीक्षाएं पास करके विद्वता प्राप्त की है और यह प्रमाणित कर दिया है कि अछूत कहलाने वाली जातियों को किन्हीं असाधारण उपकरणों से ईश्वर ने नहीं बनाया। इस समय आप विश्वविख्यात व्यक्तियों में हैं। "
वहीं दूसरी ओर आप अपने उपन्यास कर्मभूमि में एक ऊँचे परिवार में जन्मे युवक अमरकांत का वृतांत लिखते हैं। जो नीची जाति की बस्ती में जाकर रहने लगता है। उन्हें स्वच्छता का सन्देश और शिक्षा देता है। उन्हें शराब और मुर्दा मांस खाने से विमुख करने का प्रयास करता हैं। अंत में उसकी विजय होती है। कर्मभूमि पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रेमचंद किसी सवर्ण परिवार में जन्में आर्यसमाजी प्रचारक के जीवन वृतांत को अपनी कलम से उद्दृत कर रहे हो।
मंदिरों में चमारों के प्रवेश न कर पाने पर प्रेमचंद एक ऐसा कटाक्ष लिखते है। जो पढ़ने वालों की आत्मा को अंदर तक झकझोर देता है। प्रेमचंद लिखते है कि चमारों के हाथ के बने जूते पहनकर कोई भी मंदिर जा सकता है। मानों जूते पवित्र चीज थे मगर उसे बनाने वाले चमार अपवित्र थे। शांतिकुमार नामक युवक अछूतों के मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन करता है। लाठियां, गोलियां चलती है। अंत में चमारों को मंदिर प्रवेश का अधिकार प्राप्त होता हैं। एक बड़ा भारी समारोह होता है। आर्यसमाज ने अनेक बार दलितों के मंदिर में प्रवेश के लिए आंदोलन किये। यह दृष्टान्त यथार्थ में किसी घटना का साक्षात् वर्णन प्रतीत होता है।
मंदिर के महंतों के अनैतिक हरकतों को प्रेमचंद लिखकर उन्हें अपराधी सिद्ध करने में भी प्रेमचंद पीछे नहीं रहते। मठाधीशों को जुआ खेलने वाला, ईमान बेचने वाला, झूठी गवाहियां देने वाला, भीख मांगने वाला और जिनके स्पर्श तक से देवता कलंकित हो ऐसा धर्म के पाखंडी ठेकेदार प्रेमचंद लिखते हैं। पाठक समझे कि प्रेमचंद के हृदय में अछूत कहलाने वाले लोगों से उनका धार्मिक अधिकार छीने जाने पर कितनी पीड़ा होगी जिसका वर्णन प्रेमचंद ने किया हैं। कभी प्रेमचंद अछूतों का मंदिर प्रवेश करवाते है। कभी प्रेमचंद अछूतों और सवर्णों का एक साथ बैठकर सहभोज करने का वर्णन दर्शाते हैं। मंदिर नामक कहानी में प्रेमचंद एक चमारिन विधवा पर मंदिर में प्रवेश न करने देने वाले पुजारी को निर्दयी धर्म के ठेकेदार लिखते है। यह लेख चाँद पत्रिका के अछूत अंक विशेष में प्रकाशित हुआ था। ठाकुर का कुआँ, दूध का दाम, सदगति, जीवन में घृणा का स्थान-साहित्य में घृणा का स्थान, कफ़न प्रेमचंद की कुछ कृतियां हैं। जिनमें उन्होंने समाज के सबसे अधिक दबे, कुचले हुए पात्रों पर हो रहे अत्याचारों का मार्मिक चित्रण किया हैं। उनके उद्धार की कामना का सन्देश दिया है।उस काल में यह सन्देश एक आर्यसमाजी हृदय के व्यक्ति की कामना के अत्तिरिक्त ओर हो भी क्या सकता था।
अपनी मृत्यु से कुछ महीने पहले मुंशी प्रेमचंद अप्रैल 1936 में लाहौर आर्य समाज की जुबली के अवसर पर आर्य भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष के नाते प्रसंगवशात् आर्यसमाज की सराहना करते हुये कहते है-
" आर्यसमाज ने इस सम्मलेन का नाम आर्यभाषा सम्मलेन शायद इसलिए रखा है कि यह समाज के अंतर्गत उन भाषाओं का सम्मलेन है जिनमें आर्यसमाज ने धर्म का प्रचार किया है और उनमें उर्दू और हिंदी दोनों का दर्जा बराबर है। मैं तो आर्य समाज को जितनी धार्मिक संस्था मानता हूं उतनी ही तहज़ीबी (सांस्कृतिक) संस्था भी समझता हूं। बल्कि आप क्षमा करें तो मैं कहूँगा कि उसके तहज़ीबी कारनामे उसके धार्मिक कारनामों से भी प्रसिध्द और रोशन हैं। आर्यसमाज ने साबित कर दिया है कि समाज की सेवा ही किसी धर्म के सजीव होने के लक्षण है। कौमी जिंदगी की समस्याओं को हल करने में उसने जिस दूरदेशी का सबूत दिया है उस पर गर्व कर सकते है। हरिजनों के उध्दार में सबसे पहले आर्य समाज ने कदम उठाया। लड़कियों की शिक्षा की ज़रूरत को सबसे पहले उसने समझा।वर्ण-व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिध्द करने का सेहरा उसके सर पर है।जातिगत भेद-भाव और खान-पान में छूत-छात और चौके-चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है।यह ठीक है कि ब्रह्मसमाज ने इस दिशा में पहले कदम रखा पर वह थोड़े से अंग्रेजी पढ़े-लिखों तक ही रह गया। इस विचारों को जनता तक पहुंचाने का बीड़ा आर्यसमाज ने ही उठाया। अन्धविश्वास और धर्म के नाम पर किए जानेवाले हज़ारों अनाचारों की कब्र उसने खोदी, हालाँकि मुर्दे को उसमें दफन न कर सका। और अभी तक उसका जहरीला दुर्गन्ध उड़कर उड़कर समाज को दूषित कर रहा है। समाज के मानसिक और बौद्धिक धरातल (सतह) को आर्यसमाज ने जितना उठाया है, शायद ही भारत की किसी संस्था ने उठाया हो। उसके उपदेशकों ने वेदों और वेदांगो के गहन विषय को जन-साधारण की संपत्ति बना दिया, जिनपर विद्वानों और आचार्यो के कई-कई लिवर वाले ताले लगे हुये थे। आज आर्यसमाज के उत्सवों और गुरुकुलों के जलसों से हज़ारों मामूली लियाकत के स्त्री-पुरुष सिर्फ विद्वानों के भाषण सुनने का आनंद उठाने के लिए खींचे चले जाते हैं। गुरूकुलाश्रम को नया नाम देकर आर्यसमाज ने शिक्षा को सम्पूर्ण बनाने का महान उद्योग किया है। सम्पूर्ण से मेरा आशय उस शिक्षा का जो सर्वांगपूर्ण हो, जिसमें मन, बुद्धि, चरित्र और देह, सभी के विकास का अवसर मिले। शिक्षा का वर्तमान आदर्श यही है। मेरे ख्याल में वह चिरसत्य है। वह शिक्षा जो सिर्फ अक्ल तक ही रह जाये, अधूरी है। जिन संस्थाओं में युवकों में समाज से पृथक रहनेवाली मनोवृति पैदा करें, जहाँ पुरुषार्थ इतना कोमल बना दिया जाए कि उसमें मुश्किलों का सामना करने की शक्ति न रह जाए, जहाँ कला और संयम में कोई में न हो, जहाँ की कला केवल नाचने -गाने और नकल करने में ही जाहिर हो, उस शिक्षा का मैं कायल नहीं हूँ। शायद ही मुल्क में कोई ऐसी शिक्षण संस्था हो जिसने कौम की पुकार का इतना जवांमर्दी से स्वागत किया हो। अगर विद्या हममें सेवा और त्याग का भाव न लाए, अगर विद्या हमें आदर्श के लिए सीना खोलकर खड़ा होना न सिखाए, अगर विद्या हममें स्वाभिमान पैदा करे, और हमें समाज के जीवन प्रवाह से अलग रखे तो उस विद्या से हमारी अविद्या अच्छी। और आर्यसमाज ने हमारी भाषा के साथ जो उपकार किया है कि स्वामी दयानन्द ने इसी भाषा में सत्यार्थ प्रकाश लिखा और उस वक्त लिखा जब उसकी इतनी चर्चा न थी। उनकी बारीक़ नज़र ने देख लिया कि अगर जनता में प्रकाश ले जाना है तो उसके लिए हिंदी भाषा ही अकेला साधन है, और गुरुकुलों ने हिंदी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाकर अपने भाषा प्रेम को और भी सिद्ध किया है। "
दिल्ली से प्रकाशित होने वाले मासिक पत्र ‘शुद्धि समाचार’ का जनवरी-फरवरी 1932 का संयुक्तांक श्रद्धानन्द बलिदान अंक के रूप में प्रकाशित हुआ था, जिसमें प्रेमचंद का लेख ‘स्वामी श्रद्धानन्द और भारतीय शिक्षा प्रणाली’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। इस लेख में प्रेमचंद ने भारतीय शिक्षा प्रणाली को स्वामी श्रद्धानन्दजी की देन पर विस्तार से प्रकाश डाला है। प्रकारान्तर से इस लेख को भी स्वामी श्रद्धानन्दजी द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगड़ी में बिताए गए तीन दिनों से प्रभावित स्वीकार किया जा सकता है। इस लेख से भी प्रेमचंद की आर्य समाजी विचारधारा ही प्रमाणित होती है।
गुरुकुल कांगड़ी की साहित्य परिषद् के जुलाई 1927 में हुए वार्षिकोत्सव की अध्यक्षता प्रेमचंद ने की थी और इस उत्सव में वहाँ निरन्तर तीन दिन तक प्रवास करके गुरुकुल कांगड़ी से पर्याप्त परिचय प्राप्त किया था। प्रेमचंद ने वहाँ के तीन दिनों के अनुभव लिपिबद्ध करके ‘गुरुकुल कांगड़ी में तीन दिन’ शीर्षक लेख के रूप में लखनऊ की मासिक पत्रिका ‘माधुरी’ के अप्रैल 1928 के अंक में प्रकाशित करा दिए थे। प्रेमचंद के इस लेख का उर्दू अनुवाद उर्दू पत्रकारिता के युगपुरुष महाशय कृष्णजी के सम्पादन में लाहौर से प्रकाशित होने वाले उर्दू साप्ताहिक ‘प्रकाश’ के 22 अप्रैल 1928 के अंक में भी प्रकाशित हो चुका है। गुरुकुल कांगड़ी के अनुभवों पर प्रेमचंद ने एक पूरक लेख लिखकर चार वर्ष उपरान्त पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी के सम्पादन में कलकत्ता से प्रकाशित मासिक पत्र ‘विशाल भारत’ के अगस्त 1932 के अंक में ‘पद्मसिंह शर्मा के साथ तीन दिन’ शीर्षक से प्रकाशित कराया था, जो प्रेमचंद के मानस पर आर्य समाज की स्थायी छाप का ज्वलन्त प्रमाण है।
मुंशी जी स्वयं आर्यसमाज के सदस्य थे और दलित उद्धारक एवं हिंदी भाषा के समर्थक थे। प्रेमचंद जी के आर्यसमाज के अनेक विद्वानों से सम्बन्ध थे जैसे पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय जी उनके सहपाठी थे, महेश प्रसाद जी उनके मित्र थे, कहानीकार सुदर्शन जी भी उनके अभिन्न मित्र थे, इन्द्र विद्यावाचस्पति जी के साथ सम्बन्ध थे, आचार्य रामदेव जी के अपार स्वाध्याय के आप प्रशंसक थे। पंडित पदम् सिंह शर्मा और चंद्रमणि विद्यालंकार से आपके घनिष्ठ सम्बन्ध थे। मुंशी प्रेमचन्द जी ने अपने जीवन की अन्तिम वेला तक आर्य समाजी पत्रों में लिखते रहे। उनक लेखों में ईश्वर के सर्वव्यापक स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। उन्होंने इस आर्य सिद्धान्त पर डटकर लिखा है। सबको अपनाना, किसी को अस्पृश्य न मानना, आर्य धर्म के बन्द द्वार सबके लिए खोलना, दीनों की रक्षा, धेनु की रक्षा, प्राणिमात्र से प्यार , प्रेमचन्द जी ने इन सब विषयों पर लिखा है और आर्य समाज का गुणगान किया है। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि मुंशी प्रेम चन्द जी अपने जीवन में महर्षि दयानन्द व आर्य समाज की विचारधारा से जुड़े रहे। उनकी सफलता का एक प्रमुख कारण उनका आर्य विचारधारा को अपनाना था। इसके माध्यम से उन्होंने आर्य विचारधारा का भूरिशः प्रचार-प्रसार किया।
वह आर्य समाज के गौरव थे।
मुंशी प्रेमचंद और आर्यसमाज के संबंधों पर यह एक संक्षिप्त सा लेख है। इस विषय पर शोध की अधिक आवश्यकता है।
Nice post
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