वेद शान्तिप्रद है
ओ३म् अयं ते स्तोमो अग्रियो हृदिस्पृगस्तु शन्तम:।
अथा सोमं सुतं पिब।। -ऋ० १/१६/७
शब्दार्थ- (अयम्) यह (अग्रिय:) सबसे पहला, पूर्वजों का भी हितकारी (स्तोम:) स्तुति समूह= वेद-ज्ञान (हृदिस्पृक्) हृदय को स्पर्श करता हुआ (ते) तेरे लिए (शन्तम:) अत्यन्त शान्तिदायक (अस्तु) हो। (अथ:) इसके पश्चात् अर्थात् वेद ज्ञान प्राप्त करके (सुतम्) तय्यार किया गया (सोमम्) संसार का ऐश्वर्य (पिब) पान कर।
व्याख्या- पक्षपातरहित सभी विद्वान् इस बात में सहमत हैं कि वेद संसार में सबसे पुराना ग्रन्थ है। इसलिए इसे अग्रिय कहा है। यह अग्रों का, पहलों का भी हितकारी है। सबसे पहला ज्ञान भगवान्, से मिलना चाहिए, वह वेद है। कणाद महर्षि तो इसी कारण तो वेद की प्रमाणिकता मानते हैं- तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् ईश्वरवचन होने से वेद ही प्रमाणता है।
यह वेद 'स्तोम' है, स्तुतिसमूह है। तृण से ब्रह्मपर्यन्त सभी पदार्थों की स्तुति-गुणगाथा- इसमें है। उदाहरण के लिए जीव के सम्बन्ध में कहा है- अपश्यं गोपामनिपद्यमानम्- मैंने अविनाशी और गोप-इन्द्रियों के स्वामी को देखा है। आत्मा को इन्द्रियों से पृथक् तथा अविनाशी कहा है। इसी प्रकार परमात्मा के सम्बन्ध में कहा है- वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात् (यजु० ३१/१८)= मैंने उस महान्, सूर्यों के प्रकाशक, अज्ञान-अन्धकार से विरहित सर्वव्यापक के दर्शन किये हैं प्रकृति का निरूपण इन शब्दों में हुआ है- एषा सनत्नी सनमेव जातैषा पुराणी परि सर्वं बभूव (अ० १०/८/३०)= यह सदा रहनेवाली प्रकृति सदा से ही विद्यमान है, यह पुराणी= पुरानी होती हुई भी नई सब कार्य्यों में विद्यमान है। इसी भाँति जीवोपयोगी सभी पदार्थों का ज्ञान वेद में कराया गया है, और यह शन्तम: अत्यन्त शान्ति प्रदान करता है। शान्ति तो परमात्मा के दर्शन से होती है, जैसा कि कठोपनिषद् में है-
एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।। ५/१२
नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहुनां यो विदधाति कामान्।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां शान्ति: शाश्वती नेतरेषाम्।। ५/१३
जो सब पदार्थों का अन्तरात्मा, सबको नियन्त्रण में रखनेवाला, अकेला ही एक प्रकृतिरूपी बीज को अनेक प्रकार का बना देता है, आत्मा में रहनेवाले उस परमात्मा के जो ध्यानी दर्शन करते हैं, उन्हें ही शाश्वत सुख मिलता है, दूसरों को नहीं। वह नित्यों में नित्य, अर्थात् सदा एकरस और चेतनों का चेतन अर्थात् सर्वज्ञ है, वह अकेला सभी की कामनाएं पूरी करता है। उस आत्मस्थ के, जो धीर दर्शन करते हैं, उन्हें ही अखण्ड शान्ति मिलती है, दूसरों को नहीं।
ठीक है, शान्ति परमात्मा के दर्शन से मिलती है किन्तु परमात्मा के सम्बन्ध में यथार्थ ज्ञान वेद से ही मिलता है। तभी तो औपनिषद् महर्षियों ने कहा है- नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम्= वेद न जानने वाला उस महान् भगवान् का मनन नहीं कर पाता, अतः वेद का श्रवण, अध्ययन, मनन, चिन्तन, धारण प्रत्येक शान्ति के अभिलाषी का कर्त्तव्य है। इस भाव को लेकर कहा है- हृदिस्पृक्= हृदय को स्पर्श करनेवाला; केवल वाणी से ही वेदमन्त्र को न रटे, हृदय में उनका स्पर्श भी हो। वेद तो है ही परमात्मा का वर्णन
करने के लिए- ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् (१/१६४/३९)- वेद सर्वव्यापक, अविनाशी परमात्मा का ज्ञान कराने के लिए है। भगवान् का आदेश है कि जब इस प्रकार तू इस अग्रिय ज्ञान को हृदयस्पर्शी कर ले, अथा सोम सुतं पिब= तब निष्पादित सोम का-ऐश्वर्य का-पान कर। बहुत सुन्दर बात कही है। पहले ज्ञान, पीछे अनुष्ठान। पहले पदार्थों को जान, पश्चात् उनका यथायोग्य उपयोग कर। ऋषि इसलिए ज्ञान को कर्म से पूर्व स्थान देते हैं।
ध्वनि निकलती है कि यतः वेद तुझे पदार्थों का ज्ञान कराने के लिए तथा तदनुसार कर्म करने के लिए दिया गया है, अतः तू वेद का अध्ययन करके उसके अनुसार जीवन बना और बिता। इसी में सफलता है।
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