सत्यार्थप्रकाश पर नियोग का मिथ्या दोषारोपण
प्रियांशु सेठ
गुरुडम, पाखण्ड, अन्धविश्वास आदि के सागर में डूबते हुए हिन्दू धर्म को पुनर्जीवित करने वाले, वेद-वेदाङ्गों के प्रकाण्ड विद्वान्, समाज-सुधारक एवं आर्यसमाज के प्रवर्त्तक, सत्यान्वेषी महर्षि दयानंद जी एवं उनके पुस्तक सत्यार्थप्रकाश का मनुष्यजाति हेतु योगदान अवर्णनीय एवं अविस्मरणीय है। यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान् लोग विभिन्न मतों में हैं, जो पक्षपाती होकर वैदिक धर्म एवं सत्यार्थप्रकाश की निंदा करने में लगे रहते हैं। जिन्होंने भी सत्यार्थप्रकाश पर आक्षेप किया है, सबसे पहला आक्षेप नियोग विषय को लेकर ही किया है। परन्तु 'सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयान:' अर्थात् सर्वदा सत्य का विजय और असत्य का पराजय और सत्य से ही विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस लेख में नियोग विषय पर लगे प्रत्येक आक्षेपों का जवाब क्रमबद्ध दिया जायेगा।
नियोग:
नियोग उसको कहते हैं जिस से विधवा स्त्री और जिस पुरुष की स्त्री मर गई हो वह पुरुष, ये दोनों परस्पर नियोग करके सन्तानोत्पत्ति करते हैं।
प्रश्न- नियोग में क्या-क्या बातें होनी चाहिए?
उत्तर- यह व्यवस्था निःसन्तान दम्पत्ति के लिए है। सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में महर्षि लिखते हैं-
जैसे प्रसिद्धि से विवाह, वैसे ही प्रसिद्धि से नियोग। जिस प्रकार विवाह में भद्र पुरुषों की अनुमति और कन्या-वर की प्रसन्नता होती है, वैसे नियोग में भी। अर्थात् जब स्त्री-पुरुष का नियोग होना हो तब अपने कुटुम्ब में पुरुष स्त्रियों के सामने- 'हम दोनों नियोग सन्तानोत्पत्ति के लिए करते हैं। जब नियोग का नियम पूरा होगा तब हम संयोग न करेंगे। जो अन्यथा करें तो पापी और जाति वा राज्य के दण्डनीय हों। महीने में एकबार गर्भाधान का काम करेंगे, गर्भ रहे पश्चात् एक वर्ष पर्यन्त पृथक् रहेंगे।'
महर्षि आगे लिखते हैं-
अपने वर्ण में वा अपने से उत्तमवर्णस्थ पुरुष के साथ। अर्थात् वैश्या स्त्री वैश्य क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ, क्षत्रिया क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ, ब्राह्मणी ब्राह्मण के साथ नियोग कर सकती है। इसका तात्पर्य यह है कि वीर्य सम वा उत्तम वर्ण का चाहिए, अपने से नीचे के वर्ण का नहीं।
स्वामी दयानंद जी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में नियोग का नियम इसप्रकार लिखते हैं-
नियोग करने में ऐसा नियम है कि जिस स्त्री का पुरुष वा किसी पुरुष की स्त्री मर जाय, अथवा उन में किसी प्रकार का स्थिर रोग हो जाय वा नपुंसक वन्ध्यादोष पड़ जाय, और उनकी युवावस्था हो तथा सन्तानोत्पत्ति की इच्छा हो तो उस अवस्था में उन का नियोग होना अवश्य चाहिए।
आगे लिखते हैं-
जैसे विधवा स्त्री देवर के साथ सन्तानोत्पत्ति करती है वैसे तुम भी करो। विधवा का जो दूसरा पति होता है, उसको देवर कहते हैं। इससे यह नियम होना चाहिए के द्विजों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों में दो-दो सन्तानों के लिए नियोग होना, और शूद्रकुल में पुनर्विवाह मरणपर्यन्त के लिए होना चाहिए। परन्तु माता, गुरुपत्नी, भगिनी, कन्या, पुत्रवधु आदि के साथ नियोग करने का सर्वथा निषेध है। यह नियोग शिष्ट पुरुषों की सम्मति और दोनों कि प्रसन्नता से हो सकता है। जब दूसरा गर्भ रहे तब नियोग छूट जाय। और जो कोई इस नियम को तोड़े उसको द्विजकुल में से अलग करके शुद्र कुल में रख दिया जाय।
प्रश्न- देवर के साथ नियोग वाला प्रकरण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- देवर शब्द का अर्थ जैसा तुम समझ रहे हो वैसा नहीं। देखो, निरुक्त क्या कहता है-
देवर: कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते। -निरु० ३/१५
देवर उसको कहते हैं जो विधवा का दूसरा पति होता है, चाहे छोटा भाई या बड़ा भाई, अथवा अपने वर्ण वा अपने से उत्तम वर्ण वाला हो, जिससे नियोग करे, उसी का नाम 'देवर' है।
प्रश्न- यह नियोग की बात तो व्यभिचार समान दिखाई देती है?
उत्तर- नहीं-नहीं। यदि ऐसा लगता है तो हम व्यभिचार को भी जान लेते हैं ताकि कोई भ्रम न हो। व्यभिचार उसे कहते हैं जिसमें स्त्री-पुरुष बिना किसी नियम के सम्भोग करें, क्षणिक सुख हेतु वीर्य को नष्ट करें, आदि पाप कर्म करते हुए सम्भोग करें। हम नियोग के नियम पूर्व ही लिख आये हैं। नियोग में कुटुम्ब की आज्ञा अनिवार्य है। जब कुटुम्ब की आज्ञा से कोई कार्य हो रहा है तो व्यभिचार कैसे?
ऋग्वेद १०वें मण्डल का १०वां सूक्त का १०वां मन्त्र स्पष्ट घोषणा करता है-
अन्यमिच्छस्व सुभगे पतिं मत्।।
जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे, तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे सुभगे! सौभाग्य की इच्छा करनेहारी स्त्री तू (मत्) मुझ से (अन्यम्) दूसरे पति की (इच्छस्व) इच्छा कर, क्योंकि अब मुझ से सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी।
महर्षि मनु भी आज्ञा देते हैं-
विधवायां नियुक्तस्तु घृताक्तो वाग्यतो निशि।
एकं उत्पादयेत्पुत्रं न द्वितीयं कथं चन।।
द्वितीयं एके प्रजनं मन्यन्ते स्त्रीषु तद्विदः।
अनिर्वृतं नियोगार्थं पश्यन्तो धर्मतस्तयोः।। -मनु० ९/६०,६१
अर्थात् पिता की आज्ञा पाकर शरीर पर घी लगाकर मूक होकर विधवा स्त्री में पुत्र उत्पन्न करें और एक पुत्र के अतिरिक्त दूसरा कभी उत्पन्न न करें।।६०।। बहुत से आचार्य विधवा स्त्री में दूसरी सन्तान को भी उचित जानते हैं और धर्म के अनुकूल समझते हैं, क्योंकि एक सन्तान कतिपय दशा में शून्य तुल्य होती है। परन्तु दूसरी सन्तान आदि के लिये भी कुल वृद्धों की आज्ञा की आवश्यकता है।।६१।।
महर्षि दयानंद जी ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका के नियोग प्रकरण में लिखते हैं-
"इसी प्रकार से विधवा और पुरूष तुम दोनों आपत्काल में धर्म करके सन्तान उत्पत्ति करो और उत्तम-उत्तम व्यवहारों को सिद्ध करते जाओ। गर्भ हत्या या व्याभिचार कभी मत करो। किन्तु नियोग ही कर लो, यही व्यवस्था सबसे उत्तम है।"
यहां स्पष्ट लिखा है कि यह व्यवस्था केवल आपत्काल के लिए ही है। व्यभिचार और कुकर्मों से बचने का सबसे सरल उपाय यह है कि जो जितेन्द्रिय रह सके वह विवाह और नियोग भी न करे तो ठीक है परन्तु जो जितेन्द्रिय न रह सके उसके लिए विवाह और आपत्काल में नियोग है। जो कोई इसके विपरीत करे सो व्यभिचार कहावे। देखो, वेद भगवन् भी व्यभिचार से बचने हेतु आज्ञा देते हैं-
१. हे जगदीश्वर! मुझे दुश्चरित्र या पाप के आचरण से सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूर्ण सदाचार में स्थिर करो। -यजु० ४/२८
२. वे मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दें। -ऋ० ८/४८/५
३. हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटो, मैं तुझे नहीं चाहता। -अथर्व० ६/४५/१
४. दिन, रात्रि, जागृत एवं स्वप्न में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक, आप्त विद्वान्, धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचायें। -यजु० २०/१६
५. ब्रह्मचर्य और तप से राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा कर सकता है। -अथर्व० ११/५/१०
जो व्यक्ति वीर्य को अपने क्षणिक सुख के लिए नष्टकर घोर अप्राकृतिक कार्य करते हुए भी ईश्वरीय प्राकृतिक व्यवस्था को पाप मानते हैं, ऋषियों को दोषी ठहराते हैं एवं दिनभर व्यभिचार में लिप्त रहते हैं, ऐसे व्यक्ति घोर नरक को प्राप्त होते हैं।
प्रश्न- नियोग आपत्कालीन व्यवस्था है, इसको धर्म से जोड़ना उचित नहीं।
उत्तर- जिस व्यक्ति ने वैदिक सिद्धान्तों का व्यापक अध्ययन किया है, वह कर्म को तीन प्रकार का मानता है; धर्म, अधर्म एवं आपद्धर्म।
धर्म- जिस कार्य के करने से पुण्य हो, वह धर्म कहाता है। जैसे- सन्ध्या/यज्ञ/तप/स्तुति/प्रार्थना/उपासना/योगाभ्यास करना, परोपकारी बनना, वाणी से सदा सत्य एवं प्रिय बोलना, वेदों का पठन-पाठन करना इत्यादि सबसे पुण्य होता है, अतः यह धर्म है।
अधर्म- इसकी परिभाषा वा लक्षण धर्म के ठीक विपरीत है अर्थात् जिस कार्य के करने से पाप हो, वह अधर्म कहाता है। जैसे- शराब पीना, जुआ खेलना, चोरी करना, भ्रूण हत्या, हिंसा करना, व्यभिचार करना आदि। इनके करने से व्यक्ति भय, दुःख, क्लेश आदि को प्राप्त होवेगा।
आपद्धर्म- वे सब कर्म जिनको सामान्य परिस्थितियों में अच्छा नहीं कहा जा सकता परन्तु जिनको आपदा अर्थात् मुसीबत में करना पाप नहीं होता, आपद्धर्म कहाता है। जैसे- किसी के शरीर के अंग को काटना अत्यन्त गलत है परन्तु किसी भयंकर रोग (कैंसर आदि) में शल्य-चिकित्सक द्वारा रोगी के अंग विशेष; जैसे- स्तन, गर्भाशय, यकृत या फेफड़े का कुछ अंश काटना सही है अन्यथा रोगी मर जायेगा तो यह आपद्धर्म कहलाता है।
ठीक इसी प्रकार नियोग भी आपद्धर्म है। जब पुरुष वा स्त्री सन्तानोत्पत्ति करने में असमर्थ हों तो नियोग कर लें।
प्रश्न- बिना नियोग के भी तो सन्तान प्राप्त किया जा सकता है?
उत्तर- तुम ठीक कहते हो! बिना नियोग के भी सन्तान प्राप्त किया जा सकता है लेकिन उत्पन्न नहीं। जो स्त्री-पुरूष ब्रह्मचर्य में स्थित रहना चाहें वो किसी भी अपने स्वजाति का बच्चा गोद ले लें। इससे कुल चलेगा और व्याभिचार भी न होगा और जो ब्रह्मचर्य न रख सकें तो नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर लें।
महर्षि मनु ने कहा है-
हरेत्तत्र नियुक्तायां जातः पुत्रो यथाउरसः।
क्षेत्रिकस्य तु तद्बीजं धर्मतः प्रसवश्च सः।। -मनु० ९/१४५
अर्थात् जो पुत्र नियोग द्वारा उत्पन्न हुआ हो वह सत्य पुत्र से अर्थात् विवाह द्वारा उत्पन्न सन्तान के समान भागों का भागी है क्योंकि वह वास्तविक स्वामी अर्थात् क्षेत्र वाले का बीज है और धर्मतः उत्पन्न हुआ है।
प्रश्न- क्या नियोग व्यवस्था वेदानुकूल है?
उत्तर- इसमें सन्देह कैसा! वेद की आज्ञा सभी को स्वतः प्रमाण है, देखिए-
१. कुह स्विद्दोषा कुह वस्तोरश्विना कुहाभिपित्वं करत: कुहोषतु:।
को वां शयुत्रा विधवेव देवरं मर्य्यं न योषा कृणुते सधस्थ आ।। -ऋ० १०/४०/२
२. इयं नारी पतिलोकं वृणाना नि पद्यत उप त्वा मर्त्त्य प्रेतम्।
धर्मं पुराणमनुपालयन्ती तस्यै प्रजां द्रविणं चेह धेहि।। -अथर्व० १८/३/१
३. उदीर्ष्व नार्य्यभि जीवलोकं गतासुमेतमुप शेष एहि।
हस्तग्राभस्य दीधिषोस्तवेदं पत्युर्जनित्वमभि सं बभूथ।। -ऋ० १०/१८/८
४. अदेवृघ्न्यपतिघ्नीहैधि शिवा पशुभ्यः सुयमा सुवर्चा:।
प्रजावती वीरसूर्देवृकामा स्योनेममग्निं गार्हपत्यं सपर्य।। -अथर्व० १४/२/१८
(अदेवृघ्न्यपतिघ्नी:) हे विधवा स्त्री! तू देवर और विवाहित पति को सुख देनेवाली हो, किन्तु उनका अप्रिय किसी प्रकार से मत कर, और वे भी तेरा अप्रिय न करें। (एधि शिवा) इसी प्रकार मंगलकार्यों को करके सदा सुख बढ़ाते रहो। (पशुभ्यः सुयमा सुवर्चा:) घर के पशु आदि सब प्राणियों की रक्षा करके, जितेन्द्रिय होके, धर्मयुक्त श्रेष्ठ कार्यों को करती रहो। तथा सब प्रकार के विद्यारूप उत्तम तेज को बढ़ाती जा। (प्रजावती वीरसू:) तू श्रेष्ठप्रजायुक्त हो, बड़े-बड़े वीर पुरुषों को उत्पन्न कर। (देवृकामा) जो तू देवर की कामना करनेवाली है, तो जब तेरा विवाहित पति न रहे वा रोगी तथा नपुंसक हो जाय, तब दूसरे पुरुष से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर। (स्योनेममग्निं गार्हपत्यं सपर्य्य) और तू इस अग्निहोत्रादि घर के कामों को सुखरूप होके सदा प्रीति से सेवन कर।
अभी अनेकों प्रमाण हैं, जिससे नियोग वेद के अनुकूल ही सिद्ध होता है।
अमरकोश में लिखा है-
पुनर्भूर्दिधिषुरूढा द्विस्तस्या दिधिषू: पति:।
स तु द्विजोऽग्रेदिधिषूू: सैव यस्य कुटुम्बिनी।। -अमरकोश २/६/२३
अर्थ- पुनर्भू: और दिधिषू: ये दो नाम दोबारा विवाहिता स्त्री के हैं। 'दिधिषू:' यह एक नाम दोबारा विवाहिता स्त्री के पति का है। 'अग्रेदिधिषूू: यह एक नाम पुनर्विवाहिता स्त्री के द्विज पति अर्थात् जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो, उसका है।
प्रश्न- आपके भाष्य में अश्लीलता दिखाई दे रही है, इससे अच्छा तो महीधर का भाष्य है।
उत्तर- इसमें अश्लीलता क्या? संस्कृत न आये तो भाष्यकार मिथ्या आक्षेप। अश्लीलता तो उसको कहते हैं जो व्यभिचार को बढ़ावा दे। हम ऊपर ही लिख आये हैं कि नियोग अश्लीलता या व्यभिचार नहीं अपितु आपद्धर्म है। फिर भी यदि महीधर का भाष्य तुम्हें ठीक लगता है तो उससे भी प्रमाण लो और तुलना करो-
प्रक्षालितेषु शोधितेषु पशूनां प्राणेषु पत्नीभिरध्वर्युणा यजमानेन प्राणशोधने कृते महीषी अश्वसमीपे शेते। अश्वदेवत्यम्। हे अश्व! गर्भधं गर्भं दधाति गर्मधं गर्भधारकं रेत: अहम् आ अजानि आकृष्य क्षिपामि। तं च गर्भधं रेत: आ अजासि आकृष्य क्षिपसि।। -यजु० २३/१९ (महीधर भाष्य)
अर्थ- अपनी धर्मपत्नियों और पुरोहित के साथ यजमान से पशुओं के प्राण शुद्ध करने के पश्चात् यजमान की पटरानी घोड़े के पास सोती है। इस मंत्र का देवता अर्थात् विषय 'अश्व' है। यजमान की स्त्री घोड़े से कहती है- हे अश्व! तेरे गर्भ को धारण करनेवाले बीज को खींचकर योनि में डालती हूं और तू भी उस गर्भ के धारण करनेवाले बीज को खेंचकर डालता है।
देखो, अपने महीधर का भाष्य। सो अब बताओ कि अश्लील भाष्य किसका है?
यही शिक्षा आगे चलकर बलात्कार (Rape) , सरेआम नग्न होना (Exhibitionism), पशु सम्भोग (Bestiality), छोटे बच्चों और बच्चियों से दुष्कर्म (Pedophilia), हत्या कर लाश से दुष्कर्म (Necrophilia), मार पीट करने के बाद दुष्कर्म (Sadomasochism), मनुष्य के शौच से प्रेम (Coprophilia) इत्यादि का रूप लेता है।
प्रश्न- क्या मत-मतान्तरों वा शास्त्रों में भी नियोग है अथवा सिर्फ महर्षि दयानन्द जी ने ही इस व्यवस्था को प्रचलन में लाया?
उत्तर- पूर्व ही हमने वेद से अनेकों प्रमाण दे दिये हैं सो अब भी यह कहना कि केवल महर्षि दयानंद जी ने ही इस व्यवस्था को प्रचलित किया, स्वयं को मूर्ख सिद्ध करना है। मत-मतान्तरों वा शास्त्रों में भी नियोग के अनेकों प्रमाण मिलते हैं, देखो-
पुराण में नियोग:
१. अपुत्रां ...... ऋतावियात्।। -गरुड़० आचार० ९५/१६
अर्थ- बुजुर्गों की आज्ञानुसार सपिण्ड वा सगोत्र देवर पुत्र की कामना से पुत्ररहित स्त्री के पास ऋतुकाल में अपने शरीर के घी लगाकर जावे।
२. शतहीनं ...... वशिष्ठज:।। -भविष्य० प्रतिसर्ग० १/१/४०
अर्थ- राजा सुदास ने सौ वर्ष के लगभग राज्य किया, उसका लड़का अशमक हुआ, जोकि सुदास की स्त्री मदयन्ती में वशिष्ठ से पैदा हुआ।
३. स्वकीयां ...... श्रेष्ठतामगात्।। -भविष्य० प्रतिसर्ग० ४/१८/२७
अर्थ- ब्रह्मा अपनी पुत्री को, विष्णु अपनी माता को तथा महादेव अपनी बहिन को ग्रहण करके श्रेष्ठता को प्राप्त हो गया।
४. एकविंशतिभर्तार: ...... ख्यातविक्रम:।। -पद्म० भूमि० ८५/६५
अर्थ- दिव्यादेवी के इक्कीस पति समय-समय पर मर गये, तब प्रसिद्ध कीर्तिवाला दिवोदास राजा महादुःखी हो गया।
५. वसिष्ठश्चापुत्रेण ...... गर्भाधानंचकार।।
अर्थ- पुत्रहीन राजा के प्रार्थना करने पर वसिष्ठजी ने नियोग से मदयन्ती में गर्भाधान किया। -विष्णु पु० ४/४/६९
कुरान में नियोग:
१. और (ऐ रसूल वह वक्त याद करो) जब तुम उस शख्स (ज़ैद) से कह रहे थे जिस पर खुदा ने एहसान (अलग) किया था और तुमने उस पर (अलग) एहसान किया था कि अपनी बीबी (ज़ैनब) को अपनी ज़ौज़ियत में रहने दे और खुदा से डेर खुद तुम इस बात को अपने दिल में छिपाते थे जिसको (आख़िरकार) खुदा ज़ाहिर करने वाला था और तुम लोगों से डरते थे हालॉकि खुदा इसका ज्यादा हक़दार है कि तुम उस से डरो ग़रज़ जब ज़ैद अपनी हाजत पूरी कर चुका (तलाक़ दे दी) तो हमने (हुक्म देकर) उस औरत (ज़ैनब) का निकाह तुमसे कर दिया ताकि आम मोमिनीन को अपने ले पालक लड़कों की बीवियों (से निकाह करने) में जब वह अपना मतलब उन औरतों से पूरा कर चुकें (तलाक़ दे दें) किसी तरह की तंगी न रहे और खुदा का हुक्म तो किया कराया हुआ (क़तई) होता है।
ऐ ईमानवालों जब तुम मोमिना औरतों से (बग़ैर मेहर मुक़र्रर किये) निकाह करो उसके बाद उन्हें अपने हाथ लगाने से पहले ही तलाक़ दे दो तो फिर तुमको उनपर कोई हक़ नहीं कि (उनसे) इद्दा पूरा कराओ उनको तो कुछ (कपड़े रूपये वग़ैरह) देकर उनवाने शाइस्ता से रूख़सत कर दो।
ऐ नबी हमने तुम्हारे वास्ते तुम्हारी उन बीवियों को हलाल कर दिया है जिनको तुम मेहर दे चुके हो और तुम्हारी उन लौंडियों को (भी) जो खुदा ने तुमको (बग़ैर लड़े-भिड़े) माले ग़नीमत में अता की है और तुम्हारे चचा की बेटियाँ और तुम्हारी फूफियों की बेटियाँ और तुम्हारे मामू की बेटियाँ और तुम्हारी ख़ालाओं की बेटियाँ जो तुम्हारे साथ हिजरत करके आयी हैं (हलाल कर दी और हर ईमानवाली औरत (भी हलाल कर दी) अगर वह अपने को (बग़ैर मेहर) नबी को दे दें और नबी भी उससे निकाह करना चाहते हों मगर (ऐ रसूल) ये हुक्म सिर्फ तुम्हारे वास्ते ख़ास है और मोमिनीन के लिए नहीं और हमने जो कुछ (मेहर या क़ीमत) आम मोमिनीन पर उनकी बीवियों और उनकी लौंडियों के बारे में मुक़र्रर कर दिया है हम खूब जानते हैं और (तुम्हारी रिआयत इसलिए है) ताकि तुमको (बीवियों की तरफ से) कोई दिक्क़त न हो और खुदा तो बड़ा बख़शने वाला मेहरबान है। -कुरान मजीद सूरा ३३ (अल-अहजाब), आयत ३७, ४९ एवं ५०
२. वलीद घबराया और तलवार खींचकर अपनी माँ से कहा- सच बता कि मैं किसका बेटा हूँ? माँ ने कहाँ- तेरा बाप नामर्द था, और तेरे चचेरे भाई की आंखे हमारी जायदाद पर लगी हुई थी, मैंने अपने गुलाम से बदफैली (नियोग ) कराई और तू पैदा हुआ। -सूरत कलम रुकू १
बाइबिल में नियोग:
१. यहूदा ने ओनान से कहा- अपनी (विधवा) भौजाई के पास जा और उसके साथ देवर का धर्म पूरा करके अपने भाई के लिए संतान जन्मा। -उत्पत्ति पर्व ३८/८
२. जब कई भाई संग रहते हों और उनमें से एक निपुत्र मर जाए तो उसकी स्त्री का ब्याह पर गोत्री से न किया जाय। उसके पति का भाई उसके पास जाकर उसे अपनी स्त्री कर ले। -व्यवस्था विवरण २५/५-१०
बौद्ध एवं जैन मत में नियोग:
१. थेरीगाथा में एक परिश्रमी तथा योग्य स्त्री के तीन बार विवाह करने व तीनों बार पति के द्वारा त्याग किये जाने का उल्लेख है।
महागोविन्द जब भिक्षु बने तो उन्होंने अपनी चालीस पत्नियों से कहा कि आप लोग यदि चाहें तो अपने-अपने मातृकुल चली जायें और दूसरा पति ढूंढ लें। -थेरीगाथा ४१५, ५२१
२. राजा ने बोधिसत्व को तीनों ऋतुओं के लिये तीन महल बनवा दिए। उनमें एक नौ तल, दूसरा सात तल, तीसरा पांच तल का था। (वहां) ४४ हजार नाटक-करनेवाली स्त्रियों को नियुक्त किया। बोधिसत्व अप्सराओं के समुदाय से घिरे देवताओं की भांति, अलंकृत नटियों से परिवृत, स्त्रियों द्वारा बनाये गए वाद्यों से सेवन, महा-सम्पत्ति को उपभोग करते हुए, ऋतुओं के अनुकूल प्रासादों में विहार करते थे। -जातक कथा (निदान कथा)
३. ऋषिदासी भिक्षुणी का यह कथन देखिए-
'मेरा पति मेरा अपमान करने लगा। एतद्नन्तर, मेरे पिता ने एक अन्य कुल वाले धनाढ्य पुरुष से मेरा विवाह करा दिया। -थेरीगाथा पृ० १२६-२७
४. एक स्थूलमुनि ने कोशा वेश्या के साथ १२ वर्ष तक भोग किया और पश्चात् दीक्षा लेकर सद्गति को गया। -तत्त्वविवेक पृ० २२८
५. जैनियों के परमपूज्य १०८ मुनि श्री विवेकसागर जी के तीन पुत्र और चार पुत्रियां थीं जो द्वितीय पत्नी से उत्पन्न हुए। -(देखो उनका जीवनी)
इसके विरोध में जैन यह तर्क देते हैं-
पहली पत्नी के मृत्यु के पश्चात् दूसरा विवाहकर सन्तानोत्तपत्ति किया, अतः आक्षेप अनर्गल है।
प्रतिउत्तर-
१. जब ब्रह्मचारी थें तो दूसरा विवाहकर सन्तानोत्पत्ति करने का विचार कैसे आया?
२. सन्तान भी उत्पन्न किया तो सात (७)। इसका अर्थ हम क्या समझें?
३. पहली पत्नी से सन्तान उत्पन्न क्यों नहीं हुआ? जबकि विवाह के चार वर्ष बाद देहावसान हुआ था।
रामायण में नियोग:
१. तू केसरी का पुत्र क्षेत्रज नियोग से उत्पन्न बड़ा पराक्रमी है। -वाल्मीकिरामायण किष्किन्धा० ६६/२८
२. मरुत ने अंजना से नियोग कर हनुमान को उत्पन्न किया। -वाल्मीकिरामायण किष्किन्धा० ६६/१५
महाभारत में नियोग:
१. व्यास जी का काशिराज की पुत्री अम्बालिका से नियोग करना। -महाभारत आदिपर्व १०६/६
२. उत्तम देवर से आपत्काल में पुरुष पुत्र की इच्छा करते हैं। -महाभारत आदिपर्व १२०/२६
३. वन में बारिचर ने युधिस्टर से कहा- 'मैं तेरा धर्म नामक पिता, उत्पन्न करने वाला जनक हूँ।' -महाभारत वनपर्व ३१४/६
४. कोई गुणवान ब्राह्मण धन देकर बुलाया जाये जो विचित्र वीर्य की स्त्रियों में संतान उत्पन्न करे। -महाभारत आदिपर्व १०४/२
५. पांडु कुंती से कहते हैं- हे कल्याणी! अब तू किसी बड़े ब्राह्मण से संतान उत्पन्न करने का प्रयत्न कर। -महाभारत आदिपर्व १२०/२८
स्मृति में नियोग:
१. देवर विधवा से नियोग करे। -मनु० ९/६२
२. जिसका पति मर गया हो, वह ६ महीने बाद पिता व भाई नियोग करा दे। -वशिष्ठ १७/४८६
३. किसी का मत है कि देवर को छोड़कर अन्य से नियोग न करे। -गौतम १८
४. जिसका पति विदेश गया हो तो वह नियोग कर ले। -नारद० ९८,९९,१००
५. बिना संतान वाले की स्त्री से बीज ले। -गौतम स्मृति २८
प्रश्न- क्या वर्तमान समय में भी नियोग हो रहा है?
उत्तर- बिल्कुल हो रहा है, बस! इसका थोड़ा स्वरूप बदल गया है। आज नियोग के ऐसे विकल्प मौजूद हैं, जिसमें शारीरिक सम्बन्ध के बिना ही अर्थात् केवल वीर्य दान से सन्तानोत्पत्ति की जा सकती है। जिसे हम वीर्य बैंक, सेरोगेसी आदि नामों से जानते हैं।
प्रश्न- जब इस आधुनिक पद्धति से गर्भधारण हो सकता है तो नियोग करके स्वयं को चरित्रहीन दर्शाने की क्या आवश्यकता?
उत्तर- ब्रह्मचर्य का पालन इतना उपयोगी होने के बावजूद भी समाज में उसका कोई महत्त्व नहीं रह गया है। अब ऐसी परिस्थिति में यदि हम वेद की आज्ञा का पालन नहीं कर पाते तो इसमें किसका दोष है? क्या वेद का? परिस्थिति इतनी विकट आ चुकी है कि लोग सही नियमों को भी गलत दृष्टि से देखते हैं। यही स्थिति नियोग का है कि हम परिस्थिति विपरीत होने के कारण इसे उपयोग में नहीं ला सकते। परन्तु फिर भी नवीन पद्धतियों द्वारा नियोग का प्रयोग पूरे विश्व में हो रहा है। स्पर्म बैंकिंग, एम्ब्रियो बैंकिग, सीमन एनालिसिस, स्पर्म प्रिजर्वेशन आदि सभी नवीन पद्धतियां नियोग के ही विकल्प हैं।
हम एक बार पुनः नियोग के शर्तों को संक्षेप में लिख देते हैं-
१. किसी पुरुष की स्त्री वा स्त्री का पुरुष मर जाए।
२. उनमें किसी प्रकार का स्थिर रोग हो जाए।
३. नपुंसकता अथवा वन्ध्यापन दोष पड़ जाए।
४. उनकी युवावस्था हो।
५. सन्तानोत्पत्ति की इच्छा हो।
६. परदेश जाने पर।
७. सन्तान मरते रहने पर।
८. कन्याएं ही पैदा होना।
९. दुराचारी होने पर।
१०. संन्यास लेने पर।
महर्षि ने यह सारे प्रावधान निःस्तान दम्पत्ति हेतु लिखे हैं। शुक्राणु पुरुष के बीज हैं, जो डिम्ब से मिलकर नए जीवन की शुरुआत करते हैं। कुछ पुरुषों में शुक्राणु बहुत कम मात्रा में या निल होते हैं। निल शुक्राणु, निल स्पर्म, शुक्राणुहीनता, नो स्पर्म, वीर्य में शुक्राणु का न होना, टोटल कंसंट्रेशन निल आदि को मेडिकल भाषा में एजोस्पर्मिया (Azoospermia) कहते हैं, पति को कोई जेनेटिक रोग है जो बच्चे में जा सकता है, इत्यादि अनेकों कारण हैं जिनके कारण सन्तानोत्पत्ति नहीं कर सकते हैं अतः नियोग विकल्प ही श्रेष्ठ है। निःसन्तान होने का दुःख तो वही जान सकता है जिसकी कोई सन्तान न हो अथवा जो सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ हो। इन असभ्य लोगों को क्या ज्ञात कि नि:संतान होने का दुःख क्या होता है। आपत्काल में यदि कोई व्यवस्था न होता तो लाखों दम्पत्तियों को नि:सन्तान ही मरना पड़ता। ऐसे विकट परिस्थिति में हमें सन्मार्ग सुझाने वाले महर्षि दयानंद जी का ऋणी होना चाहिए।
आशा है कि पाठकगण मेरे इस लेख से सत्यार्थप्रकाश पर लगे मिथ्या दोषारोपण से बचने में समर्थ हो सकेंगे।
।।इत्योम् शम्।।
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