सत्य सनातन वैदिक धर्म के शास्त्रो में , महिलाओ के वेदाध्ययन करने के असंख्यों प्रमाण है। इन असंख्यों प्रमाणो को अनदेखा करते हुये कुछ अज्ञानीजन "गिने चुने कुछ प्रक्षिप्त श्लोको" के आधार पर , स्त्रियो को अनाधिकारिणी सिद्ध करने का मूर्खतापूर्ण प्रयास करते रहते है। यह लोग विद्या के लिए, विद्या की देवी सरस्वती जो स्त्री देह धारिणी है, उनकी उपासना करते है और स्त्रीयों को वेदपाठ से वंचित करने की बात करते... है। मतलब पहले विद्या के लिए स्त्री सरस्वती जी की शरण मे जाना, और विद्याप्राप्ति के पश्चात ये 'फतवा' जारी कर देना कि स्त्रीयों को अधिकार नहीं है , हास्यास्पद है।
यह मूढ़ कभी ये क्यो नहीं सोचते कि यदि स्त्रियों को वेदमन्त्रों का अधिकार नहीं, तो प्राचीनकाल में स्त्रियाँ वेदों की मन्त्रद्रष्ट्री- ऋषिकाएँ क्यों हुईं? यदि वेद की वे अधिकारिणी नहीं तो यज्ञ आदि धार्मिक कृत्यों तथा षोडश संस्कारों में उन्हें सम्मिलित क्यों किया जाता है? विवाह आदि अवसरों पर स्त्रियों के मुख से वेदमन्त्रों का उच्चारण क्यों कराया जाता है? बिना वेदमन्त्रों के नित्य सन्ध्या और हवन स्त्रियाँ कैसे कर सकती हैं? यदि स्त्रियाँ अनधिकारिणी थीं तो अनसूया, अहल्या, अरुन्धती, मदालसा आदि अगणित स्त्रियाँ वेदशास्त्रों में पारंगत कैसे थीं? ज्ञान, धर्म और उपासना के स्वाभाविक अधिकारों से नागरिकों को वंचित करना क्या अन्याय एवं पक्षपात नहीं है। जब स्त्री, पुरुष की अर्धांगिनी है तो आधा अंग अधिकारी और आधा अनधिकारी किस प्रकार रहा?
खैर इन प्रश्नो के उत्तर तो इनसे नहीं देते बनेंगे, किन्तु अब शास्त्रो से ही इनके इस असत्यमत के खंडन, और इस सत्य --" स्त्रियो को वेदमंत्रो के उच्चारण का, अध्ययन का, यज्ञादि करने का, आचार्या बनने का अधिकार था व है , इसकी सिद्धि हेतु प्रमाण प्रस्तुत किए जाते है, विचारशील व्यक्ति स्वयं इससे समझ सकते है कि सत्य क्या है ---
ऋग्वेद १०। ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है। ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—‘‘ऋषिर्दर्शनात्। स्तोमान् ददर्शेति (२.११)। ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)।’’ अर्थात् मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है। ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है—
घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं।
ऋ ग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं।
ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह वेदाध्ययन व यज्ञ करती और कराती थीं। वे यज्ञ- विद्या और ब्रह्म- विद्या में पारंगत थीं।
तैत्तिरीय ब्राह्मण’’ में सोम द्वारा ‘सीता- सावित्री’ ऋषिका को तीन वेद देने का वर्णन विस्तारपूर्वक आता है—
तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त। अथ ह सीता सावित्री। सोमँ राजानं चकमे। तस्या उ ह त्रीन् वेदान् प्रददौ। -तैत्तिरीय ब्रा०२/३/१०/१,३
इस मन्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार सोम ने सीता- सावित्री को तीन वेद दिये।
द्विविधा: स्त्रिया:। ब्रह्मवादिन्य: सद्योवध्वश्च। तत्र ब्रह्मवादिनीनामुपनयनम्, अग्रीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे च भिक्षाचर्येति। सद्योवधूनां तूपस्थिते विवाहे कथञ्चिदुपनयनमात्रं कृत्वा विवाह: कार्य:। —हारीत धर्म सूत्र
ब्रह्मवादिनी और सद्योवधू ये दो स्त्रियाँ होती हैं। इनमें से ब्रह्मवादिनी- यज्ञोपवीत, अग्निहोत्र, वेदाध्ययन तथा स्वगृह में भिक्षा करती हैं। सद्योवधुओं का भी यज्ञोपवीत आवश्यक है। वह विवाहकाल उपस्थित होने पर करा देते हैं।
शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य ऋषि की धर्मपत्नी मैत्रेयी को ब्रह्मवादिनी कहा है—
तयोर्ह मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव। —शत०ब्रा० १४/७/३/१
अर्थात् मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी।
ब्रह्मवादिनी का अर्थ बृहदारण्यक उपनिषद् का भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्य ने ‘ब्रह्मवादनशील’ किया है।
शतपथ ब्राह्मण १४। १। ४। १६ में, यजुर्वेद के ३७। २० मन्त्र ‘त्वष्टमन्तस्त्वा सपेम’ इस मन्त्र को पत्नी द्वारा उच्चारण करने का विधान है। तैत्तिरीय संहिता के १। १। १० ‘सुप्रजसस्त्वा वयं’ आदि मन्ज्ञत्रों को स्त्री द्वारा बुलवाने का आदेश है। आश्वलायन गृह्य सूत्र १। १। ९ के ‘पाणिग्रहणादि गृह्य....’ में भी इसी प्रकार यजमान की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी, पुत्र अथवा कन्या को यज्ञ करने का आदेश है। काठक गृह्य सूत्र ३। १। ३० एवं २७। ३ में स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन, मन्त्रोच्चारण एवं वैदिक कर्मकाण्ड करने का प्रतिपादन है। लौगाक्षी गृह्म सूत्र की २५वीं कण्डिका में भी ऐसे प्रमाण मौजूद हैं।
सूर्य दर्शन के समय भी वह यजुर्वेद के ३६। २४ मन्त्र ‘तच्चक्षुर्देवहितं’ को स्वयं ही उच्चारण करती है। विवाह के समय ‘समञ्जन’ करते समय वर- वधू दोनों साथ- साथ ‘अथैनौ समञ्जयत: .....’ इस ऋग्वेद १०। ८५। ४७ के मन्त्र को पढ़ते हैं। ऐतरेय ५। ५। २९ में कुमारी गन्धर्व गृहीता का उपाख्यान है, जिसमें कन्या के यज्ञ एवं वेदाधिकार का स्पष्टीकरण हुआ है।
कात्यायन श्रौत सूत्र १। १। ७, ४। १। २२ तथा २०। ६। १२ आदि में ऐसे स्पष्ट आदेश हैं कि अमुक वेद- मन्त्रों का उच्चारण स्त्री करे। लाट्यायन श्रौत सूत्र में पत्नी द्वारा सस्वर सामवेद के मन्त्रों के गायन का विधान है। शांखायन श्रौत सूत्र के १। १२। १३ में तथा आश्वलायन श्रौत सूत्र १। ११। १ में इसी प्रकार के वेद- मन्त्रोच्चारण के आदेश हैं। मन्त्र ब्राह्मण के १। २। ३ में कन्या द्वारा वेद- मन्त्र के उच्चारण की आज्ञा है। यजुर्वेद मे आता है , ---
कुलायिनी घृतवती पुरन्धि: स्योने सीद सदने पृथिव्या:। अभित्वा रुद्रा वसवो गृणन्त्विमा। ब्रह्म पीपिहि सौभगायाश्विनाध्वर्यू सादयतामिहत्वा। —यजुर्वेद १४। २
अर्थात, हे स्त्री! तुम कुलवती घृत आदि पौष्टिक पदार्थों का उचित उपयोग करने वाली, तेजस्विनी, बुद्धिमती, सत्कर्म करने वाली होकर सुखपूर्वक रहो। तुम ऐसी गुणवती और विदुषी बनो कि रुद्र और वसु भी तुम्हारी प्रशंसा करें। सौभाग्य की प्राप्ति के लिये इन वेदमन्त्रों के अमृत का बार- बार भली प्रकार पान करो। विद्वान् तुम्हें शिक्षा देकर इस प्रकार की उच्च स्थिति पर प्रतिष्ठित कराएँ।
यह सर्वविदित है कि यज्ञ, बिना वेदमन्त्रों के नहीं होता और यज्ञ में पति- पत्नी दोनों का सम्मिलित रहना आवश्यक है। रामचन्द्र जी ने सीता जी की अनुपस्थिति में सोने की प्रतिमा रखकर यज्ञ किया था। ब्रह्माजी को भी सावित्री की अनुपस्थिति में द्वितीय पत्नी का वरण करना पड़ा था, क्योंकि यज्ञ की पूर्ति के लिये पत्नी की उपस्थिति आवश्यक है। जब स्त्री यज्ञ करती है, तो उसे वेदाधिकार न होने की बात किस प्रकार कही जा सकती है? देखिये—
अ यज्ञो वा एष योऽपत्नीक:। —तैत्तिरीय सं० २। २। २। ६
अर्थात् बिना पत्नी के यज्ञ नहीं होता है।
अथो अर्धो वा एष आत्मन: यत् पत्नी।
—तैत्तिरीय सं० ३। ३। ३। ५
अर्थात्- पत्नी पति की अर्धांगिनी है, अत: उसके बिना यज्ञ अपूर्ण है।
अब महाभारत से कुछ प्रमाण प्रस्तुत करते है ---
भारद्वाजस्य दुहिता रूपेणाप्रतिमा भुवि। श्रुतावती नाम विभो कुमारी ब्रह्मचारिणी॥ —महाभारत शल्य पर्व ४८। २
अर्थात, भारद्वाज की श्रुतावती नामक कन्या थी जो ब्रह्मचारिणि थी। कुमारी के साथ- साथ ब्रह्मचारिणि शब्द लगाने का तात्पर्य यह है कि वह अविवाहित और वेदाध्ययन करने वाली थी।
अत्रैव ब्राह्मणी सिद्धा कौमार- ब्रह्मचारिणि। योगयुक्ता दिवं याता, तप: सिद्धा तपस्विनी॥ —महाभारत शल्य पर्व ५४। ६
अर्थात, योग सिद्धि को प्राप्त कुमार अवस्था से ही वेदाध्ययन करने वाली तपस्विनी, सिद्धा नाम की ब्रह्मचारिणि मुक्ति को प्राप्त हुई।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय ३२० में ‘सुलभा’ नामक ब्रह्मवादिनी संन्यासिनी का वर्णन है, जिसने राजा जनक के साथ शास्त्रार्थ किया था। इसी अध्याय के श्लोकों में सुलभा ने अपना परिचय देते हुए कहा—
प्रधानो नाम राजर्षिव्र्यक्तं ते श्रोत्रमागत:। कुले तस्य समुत्पन्नां सुलभां नाम विद्धि माम्
साऽहं तस्मिन् कुले जाता भर्तर्यसति मद्विधे। विनीता मोक्षधर्मेषु चराम्येकामुनिव्रतम्॥ —महा०शान्ति पर्व ३२०। १८१। १८३
मैं सुप्रसिद्ध क्षत्रिय कुल में उत्पन्न सुलभा हूँ। अपने अनुरूप पति न मिलने से मैंने गुरुओं से शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करके संन्यास ग्रहण किया है।
अब वाल्मीकि रामायण से प्रमाण देखिये ----
देही शोकसन्तप्ता हुताशनमुपागमत्। —वाल्मीकि० सुन्दर ५३। २६
अर्थात्- तब शोक सन्तप्त सीताजी ने हवन किया।
‘तदा सुमन्त्रं मन्त्रज्ञा कैकेयी प्रत्युवाच ह।’ —वा० रा० अयो० १४। ६१
वेदमन्त्रों को जानने वाली कैकेयी ने सुमन्त्र से कहा।
सा क्षौमवसना हृष्ट नित्यं व्रतपरायणा। अग्निं जुहोति स्म तदा मन्त्रवत् कृतमंगला॥ —वा० रा० २। २०। १५
वह रेशमी वस्त्र धारण करने वाली, व्रतपरायण, प्रसन्नमुखी, मंगलकारिणी कौशल्या मन्त्रपूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी।
तत: स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी। अन्त:पुरं सहस्त्रीभि: प्रविष्टि शोकमोहिता॥ —वा० रा० ४। १६। १२
तब मन्त्रों को जानने वाली तारा ने अपने पति बाली की विजय के लिये स्वस्तिवाचन के मन्त्रों का पाठ करके अन्त:पुर में प्रवेश किया।
इसके अतिरिक्त वसिष्ठ स्मृति भी स्त्रियो के वेदमंत्रो के उच्चारण व अध्ययन का समर्थन ही करती है ।
व्याकरण शास्त्र के भी कतिपय स्थलों पर ऐसे उल्लेख हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि वेद का अध्ययन- अध्यापन भी स्त्रियों का कार्यक्षेत्र रहा है। देखिए—
‘इडश्च’ ३। ३। २१ के महाभाष्य में लिखा है— ‘उपेत्याधीयतेऽस्या उपाध्यायी उपाध्याया’
अर्थात् जिनके पास आकर कन्याएँ वेद के एक भाग तथा वेदांगों का अध्ययन करें, वह उपाध्यायी या उपाध्याया कहलाती है।
आचार्यादणत्वं। —अष्टाध्यायी ४। १। ४९
इस सूत्र पर सिद्धान्त कौमुदी में कहा गया है—
आचार्यस्य स्त्री आचार्यानी पुंयोग इत्येवं आचार्या स्वयं व्याख्यात्री।
अर्थात् जो स्त्री वेदों का प्रवचन करने वाली हो, उसे आचार्या कहते हैं।
ऐसे ही अन्य भी अनेकों प्रमाण है जो सिद्ध करते है कि स्त्रीयों को भी वेदाध्ययन करने का अधिकार शास्त्रसम्मत है।
यह मूढ़ कभी ये क्यो नहीं सोचते कि यदि स्त्रियों को वेदमन्त्रों का अधिकार नहीं, तो प्राचीनकाल में स्त्रियाँ वेदों की मन्त्रद्रष्ट्री- ऋषिकाएँ क्यों हुईं? यदि वेद की वे अधिकारिणी नहीं तो यज्ञ आदि धार्मिक कृत्यों तथा षोडश संस्कारों में उन्हें सम्मिलित क्यों किया जाता है? विवाह आदि अवसरों पर स्त्रियों के मुख से वेदमन्त्रों का उच्चारण क्यों कराया जाता है? बिना वेदमन्त्रों के नित्य सन्ध्या और हवन स्त्रियाँ कैसे कर सकती हैं? यदि स्त्रियाँ अनधिकारिणी थीं तो अनसूया, अहल्या, अरुन्धती, मदालसा आदि अगणित स्त्रियाँ वेदशास्त्रों में पारंगत कैसे थीं? ज्ञान, धर्म और उपासना के स्वाभाविक अधिकारों से नागरिकों को वंचित करना क्या अन्याय एवं पक्षपात नहीं है। जब स्त्री, पुरुष की अर्धांगिनी है तो आधा अंग अधिकारी और आधा अनधिकारी किस प्रकार रहा?
खैर इन प्रश्नो के उत्तर तो इनसे नहीं देते बनेंगे, किन्तु अब शास्त्रो से ही इनके इस असत्यमत के खंडन, और इस सत्य --" स्त्रियो को वेदमंत्रो के उच्चारण का, अध्ययन का, यज्ञादि करने का, आचार्या बनने का अधिकार था व है , इसकी सिद्धि हेतु प्रमाण प्रस्तुत किए जाते है, विचारशील व्यक्ति स्वयं इससे समझ सकते है कि सत्य क्या है ---
ऋग्वेद १०। ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है। ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—‘‘ऋषिर्दर्शनात्। स्तोमान् ददर्शेति (२.११)। ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)।’’ अर्थात् मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है। ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है—
घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं।
ऋ ग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं।
ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह वेदाध्ययन व यज्ञ करती और कराती थीं। वे यज्ञ- विद्या और ब्रह्म- विद्या में पारंगत थीं।
तैत्तिरीय ब्राह्मण’’ में सोम द्वारा ‘सीता- सावित्री’ ऋषिका को तीन वेद देने का वर्णन विस्तारपूर्वक आता है—
तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त। अथ ह सीता सावित्री। सोमँ राजानं चकमे। तस्या उ ह त्रीन् वेदान् प्रददौ। -तैत्तिरीय ब्रा०२/३/१०/१,३
इस मन्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार सोम ने सीता- सावित्री को तीन वेद दिये।
द्विविधा: स्त्रिया:। ब्रह्मवादिन्य: सद्योवध्वश्च। तत्र ब्रह्मवादिनीनामुपनयनम्, अग्रीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे च भिक्षाचर्येति। सद्योवधूनां तूपस्थिते विवाहे कथञ्चिदुपनयनमात्रं कृत्वा विवाह: कार्य:। —हारीत धर्म सूत्र
ब्रह्मवादिनी और सद्योवधू ये दो स्त्रियाँ होती हैं। इनमें से ब्रह्मवादिनी- यज्ञोपवीत, अग्निहोत्र, वेदाध्ययन तथा स्वगृह में भिक्षा करती हैं। सद्योवधुओं का भी यज्ञोपवीत आवश्यक है। वह विवाहकाल उपस्थित होने पर करा देते हैं।
शतपथ ब्राह्मण में याज्ञवल्क्य ऋषि की धर्मपत्नी मैत्रेयी को ब्रह्मवादिनी कहा है—
तयोर्ह मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी बभूव। —शत०ब्रा० १४/७/३/१
अर्थात् मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी।
ब्रह्मवादिनी का अर्थ बृहदारण्यक उपनिषद् का भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्य ने ‘ब्रह्मवादनशील’ किया है।
शतपथ ब्राह्मण १४। १। ४। १६ में, यजुर्वेद के ३७। २० मन्त्र ‘त्वष्टमन्तस्त्वा सपेम’ इस मन्त्र को पत्नी द्वारा उच्चारण करने का विधान है। तैत्तिरीय संहिता के १। १। १० ‘सुप्रजसस्त्वा वयं’ आदि मन्ज्ञत्रों को स्त्री द्वारा बुलवाने का आदेश है। आश्वलायन गृह्य सूत्र १। १। ९ के ‘पाणिग्रहणादि गृह्य....’ में भी इसी प्रकार यजमान की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी, पुत्र अथवा कन्या को यज्ञ करने का आदेश है। काठक गृह्य सूत्र ३। १। ३० एवं २७। ३ में स्त्रियों के लिए वेदाध्ययन, मन्त्रोच्चारण एवं वैदिक कर्मकाण्ड करने का प्रतिपादन है। लौगाक्षी गृह्म सूत्र की २५वीं कण्डिका में भी ऐसे प्रमाण मौजूद हैं।
सूर्य दर्शन के समय भी वह यजुर्वेद के ३६। २४ मन्त्र ‘तच्चक्षुर्देवहितं’ को स्वयं ही उच्चारण करती है। विवाह के समय ‘समञ्जन’ करते समय वर- वधू दोनों साथ- साथ ‘अथैनौ समञ्जयत: .....’ इस ऋग्वेद १०। ८५। ४७ के मन्त्र को पढ़ते हैं। ऐतरेय ५। ५। २९ में कुमारी गन्धर्व गृहीता का उपाख्यान है, जिसमें कन्या के यज्ञ एवं वेदाधिकार का स्पष्टीकरण हुआ है।
कात्यायन श्रौत सूत्र १। १। ७, ४। १। २२ तथा २०। ६। १२ आदि में ऐसे स्पष्ट आदेश हैं कि अमुक वेद- मन्त्रों का उच्चारण स्त्री करे। लाट्यायन श्रौत सूत्र में पत्नी द्वारा सस्वर सामवेद के मन्त्रों के गायन का विधान है। शांखायन श्रौत सूत्र के १। १२। १३ में तथा आश्वलायन श्रौत सूत्र १। ११। १ में इसी प्रकार के वेद- मन्त्रोच्चारण के आदेश हैं। मन्त्र ब्राह्मण के १। २। ३ में कन्या द्वारा वेद- मन्त्र के उच्चारण की आज्ञा है। यजुर्वेद मे आता है , ---
कुलायिनी घृतवती पुरन्धि: स्योने सीद सदने पृथिव्या:। अभित्वा रुद्रा वसवो गृणन्त्विमा। ब्रह्म पीपिहि सौभगायाश्विनाध्वर्यू सादयतामिहत्वा। —यजुर्वेद १४। २
अर्थात, हे स्त्री! तुम कुलवती घृत आदि पौष्टिक पदार्थों का उचित उपयोग करने वाली, तेजस्विनी, बुद्धिमती, सत्कर्म करने वाली होकर सुखपूर्वक रहो। तुम ऐसी गुणवती और विदुषी बनो कि रुद्र और वसु भी तुम्हारी प्रशंसा करें। सौभाग्य की प्राप्ति के लिये इन वेदमन्त्रों के अमृत का बार- बार भली प्रकार पान करो। विद्वान् तुम्हें शिक्षा देकर इस प्रकार की उच्च स्थिति पर प्रतिष्ठित कराएँ।
यह सर्वविदित है कि यज्ञ, बिना वेदमन्त्रों के नहीं होता और यज्ञ में पति- पत्नी दोनों का सम्मिलित रहना आवश्यक है। रामचन्द्र जी ने सीता जी की अनुपस्थिति में सोने की प्रतिमा रखकर यज्ञ किया था। ब्रह्माजी को भी सावित्री की अनुपस्थिति में द्वितीय पत्नी का वरण करना पड़ा था, क्योंकि यज्ञ की पूर्ति के लिये पत्नी की उपस्थिति आवश्यक है। जब स्त्री यज्ञ करती है, तो उसे वेदाधिकार न होने की बात किस प्रकार कही जा सकती है? देखिये—
अ यज्ञो वा एष योऽपत्नीक:। —तैत्तिरीय सं० २। २। २। ६
अर्थात् बिना पत्नी के यज्ञ नहीं होता है।
अथो अर्धो वा एष आत्मन: यत् पत्नी।
—तैत्तिरीय सं० ३। ३। ३। ५
अर्थात्- पत्नी पति की अर्धांगिनी है, अत: उसके बिना यज्ञ अपूर्ण है।
अब महाभारत से कुछ प्रमाण प्रस्तुत करते है ---
भारद्वाजस्य दुहिता रूपेणाप्रतिमा भुवि। श्रुतावती नाम विभो कुमारी ब्रह्मचारिणी॥ —महाभारत शल्य पर्व ४८। २
अर्थात, भारद्वाज की श्रुतावती नामक कन्या थी जो ब्रह्मचारिणि थी। कुमारी के साथ- साथ ब्रह्मचारिणि शब्द लगाने का तात्पर्य यह है कि वह अविवाहित और वेदाध्ययन करने वाली थी।
अत्रैव ब्राह्मणी सिद्धा कौमार- ब्रह्मचारिणि। योगयुक्ता दिवं याता, तप: सिद्धा तपस्विनी॥ —महाभारत शल्य पर्व ५४। ६
अर्थात, योग सिद्धि को प्राप्त कुमार अवस्था से ही वेदाध्ययन करने वाली तपस्विनी, सिद्धा नाम की ब्रह्मचारिणि मुक्ति को प्राप्त हुई।
महाभारत शान्ति पर्व अध्याय ३२० में ‘सुलभा’ नामक ब्रह्मवादिनी संन्यासिनी का वर्णन है, जिसने राजा जनक के साथ शास्त्रार्थ किया था। इसी अध्याय के श्लोकों में सुलभा ने अपना परिचय देते हुए कहा—
प्रधानो नाम राजर्षिव्र्यक्तं ते श्रोत्रमागत:। कुले तस्य समुत्पन्नां सुलभां नाम विद्धि माम्
साऽहं तस्मिन् कुले जाता भर्तर्यसति मद्विधे। विनीता मोक्षधर्मेषु चराम्येकामुनिव्रतम्॥ —महा०शान्ति पर्व ३२०। १८१। १८३
मैं सुप्रसिद्ध क्षत्रिय कुल में उत्पन्न सुलभा हूँ। अपने अनुरूप पति न मिलने से मैंने गुरुओं से शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करके संन्यास ग्रहण किया है।
अब वाल्मीकि रामायण से प्रमाण देखिये ----
देही शोकसन्तप्ता हुताशनमुपागमत्। —वाल्मीकि० सुन्दर ५३। २६
अर्थात्- तब शोक सन्तप्त सीताजी ने हवन किया।
‘तदा सुमन्त्रं मन्त्रज्ञा कैकेयी प्रत्युवाच ह।’ —वा० रा० अयो० १४। ६१
वेदमन्त्रों को जानने वाली कैकेयी ने सुमन्त्र से कहा।
सा क्षौमवसना हृष्ट नित्यं व्रतपरायणा। अग्निं जुहोति स्म तदा मन्त्रवत् कृतमंगला॥ —वा० रा० २। २०। १५
वह रेशमी वस्त्र धारण करने वाली, व्रतपरायण, प्रसन्नमुखी, मंगलकारिणी कौशल्या मन्त्रपूर्वक अग्निहोत्र कर रही थी।
तत: स्वस्त्ययनं कृत्वा मन्त्रविद् विजयैषिणी। अन्त:पुरं सहस्त्रीभि: प्रविष्टि शोकमोहिता॥ —वा० रा० ४। १६। १२
तब मन्त्रों को जानने वाली तारा ने अपने पति बाली की विजय के लिये स्वस्तिवाचन के मन्त्रों का पाठ करके अन्त:पुर में प्रवेश किया।
इसके अतिरिक्त वसिष्ठ स्मृति भी स्त्रियो के वेदमंत्रो के उच्चारण व अध्ययन का समर्थन ही करती है ।
व्याकरण शास्त्र के भी कतिपय स्थलों पर ऐसे उल्लेख हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि वेद का अध्ययन- अध्यापन भी स्त्रियों का कार्यक्षेत्र रहा है। देखिए—
‘इडश्च’ ३। ३। २१ के महाभाष्य में लिखा है— ‘उपेत्याधीयतेऽस्या उपाध्यायी उपाध्याया’
अर्थात् जिनके पास आकर कन्याएँ वेद के एक भाग तथा वेदांगों का अध्ययन करें, वह उपाध्यायी या उपाध्याया कहलाती है।
आचार्यादणत्वं। —अष्टाध्यायी ४। १। ४९
इस सूत्र पर सिद्धान्त कौमुदी में कहा गया है—
आचार्यस्य स्त्री आचार्यानी पुंयोग इत्येवं आचार्या स्वयं व्याख्यात्री।
अर्थात् जो स्त्री वेदों का प्रवचन करने वाली हो, उसे आचार्या कहते हैं।
ऐसे ही अन्य भी अनेकों प्रमाण है जो सिद्ध करते है कि स्त्रीयों को भी वेदाध्ययन करने का अधिकार शास्त्रसम्मत है।
साभार- वैदिक सुधा निधि
hamare gyan me vridhi aur in pramano ke liye dhanyavad.
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