Monday, October 14, 2013

अगर स्वामी श्रद्धानंद की बात मान ली जाती तो मुज्जफरनगर का दंगा नहीं होता।



मुज्जफरनगर का दंगा भारत देश की सामाजिक व्यवस्था पर एक दाग के समान हैं। इस दंगे को टाला जा सकता था। जानते हैं कैसे? इसकी जड़ पर प्रहार करके। कहने को मुज्जफरनगर के दंगे हिन्दू और मुस्लमान समुदाय के बीच में हुए हैं। पर दोनों और से हिन्दू और मुसलमानों के पूर्वज एक ही हैं। उनके बीच मजहब की दीवारे और दुरिया समय ने बना डाली , अब उसे राजनेता भरने नहीं दे रहे हैं। इतिहास का यह कटु सत्य हैं की भारत देश के ९९% मुस्लिम उन हिन्दुओं की संतान हैं जिनके पूर्वज हिन्दू थे और उन्हें बलात मुस्लिम शासकों ने जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया था। १९२० के दशक में स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज द्वारा आर्यसमाज के मंच से शुद्धि आन्दोलन चलाया गया था।
उन्हें आंशिक सफलता भी मिली थी। आगरा, मथुरा, भरतपुर के गाँव गाँव में बसने वाले नौ मुस्लिम जिनके रीति-रिवाज हिन्दू थे, गोत्र हिन्दू थे, परम्पराएँ हिन्दू थी बस केवल नाम मुस्लिम था सहर्ष इस आन्दोलन के माध्यम से वापिस अपने पूर्वजों के धर्म में लौटे थे।
 स्वामी जी शुद्धि आन्दोलन को भारत भर में चलाना चाहते थे मगर जातिवादी, संकीर्ण, छुआछुत से ग्रसित, गली सड़ी परम्पराओं को धर्म का नाम देने वाले कुछ अज्ञानी लोगो ने स्वामी जी का साथ नहीं दिया।
 अन्यथा उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में बसने वाली और अपने नाम के आगे चौहान, त्यागी, जाट, मिश्रा आदि लगाने वाले मुस्लिम समाज कब के घर लौट चुके होते। आज अपने राजनैतिक हितों को सिद्ध करने के लिए राजनेता हिन्दू मुस्लमान के बीच दंगा करवा कर समाज की शांति को भंग कर रहे हैं। इन दंगों को रोकने के लिए और भाई भाई के विवाद को समाप्त करने का एक ही उपाय हैं। वह हैं अपने दिलों को बड़ा कर लो।
 सामूहिक शुद्धि ,रोटी, बेटी का सम्बन्ध स्थापित करने से ही अपने समाज को टूटने से, उसकी शांति को भंग होने से बचाया जा सकता हैं। ऐसा नहीं हैं की मुस्लिम समाज में इस घर वापसी का चिंतन नहीं हैं। सबसे बड़ी रुकावट ही यही हैं की हिन्दू समाज ने कोई विकल्प ही स्थापित नहीं किया हैं।कोई मुस्लिम भाई आना भी चाहे तो उसे इतनी समस्याएँ सहन करनी पड़ती हैं की उसका उत्साह ही समाप्त हो जाता हैं।
सबसे बड़ी विडंबना यह हैं की हमने इतिहास से भी कुछ नहीं सीखा।
आज कश्मीर का नाम जैसे ही हमारे सामने आता हैं पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद, कश्मीरी पंडितों का पलायन और नरसंहार, अलगाववादी नेताओं द्वारा सेना विरोधी बयान आदि का स्मरण होना निश्चित हो जाता हैं। शैव विचारधारा की पवित्र भूमि कश्मीर का स्वर्ग से नरक में बदलना अभिशाप से कम नहीं हैं। क्या कभी हिन्दू समाज के नेताओं ने यह विचार विमर्श किया की इस हालत का जिम्मेदार कौन हैं? क्या पाकिस्तान,नहीं! यह प्रक्रिया तो सदियों पहले आरंभ हो चुकी थी।कश्मीर का इतिहास राजतरंगनी कहलाता हैं। उस इतिहास के माध्यम से हमें मालूम चलता हैं की
कश्मीर के पहले इस्लामिक शासक का नाम रिन्चान था। वो लद्दाख का रहने वाला था और बुद्ध विचारधारा को मानने वाला था। उसके पिता का किसी ने क़त्ल कर दिया था जिसके कारण उसे भाग कर कश्मीर आना पड़ा। कश्मीर के राजा सहदेव के कमांडर रामचंद के किले में रिन्चान ने आश्रय प्राप्त किया था। यहाँ पर उसकी भेंट उसी सामान आश्रय प्राप्त शमशीर से हुई। रिन्चान ने ६ अक्टूबर, १३२० को रामचंद का क़त्ल कर खुद को कश्मीर का शासक  घोषित कर दिया और रामचंद के बेटी कोटा रानी से विवाह कर लिया और उसके पुत्र रावण चन्द्र को अपनी सेनाओं का कमांडर और शमशीर को अपना वज़ीर नियुक्त कर दिया। रिन्चान के राज्य में शांति होने के बाद भी उसकी आत्मा में शांति नहीं थी। उसे यह अपराध बोध हर समय सताता था की उसने धोखे से राज्य ग्रहण किया हैं। इस अपराध से मुक्त होने की भावना से उसने कश्मीर ले धर्म, उसकी सभ्यता, उसकी संस्कृति को अपनाने का मन बनाया। उस दिनों कश्मीर में शैव धर्म का प्रचार प्रसार था और उनके सबसे बड़े धर्म गुरु का नाम देव स्वामी था। रिन्चान अपनी प्रार्थना लेकर देव स्वामी के पास गया और उनसे उसने हिन्दू धर्म का सदस्य बनाकर अपने अपराध का प्रयाश्चित करवाने की प्रार्थना की। देव स्वामी यूँ तो शैवों का स्वामी था मगर वह दूरदृष्टी का स्वामी नहीं था।
 उसने रिन्चान की प्रार्थना को जन्म से बुद्ध होने के कारण अस्वीकार कर दिया और इससे रिन्चान मन मसोस कर रह गया और कुछ न कर सका। इस परिदृश्य के पश्चात रिन्चान उदास रहने लगा था। उसके वज़ीर शमशीर ने स्थिति को भाँप लिया और उससे अकेले में उसकी उदासी का कारण पूछा। शमशीर ने रिन्चान को सलाह दी की अगले दिन उसे  जो भी कोई उसे सर्वप्रथम दिखे वह उसका धर्म ग्रहण कर ले , इससे उसकी समस्या का समाधान हो जायेगा।
इसे सहयोग कहिये या शमशीर की सुनियोजित चाल कहिये अगले दिन प्रात: रिन्चान जैसे ही भ्रमण पर निकला उसे बुलबुल शाह के नाम से एक मुस्लिम फकीर नमाज अदा करते मिला। उस फकीर के सामने जैसे ही रिन्चान ने अपना प्रस्ताव रखा उसने उसे सहर्ष स्वीकार किया और रिन्चान को कलमा पढ़ा कर उसका नाम शाह सदरुद्दीन रख दीया और इस प्रकार से रिन्चान कश्मीर का पहला इस्लामिक शासक बना। देवस्वामी की गलती को बार बार दोबारा से कश्मीर के इतिहास में दोहराया गया। १६ वीं शताब्दी में कश्मीर के हिन्दू राज ने संस्कृतिकरण और शुद्धिकरण का प्रयास आरंभ किया मगर राजा के प्रयासों को विफल करने के लिए काशी के पंडितों ने उनका विरोध किया। कश्मीर की हिन्दू जनता अफगानिस्तान के पठानों और दिल्ली की मुस्लिम सत्ता के बीच में शताब्दियों तक पिसती रही। छल से, बल से अनेकों को इस्लाम में दीक्षित किया गया। मुसलमानों के प्रमुखों ने हिन्दू राजा के समक्ष प्रार्थना प्रस्तुत कर वापिस हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग बन्ने के लिए प्रायश्चित करने का प्रस्ताव पेश किया। हिन्दू राजा ने काशी के पंडितों से शुद्धि की व्यवस्था ,माँगी जो उन्होंने अस्वीकार कर दी, फिर भी राजा ने शुद्धि के यज्ञ का आयोजन किया। अब राजपुरोहित राजा के मार्ग में रोड़ा बन गये। उन्होंने राजा से कहा की यदि आप यह अधर्म करगे तो हम प्राण त्याग करेगे और ब्राह्मण हत्या का दोष राजा के सर जायेगा। उन्होंने सचमुच वितस्ता (झेलम नदी का प्राचीन नाम) में नौका छोड़ दी और झेलम में छलांग लगा दी। राजा ने उनको किसी प्रकार नदी से बाहर निकला और शुद्धि यज्ञ को स्थगित कर दिया। कश्मीर की बलात मुस्लिम बनाई गई जनता एक बार फिर से हिन्दू न बन पाई।
      
(सन्दर्भ- Danger in Kashmir, Page १५ Korbel, श्री बाल शास्त्री हरदास रचित डॉ मुंजे जीवन चरित्र, खंड १, पृष्ठ ५ १, गाँधी वध क्यूँ- गोपाल गोडसे-पृष्ठ ३१, ३२)
१९५१ में कश्मीर में मुस्लिम जनता का प्रतिशत ७७% था। यह उन्हीं मुसलमानों की संतान हैं जिन्हें हिन्दू बनने से रोका गया था। कश्मीर समस्या जो आज भारत का लिए एक नासूर के समान हैं के अंत में तीन व्यक्तियों का नाम प्रमुखता से लिया जाता हैं। एक मुहम्मद अली जिन्ना, दुसरे जिन्ना को प्रेरित करने वाले अलामा इकबाल और तीसरे शेख अब्दुल्लाह। पाकिस्तान के निर्माता जिन्नाह के दादा का नाम पूंजा गोकुलदास मेघजी था जो गुजरात के रहने वाले थे और भाटिया हिन्दू राजपूत थे। किसी कारणवश उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। कालांतर में उन जैसे खोजा सम्प्रदाय से सम्बन्ध वाले धर्मातरित मुसलमानों ने हिन्दू बनने के लिए प्रायश्चित रुपी प्रार्थना पत्र को बनारस के हिन्दू पंडितों के समक्ष भेजा। बनारस के पंडितों ने उनके निवेदन को यह कहकर अस्वीकार कर दिया की जो हमारे यहाँ से एक बार गया वह वापिस नहीं आ सकता।  खोजा मुस्लिम समाज में पंडितों के इस व्यवहार पर अत्यंत रोष प्रकट किया गया। ऐसे रोष के वातावरण में जिन्नाह का जन्म हुआ । खोजा समाज में अब हिन्दू समाज के साथ सहानभूति के स्थान पर प्रतिशोध की भावना थी। इसी प्रतिशोध ने जिन्नाह को हिन्दुओं से द्वेष करने वाला बना दिया था जिसका परिणाम भारत का विभाजन और पाकिस्तान का जन्म निकला।
कहते हैं जिन्नाह को पाकिस्तान का राग रटवाने वाला इकबाल था। इकबाल के दादा कश्मीरी पंडित थे और उनका नाम रतन लाल सप्रू था। जिस काल में कश्मीर पर अफगानिस्तान का गवर्नर का राज था उस काल में रतन लाल सप्रू आयकर में कार्यरत थे। कहते हैं की उन्होंने हिसाब किताब में कुछ घोटाला किया था। पकड़े जाने पर उन्हें मृत्यु दंड अथवा इस्लाम को स्वीकार करने का निर्णय मुस्लिम गवर्नर ने सुनाया। उन्होंने जीवित रहना उचित समझा और इस्लाम ग्रहण लिया। बाद में सिखों का कश्मीर पर राज हो गया तो वे सियालकोट जाकर रहने लगे थे। उनके हिन्दू परिवार ने उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया। इकबाल के जन्म के समय कट्टरता उनके परिवार में घर कर चुकी थी क्यूंकि पहली पीढ़ी का परिवर्तित मुस्लमान समाज में अपना स्थान बनाने के लिए अधिक प्रयास करता हैं। और पाकिस्तान का नारा इन्हीं इकबाल के मस्तिष्क की उपज था। अगर इकबाल के परिवार को उसी के हिन्दू परिवार ने अपना लिया होता तो कहानी कुछ और ही होती।
कश्मीर समस्या के आधार में शेख अब्दुल्लाह का भी अपना स्थान हैं। शेख अब्दुल्लाह के दादा का नाम राघो राम कौल था और वे कश्मीरी पंडित थे। कहते हैं की १८९० में सूफी संत रशीद बल्खी के प्रभाव से उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया था। शेख अब्दुल्लाह के विचारों को धर्मान्धता का चोल पहनाने वाला व्यक्ति मौलवी अब्दुल्लाह था। शेख अब्दुल्लाह के विचारों में परिवर्तन को पाठक इसी बात से अंदाजा लगा  सकते हैं की अपनी लिखी पुस्तक आतिश-ए-चिनार में हिन्दुओं को विश्वास न करने लायक कौम बताया हैं। शेख अब्दुल्लाह के कारण कश्मीर क्यूँ समस्या बना यह इस लेख के विषय के बाहर की बात हैं। अगर हिन्दू समाज में परिवर्तित हिन्दुओं जैसे शेख अब्दुल्लाह आदि की घर वापसी का मार्ग होता तो सत्य कुछ और हो होता।
    पाठक भली प्रकार से समझ चुके होंगे की धर्मान्तरण हिन्दू समाज और इस देश के लिए कितना घातक हैं। 
भारत देश की २०११ की जनगणना के अनुसार मुस्लिम समाज की जनसंख्या १३.४% थी। यानि की १८ करोड़ की लगभग मुस्लिम जनता हमारे देश में रहती हैं। इनमें से ९९% से अधिक जनसँख्या हिन्दुओं से मुस्लमान बने हुए भाइयों की ही हैं।
हमारे देश की प्रगति इसी में हैं की हमारा धार्मिक सोहार्द बना रहे। यहाँ पर दंगे न हो।
जी भाई घर छोड़ चुके हैं वे वापिस आ जाये। अभी भी समय हैं, सोचिये! अपने दिलों को बड़ा कर लेना ही समाधान हैं।
स्वामी श्रद्धानन्द के शुद्धि यज्ञ को गति देना ही इस समस्या का शांतिप्रिय समाधान हैं।

डॉ विवेक आर्य

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