Wednesday, June 2, 2021

मैं आर्यसमाजी कैसे बना?


मैं आर्य समाजी कैसे बना?

-राज्यरत्न श्री मास्टर आत्माराम जी अमृतसरी

जब मैं अमृतसर के राजकीय हाई स्कूल में मैट्रिक में शिक्षा प्राप्त करता था, उन दिनों आंग्ल-भाषा में लीथर व्रज साहब का इतिहास कण्ठ करना पड़ता था। उसमें जब मैं महमूद गजनवी के आक्रमणों का वर्णन याद किया करता था, उस समय हृदय में यह बात आती कि यदि सोमनाथ के शिवजी महाराज में बदला लेने की शक्ति होती तो वह अवश्य दुष्ट महमूद को अन्धा करके अपना चमत्कार दिखा सकते थे, पर उन्होंने कुछ न किया। अतः वह केवल पत्थर ही प्रमाणित हुआ, दिव्य शक्ति सम्पन्न नहीं। जैसा कि हम सब हिन्दू भक्त उनको मानते थे।

सन् १८८६ में हमारी मैट्रिक कक्षा का एक घण्टा प्रतिदिन श्रीमान् पूज्य स्वर्गवासी पिता समान देवता स्वरूप श्री बाबू मुरलीधर साहब ड्राइंग मास्टर के पास होता था। मैं ईश्वर की कृपा से उनके विषय अर्थात् ड्राइंग, चित्रकारी आदि में अन्य सब मुसलमान और हिन्दू विद्यार्थियों से प्रथम रहा करता था। इसलिए जब वे मेरी कापी या चित्रकारी का कोई कागज देखकर नम्बर देते, या प्रशंसा करते, तब साथ ही आहिस्ता से कह देते कि-
"आत्माराम तुम बड़े प्रसिद्ध रईस परिवार से सम्बन्ध रखते हो। तुम्हारे पिता स्वर्गवासी लाला राधा किशन साहब तहसीलदार लुधियाना की प्रशंसा हम अमृतसर और लाहौर में श्रीमान् लाला जीवन दास जी जो लाहौर समाज के विख्यात संचालक हैं- से सुना करते हैं, कारण कि उस विभाग से सम्बन्धित है। तुम ऐसे योग्य और प्रसिद्ध पिता के सुपुत्र होने पर जब कक्षा में अन्य सब विषयों में और मेरे विषय में प्रथम रहते हो, तो तुम को धर्म पिता समान मैं यह उपदेश देना चाहता हूँ कि तुम अमृतसर में जो भाई सालू के कटड़ा में रविवार को आर्य समाज का सत्संग हुआ करता है उसमें अवश्य आया करो और परसों तो अवश्य आना, वहां हमारे एक सुप्रसिद्ध विद्वान् उपदेशक पं० लेखराम जी का उपदेश होगा। उसे सुनने के लिए अवश्य आना।"

जब तक श्री बाबू मुरलीधर जी जीवित रहे, मैं उनको धर्म-पिता समझकर उनसे व्यवहार आदि करना अपना सौभाग्य मानता था, यद्यपि वे कालिज पार्टी की प्रतिनिधि सभा के महामन्त्री थे पर जब कभी मैं गुरुदासपुर में, जहां वे बाद में बदल कर चले गए थे, उपदेश देने जाता तो उनके गृह पर ही भोजन करता और आशीर्वाद लेता। मरते समय तक उनको अपना धर्म पिता ही मानता रहा।

महमूद के आक्रमणों का वर्णन याद करके मन सदा मूर्तिपूजा और हिन्दुधर्म की इस कमजोरी के कारण अति दुखित रहा करता था। स्वर्गवासी पूज्य श्री बाबू मुरलीधर जी की कृपा से श्रीमान् पूज्य धर्मवीर पं० लेखराम जी का अमर भाषण अमृतसर आर्यसमाज में सुनकर कि मूर्ति-पूजा आर्य धर्म या हिन्दू धर्म के विरुद्ध है, उस दिन से समाज का सदस्य बन गया। जब अमर शहीद पं० लेखराम जी का उपदेश हुआ तब उन्होंने अन्य विद्यार्थियों के साथ मुझसे भी वार्तालाप किया। मैं कक्षा में कभी-कभी अंग्रेजी में कुछ मिनट लेक्चर देने का चाव रखता था अतः मैंने प्रार्थना की कि क्या हमें भी आपके समान उर्दू में लेक्चर देने के लिए समय मिल सकेगा? उन्होंने कहा- "अवश्य, निश्चित रूप से।"

उन्होंने आश्वासन ही नहीं दिया अपितु अपने कर-कमलों से एक "आर्य डिबेटिंग क्लब" अमृतसर में प्रारम्भ कर दी, जिसके संचालक पूज्य श्री पं० लेखराम जी स्वयं बने और मुझे उसका मन्त्री बनाया गया। उसके पश्चात् दूसरी बार श्री पं० लेखराम जी से यज्ञोपवीत लेकर अपने आप को उनका शिष्य सेवक बनाने का सौभाग्य प्राप्त किया।

[नोट- आर्यसमाज की विचारधारा सामाजिक कुरीतियों की नाशयित्री और बौद्धिक क्रान्ति की प्रकाशिका है। इसके वैदिक विचारों ने अनेकों के हृदय में सत्य का प्रकाश किया है। इस लेख के माध्यम से आप उन विद्वानों के बारे में पढ़ेंगे जिन्होंने आर्यसमाज को जानने के बाद आत्मोन्नति करते हुए समाज को उन्नतिशील कैसे बनायें, इसमें अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। ये लेख स्वामी जगदीश्वरानन्द द्वारा सम्पादित "वेद-प्रकाश" मासिक पत्रिका के १९५८ के अंकों में "मैं आर्यसमाजी कैसे बना?" नामक शीर्षक से प्रकाशित हुए थे। प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

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