आर्यसमाज के हिन्दी आन्दोलन की देन है हरियाणा
(पढ़ने में थोड़ा समय तो लगेगा, पर अपने इतिहास को जानना बहुत आवश्यक है।
जो पेड़-- अपनी जड़ों से कट जाता है- - वह जीवित नहीं रह सकता।)
हरियाणा प्रदेश को अस्तित्व में आये 52 साल हो रहे हैं। बहुत से लोग अपने अपने नेता के नाम के आगे हरियाणा केसरी, हरियाणा का जन्मदाता तथा हरियाणा का निर्माता आदि विशेषणों का प्रयोग करते हैं। कुछेक बुजुर्गों को छोड़कर आज की युवा पीढ़ी के लोग कम ही जानते हैं कि वेदों की ऋचाओं व गीता उपदेश के लिये प्रसिद्ध इस हरि के प्रदेश को पिछले डेढ़ सौ साल से विदेशियों की ज्यादतियों के साथ-2 यहाँ के राजनेताओं की संकीर्ण सोच का शिकार भी होना पड़ा। आजादी से पहले यहाँ पर उर्दू व फारसी लादी गई थी तथा आजाद होने के बाद यहाँ के लोगों को गुरमुखी का स्वाद भी चखना पड़ा। भाषा की गुलामी से बचाने के लिये इस प्रदेश की जनता का आर्यसमाज ने डटकर साथ दिया है। इसने अपने कार्यक्रमों में राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार को अपना मुख्य मिशन बनाया। इस राष्ट्र भक्त संस्था के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी मातृभाषा गुजराती को छोड़ अपने सब ग्रंथ हिन्दी और संस्कृत में तैयार किये। पंजाब के हरियाणा क्षेत्र में आर्यसमाज का सबसे अधिक प्रचार हुआ। इसलिए यहाँ पर हिन्दी का आम जनता की जुबान से जुड़ना एक स्वाभाविक बात थी। अंग्रेजों के राज में सारा सरकारी कामकाज उर्दू में होता था, परन्तु आर्यसमाजी सज्जन पुरुष व संस्थायें सब काम हिन्दी में ही करती थीं। आर्यसमाज के प्रभाव के कारण ही पंजाब विश्वविद्यालय में हिन्दी रत्न, भूषण तथा प्रभाकर की परीक्षायें होती थीं।
स्वतन्त्रता प्राप्ति तथा विभाजनोपरांत वर्तमान हरियाणा के इलाके की जनता तत्कालीन पंजाब की राजसत्ता की भाषा नीति से बिल्कुल ही नाराज थी। सबसे पहले अलग हरियाणा का विचार सन् 1923 में स्वामी सत्यानंद के मन में लाहौर प्रवास के दौरान आया था। उन्होंने इसके लिये लाहौर काॅलेज में पढ़ रहे सोनीपत के चै0 शादीलाल व चै0 सूरजमल को तैयार किया। इसके बाद कृषि मंत्री चै0 छोटूराम ने अलग हरियाणा का प्रस्ताव आॅल इंण्डिया जाट स्टूडेंट कान्फ्रेंस में पास कराया था। भाषायी आधार पर पुनर्गठन की मांग कांग्रेस के कानपुर अधिवेशन में 1930 में उठायी गयी थी।
इस तरह आजादी के बाद भी भाषा का विवाद उठ खड़ा हुआ। भाषा के इस विवाद को हल करने के लिये सर्वमान्य सूत्र तैयार किया गया, जिसे सच्चर फार्मूले के नाम से जाना जाता है। इस फार्मूले के अनुसार पंजाब को हिन्दी, पंजाबी तथा द्विभाषी- तीन भाषाई क्षेत्रों में बांट दिया गया। जो द्विभाषी क्षेत्र निश्चित किये गये थे, वे मूलतः हिन्दी भाषी ही थे। फार्मूले के अनुसार अंबाला डिवीजन का अद्दिकतर भाग हिन्दी भाषी, जालंधर डिवीजन को पंजाबी भाषी के रूप में एक भाषी रखा गया तथा अबोहर फाजिल्का व अंबाला मण्डल के कुछ भागों को द्विभाषी श्रेणी में रखा गया। इस फार्मूले का सबसे पहले विरोध जांलधर मंडल के हिन्दुओं ने किया क्योकि उन पर पंजाबी भाषा सरकार द्वारा थोंप दी गई थी। नवम्बर 1949 में सच्चर सरकार गिर गई।
सच्चर फार्मूले का विरोध करने तथा पंजाब में हिन्दी को न्यायोचित स्थान दिलाने के लिए आर्यसमाज उस समय आंदोलनरत था। इसी आंदोलन की कड़ी में ही 13 सितम्बर 1953 को अंबाला में पंजाब प्रांतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन हुआ। जब प्रोफेसर शेरसिंह तथा चै0 देवीलाल ने सच्चर फार्मूले का विरोद्द किया तो पंजाब के राजनेताओं ने रीजनल फार्मूले के नाम पर हिन्दी भाषी जनता को फंसाने का नया जाल बिछाया। रिजनल फार्मूला जब लोकसभा में पारित हो गया तो हिन्दी प्रेमी जनता को बड़ी चिन्ता हुई। रीजनल बनाने के लिये हिन्दी तथा पंजाबी इलाकों की पहचान के परिसीमन की आवश्यकता नये सिरे से महसूस हुई। पण्डित गोविन्द वल्लभ पन्त के निर्देशानुसार इन क्षेत्रों की पहचान के लिए प्रताप सिंह कैरों, ज्ञानी करतार सिंह, पंजाबी हिन्दुओं के प्रतिनिधि के रूप में प्रताप समाचार पत्र के संपादक वीरेन्द्र, हरियाणा की ओर से प्रोफेसर शेर सिंह, चै0 देवीलाल और पण्डित मौलीचन्द्र शर्मा की उपसमिति बनाई गई।
इस उपसमिति ने अपनी सिफारिश में कहा कि अबोहर फाजिल्का के 105 गांव हिन्दी क्षेत्र में होने चाहिएँ। इस प्रकार रीजनल फार्मूला हिन्दी भाषियों के लिये चुनौती बनकर आया। हरियाणा के लोगों की जुबान पर पंजाबी को जबरन थोंप दिया गया। जनता ने आर्यसमाज के नेतृत्व में आंदोलन व प्रदर्शनों से अपना रोष प्रकट किया परन्तु पंजाब सरकार मानने वाली नहीं थी। इस स्थिति का मुकाबला करने के लिये 1956 में जालंधर के साईदास काॅलेज में पंजाब भर के आर्य नेताओं की बैठक हुई थी। इस बैठक में स्वामी आत्मानन्द जी प्रधान आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब, आनन्द स्वामी, आचार्य भगवान देव, जगदेव सिंह सिंद्धान्ती, आचार्य रामदेव, यश संपादक मिलाप अखबार, वीरेन्द्र संपादक प्रताप, लाला जगत नारायण संपादक हिन्द केसरी, प्रिसिंपल सूरजभान, प्रिंसिपल भगवान दास, कैप्टन केशवचन्द्र तथा नारायण दास ग्रोवर आदि नेताओं ने भाग लिया। यहीं पर हिन्दी रक्षा समिति का स्वामी आत्मानन्द की अध्यक्षता में गठन हुआ तथा प्रिंसिपल सूरजभान तथा जगदेव सिंह सिद्धांती को उपप्रधान व मंत्री बनाया गया।
हिन्दी रक्षा समिति का शिष्टमंडल प्रताप सिंह कैरों से मिला, परन्तु वहाँ से कोरे आश्वासन ही मिले। प्रताप सिंह कैरों अपने वचनों से फिरते रहे। सन् 1957 के चुनाव के समय कैरों ने आंदोलन खत्म करने की अपील की तथा उसके बाद हिन्दी भाषियों के ऊपर से पंजाबी भाषा की जबरदस्ती हटाने का आश्वासन दिया परन्तु पुनः मुख्यमंत्री बनने पर पंजाबी हटाने से स्पष्ट इन्कार कर दिया गया। केैरों की वादाखिलाफी से प्रोफेसर शेरसिंह को भारी धक्का लगा क्योंकि उन्हीं के कहने से आर्यसमाज ने हिन्दी आंदोलन स्थगित किया था। जब सरकार रास्ते पर आती नहीं दिखाई दी तो सन् 1957 के अप्रैल महीने में आंदोलन का बिगुल बजा दिया गया। मई मास में आंदोलन के रास्ते से हटने के लिये तरह-2 के प्रलोभन दिये गये। पंजाब के तत्कालीन राज्यपाल सीएन सिंह ने उन्हें कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय का उपकुलपति बनाने का प्रस्ताव किया परन्तु प्रोफेसर शेरसिंह ने वाइस चांसलर के पद को हिन्दी भाषा के आगे बिल्कुल गौण माना तथा हिन्दी आंदोलन में कूदने का संकल्प राज्यपाल के समक्ष पुनः दोहराया।
हिन्दी आंदोलन के बढ़िया तौर-तरीकों के कारण इसका द्दरातल राष्ट्रीय स्तर पर विस्तृत होता जा रहा था। आंदोलन में जनसंघ, हिन्दू महासभा, कांग्रेसी कार्यकर्ताओं तथा नेताओं ने राजनैतिक सीमा लांघकर भाग लेना शुरू कर दिया। कैरों ने तत्कालीन कांग्रेसी विधायकांे पर दबाव बनाने के लिये केन्द्रीय कांग्रेसी नेता मोरारजी देसाई को बुलाया। मोरारजी भाई ने पंजाब के तत्कालीन विधायकों की बैठक चण्डीगढ़ में बुलाई तथा प्रताप सिंह कैरों का साथ देने की अपील की। उस बैठक में प्रोफेसर शेरसिंह ने आंदोलन को समय की जरूरत बताते हुये कहा था कि कांग्रेस पार्टी के संविधान में द्विभाषी राज्यों की भाषा नीति नहीं है।
बैठक में पंजाबी के विरोधी होने से इंकार किया गया, पर पंजाबी को जबरन थोंपे जाने को नाकाबिले बर्दाश्त कहा गया। प्रोफेसर शेरसिंह ने बंबई की मिसाल पेश करते हुये कहा कि बंबई व पंजाब दो द्विभाषी राज्य हैं, परन्तु मुम्बई में मराठी व गुजराती दोनों को समान महत्व दिया जाता है। इस पर मोरारजी देसाई को निरुत्तर होना पड़ा था।
हिन्दी आन्दोलन में फिरोजपुर जेल में हिन्दी सत्याग्रहियों पर लाठी चार्ज हुआ। इस सुनियोजित वारदात में सुमेरसिंह का स्वर्गवास हो गया। फिरोजपुर जेल में पंजाब के कैदियों से हिन्दी सत्याग्रहियों पर कातिलाना हमला करवाया गया था। इस घटना से समूचे भारतवर्ष के हिन्दी प्रेमियों का कलेजा हिल गया। इसका रोहतक की जनता पर जादुई प्रभाव पड़ा। सरकार ने हिन्दी आंदोलन में अगुआ नेताओं के गिरफ्तारी वारंट जारी करवा दिये। रोहतक के पं0 श्रीराम शर्मा तथा उदय सिंह मान को गिरफ्तार कर लिया गया। प्रोफेसर शेरसिंह के गिरफ्तारी वांरट जारी किये गये। प्रोफेसर शेर सिंह ने गिरफ्तारी के लिये पुलिस को भी इत्तला दे दी थी परन्तु सरकार ने आंदोलन के उग्र होने के भय से उनकी गिरफ्तारी नहीं की।
उस समय दयानन्द मठ रोहतक हिन्दी आंदोलन के सत्याग्रह का प्रमुख केन्द्र था। बहु अकबरपुर गांव तो पुलिस छावनी बना रहता था। रोहतक जिले के गांवों में तो सरकार का शासन न होकर दयानन्द मठ रोहतक से जनता आदेश लेकर अपना कार्य करती थी। हिन्दी सत्याग्रह के व्यापक स्वरूप को देखते हुये कांग्रेस सरकार भयभीत हो गई। अतः पुरुषोत्तम दास टंडन ने केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में हस्तक्षेप करके समझौता कराने का प्रयास किया लेकिन जब वार्ता सिरे नहीं चढ़ी तो प्रोफेसर शेरसिंह के गिरफ्तारी वारंट पुनः जारी हो गये। वे दिल्ली चले गये। अब उन्होंने भी पुलिस के साथ आंखमिचैली का खेल छोड़ करके गिरफ्तारी देने के फैसले को ही उचित समझा। अतः उन्होंने 15 नवम्बर 1957 को सत्याग्रह करके गिरफ्तारी देने की घोषणा की। वे वेश बदलकर दीवान हाल में पहुंच गये तथा हजारों हिन्दी सत्याग्रहियों के साथ गिरफ्तारी दी। शेरसिंह की रहनुमाई में गिरफ्तार हुये सत्याग्रहियों को नाभा जेल भेज दिया गया। नाभा जेल में पहले से ही उदय मान सिंह अपने साथियों सहित गिरफ्तार थे। प्रोफेसर शेर सिंह को नाभा से पटियाला जेल में लाया गया। यहाँ पर पहले से ही वीरेन्द्र (संपादक प्रताप), पं0 श्रीराम शर्मा, लाला जगतनारायण, चै0 बदलूराम, स्वामी रामेश्वरानन्द, स्वामी भीष्म तथा महाशय भरतसिंह आदि बंद थे।
इस आंदोलन में हरियाणा के आचार्य भगवानदेव ने बड़े सुनियोजित ढंग से काम किया। इन्हें इस आंदोलन का फील्ड मार्शल कहा जाता था। उन्होंने वैद्य बलवंत सिंह के साथ मोटरसाईकिल पर सवार होकर गांव -2 पहुंचकर सत्याग्रहियों के जत्थे तैयार किये तथा हिन्दी सत्याग्रह को त्वरित गति देने में अहम भूमिका अदा की। गुरुकुल झज्जर व गुरुकुल नरेला की कुड़की के भी आदेश हो गये थे।
इस आंदोलन में सत्याग्रहियों ने घर-बार, मठ-मंदिर, खेत-खलिहान, गुरुकुल व गोकुल छोड़कर जेलों और जंगलों में कष्ट उठाये थे। उनके घर, भूमि, भैंस और बैलों की कुर्की के आदेश हुये थे। इस सत्याग्रह से लगभग 50000 सत्याग्रहियों ने कैरों की जेलों को भर दिया था। सत्याग्रहियों ने शारीरिक रूप से भयंकर यातनायें सहीं और लाखों रूपये जुर्माने के भी भरने पड़े। अंत में पंजाब सरकार को घुटने टेककर सत्याग्रहियों की मांग माननी पड़ी।
प्रोफेसर शेर सिंह के नेतृत्व में हरियाणा लोक समिति पार्टी बनाई गई ताकि हिन्दी भाषा की लडाई जीतने के बाद हरियाणा बनाने के लिये सरकार पर दबाव बनाये रहे। सन् 1965 ई0 में रोहतक रैली में मुख्य अतिथि के रूप में कृपलानी जी ने शिरकत की थी। केन्द्र सरकार पर पूर्ण शिकंजा कसने के लिये चण्डीगढ़ में संयुक्त विधायक दल की बैठक बुलाई गई, जिसमें सभी विद्दायकों ने हरियाणा निर्माण के लिये सामूहिक इस्तीफे का प्रस्ताव पास किया, इस दबाव के कारण चण्डीगढ़ पंजाब को न देकर केन्द्र शासित प्रदेश ही रखा गया। इस आंदोलन की बैसाखियों पर प्रथम नवम्बर 1966 को हरियाणा राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
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