एक व्यक्ति एक मिशन
स्वामी इन्द्रवेश महाराज (पुण्यतिथि पर विशेष)
लेखक :- श्री सुरेन्द्र सिंह कादियान
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा
जितने विकट संकटों में है, जिनका जीवन-सुमन खिला ।
गौरव-गन्ध उन्हें उतना ही, यत्र-तत्र-सर्वत्र मिला ॥
मैथिलीशरण गुप्त जी की ये पंक्तियां स्वामी इन्द्रवेश जी के भव्य व्यक्तित्व और कृतित्व पर जितनी सटीक बैठती हैं, शायद ही आर्यसमाज के गत पचास वर्षों के काल-खण्ड में सक्रिय रहे किसी अन्य आर्य नेता पर सटीक बैठती हों । आर्यसमाज में निश्चय ही उनसे अधिक विद्वान, मनीषी, वाक्चातुर्य में निपुण, साहित्य रचयिता, वेदभाष्यकार, शास्त्रार्थ महारथी, कुशल राजनीतिज्ञ, महावक्ता, संगठन में वर्चस्वी नायक कोई भले रहा हो जिसने आर्यसमाज के कीर्तिध्वज को व्योम या क्षितिज पर लहराया हो और लोकैषणा के अन्तिम छोर को जा छूआ हो । लेकिन स्वामी इन्द्रवेश जी को इस दृष्टि से मूर्धन्य माना जायेगा । तपस्वी, वचस्वी, तेजस्वी, मनस्वी और यशस्वी माना जायेगा कि उन्होंने जीवन-भर चुनौतियों का सामुख्य किया, आँधियों को झेला, काँटों भरा रास्ता चुना, खुद को संघर्ष का पर्याय बनाकर जीवन में चरैवेति-चरैवेति के आदर्श को मूर्तिमत किया ।
ऐसी महान् आत्मा का मूल्यांकन उनकी उपलब्धियों को दृष्टिगत करके नहीं किया जाता बल्कि गतिविधियों क आधार पर, जीवट के आधार पर, जिजीविषा के आधार पर, मौलिकता के आधार पर और पहल करने के सोत्साह पर किया जाता है । इस सोच का विरला ही कोई सुमन सदियों बाद चमन में खिलता है जो वातावरण को अपनी महक से सुवासित रखता है, अतः वर्तमान उसके होने का मूल्यांकन इतना नहीं कर पाता जितना कि भविष्य उसके जाने का मूल्यांकन और उसके न होने का गम महसूस करता है । निश्चय ही ऐसी वीरात्मा को परमात्मा फुर्सत के वक्त गढ़ कर ही इस संसार में भेजता होगा । ऐसे संघर्षशील व्यक्ति का भले ही दौर-ए-जमाना दुश्मन रहा हो लेकिन वह खुद किसी का दुश्मन न होकर जमाने से दोस्ती निभाता है । ऐसे अजातशत्रु रहे स्वामी इन्द्रवेश जी वस्तुतः खुद में एक व्यक्ति न रह कर एक मिशन बन गये थे । एक ऐसा मिशन जिसमें सबकी भलाई, सबका कल्याण, सबकी शान्ति निहित हो ।
अपने जीवन की संध्याबेला में उन्होंने सात पुष्प खिलाकर अपने जीवन का मकसद स्पष्ट कर दिया था । ये सात फूल थे सप्त-क्रान्ति के सात सूत्र जिनके बिना हमारा वैयक्तिक, सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन निरुद्देश्य है, निरर्थक है, अधूरा है । साम्प्रदायिकता, जातिवाद, भ्रष्टाचार, नशाखोरी, पाखण्ड, शोषण और नारी-उत्पीड़न की दीमक जब तक हमारी प्रवृत्ति को, हमारी वाणी व लेखनी को, हमारे आचरण को चाटती रहेगी तब तक इस जीवन का न कोई अर्थ है और न ही कोई औचित्य । इसी सोच को लेकर स्वामी इन्द्रवेश जी जिये और मरे । इन बुराइयों के विरुद्ध एक सतत संघर्ष के रूप में, एक अनवरत मिशन के रूप में वे हमारे बीच रहे । इस संघर्ष और मिशन को दृष्टिगत रखते हुए उनका मूल्यांकन आज किया जा सकता है, भले ही उनका जीवन ऐसे आकलन को चाहे सदा ही क्यों न नकारता रहा हो । वस्तुतः दीपशिखा की भाँति अहरह जलती मशाल बनकर वह अपनी पीढी को रास्ता दिखाते रहे, लोकचेतना के संवाहक बनकर एक पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाते रहे और अध्यात्म की अन्तःसलिला धारा के स्नातक होकर असंख्य आत्माओं को प्रकाशित करते रहे लेकिन फिर भी इसका श्रेय लेने की कभी इच्छा नहीं रखी । यदि उनकी अपनी कोई इच्छा थी, अपनी कोई ऐषणा थी, अपना कोई निहितार्थ था तो यही था कि जिस मिशन को लेकर वे उठे हैं उसी मिशन के प्रति सजग, सक्रिय और समर्पित होकर जियें व मरें । उनके समूचे जीवन का सिंहावकोकन करते हुए यदि हम किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करें तो जयशंकर प्रसाद के इन शब्दों से ही उनका एक रेखाचित्र तैयार होता है –
मत कर पसार, निज पैरों पर चल
चलने की जिसको रहे झोंक,
उसको कब कोई सका रोक
आर्यसमाज के शीर्ष नेतृत्व ने जिसे एक बार नहीं, तीन बार फांसी चढ़ाया हो लेकिन जो फिर भी जीवित रहकर अपने मिशन पर अडिग ही चलता रहा हो, अपने डगर पर बढ़ता रहा हो, अपनी मंजिले-मकसूद को सदैव याद रखता रहा हो, भला उसे क्या कभी मारा जा सकता था ? निश्चय ही उसकी पीढी की यह भूल रही है, खामख्याली रही है जिसे कल का इतिहास क्षमा नहीं करेगा । कल का इतिहासकार किस कलम से उनका मूल्यांकन करेगा आज भविष्यवाणी करना जल्दबाजी होगी क्योंकि उनसे प्रेरित, उनका सानिध्य प्राप्त किये, उनके साथ कदम से कदम बढ़ाकर चलने वाले जीवनदानियों की पीढ़ी अभी इतिहास न बनकर इतिहास का निर्माण कर रही है । इतिहास के इस अध्याय का समापन होने पर ही स्वामी इन्द्रवेश जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन अधिक तटस्थता, निष्पक्षता और ईमानदारी से कल का इतिहासकार कर सकेगा । अतः अपने सहयोगियों, आत्मीयों, स्वजनों के समक्ष स्वामी इन्द्रवेश जी खुद एक चुनौति, एक कसौटी बनकर आ खड़े हुए हैं । इस चुनौति को कितना समझा व स्वीकारा जायेगा और इस कसौटी पर अपने को कितना खरा व खोटा सिद्ध किया जायेगा, यह प्रश्न अनुत्तरित है । इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए उनके जीवन के कुछ पड़ावों का अवलोकन करते हुए हम स्वामी इन्द्रवेश जी, उनकी सोच व उनकी योजना का आकलन यहाँ करेंगे ।
माँ का सानिध्य
13 मार्च 1937 को ग्राम सुण्डाना, जिला रोहतक (हरयाणा) में माता पतोरी देवी की कोख से जन्मे एक शिशु ने जब चौ. प्रभुदयाल के घर में पहली किल्कारी भरी तो सबने आनन्दित होकर ईश्वर का उपकार माना । कुल छह भाई-बहनों में यह शिशु चूँकि ज्येष्ठ था अतः माता-पिता के इस आनन्द की सहज कल्पना की जा सकती है । इस ज्येष्ठता में ही इस शिशु की अग्रता, नेतृत्व क्षमता, पहल आगे चलकर देखने को मिलती है । प्रथम सन्तान होने के कारण माता-पिता का लाड़-प्यार सबसे अधिक उनको ही मिला । माँ के प्रति उनकी आसक्ति, आत्मीयता, श्रद्धा और सम्मान की भावना अधिक थी । बचपन से ही जब से उन्होंने होश संभाला यद्यपि वे सहज रहते थे लेकिन उनका गम्भीर व अन्तर्मुखी रहना प्रायः पिताजी को आशंकित किये रहता था । पढ़ाई के प्रति प्रारम्भ से ही उनकी रुचि थी । वे छरहरे शरीर के थे अतः तगड़ा होने के उपाय अपने ही गांव के परमा पहलवान से पूछा करते थे । शरीर को स्वस्थ, परिपुष्ठ और आकर्षक बनाने का यह शौक उनका बाद में इतना बढ़ गया कि एक-एक हजार दण्ड-बैठक लगाने लगे थे और सर्दियों में भी उनके शरीर से पसीना बहने लगता था । स्वाभाविक है कि उनकी यह लगन उनको बाद में ब्रह्मचर्य और योग के प्रशस्त पथ पर भी ले गई । शिक्षा के प्रति भी उनकी रुचि इतनी अधिक थी कि रात को वे स्कूल में ही सोया करते थे । उस युग के स्कूलों में एक अघोषित प्रतियोगिता चला करती थी कि परिणाम में अव्वल रहना है । क्लास टीचर्स भी अपनी क्लास का अच्छा से अच्छा रिजल्ट लाने के प्रति गम्भीर रहते थे । तब ट्यूशन का रिवाज बहुत की कम, न के बराबर था, लेकिन अध्यापक अतिरिक्त क्लास लेकर या रात्रि में विद्यार्थियों से अपने ही संरक्षण में अच्छी तैयारी कराया करते थे । अध्यापकों को पैसे की नहीं अपने विद्यार्थियों के बहतर परीक्षा परिणाम की चिन्ता रहती थी जिससे कि उनका यश, लोकप्रियता और विश्वसनीयता में इजाफा हो । ऐसे अध्यापकों का संरक्षण प्राप्त कर इन्द्रसिंह नाम का यह बालक आठवीं तक पढ़ गया । आठवीं में उसका वजीफा आ गया था । आगे पढ़ने के उसके मंसूबे बढ़े-चढ़े थे लेकिन घर की आर्थिक स्थिति आड़े आ गई । इन्द्रसिंह का जैसे ही आठवीं का परीक्षा परिणाम घोषित हुआ, उनके ताऊ जी ने कहा - इन्द्र ! कल से खेत में जाना शुरू कर दो ।
संयुक्त परिवार में ताऊजी के ऐसे आदेश का अर्थ इन्द्र जी भली-भाँति समझते थे । यह आदेश उनके मंसूबों पर वज्रपात था लेकिन उस जमाने में बच्चा अपने से बड़ों के सामने न तो सिर ऊँचा करके खड़ा हो सकता था और न ही जुबान लड़ा सकता था । यह हरयाणा की ग्रामीण पृष्ठभूमि के संस्कार थे जो बच्चे को जन्म-घुट्टी में ही पिला दिये जाते थे । इन्द्र जी बचपन में वैसे ही संकोची, शर्मीले व गम्भीर स्वभाव के थे अतः ताऊजी को जवाब कैसे दे सकते थे । लेकिन माँ उसके दर्द को समझ सकती थी, उसने समझा भी और जेठ के इस आदेश का विरोध किया । आर्यसमाज के प्रचार प्रसार के कारण सुदूर देहात में भी शिक्षा का महत्व समझा जाने लगा था । पुत्र जब वजीफा लेकर अपनी प्रतिभा का परिचय दे तो माता-पिता कैसे उसकी पढ़ाई पर प्रतिबन्ध लगा सकते थे । माता जी का यह विरोध इतना तूल पकड़ गया कि ताऊ जी भी अपनी मूँछ झुकाने को तैयार न हुए । परिणाम यह निकला कि नौबत घर के बँटवारे की आ गई और वह होकर रहा । अपने पुत्र के हित के लिए एक माँ कहाँ तक आगे जा सकती है यह इन्द्र जी ने पहली बार महसूस किया । लेकिन इस बँटवारे को भी वह सहजता से न ले सके । इस तरह के चलते विरोध से वे खिन्न अवश्य हुए । लेकिन उनकी माँ ने जिस साहस से अपने जेठ का विरोध किया उससे उनके बाल मन पर यह प्रभाव भी अंकित हुआ कि गलत बात के आगे मनुष्य को झुकना नहीं चाहिए और एक शुभ कार्य में विरोध चाहे किसी का भी हो उसका सामना साहस के साथ करना चाहिए । माँ के इस हृदय और साहस को उन्होंने अपने संस्कारों की पोटली में बाँधकर रख लिया ।
गुरुकुल झज्जर में प्रवेश
गृहकन्या जैसे एक दिन वियोग की व्यथा तथा संयोग की सुखद अनुभूति का मिश्रित भाव लेकर बाबुल का घर छोड़कर ससुराल जाती है वैसे ही भाव-भावना के साथ इन्द्र जी अपने ही परिवार के हरके मास्टर के साथ माता-पिता से विदाई लेकर गुरुकुल झज्जर गये । इस बार का छूटा घर कभी फिर स्थायी निवास से लिए उन्हें नसीब नहीं होगा, इसका अनुमान सिवाय नियति के और कौन उस समय लगा सकता था । गुरुकुल में रहते हुए इन्द्र जी को दिन भर दवाइयाँ कूटनी पड़ती थीं जिसके लिए उन्हें कुछ वेतन भी मिलता था । प्रायः वे रविवार को माता-पिता से मिलने आते रहते थे । माता का दामन (घाघरा) उन्हें पसन्द नहीं था अतः सलवार पहनने और हिन्दी सीखने के लिए वे उनसे बराबर आग्रह करते रहते थे । घर जाते ही पिता जी के कार्य में हाथ बँटाना शुरू कर देते थे, घर-परिवार की जिम्मेदारी समझने व निभाने में वे अब भी कोई कोताही नहीं दिखाते थे । छोटे भाई ईश्वर सिंह को भी गुरुकुल की फार्मेसी में ले गये । उनके जहन में आयुर्वेद की एक बड़ी फार्मेसी लगाने का विचार उठ रहा था जिसके लिए वे ईश्वर सिंह को तैयार करना चाहते थे । गुरुकुलीय वातावरण का उन पर यथेष्ठ प्रभाव पड़ा । वे जब भी गाँव आते तो पूरे गाँव का चक्कर लगाकर बुजुर्गों से आशीर्वाद लेते और बच्चों पर स्नेह लुटाते । समवयस्कों को अच्छे संस्कार ग्रहण कर आर्यसमाज के लिए काम करने को प्रेरित करते । शुरू में इनके पिताजी हुक्का पिया करते थे । इन्द्र जी ने अपने पिताजी को भी धूम्रपान से होने वाली शारीरिक व्याधियों का उल्लेख इस ढ़ंग से किया कि उन्होंने भी हुक्का पीना छोड़ दिया । आज तो हालत यह है कि बाप और बेटा एक ही मेज पर बैठकर शराब की बोतल खोलते हुए नहीं लजाते । माता के साथ बैठकर अन्तरंग बातें करना, परिवार की समस्याओं का समाधान ढूंढना व भविष्य की योजना बनाना इन सबमें उनकी रुचि अभी तक बनी हुई थी जिससे कि इनकी माता परिवार में उनकी अनुपस्थिति को लेकर विचलित न हो । गुरुकुल फार्मेसी में कार्यरत रहते हुए ही उन्होंने आयुर्वेद की सभी परीक्षायें दिल्ली से उत्तीर्ण कीं, जिससे उनकी लगन, कुशाग्रबुद्धि व परिश्रमी स्वभाव का अनुमान लगाया जा सकता है । भविष्य के प्रति एक सार्थक आर्थिक दृष्टिकोण लेकर वे आगे बढ़ रहे थे । अपनी बहन राममूर्ति की सगाई उन्होंने ही की । इसी बीच इन्द्र जी का विवाह भी हो गया लेकिन गौपों की रस्म अभी नहीं हुई थी । तब अचानक एक ऐसी घटना घटी कि उनके भावी जीवन का काँटा ही बदल गया ।
मौत का साक्षात्कार - वैराग्य का प्रादुर्भाव
अपने जीवन को मोड़ देने वाली इस घटना का उल्लेख स्वामी इन्द्रवेश जी अन्तरंग भेंट में यदा-कदा अपने आत्मीय जनों से कर दिया करते थे, अतः उनके ही शब्दों में इस घटना का उल्लेख करना अधिक सार्थक लगता है । उनके अपने शब्दों में -
"एक दिन जब मैं औषधालय का कार्य निपटाकर गुरुकुलीय निवास पर शयन के लिए पहुँचा तो अचानक मेरा एक रूम-पार्टनर तख्त से नीचे गिर गया । उसके मुख से रक्त की अविरल धारा बहने लगी । हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि तख्त से गिरने मात्र से किसी की ऐसी दयनीय अवस्था कैसे हो सकती है । उस समय जो भी सम्भव था उसे प्राथमिक उपचार दिया गया लेकिन खून का बहना बन्द नहीं हुआ । शायद उसके दोनों फेफड़े अन्दर से फट गये थे । तड़प-तड़प कर लगभग दो-ढ़ाई घण्टे में उसी कमरे में उसने प्रिय प्राण त्याग दिये । यह बीभत्स दृश्य देखकर मैं विचलित हो उठा । मेरे चित्त पर अंकित यह दृश्य मुझे गहराई तक साल गया । सचमुच मैं मृत्यु से भयभीत रहने लगा । मौत को लेकर न जाने कितने प्रश्न, शंकाएँ व जिज्ञासायें मुझे भीतर ही भीतर कुरेदने लगीं । मेरा उद्वेलित मन मौत पर गहन चिन्तन करने लगा । मनुष्य कहाँ से आता है, मत्यु क्यों आती है ? मृत्यु उपरान्त व्यक्ति कहाँ जाता है - इस तरह के ढ़ेर सारे प्रश्न मुझ पर दबाव बनाने लगे । इसे लेकर मानसिक रूप से अस्वस्थ रहने लगा ।"
इन्द्र जी की इस समस्या को लेकर जब मनोचिकित्सकों का परामर्श लिया गया तो उन्होंने यह राय दी कि अधिक से अधिक मौत के दृश्य, अर्थी या चिता के दर्शन उन्हें कराये जायें । गुरुकुल झज्जर के निकटवर्ती क्षेत्र में जब भी कोई मौत होती तो इन्द्र जी को तत्काल सूचित किया जाता । उन दिनों सैंकड़ों मौतों के द्रष्टा इन्द्र जी रहे । मौत का दर्शन सहज होने के बजाय विवेक में परिवर्तित होता चला गया । प्रारब्ध एवं संचित कर्मों की श्रंखला ने इस घटना को उनके अन्तर मन में वैराग्य प्रादुर्भाव का ठोस आधार बना दिया । विचार उठा कि एक दिन मुझे भी मौत के इसी माध्यम से इस दुनिया से विदा होना होगा । यह भाव प्रबल होकर जीवन का लक्ष्य सामने आकर खड़ा हो गया । उन्हीं दिनों उनको कुछ विचित्र अनुभूतियाँ भी होने लगीं थीं जिसका उल्लेख करते हुए वे बताते थे कि इस घटना से कुछ पूर्व ही मुझे पूर्व जन्मों की झलक महसूस होने लगी थी, अतः इस घटना ने उन्हें और तीव्र एवं प्रभावी बनाने की भूमिका निभाई ।
इन्द्र जी इस सम्बन्ध में अपने स्थिति स्पष्ट करते हुए बतलाते हुए कहते थे - "मुझे ऐसा आभास होने लगा था कि ये सारी धरती, जमीन अब अपनी है । क्यों लोग अलग-अलग इसके बँटवारे में पड़े हुए हैं । मेरे कुछ साथी हैं ये बिछुड़ गये हैं लेकिन कहां गये मालूम नहीं । ये दो बातें यों तो मुझे बचपन से ही महसूस होती आ रही थीं लेकिन रूम पार्टनर की आकस्मिक मृत्यु ने उनका रंग और गहरा कर दिया था । मैं अब और अधिक स्पष्टता से समझने लगा था कि दुनिया का यह झमेला, रिश्ते-नाते, उठा-पटक सब व्यक्ति को उलझाये रखने के हेतु हैं । यह जीवन क्षणभंगुर है, नश्वर है, पानी का बुलबुला है और कहाँ, कब फट जाये कोई नहीं जानता । जीवन की डोर भले ही कितनी लम्बी हो लेकिन उसमें अनिश्चितता की गाँठें इतनी अधिक हैं कि कौन सी गाँठ कब खुल कर हमें मौत की नींद सुला दे, कुछ नहीं कहा जा सकता ।"
उनके इन विचारों की आध्यात्मिक व्याख्या अथवा दार्शनिक मीमांसा करना भले ही सामान्य पाठक के लिए कठिन हो लेकिन इतना तो साफ है कि उनके रूम पार्टनर की यह नैमित्तिक घटना उनके पूर्वजन्म की पृष्ठभूमि को अवश्य दर्शाती है । जीवन में घटित मामूली-सी घटनाएँ जब व्यक्ति के जीवन का काँटा ही बदलकर रख दें तो निश्चय ही वे अदृश्य रूप में, अप्रत्यक्ष रूप में अवचेतन मन अथवा आत्मा पर पड़े पूर्वजन्मों के संस्कारों की भूमिका को दर्शाती हैं । सामान्य सी घटना का क्रान्तिकारी प्रभाव निश्चय ही पूर्वजन्मों के संचित कर्मों का आभास दिलाता है । रूम-पार्टनर की मौत के बाद इन्द्र जी ने सैंकड़ों लोगों को मरते देखा तब रूम पार्टनर की मौत ही उनकी मन-स्थिति को, उनके दृष्टिकोण को, उनकी सोच को ऐसे कैसे बदल गई कि परिवार के प्रति उनकी लगन, माता-पिता के प्रति उनका मोह, भाई-बहनों के प्रति उनकी जिम्मेदारी - इन सबके प्रति वे अनासक्ति भाव से एक ओतप्रोत कैसे हो गए? गुरुकुल में अन्य ब्रह्मचारियों की तरह वे भी वेद और उपनिषद् पढ़ते थे लेकिन विवेक-वैराग्य का उदय अचानक उनमें ही क्यों हुआ ? निश्चय ही प्रारब्ध और पूर्वजन्मों के संस्कार उन्हें एक जानी-पहचानी राह पर ले रहे थे और वे बिना किसी प्रतिरोध के कागज की नाव की तरह इस प्रवाह में बहते जा रहे थे ।
नैष्ठिक दीक्षा से पूर्व वैराग्य जगने पर इन्द्र जी अपने एक अभिन्न मित्र बलदेव के साथ एक दिन बिना किसी से बताये गुरुकुल से विलुप्त हो गए । घरवालों ने इधर-उधर काफी तलाश किया लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला । चूँकि तब तक इन्द्र जी की शादी हो चुकी थी इसलिए पारिवारिक-जनों की चिन्ता स्वाभाविक थी । मां के प्रति उनका लगाव गहरा था, मां का न तो वे कहना टालते थे और न कभी उसे दुःखी देख सकते थे । लेकिन वैराग्य भावना, विवेक और अध्यात्म ने उनका यह आसक्ति भाव ही नष्ट कर दिया था । शायद जानबूझकर उन्होंने खुद को इस अग्नि-परीक्षा में डाला था जो उनके भवितव्य का संकेत देती है । इन्द्र जी ने बलदेव जी के साथ यह गुप्त अवधि बेरी के एक मन्दिर में एक विद्वान ब्राह्मण के पास विद्या अध्ययन और संस्कृत व्याकरण के निमित्त व्यतीत की थी ।
कुछ काल उपरान्त जब बलदेव जी इन्द्र जी के साथ गुरुकुल झज्जर लौट आये तो उनके लौटने की सूचना पिता जी को मिली । उनके लौटने से परिवार में भी खुशी लौट आई और उनके बारे में उठी शंकायें शनैः-शनैः स्वतः ही नष्ट होने लगीं । एक दिन जब इन्द्र जी गुरुकुल झज्जर की यज्ञशाला के निकट बैठे संध्या कर रहे थे तो उनके पिताजी ने उन्हें जा दबोचा और गृहस्थी का कर्त्तव्य बोध कराया । उन्होंने पुत्र को समझाया - इन्द्र ! तेरी शादी हो चुकी है, बहू का गौणा होने वाला है, घर लौट चलो । उन्होंने यहाँ तक कहा कि तुम्हारी बहू भी किसी की बेटी या बहन है और ऐसा वय्वहार कोई हमारी बेटी या बहन के साथ करे तो हमें कैसा लगेगा । अपने को या हमें इस धर्मसंकट में न डालो और घर लौट चलो । पिता और पुत्र के बीच पैदा हुए दुविधा के इन कठिन क्षणों की याद ताजा करते हुए एक बार स्वामी इन्द्रवेश जी ने बताया था -
"मैं पिताजी का हृदय से सम्मान करता था । जब भी मिलते उनके चरण-स्पर्श करता था । आज भी संध्या से उठते ही उनके चरण स्पर्श किये । उनकी परेशानी को मैं समझ सकता था लेकिन मैं बहुत दूर निकल आया था अतः उनकी बातों को स्मित मुस्कान के साथ सुनता रहा, सहता रहा । मेरी दुविधा यही थी कि जो निर्णय मैं अपने भावी जीवन को लेकर ले चुका था उस निर्णय को सुनकर पिताजी को कष्ट होगा क्योंकि मैं उनका ज्येष्ठ पुत्र था और गृहस्थी की गाड़ी को खींचने के लिए उन्होंने मुझसे कई अपेक्षाएं रखी हुई थीं । उन अपेक्षाओं पर वज्राघात होते देख उनके दिल पर क्या बीतेगी इसी बात को लेकर मेरी चिन्ता बढ़ गई थी । यही कारण था कि उनका सामुख्य करने का साहस मैं नहीं बटोर पा रहा था । गौतम बुद्ध ने अपने पारिवारिक जनों का परित्याग तब किया था जब वे गहन निद्रा में सो रहे थे और आर्थिक रूप से सम्पन्न थे । लेकिन मेरे सामने एक लाचार पिता साक्षात् रूप में खड़ा था और निराश करने का मुझे अधिकार नहीं था लेकिन फिर न जाने साहस का झोंका मन के किस कोने से उठा और मैं पहली बार पिताजी के सामने तन कर खड़ा हो गया और यह कहते हुए मुझे तनिक भी संकोच या लज्जा का अनुभव न हुआ - पिताजी ! गृहस्थ का परित्याग कर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का जीवन जीने का मैंने जो फैसला लिया है वह मेरा अपना फैसला है जिसमें प्रारब्ध की अथवा पूर्व जन्म के संस्कारों की कोई भूमिका हो या नहीं लेकिन किसी अन्य व्यक्ति के कहने-सुनने या प्रेरित करने से मैंने यह फैसला नहीं लिया है । न जाने क्यों मुझे यह अहसास होता रहा है कि गृहस्थ-जीवन की कारागार में रहकर मैं वह सब कुछ नहीं कर सकता जो मुझे करना है । मुझे क्या करना है यद्यपि मुझे इसका कोई परिज्ञान नहीं है लेकिन जो राह मैने पकड़ी है वही मेरे जीवन को सार्थक बना सकती है इसकी गवाही मेरा दिल मुझे बार-बार दे रहा है । जिस अवस्था को मैं पार कर आया हूँ उसमें मुझे धकेलने से न आपको इष्ट की उपलब्धि होगी न मुझे । अतः जो आशा आप मुझसे रखे हुए हैं वह शेष भाईयों से पूरी कर सकते हैं । देश और समाज की सेवा के लिए यदि आप मेरा मोह छोड़ दें तो मुझे जन्म देने के बाद आपका यह मुझ पर दूसरा बड़ा ऋण होगा । पिताजी ! मैं यह कहने को विवश हूँ कि भले ही आप चाहें तो मेरी गरदन उतार कर ले जा सकते है लेकिन आपके साथ अब मेरा घर लौटना असम्भव है ।"
स्वामी जी बतलाते हैं - "एक पुत्र का ऐसा कठोर उत्तर सुनकर पिताजी को पहली बार मैंने निराश व आशाहीन देखा । यह सब भ्रम और आसक्ति का ही परिणाम था । इससे मुझे एक प्रेरणा मिली कि यदि हम आध्यात्मिक जीवन जीना चाहते हैं तो हमें अपने किसी अभिन्न और आत्मीय जन से इतनी उपेक्षायें न रखनी चाहियें जिनके पूरा न होने पर हम भग्न-हृदय हो जायें और हमारी स्थिति बीच भंवर में फंसी बिना चप्पुओं वाली नाव जैसी हो जाये । पिताजी की स्थिति को मैं समझ सकता था कि उनकी मनोदशा युवा-पुत्र को शमशान की चिता पर छोड़ आये एक पिता तुल्य थी लेकिन मुझे इस बात पर सन्तोष था कि यह संसार में अपने ढ़ंग की पहली घटना नहीं थी । इससे पूर्व ऐसी असंख्य घटनाओं का साक्षी हमारा इतिहास रहा है । उस रात मैंने ऐसा महसूस किया कि जैसे मैं आकाश में स्वछंद उड़ रहा हूँ क्योंकि सत्य की राह पर चलने का संकल्प पहली बार जमीनी असलीयत बन सका था ।"
पिताजी के इस प्रकार निराश लौटने से घर में शोक सा छा गया था । घर के किसी भी सदस्य ने ऐसी उम्मीद नहीं की थी कि परिवार पर हमेशा अपनी छत्रछाया रखने वाला इन्द्र इतना निर्मोही और उदासीन होकर इस प्रकार अपने पिताजी को निराश करेगा । इन्द्र में आये इस परिवर्तन को मां भी नहीं समझ पा रही थी अतः उसे अब भी यह विश्वास था कि वह घर लौट आयेगा । इसी ऊहापोह में उनके ताऊजी ने खुद गुरुकुल जाकर उसे घर लिवा लाने का प्रयास किया लेकिन दृढ़ता ने उन्हें भी बैरंग लौटा दिया । इस प्रकार ब्रह्मचारी इन्द्रसिंह ने पुत्रैषणा एवं वित्तैषणा का पथ प्रशस्त कर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का जीवन जीने का फैसला लिया ।
महाशय प्रभुदयाल जी जब इतने अस्वस्थ हो गये कि उनके अधिक दिन जीवित रहने की कोई आशा नहीं रही तो इन्द्र सिंह को, जो आचार्य भगवानदेव से नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेकर इन्द्रदेव मेधार्थी कहलाने लगे थे, उनके मरणासन्न होने का समाचार दिया गया । मेधार्थी जी ने तुरन्त साईकिल उठाई और सांझ होते-होते गुरुकुल झज्जर से अपने गांव सुण्डाना पहुँचे । पिताजी ने गर्वोन्मत्त होकर अपने पुत्र को नैष्ठिक ब्रह्मचारी के रूप में देखा और बोले - "बेटा ! अब तूने यह लाइन पकड़ ही ली है तो अब इसको दृढ़मना होकर निभाना है । हमें कहीं तू बदनाम मत कर देना ।" मेधार्थी जी ने अपने पिताजी को आश्वस्त करते हुए कहा - "नहीं पिताजी, आप निश्चिन्त होकर प्रस्थान करें । मैंने यह रास्ता स्वेच्छा से, दृढ़ संकल्प होकर अपनी आत्मा की आवाज से चुना है किसी के कहने से अथवा किसी लोभ से प्रेरित होकर नहीं चुना । मैं आपको कभी बदनाम नहीं होने दूँगा ।"
पिता और पुत्र की यह अन्तिम भेंट थी । उसी रात महाशय प्रभुदयाल जी ब्रह्मलीन होकर इस संसार से विदा हो गये । यह अन्तिम भेंट भी शायद किसी निहितार्थ का संकेत कर रही थी जिसे मेधार्थी जी ने समझने का प्रयास किया । यज्ञ वेदी पर दीक्षा लेते हुए भले ही उन्होंने कुछ संकल्प लिये होंगे, इस अन्तिम भेंट में पिताजी को जो आश्वस्ति उन्होंने दी उसका एक अलग ही महत्त्व था । पिता-पुत्र की इस अन्तिम भेंट की वचनबद्धता इन्द्र की को आजीवन स्मरण रही और वे दृढ़ता से अपने पथ पर आरूढ़ रहे ।
नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेने के पश्चात् इन्द्रदेव मेधार्थी गुरुकुल झज्जर में ही अध्यापन कार्य कराने लगे थे । आचार्य भगवानदेव के प्रिय व विश्वासपात्र शिष्यों में एक वह भी थे अतः गुरुकुल के प्रधानाचार्य का पद भी उन्हें सौंप दिया गया था । सन् 1964-66 की यह अवधि रही थी । पारिवारिक सदस्य वर्ष में दो बार उनसे मिलने गुरुकुल में अवश्य आते थे । इनमें माता जी के साथ उनके छोटे भाई-बहन भी होते थे । स्वामी जी इस तरह की मुलाकात को स्वभावतः पसन्द नहीं करते थे लेकिन माँ विधवा हो चुकी थी और भाई-बहन छोटे थे इसलिए यह सोचते हुए कि मुझसे मिलकर उन्हें कुछ उत्साह, ऊर्जा और सन्तुष्टि मिलती है, उन्होंने नापसन्दगी कभी जाहिर नहीं होने दी । उस समय गुरुकुल के वार्षिकोत्सव पर मेधार्थी जी गज मोड़ना, गाड़ी रोकना, शीशे हाथों से रगड़ना आदि व्यायाम प्रदर्शन भी किया करते थे जिन्हें देखकर सैंकड़ों दर्शकों के साथ-साथ उनके पारिवारिक जन भी आल्हादित होते थे ।
ऐसे ही किसी अवसर पर माता जी अपने पुत्र के लिए गुलगुले और सुहाली बनाकर लाई जो उनकी विशेष पसन्द थी । हमेशा की तरह रात को जब मेधार्थी जी माता जी से मिलने अतिथिशाला में पहुँचे तो मां ने अपनी पोटली खोलकर बेटे के सामने रख दी । मां के इस प्यार पर तो वे मुग्ध हुए लेकिन उन्होंने इन व्यंजनों को मात्र चख कर पोटली बांध कर वापस लौटा दी । मां ने पूछा - क्या स्वाद नहीं है ? मेधार्थी ने उत्तर दिया - मां के हाथ की बनी चीज अच्छी न बने ये तो कभी हो ही नहीं सकता । लेकिन मां ! गुरुकुल के नियमानुसार मैं इन्हें खा तो नहीं सकता । फिर मां, तू रोजाना तो यहां आयेगी नहीं और फिर जीभ दोबारा गुलगुले मांगेगी तो मुश्किल होगा । माता को इतने प्यार से समझाकर भी उन्होंने उसे निराश नहीं किया और वह पोटली पाकशाला में ले गये जिससे ब्रह्मचारी इकटठे बैठकर इनका रसास्वादन कर सकें ।
इस स्नेहमयी माता का वरदहस्त हमेशा इन्द्र जी के सिर पर रहा भले ही उन्होंने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली हो या फिर संन्यस्त जीवन की दीक्षा । पुत्र का रूप चाहे जो हो मां की ममता तो उसे एक ही पैमाने से नापती है । माता जी जब अन्तिम बार बीमार पड़ी तो उसने पुत्र से मिलने की इच्छा प्रकट की । तब इन्द्र जी रोहतक जेल में थे । बहन वीरमति और भाई राजपाल माता जी को लेकर जेल पहुँचे । रास्ते में उसे समझाते रहे कि भाई से मिलकर रोना नहीं, हमें भी कष्ट होगा और उनको भी । देश और समाज के लिए वे बढ़िया काम कर रहे हैं, बड़े-बड़े नेताओं के बीच बैठते हैं, अखबारों में खूब नाम आता है । पुत्र से मां की जब मुलाकात हुई तो मां और बेटे दोनों के नेत्र बरबस सजल हो उठे । मां बोली - इन्द्र ! पता नहीं अब जीऊंगी या नहीं इसलिए मिलने चली आई । तेरा बड़ा नाम है बेटे, यह सुनकर मेरी छाती सवाई हो जाती है । तेरे काम को अब मैंने समझ लिया है, तू दूसरों के लिए जी रहा है और अच्छा काम कर रहा है । मैं बहुत खुश हूँ और चाहती हूँ तू मेरे मन से इस काम को करता रह ।" मां के इन बोलों से इन्द्र जी भी गदगद हो गये और मां से लिपट कर उन्हें ऊपर गोद में उठा लिया और कहा - 'देख मेरी मां, आज तूने कितनी बड़ी बात कह दी, बहुत बढ़िया मां, बहुत बढ़िया । आज मैं दुनिया का सबसे खुशनसीब आदमी हूँ ।'
मां और बेटे की यह भेंट अन्तिम सिद्ध हुई जैसी कि मां ने आशंका प्रकट की थी । कुछ समय पश्चात् उनका निधन हो गया । मां के निधन की सूचना देने उनका भाई राजपाल ही रोहतक आया था । उस समय स्वामी इन्द्रवेश जी सुभाष नगर कार्यालय रोहतक में अग्निवेश जी, आदित्यवेश जी, शक्तिवेश जी आदि के साथ अन्तरंग बैठक में बैठे थे । स्वामी इन्द्रवेश जी को जगवीर जी के द्वारा बाहर बुलाया गया तो भाई राजपाल ने रोते हुए सूचना दी - माता जी चल बसी है । स्वामी जी ने भाई को ढ़ांढस बंधाते हुए कहा - 'जाना तो एक दिन हम सबने है । माता जी भरा-पूरा परिवार छोड़कर गई है । अरे तुम तो बहुत बहादुर हो । अपनी पढ़ाई में मन लगाना । माता जी बहुत बड़ी आत्मा थी । मेहनती और समझदार थी । बीमारी की वजह से अब उनका समय आ गया था ।' इतना कहकर स्वामी इन्द्रवेश जी तुरन्त भीतर जाकर बैठक में जा बैठे, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था ।
स्वामी इन्द्रवेश जी की इस उदासीनता और बेरुखी ने भाई राजपाल को निराश नहीं किया क्योंकि वे पहले भी इसके भुक्तभोगी रह चुके थे । तब वे गुरुकुल झज्जर के ब्रह्मचारी थे । आचार्य बलदेव जी प्रायः इन्द्र जी के परिवार में जाते रहते थे और एक-एक महीना भी वहां रह आया करते थे । उनके माध्यम से ही पारिवारिक जनों की इन्द्र जी से भेंट हुआ करती थी । उनकी प्रेरणा से भाई राजपाल गुरुकुल झज्जर में पढ़ने आये थे । तब इन्द्र जी गुरुकुल छोड़ चुके थे । हाँ, वे प्रायः गुरुकुल में आया करते थे । उस समय उनके पास जीप-गाड़ी नहीं थी । पैदल ही पीठ पर खाखी रंग का थैला लटकाये वे गुरुकुल आया करते थे । उनके आते ही रौनक सी लौट आती थी । ब्र. राजपाल नया-नया गुरुकुल में आया था । जब वह इन्द्र जी से मिलता तो वे तपाक से कहा करते थे - ब्रह्मचारी जी का क्या हाल है, और जोर से हँसते थे । एक दिन प्रातः ही जब अन्तेवासियों से विदा होकर वे मुख्य द्वार पर पहुँचे तो बालक राजपाल को, जब उनकी आयु 10-11 वर्ष की रही होगी, न जाने क्या सूझी कि वह शोर मचाते मुख्य द्वार की ओर भागने लगा । उसके पीछे गुरुकुल के मुख्याध्यापक आचार्य यशपाल जी भागे । इन्द्र जी को पकड़ कर राजपाल ने कहा - मैं भी आपके साथ चलूंगा । यह भ्रातृभाव की आसक्ति थी अथवा खून का रिश्ता, कोई भी समझ नहीं पा रहा था । इन्द्र जी ने पांच मिनट अपने अनुज से संवाद किया और कहा - 'मुझे तो खुद नहीं मालूम मैं आज कहाँ जाऊँगा । मैं घर थोड़े ही जा रहा हूँ ।' फिर उन्होंने पूछा - मां कब-कब आती है और घर से और कौन-कौन आते हैं । प्यार से उन्होंने अपने अनुज को ऐसा समझाया कि उसका मन गुरुकुल में रम गया । समझाने की उनकी शैली में इतनी सरलता, स्निग्घता और सात्विकता थी कि उसी साल राजपाल ने अष्टाध्यायी को कण्ठस्थ कर सुनाया जो कठिन कार्य था । इन्द्र जी के इस बल का लोहा परिवार वाले भी मानते थे कि सरलता और आत्मीयता से वह इंसान का पानी बना देते थे लेकिन अगले ही क्षण वे उदासीन भाव लिये, विरक्ति लिये अपने को झट से विलग कर लिया करते थे और उनकी आंखें दूर क्षितिज में कुछ ढूंढने का प्रयास करतीं दिखने लगती थीं ।
गुरुकुल झज्जर में प्रो. श्यामराव
इन्द्रदेव मेधार्थी जी के जीवन में एक नया मोड़ तब आया जब प्रो. श्यामराव जी व उनकी भेंट गुरुकुल झज्जर के परिसर में सन् 1966 में पहली बार हुई । प्रो. श्यामराव कलकत्ता के जेवियर कालेज में कामर्स एवं बिजनेस मैनेजमैन्ट के प्राध्यापक थे । मेधार्थी जी उन दिनों गुरुकुल झज्जर के प्रधानाचार्य थे । यह भेंट पूर्व निर्धारित नहीं थी और न ही इन दोनों में पहले कभी पत्राचार ही हुआ था । इन दोनों की भेंट मणि-कांचन का संयोग अथवा सोने पर सुहागा इस लोकोक्ति को सिद्ध कर गया । यदि यह भेंट न होती तो प्रो. श्यामराव और इन्द्रदेव मेधार्थी हजारों गुमनाम आर्यसमाजी बुद्धिजीवियों की तरह गुमनामी के अंधेरे में पड़े इस संसार से विदा हो जाते । इस भेंट के कारण न केवल इन दोनों के जीवन का काँटा बदल गया बल्कि आर्य समाज के इतिहास में आगे चलकर एक नया अध्याय ही रच गया । जिस तरह से यह भेंट हुई उसे जान कर ऐसा लगता है कि यह सब परमात्मा और नियति का ही रचा हुआ एक खेल था अन्यथा कहाँ कलकत्ता और कहां झज्जर, कहां कलकत्ता का कालेज और कहां गुरुकुल झज्जर, कहाँ एक अंग्रेजी में धाराप्रवाह बोलने वाला प्रोफेसर और कहाँ एक गुरुकुल का आचार्य, कहां कोट-पैंट और कहां कटि-वस्त्र, न भाषा का मेल और न संस्कारों का मेल । तब यह कैसे सम्भव हुआ कि इन दोनों में इतनी प्रगाढ़ मैत्री हो गई कि आग और पानी इकट्ठा हो गये, गांव और शहर में एका हो गया, पैंट और कटि वस्त्रों का भेद मिट गया । अंग्रेजी और संस्कृत का राम-भरत मिलन हो गया । न जाने कितनी भविष्यवाणी, जो इन दोनों को लेकर की जाती रहीं, एक-एक कर झूठी सिद्ध होती रही लेकिन फिर भी ये दो आत्माएं जुदा न हुईं, कभी दोनों में खटास पैदा नहीं हुई, दो रेलवे लाइनों की तरह समानान्तर भूमिका में रहते हुए भी कभी एक-दूसरे से दूर नहीं हुए बल्कि एक-दूसरे का पूरक बनकर एक ने दूसरे से बढ़कर आर्यसमाज के इस नये अध्याय का सूत्रपात किया । निश्चय ही यह कहानी न केवल रोचक है बल्कि प्रेरणा-दायक और अनुकरणीय भी है । विशेषतः उन लोगों के लिए, उन नेताओं के लिए, उन सामाजिक कार्यकर्त्ताओं के लिए जो छोटे-छोटे स्वार्थों को लेकर, नेतागिरि को लेकर, पदों को लेकर, वर्चस्व को लेकर न केवल रातों-रात पाला बदल लेते हैं, न केवल एक-दूसरे के विरोध में आमने-सामने आ खड़े होते हैं, बल्कि एक-दूसरे की कड़ी भर्त्सना करने और एक-दूसरे का अस्तित्व तक मिटा देने तक की स्थिति में भी आ जाते हैं । इन दोनों के स्वभाव में, प्रकृति में, इतना अन्तर था कि एक तेजाब में बुझा हुआ था तो दूसरा गोमुख से निकली जलधारा के समान शीतल । लेकिन फिर भी इनमें मैत्री हो सकी, मधुर पारस्परिक सम्बन्ध आजीवन बने रह सके, लम्बे सार्वजनिक जीवन में कभी दरार या कटुता न आ सकी तो इसे नियति के विचित्र खेल की संज्ञा ही दी जा सकती है, पूर्व जन्म के संस्कारों का उदय होना भी माना जा सकता है । इन दोनों के संबन्धों की तह में जाकर यदि अध्ययन किया जाये तो निष्कर्ष यह निकलता है कि इस अटूट रिश्ते की बुनियाद समान ध्येय पर टिकी हुई थी और वह ध्येय था आर्यसमाज के यश व कीर्ति को बढ़ाना, उसे यथायस्थितिवाद से मुक्त कराना, उसे चारदीवारी की कैद से मुक्त कराकर समाज से जोड़ना, उसे बजाय एक जीवन-शैली बनाने के चहुँमुखी क्रान्ति का आधार बनाना, उसे बजाय सम्प्रदाय बनाये रखने के एक सजीव आन्दोलन का स्वरूप प्रदान करना, उसे बजाय यज्ञ-संध्या तक सीमित रखने के एक ऐसी समग्रता प्रदान करना, एक ऐसी पूर्णता प्रदान करना जिससे देश-विदेश का हर नागरिक न केवल प्रभावित हो बल्कि उसे आत्मसात भी कर सके । प्रश्न यह नहीं उठता कि इस दिशा में वे सफल कितने हुए बल्कि देखना यह है कि इस दिशा में वे कहीं भटके तो नहीं, उनकी ईमानदारी व निष्ठा में कहीं कोई कमी तो नहीं आई, उनके स्वार्थ कहीं आपस में टकरे तो नहीं । इस प्रश्न का उत्तर हमें तब मिला जब 12 जून 2006 को स्वामी इन्द्रवेश जी का अंत्येष्टि संस्कार खुद स्वामी अग्निवेश जी ने भरे मन और सजल नेत्रों से उनकी चिता को मुखाग्नि देते हुए स्वयं कराया । चालीस वर्षों के सार्वजनिक जीवन यह सुखद अंत निश्चय ही निराला था, विरल था, आदरणीय था, गौरवशाली था । आर्यसमाज के इतिहास का यह ऐसा अध्याय है जो न केवल सदियों तक याद रखा जायेगा । बल्कि आने वाली पीढ़ियाँ उनसे सबक भी लेती रहेंगी । इसलिए इस अध्याय का अध्ययन पाठकों को तटस्थ रह कर करना होगा । ईमानदारी से करना होगा, नीर-क्षीर विवेक से करना होगा जिससे कि आर्य समाज की नींव को मजबूती मिल सके, उसकी कमजोर दीवारों को सहारा मिल सके, उसके धूल खाये कलश को चमक मिल सके ।
स्वामी इन्द्रवेश और स्वामी अग्निवेश की जोड़ी को जिन लोगों ने आलोचक भाव से जानने या समझने का प्रयास किया, उन्होंने निश्चय ही न केवल खुद धोखा खाया है बल्कि दूसरों को भी धोखा देने की कौशिश की है । इन आलोचक महानुभावों ने उनके भीतर झांकने का कभी प्रयास नहीं किया क्योंकि वे खुद इस योग्य कभी रहे नहीं कि तटस्थ रह कर ऐसा कर सकें । उन्होंने उस पृष्ठभूमि को भी समझने का प्रयास नहीं किया जिन्होंने इन दो शरीरों को एक आत्मा बनाये रखा । उनके मंसूबों को समझने का ईमानदाराना प्रयास वे नहीं कर सके । आर्यसमाज के माध्यम से जिस समग्र क्रान्ति का स्वप्न संजोकर उन्होंने संकल्प लिया था वह संकल्प यदि पूरा न हो सका तो इसमें दोष उनका नहीं है बल्कि उनका है जो जीवन भर उनसे विरोध जताते रहे, उनके रास्ते में काँटे बिछाते रहे, उनके सामने दीवार बनकर खड़े होते रहे महज इस कारण कि उनकी नेतागिरी पर आँच न आये, उनके नीचे से कहीं उनकी कुर्सी न खिसक जाये, उनकी गुटबन्दी का कहीं शिराजा न बिखर जाये । जिन उद्देश्यों को लेकर वे आर्यसमाज में आये हैं वे कहीं धराशायी न हो सकें । जो पाठक इस औंधी सोच के कभी शिकार नहीं रहे वे निश्चय ही उस अध्याय पर गर्व कर सकेंगे जो इन दो तेजस्वी आत्माओं ने अपने खून और पसीने से लिखा है ।
सामाजिक जीवन की शुरुआत
दोनों ही नेताओं ने एक दूसरे का पूरक बनकर अपने सामाजिक दायित्व को निभाया । सन् 1967 में सार्वदेशिक आर्य युवक परिषद के नाम से युवकों का संगठन बनाकर कार्य प्रारम्भ किया । उनके साथ उसी समय स्वामी आदित्यवेश (पूर्व नाम आचार्य रामानन्द), स्वामी शक्तिवेश (पूर्व डॉ. कृष्णदत्त), ब्र. कर्मपाल, प्रो. उमेदसिंह, प्रो. बलजीत सिंह आर्य, मा. धर्मपाल आर्य, ओमप्रकाश पत्रकार, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी योगानन्द, मनुदेव आर्य, राजसिंह आर्य आदि अनेक युवक कार्यक्षेत्र में उतरे तथा आर्य जगत में युवक क्रान्ति अभियान के नाम से एक नया अध्याय शुरू हो गया । फिर 1968 में आपने युवक क्रान्ति अभियान के शंखनाद के रूप में राजधर्म नाम से पाक्षिक पत्र भी उसी समय प्रारम्भ कर दिया जो अभी तक निरन्तर निकल रहा है । युवकों को संगठित करने एवं जनसामान्य तक अपनी बात पहुँचाने के लिए 1967 में गुरुकुल झज्जर को छोड़ दिया तथा कुरुक्षेत्र से दिल्ली तक की पदयात्रा का ऐतिहासिक आयोजन किया । यह यात्रा सैंकड़ों गांवों, कस्बों व नगरों से होती हुई पन्द्रह दिन बाद दिल्ली के ऐतिहासिक लालकिले के समक्ष जलती मशाल हाथों में लेकर आर्य राष्ट्र की स्थापना के संकल्प के साथ सम्पन्न हुई । सन् 1969 में हरयाणा की जनता के द्वारा छेड़े गए चण्डीगढ़ आन्दोलन में युवावर्ग का नेतृत्व करते हुये स्वामी इन्द्रवेश व उनके साथी जेल गये । रोहतक सेन्ट्रल जेल में ही उन्होंने अपने अभिन्न साथी स्वामी अग्निवेश के साथ सन्यास लेने का संकल्प लिया ।
7 अप्रैल 1970 को दयानन्द मठ रोहतक में स्वामी इन्द्रवेश जी ने स्वामी अग्निवेश एवं स्वामी सत्यपति के साथ वेदों के प्रकाण्ड विद्वान स्वामी ब्रह्ममुनि जी से सन्यास की दीक्षा ली । उसी दिन स्वामीद्वय ने आर्य राष्ट्र के निर्माण का संकल्प लेते हुए आर्यसभा नाम से राजनैतिक पार्टी की भी स्थापना कर ली तथा सक्रिय राजनीति में उतर गये ।
1972 में विधानसभा के चुनावों में आर्यसभा के दो विधायक चुने गये तथा आर्यसभा हरयाणा की सर्वाधिक वोट प्राप्त करने वाली विपक्षी पार्टी बन गई ।
सन् 1973 में किसान संघर्ष समिति का गठन करके गेहूँ के भाव को लेकर जबरदस्त आन्दोलन शुरू किया । गेहूँ का भाव बढ़वाने के लिये दिल्ली के बोट क्लब पर संसद के समक्ष आमरण अनशन किया तथा गेहूँ का भाव 76 रुपये से 105 रुपये करवाने में सफलता प्राप्त की ।
सन् 1974 में आर्यसमाज की सर्वाधिक सशक्त सभा आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब जिसमें दिल्ली, हरयाणा, पंजाब की आर्य समाजें, शिक्षण संस्थायें व गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, कन्या गुरुकुल देहरादून, गुरुकुल काँगड़ी फार्मेसी आदि सम्मिलित थीं, के चुनाव में प्रधान चुने गये तथा गुरुकुल कांगड़ी के कुलाधिपति बने । यह चुनाव हाईकोर्ट की देखरेख में संपन्न हुआ था ।
सन् 1975 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण द्वारा छेड़े गये आन्दोलन में हरयाणा जनसंघर्ष समिति के अध्यक्ष के रूप में जे. पी. ने स्वामी जी को आन्दोलन की बागडोर सौंपी । इस समिति में चौ. देवीलाल, स्वामी अग्निवेश, डा. मंगलसेन, मनीराम बागड़ी, चौ. शिवराम वर्मा, बलवन्तराय तायल, पं. श्रीराम शर्मा, चौ. चाँदराम, चौ. मुखत्यारसिंह, चौ. धर्मसिंह राठी आदि हरयाणा के समस्त दिग्गज नेता सदस्य थे ।
सन् 1975 में आपातकाल के दौरान मीसा के अन्तर्गत नजरबंद किये गये । इमरजेंसी के बाद आर्यसभा का अन्य सभी पार्टियों की तरह जनता पार्टी में विलय कर दिया गया तथा सन् 1980 के लोकसभा चुनाव में आप रोहतक से लोकदल के टिकट पर सांसद चुने गये ।
सन् 1986 में राजीव-लोंगोवाल समझौते एवं पंजाब में फैल रहे उग्रवाद के खिलाफ छोटूराम पार्क रोहतक में आपने 21 दिन की भूख हड़ताल की । अनशन समाप्ति पर तत्कालीन आर्यनेता लाला रामगोपाल शालवाले जूस पिलाने के लिए पधारे ।
सन् 1992 में शराबबन्दी आन्दोलन की शुरुअत की तथा पूर्ण शराबबन्दी लागू होने तक सफलता के साथ नेतृत्व किया । सन् 1993 में दिल्ली से हिसार की शराबबन्दी पदयात्रा का नेतृत्व किया । इस यात्रा में लगभग पांच हजार स्त्री-पुरुष सम्मिलित हुये जो सूदूर महाराष्ट्र व गुजरात तक से आये थे । यात्रा के विराट रूप को भांप कर हरयाणा सरकार कांप उठी थी ।
सन् 2001 में आर्य प्रतिनिधि सभा हरयाणा के प्रधान निर्वाचित हुये । वर्तमान में आप आर्य विद्यासभा गुरुकुल कांगड़ी के प्रधान पद को सुशोभित कर रहे थे ।
विविध गतिविधियाँ
1. अपने जीवन की विशेष योजना को मूर्तरूप देते हुए स्वामी जी ने सैंकड़ों लोगों को सन्यास, वानप्रस्थ एवं नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षायें दीं तथा हजारों योग्य एवं शिक्षित युवकों को आर्यसमाज में दीक्षित किया ।
2. ब्रह्मचर्य, व्यायाम प्रशिक्षण एवं युवानिर्माण शिविरों के माध्यम से पूरे देश में युवक क्रान्ति अभियान चलाया त्था आर्यसमाज में नया जीवन फूँका । शिविरों के माध्यम से लाखों युवकों को आर्यसमाज से जोड़ा ।
3. पदयात्राओं, शिविरों, व्यायाम-प्रदर्शनों व जनचेतना यात्राओं के माध्यम से आर्य समाज का प्रचार करने की परम्परा उन्होंने ही प्रारम्भ की ।
4. गुरुकुल मटिण्डू (सोनीपत) के वे बहुत लम्बे समय तक प्रधान रहे तथा आचार्य यशपाल प्रधानाचार्य रहे । इसी प्रकार सन् 1978 से 1985 तक गुरुकुल सिंहपुरा-सुन्दरपुर जिला रोहतक का संचालन कर संस्था को चार चाँद लगाये जो हरयाणा की समस्त आर्यसामाजिक गतिविधियों का केन्द्र बना हुआ था । गुरुकुल सिंहपुरा-सुन्दरपुर (रोहतक) में महर्षि दयानन्द साधु आश्रम एवं गोशाला के भवन का निर्माण कराया एवं गुरुकुल को उन्नति के शिखर पर पहुँचाया । उस समय गुरुकुल के आचार्य स्वामी चन्द्रवेश जी, व्यवस्थापक श्री जगवीर सिंह तथा प्रधान चौ. रघुवीर सिंह सिंहपुरा थे ।
5. उत्तरप्रदेश के केवलानन्द निगमाश्रम गंज बिजनौर में छह सौ बीघा भूमि एवं विशाल आश्रम है । आश्रम के अन्तर्गत संस्कृत महाविद्यालय, बी. एड. तथा नर्सिंग कालेज, विशाल गऊशाला एवं खेल स्टेडियम आदि संस्थान संचालित हो रहे हैं । यह आश्रम स्वामी सुखानन्द जी महाराज ने सन् 1986 में स्वामी इन्द्रवेश जी को सौंप दिया था, जिसका संचालन पूज्य स्वामी इन्द्रवेश जी अभी तक कर रहे थे । इसी आश्रम की एक शाखा गंगा डेरा छींटावाला (पटियाला) पंजाब में स्थित है जो आपके निर्देशन में स्वामी ब्रह्मवेश चला रहे हैं । केवलानन्द निगमाश्रम के विशाल संस्थान का संचालन आपके कर्मठ एवं सुयोग्य शिष्य स्वामी ओमवेश जी कुशलता के साथ कर रहे हैं ।
6. महर्षि दयानन्द धाम अमृतसर (पंजाब), महर्षि दयानन्द धाम मिर्जापुर (फरीदाबाद), महर्षि दयानन्द प्राकृतिक एवं योग चिकित्सा आश्रम जीन्द, महर्षि दयानन्द धाम बरगड़ (उड़ीसा) आदि केन्द्र स्वामी इन्द्रवेश जी की प्रेरणा से अपने अपने क्षेत्र में वेद प्रचार एवं सेवा का ठोस कार्य कर रहे हैं ।
7. स्वामी जी की अध्यक्षता में गठित वेदप्रचार आयोजन समिति के तत्वाधान में वर्ष 1986 में कुम्भमेला हरद्वार में चालीस दिन का वेदप्रचार शिविर लगाया गया जिसमें गाय के घी से चतुर्वेद पारायण यज्ञ, विभिन्न सम्मेलन, योग शिविर, ऐतिहासिक शोभायात्रा एवं शास्त्रार्थ की चुनौति देकर पौराणिक जगत् में हलचल पैदा की, 1986 के वेदप्रचार शिविर से पूर्व कुम्भ मेले में आर्य समाज का शिविर लगभग 60 साल पहले लगा था । स्वामी जी द्वारा प्रारम्भ किये गये उक्त क्रान्तिकारी कार्यक्रम को अभी तक प्रत्येक कुम्भ मेले में चलाया जा रहा है । सन् 1986 के कुम्भ मेले पर स्वामी प्रकाशानन्द व स्वामी योगानन्द सहित दस सन्यासी बने थे ।
8. हरयाणा में आर्यसमाज की छावनी के रूप में विख्यात दयानन्द मठ रोहतक के प्रधान बनाये जाने के बाद आपने 1999 से मासिक सत्संग का अनोखा कार्यक्रम प्रारम्भ किया तथा जीवन के अन्तिम क्षण तक बखूबी निभाया । आखिरी सत्संग 4 जून 2006 को हुआ जो 81वां था । उनकी प्रेरणा से श्री सन्तराम आर्य उक्त सत्संग का संयोजन सफलता के साथ कर रहे हैं ।
9. वैदिक धर्म के प्रचारार्थ स्वामी जी देश एवं विदेश में निरन्तर भ्रमण करते थे । सन् 1983 में महर्षि दयानन्द बलिदान शताब्दी समारोह दिल्ली की तैयारी हेतु आप व स्वामी अग्निवेश जी हालैंड, जर्मनी, अमेरिका आदि देशों में आर्यजनों को प्रेरित करने पहुँचे । इसी तरह सन् 1997 में स्वामी जी श्री विरजानन्द जी महामन्त्री सार्वदेशिक आर्य युवक परिषद को साथ लेकर अमेरिका गये, जहां उन्होंने अनेक शहरों में वेदप्रचार के लिए व्याख्यान दिये । उसी दौरान वे हालैण्ड आदि देशों में भी गये । वर्ष 2000 में पुनः परिषद के प्रधान श्री जगवीर सिंह को सथ लेकर पहले अमरीका व कनाडा गये तथा बाद में हालैंड, जर्मनी व इंग्लैंड भी गये । इसी वर्ष आर्य समाज नैरोबी (केनिया) में आर्यसमाज के कार्यक्रम के लिए लगभग पन्द्रह दिन लगाकर आये । इस साल जुलाई 2006 में भी उनका कार्यक्रम अमेरिका जाने का बना हुआ था किन्तु 12 जून 2006 को उनका देहावसान हो गया । अमेरिका में उनकी प्रेरणा से एक आश्रम के निर्माण की तैयारी थी । अमेरिका में स्वामी जी के बहुत सारे सहयोगी हैं जिनसे सम्पर्क का माध्यम श्री चन्द्रभान आर्य एवं लक्ष्मी आर्य हैं । सन् 1983 में अन्तर्राष्ट्रीय महर्षि दयानन्द बलिदान शताब्दी समारोह रामलीला मैदान, नई दिल्ली में आयोजित किया गया जिसकी अध्यक्षता स्वामी इन्द्रवेश जी ने की । इस अवसर पर स्वामी ओमवेश व स्वामी दिव्यानन्द सहित लगभग चौदह लोगों ने वानप्रस्थ एवं सन्यास की दीक्षा ली थी । पांच अन्तर्जातीय शादियाँ भी सम्पन्न कराई गई थी जिन्हें पूर्व प्रधानमन्त्री चौ. चरणसिंह जी ने प्रमाणपत्र एवं सम्मान प्रदान किया था ।
सन् 1987 में रूपकंवर को जबरन सती करने के विरुद्ध दिल्ली से देवराला की ऐतिहासिक पदयात्रा जो स्वामी अग्निवेश जी के नेतृत्व में निकाली गई थी, में भी स्वामी इन्द्रवेश जी की विशेष प्रेरणा रही ।
सन् 1987 में ही दिल्ली से पुरा महादेव (मेरठ) तक आयोजित पदयात्रा का संरक्षण स्वामी इन्द्रवेश जी ने किया । यह यात्रा भी पुरी के शंकराचार्य निरंजन देव तीर्थ को सती के सवाल पर शास्त्रार्थ की चुनौति देने के लिए आयोजित की गई थी । इस कार्य में पूरे आर्य जगत में नई ऊर्जा पैदा हुई थी ।
बागपत में मायात्यागी काण्ड के बाद ग्यारह सौ सत्याग्रहियों के साथ सत्याग्रह करके एक महीने तक बरेली जेल में रहे तथा बाद में हरयाणा लोक संघर्ष समिति के माध्यम से हरयाणा में जोरदार जेल भरो आन्दोलन चलाया । विदित हो कि मायात्यागी को पुलिस ने भरे बाजार में नंगा करके घुमाया तथा अपमानित किया था जो महिलाओं पर किये जाने वाले अत्याचार का ज्वलन्त उदाहरण था ।
10. स्वामीजी के स्वास्थ्य में निरन्तर गिरावट आने के बावजूद वे आर्यसमाज के समस्त कार्यक्रमों में अपनी भागीदारी करते थे । सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा का प्रधान चुने जाने के पशचात् स्वामी अग्निवेश जी को सभा मुख्यालय, दयानन्द भवन, रामलीला मैदान नई दिल्ली में ले जाने का अभियान स्वामी जी महाराज के नेतृत्व में ही सम्पन्न हुआ ।
11. उनकी प्रेरणा से जिन महानुभावों ने सन्यास अथवा नैष्ठिक की दीक्षा ली तथा अपने आपको सामाजिक कार्य में लगाया उनमें मुख्यतया पूज्य स्वामी अग्निवेश जी, स्वामी आदित्यवेश जी, स्वामी शक्तिवेश जी, स्वामी वरुणवेश जी, स्वामी चन्द्रवेश जी, स्वामी ओमवेश जी, स्वामी क्रान्तिवेश जी, स्वामी ब्रह्मवेश, स्वामी रुद्रवेश, स्वामी कर्मपाल, स्वामी देवव्रत, स्वामी धर्ममुनि (बहादुरगढ़), स्वामी सोमवेश (उड़ीसा), स्वामी सूर्यवेश (उत्तर प्रदेश), स्वामी आनन्दवेश (शुक्रताल), स्वामी कर्मवेश (मुजफ्फनगर), स्वामी श्रद्धानन्द (उत्तर प्रदेश), स्वामी महानन्द (शुक्रताल), स्वामी योगानन्द (मीरापुर), स्वामी महेशानन्द (बिजनौर), स्वामी धर्मवेश (अलवर), स्वामी शिवानन्द (धरारी), स्वामी प्रकाशानन्द (पिपराली), स्वामी सिंहमुनि (पलवल), स्वामी सत्यवेश (गाजियाबाद), स्वामी दिव्यानन्द (हरद्वार) आदि सन्यासियों एवं श्री रामधारी शास्त्री, आचार्य जयवीर आर्य, आचार्या कलावती, जगवीर सिंह, आचार्य हरिदेव, ब्र. विनय नैष्ठिक, प्रो. विट्ठलराव (आन्ध्रप्रदेश), सुधीर कुमार शास्त्री (उड़ीसा), प्रेमपाल शास्त्री (दिल्ली), शिवराम विद्यावाचस्पति (पलवल), सन्तराम आर्य (रोहतक), ब्र. सहन्सरपाल (मु. नगर), कु. पूनम आर्या, कु. प्रवेश आर्या (रोहतक) आदि नैष्ठिकों के नाम उल्लेखनीय हैं ।
12. स्वामी जी की प्रेरणा से ही जिन महानुभावों ने राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेना शुरू किया तथा ख्याति अर्जित की उनमें सर्वश्री स्वामी अग्निवेश पूर्व शिक्षामन्त्री, स्वामी आदित्यवेश पूर्व विधायक एवं चेयरमैन एग्रो., स्वामी ओमवेश गन्ना विकास मंत्री उत्तर प्रदेश, प्रो. उमेदसिंह पूर्व विधायक (महम), मा. श्यामलाल पूर्व विधायक (पलवल), श्री राजेन्द्रसिंह बीसला पूर्व विधायक (बल्लभगढ़), श्री भवानीसिंह पूर्व विधायक (राजस्थान), श्री गंगाराम पूर्व विधायक (गोहाना), डॉ. महासिंह पूर्व मन्त्री (सोनीपत), श्री रोशनलाल आर्य पूर्व विधायक (यमुना नगर), चौ. वीरेन्द्रसिंह पूर्वमन्त्री (नारनौद), चौ. टेकचन्द नैन पूर्व विधायक (नरवाना), चौ. अजीतसिंह पूर्व विधायक (बेरी), श्री विरजानन्द आदि के नाम उल्लेखनीय हैं ।
स्वामी इन्द्रवेश जी ने अपने जीवन का एक-एक क्षण समाज परिवर्तन के लिए लगाया । उनके तेजस्वी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अनेक लोगों ने अपना जीवन समाज सेवा में अर्पित किया । उनकी पुण्यतिथि पर हमें एक ही संकल्प लेना चाहिये कि जिस पवित्र निष्ठा के साथ स्वामी जी ने महर्षि दयानन्द के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए अपने जीवन की आखिरी सांस तक संघर्ष किया उसी प्रकार हम सब सप्तक्रान्ति अर्थात् जातिमुक्त, साम्प्रदायिकतामुक्त, नशामुक्त, पाखण्डमुक्त, भ्रष्टाचारमुक्त, नारी उत्पीड़नमुक्त एवं शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए कृतसंकल्प रहेंगे । हम आपस के सभी भेदभाव मिटाकर इस मिशन में जुटें, यही स्वामी जी की अन्तिम इच्छा थी ।
स्वामी इन्द्रवेश जी का जीवन विशद एवं खुली किताब है जिस पर विहंगम दृष्टिपात करने से निम्न तथ्य उभर कर सामने आये हैं -
आर्यसमाज में एकता के प्रयास
स्वामी इन्द्रवेश जी ने सन् 1969, 1974, 1995, 1998, 2001, 2005 तथा 12 जून 2006 को जीवन के अन्तिम दिन भी जारी रखे ।
पंचायतों में स्वामी इन्द्रवेश
समय-समय पर विभिन्न पंचायतों में स्वामी जी को ससम्मान बुलाया गया जिनका विवरण निम्न प्रकार है ।
1. महम चौबीसी की पंचायत - 1967, 1972, 1975
2. दहिया खाप की पंचायत – 2005
3. विनायन खाप की पंचायत
4. सर्वखाप पंचायत
5. सर्वखाप 360 पंचायत पालम
संघर्ष एवं आन्दोलन
स्वामी जी ने जिन आन्दोलनों में सक्रिय भूमिका निभाई वे इस प्रकार हैं -
1. शराबबन्दी आन्दोलन - 1968
2. हिन्दी सत्याग्रह – 1957
3. गौरक्षा आन्दोलन – 1966
4. चण्डीगढ़ आन्दोलन – 1969
5. किसान आन्दोलन – 1973
6. अध्यापक आन्दोलन – 1973
7. बीड़छूछक हरिजन आन्दोलन – 1972
8. जे.पी. आन्दोलन – 1975
9. मायात्यागी काण्ड आन्दोलन – 1984
10. आतंकवाद विरोधी आन्दोलन - 1983-84 एवं 1986
11. शराबबन्दी आन्दोलन – 1992
12. शंकराचार्य के विरुद्ध सतीप्रथा विषयक आन्दोलन – 1987
13. कन्याभ्रूर्ण हत्या विरोधी आन्दोलन - 2005
संस्थाओं का संचालन
स्वामी जी ने निम्नलिखित संस्थाओं के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई - गुरुकुल झज्जर, गुरुकुल मटिण्डू, गुरुकुल सिंहपुरा, शहीद स्मारक गुलकनी, केवलानन्द आश्रम गंज बिजनौर, महर्षि दयानन्दधाम अमृतसर, गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ, गुरुकुल कुरुक्षेत्र, गुरुकुल कांगड़ी, गुरुकुल खेड़ा खुर्द और गुरुकुल टटेसर ।
सहयोग एवं मार्गदर्शन
जिन संस्थाओं के संचालन में तथा मार्गदर्शन में स्वामी जी की विशेष भूमिका रही वे इस प्रकार हैं - गुरुकुल ततारपुर, गुरुकुल धीरणवास, गुरुकुल खरल, गुरुकुल थुम्भाखेड़ा, गुरुकुल कालवा, गुरुकुल सिरसागंज, गुरुकुल शुक्रताल, कन्या गुरुकुल लोवाकलां, गुरुकुल गौतमनगर ।
आर्यसमाज के आश्रम
निम्नलिखित आश्रमों के संचालन में स्वामी जी का सकारात्मक सहयोग रहा - (1) योगधाम ज्वालापुर (2) प्रेमानन्द वैदिक आश्रम हस्तिनापुर (3) शम्भुदयाल आर्य सन्यास एवं वानप्रस्थ आश्रम गाजियाबाद (4) महर्षि दयानन्द योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा आश्रम, जीन्द (5) प्रभु भक्ति आश्रम गोड़भगा, सम्भलपुर, उड़ीसा ।
उदघाटन
निम्नलिखित संस्थाओं का उदघाटन स्वामी जी के करकमलों द्वारा हुआ ।
(1) पं. नरेन्द्र भवन हैदराबाद - 2004 (2) महर्षि दयानन्द धाम अमृतसर - 1994 (3) आर्य विद्यापीठ गंगाना - 2002 (4) महर्षि दयानन्द योग चिकित्सा आश्रम जीन्द - 1990 ।
जनान्दोलन एवं अभियान
1. शराबबन्दी - युवक क्रान्ति अभियान – 1968
2. कुरुक्षेत्र से दिल्ली पदयात्रा – 1968
3. कुण्डली बूचड़खाना – 1969
4. हिसार से सोनीपत की शराबबन्दी पद यात्रा -1981
5. आतंकवाद के विरुद्ध मोटरसाइकिल यात्रा 1982
6. शराबबन्दी अभियान (हरयाणा, उत्तरप्रदेश) एवं शराबबन्दी पदयात्रा - 1992, 1994
7. कन्या भ्रूर्णहत्या विरोधी यात्रा (2005), टंकारा से अमृतसर, नरवाना से रोहतक (2006)
8. दिल्ली से पुरामहादेव सती प्रथा विरोधी यात्रा – 1987
महासम्मेलन
1. आर्यसभा महासम्मेलन, [[Jind}जीन्द]] - 22 नवम्बर 1970
2. किसान सम्मेलन रोहतक – 1973
3. आर्यसमाज शताब्दी सम्मेलन (रोहतक, मुजफ्फरनगर, जयपुर) – 1976
4. महर्षि दयानन्द बलिदान शताब्दी सम्मेलन – 1983
5. राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन, नई दिल्ली - 1994
6. आर्य महासम्मेलन अमृतसर – 1987
7. आर्य महासम्मेलन सासरौली – 1998
8. आर्य महासम्मेलन रोहतक – 1969
9. सन्यास दीक्षा सम्मेलन – 1970
10. आर्य महासम्मेलन न्यूयार्क – 2000
11. राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन जोधपुर – 1998
12. राष्ट्रीय कार्यकर्त्ता सम्मेलन तालकटोरा स्टेडियम, नई दिल्ली – 2005
विदेशों में स्वामी जी के प्रमुख सहयोगी
अमेरिका - डा. भूपेन्द्र गुप्त, श्री चन्द्रभान आर्य व लक्ष्मी आर्या, राज एवं मंजू मल्होत्रा, डा. विजय आर्य, श्री नारी टंडन, श्री सुशील मड़िया, श्री बालेन्द्र कुण्डू, श्री बलदेव नारायण, श्री वेदश्रवा, श्री यशपाल आर्य, श्रीमती आशा चौहान, श्री वीरसेन मुखी, डा. सतीश प्रकाश, श्री सुभाष सहगल, श्री सुभाष अरोड़ा, डा. वीरेन्द्र सिंह, डा. राजेन्द्र गांधी, पूर्णिमा देसाई आदि न्यूयार्क में । श्री विपिन गुप्ता, डा. देवकेतु, डा. रमेश चन्द्रा, चौ. फूलसिंह, श्री वीरेश्वरसिंह, श्री देव डबास, श्री चक्रधारी, श्री धर्मजित जिज्ञासु आदि न्यूजर्सी में । श्री राजपाल दलाल, श्री राजेन्द्र दहिया, डा. सुखदेव सोनी, डा. महिपाल पोरिया, डा. दिलीप वेदालंकार आदि शिकागो, तथा डा. शंकरलाल गर्ग बोस्टन, डा. राम उपाध्याय आदि ।
हालैंड - श्री गंगाराम कल्पू, डा. आनन्द कुमार बिरजा, श्री नरदेव यजुर्वेदी, श्री भगवान देव आर्य ।
इसी तरह श्री अनिल कपिला व डा. राजेन्द्र सैनी, देवेन्द्र भल्ला, श्री रमेश राणा, श्री रामकृष्ण शर्मा व श्री यशपाल अंगिरा, श्री ओ.पी नारंग केनिया में मुख्य सहयोगी एवं शुभचिन्तक हैं ।
आर्य विद्वानों में - श्री वेदप्रकाश श्रोत्रीय, डा. वेदप्रताप वैदिक, श्री शिवकुमार शास्त्री, प्रो. जयदेव वेदालंकार, प्रो. अनूप सिंह, प्रो. उमाकान्त उपाध्याय, श्री रामनारायण शास्त्री पटना, वेदप्रकाश शास्त्री बिजनौर, विश्वबन्धु शास्त्री, प्रि. कृष्ण सिंह आर्य, डा. जोगेन्द्र सिंह यादव, प्रो. रामविचार, प्रि. एन. डी. ग्रोवर, डा. सुदर्शन देव, प्रो. चन्द्र प्रकाश सत्यार्थी, प्रो. जयदेव आर्य, आचार्य भद्रसेन, डा. धर्मवीर शास्त्री, डा. सोमदेव शास्त्री, पं. गोपदेव शास्त्री, डा. के. सी. यादव, डा. सत्यकेतु विद्यालंकार, डा. तुलसीराम, डा. धर्मपाल पूर्व कुलपति ।
भजनोपदेशकों में - सर्वश्री पृथ्वी सिंह बेधड़क, श्री वीरेन्द्र सिंह वीर, श्री शोभाराम प्रेमी, श्री बेगराज आर्य, श्री खेमचन्द आर्य, महाशय प्यारेलाल, महाशय नरसिंह, पं. प्रभुदयाल आर्य, पं. ताराचन्द वैदिक तोप, महाशय फतहसिंह महाशय रत्न सिंह, महाशय जोहरी सिंह, महाशय नत्था सिंह, श्री ओमप्रकाश वर्मा, पं. चिरन्जीलाल, पं. चन्द्रभान, स्वामी रुद्रवेश, श्री लक्षमणसिंह बेमोल, श्री बृजपाल कर्मठ, श्री अभयराम शर्मा, श्री मामचन्द पथिक, श्री सहदेव बेधड़क, श्री राम निवास आर्य, श्री कुलदीप आर्य, श्री रामरिख आर्य, श्री सुमेरसिंह आर्य, श्री जयपाल आर्य, श्री खेमसिंह आर्य, श्री भजनलाल आर्य, श्री चूनीलाल आर्य, श्री दूलीचन्द आर्य, श्री नारायण सिंह आर्य, श्री बनवारी लाल हितैषी, श्री नरदेव आर्य, श्री तेजवीर आर्य, श्री जगदीश आर्य, श्री रामकुमार आर्य, कंवर सुखपाल ।
कर्मठ कार्यकर्ताओं में - सर्वश्री ओमप्रकाश आर्य, प्रेमपाल शास्त्री, डा. नरेन्द्र वेदालंकार, डा. जयेन्द्र आचार्य, श्री शिवराज शास्त्री, आचार्य अजीत कुमार शास्त्री, श्री जगवीर सिंह शास्त्री, श्री ओम सपरा, श्री अनिल आर्य, डा. श्री वत्स, श्री देव शर्मा, आचार्य सुभाष, श्री रमेश आर्य, श्री विजय चौधरी, श्रीमती प्रवीण सिंह, श्रीमती वेदकुमारी, श्री मेघश्याम शास्त्री, श्री रामनिवास एडवोकेट, श्री सुरेश गोयल, श्री मधुरप्रकाश, श्री अभयदेव शास्त्री, श्री रमेशचन्द शास्त्री, श्री भूदेव आर्य, श्री नरेन्द्र गुप्ता, श्री बृजमोहन शंगारी, श्री वेदपाल शास्त्री, श्री विजय आर्य, मा. पूर्ण सिंह आर्य, डा. मथुरा सिंह, श्री विजय कुमार आर्य अमृतसर, श्री प्रवीण आर्य अमृतसर, श्री तरसेमलाल आर्य बरनाला, श्री बृजेन्द्र भण्डारी लुधियाना, श्री सन्तकुमार आर्य लुधियाना, श्री सुदेश कुमार आर्य लुधियाना, श्री रूपलाल आर्य लुधियाना, श्री सुरेन्द्रमोहन शर्मा अमृतसर, श्री यशवन्त राय साथी, श्री अजयसूद मोगा, श्री बलदेव कृष्ण आर्य रामामण्डी, श्री श्यामलाल आर्य कैथल, श्री इन्द्रपाल आर्य अमृतसर, डा. नवीन आर्य एवं डा. मंजू आर्या अमृतसर, सोमदेव शास्त्री, मेजर विजय आर्य, राजकुमार गुप्ता, मनोहरलाल आर्य चण्डीगढ़ ।
स्वामी जी की प्रेरणा से जो सन्यासी बने - स्वामी वरुणवेश, स्वामी चन्द्रवेश, स्वामी रुद्रवेश, स्वामी धर्मानन्द उड़ीसा, स्वामी धर्मानन्द रोहतक, स्वामी शिवानन्द, स्वामी सिंहमुनि, स्वामी सत्यवेश जुलाना, स्वामी दिव्यानन्द हरद्वार ।
विदेश यात्रा - हालैंड, इंग्लैंड, अमेरिका (1983), अमेरिका हालैंड (1998), अमेरिका, कनाडा, हालैंड (2000), अमेरिका, इंग्लैंड (2003), नैरोबी, केनिया (2002)
पदाधिकारी के रूप में
सार्वदेशिक आर्य युवक परिषद के प्रधान
आर्य सभा के प्रधान (1970)
जनसंघर्ष समिति के प्रधान (1975)
भारतीय आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान (1990, 1992)
किसान संघर्ष समिति के प्रधान (1973)
लोक संघर्ष समिति के प्रधान (1982)
बंधुआ मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ उपप्रधान (1995 से 2005 तक)
महर्षि दयानन्द धाम अमृतसर के प्रधान (1994-2006)
केवलानन्द निगमाश्रम गंज बिजनौर के प्रधान (1986-2006)
गुरुकुल मटिण्डू के प्रधान (1972-78)
आत्मशुद्धि आश्रम के प्रधान संस्थापक (1967)
आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के प्रधान (1973)
आर्य प्रतिनिधि सभा हरयाणा (2001)
दयानन्द मठ रोहतक के प्रधान (1998-2006)
साहित्य लेखन
1. प्रकाशक व मुद्रक राजधर्म पत्रिका
2. सम्पादक, सुधारक (गुरुकुल झज्जर) - 1965 से 1967
3. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
4. आर्य राष्ट्र
5. आर्य समाज और राजनीति
6. प्राणायाम (ब्रह्मचर्य के साधन)
7. आसन-प्राणायाम
8. पुनर्जन्म मीमांसा
सानिध्य
स्वामी इन्द्रवेश जी को जिन महान आत्माओं का विशेष सानिध्य मिला उनमें उल्लेखनीय नाम निम्न प्रकार से हैं –
धार्मिक नेता - 1. पूज्य स्वामी ओमानन्द जी महाराज 2. स्वामी ब्रह्मानन्द जी महाराज 3. स्वामी आत्मानन्द जी 4. स्वामी समर्पणानन्द जी 5. स्वामी भीष्म जी 6. स्वामी ब्रह्ममुनि जी 7. स्वामी सच्चिदानन्द जी योगी 8. स्वामी नित्यानन्द जी 9. महात्मा आनन्द भिक्षु जी 10. स्वामी रामेश्वरानन्द सरस्वती 11. स्वामी सुखानन्द जी 12. पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु 13. डा. सत्यकेतु विद्यालंकार 14. डा. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार 15. श्री जगदेव सिंह सिद्धान्ती 16. पं. शंकरदेव जी 17. पं. युधिष्ठिर मीमांसक 18. डा. गोवर्धन लाल दत्त 19. आचार्य रामप्रसाद 20. आचार्य सुदर्शन देव 21. पण्डित राजवीर शास्त्री 22. डा. महावीर मीमांसक
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