आर्यसमाज के बलिदान
सरदार घुन्नासिंह जी लुधियाना पंजाब
पुस्तक :- आर्यसमाज के बलिदान
लेखक :- स्वामी ओमानन्द जी महाराज
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्।।
अच्छे बुरे सभी पर ही , एक संकट का दिन प्राता है।
दुःख सुख चक्र समान फिरे,यह सभी विधान विधाता है।।
घुन्नासिंह का जन्म स्थान लताला जि ० लुधियाना है। यह ग्राम खंगूडे जाटों का है। इनका जन्म संवत् १९३८ सन् १८८१ ईस्वी में हुआ था। घुन्नासिंह अपने पिता थम्मरणसिंह के एकमात्र पुत्र थे। इनकी माता का नाम श्रीमती भागण देवी था। सात वर्ष की आयु में इनको ग्राम में ही एक उदासी साधु के पास गुरुमुखी पढ़ने भेजा गया। इन्होंने कुछ गुरुमुखी का अभ्यास किया , पश्चात् घरवालों ने पढ़ाई बन्द कर दी। ९ वें वर्ष में इनका विवाह शेरसिंह जी की कन्या जयकौर देवी से ग्राम बुरज लिटा में हो गया और १४ वें वर्ष में मुकलावा अर्थात् गौणा हो गया।
इनके ६ सन्तानें हुईं जिनमें चार पुत्र तथा दो कन्यायें थीं। ज्येष्ठ पुत्र का देहान्त १८ वर्ष की आयु में आर्य स्कूल लुधियाना में जब कि वह १० बी श्रेणी में पढ़ता था हो गया। उसका नाम भजन सिंह था। शेष तीन पुत्र बख्तावरसिंह , सुखदेव , बलभद्र अब हैं। बड़ी कन्या का विवाह डॉक्टर इन्द्र सिंह ग्राम बुरज नकलीया में हुआ जो सुखपूर्वक गृहस्थ बिता रही है। छोटी कन्या का स्वर्गवास हो गया।
इनके गृह में कृषि का काम होता था। ग्राम में इनका परिवार कृषिपटु समझा जाता था। अतः इनके पिता ने अपने पिता श्री भगवान्सिंह जी की सम्मति से घुन्नासिंह को कृषि के काम में लगा लिया । अब यह कृषक हो गये।
सत्संग का अभ्यास आरम्भ से ही था। अब यह पं० यमुनादास जी एवं पं० विष्णुदास जी की संगति में आने लगे। यह दोनों महानुभाव उदासी साधु थे। पं० यमुनादास जी अपने समय के उत्तम वैय्याकरण तथा नैय्यायिक माने जाते थे। पण्डित विष्णुदास जी अपने काल के अद्वितीय वैद्य थे। पं० यमुनादास जी तो बाहर आर्यसमाजी हो गये और पं० विष्णुदास जी को सरदार हरिसिंह जी भैरणीरोडा वाले ने प्रथम पं० लेखराम जी की पुस्तकें पश्चात् ऋषि की पुस्तकें देकर आर्यसमाजी विचारों का बनाया। इनकी संगति से धुन्नासिंह आर्यसमाजी हुये। आर्यसमाजी होकर नागरी लिपि सीखी तथा हिन्दी भाषा पढ़ी। आर्यसमाज के ग्रन्थ नाममात्र पढ़े परन्तु वंगवासी या भारतमित्र के ग्राहक नियम पूर्वक रहे। इससे संसार के सामान्य ज्ञान में विशेष वृद्धि हो गई।
इनके आर्यसमाजी होने का ज्ञान इनकी पूज्या माता के देहावसान पर हुआ। क्योंकि इन्होंने उस समय किसी पौराणिक कृत्य का अनुष्ठान नहीं किया। इनका परिवार सम्पन्न था। ये किसी को रुपया देकर उस पर वृद्धि ( सूद ) नहीं लेते थे। जिसको जितना रुपया देते थे उससे उतना ही लेते थे। जिस समय गृह कार्य इनके हाथ में आया उस समय इन्होंने धन को भूमि में न दबाकर डाकघर में रखकर उस पर वृद्धि प्राप्त की। पिता की मृत्यु के पश्चात् आपने कृषि का कार्य छोड़कर पनसारी की दुकान करली। साथ ही जरूमों , आंखों की बीमारियों और छोटे छोटे रोगों की दवायें भी मुफ्त में देनी शुरू कर दी।
ग्राम इन्होंने अपनी कन्या का विवाह वैदिक रीति से किया। किसी पण्डित के न आने पर यह विवाह श्री पं० विष्णुदास जी उदासीन ने पढ़ाया था। इस विवाह में घुन्नासिंह ने सुधार भी किया। बारात में एक वर दूसरा भाई , तीसरा नापित और चौथा गाड़ीवान ये चार ही व्यक्ति प्राये थे। रात को विवाह करके प्रातःकाल कन्या को विदा कर दिया। कोई दहेज न दिया। इस से लोगों को इनके प्रार्यसमाजी होने का विश्वास हो गया और यह आर्यसमाजी प्रसिद्ध होगये।
यदि कोई समीप में आर्यसमाज का उत्सव हो जैसे लुधियाना , रायकोट आदि में तो यह सम्मिलित हुआ करते थे। लताला में भी इन्होंने एक या दो उत्सव करवाये थे। ग्राम में कुछ अकाली भी थे। अब यह आर्यसमाजी हो गये थे। दोनों अपने अपने पक्ष के पोषक थे। गांव में एक कन्या पाठशाला खुली। इस पर पक्ष बन गये। कई बार बाहर के सज्जन भी समझौते के लिये गये। धुन्नासिंह का दल कहता था - कि धन राशि नियत कर दो। जो उतना धन दे उसका एक सदस्य हो। अकाली पार्टी वाले कहते थे कि जितने घुन्नासिंह दल के सदस्य हों उतने ही हमारे हो परन्तु धन हम एक चौथाई देंगे और तीन चौथाई यह दें। यद्यपि इस प्रकार समझौता असम्भव था परन्तु धुन्नासिंह ने स्वीकार कर लिया और यह शर्त रखी कि पाठशाला में स्त्री अध्यापिका हो। उस समय पाठशाला का अध्यापक एक अकाली था। अकालियों ने इस शर्त को स्वीकार नहीं किया और समझौता टूट गया। घुन्नासिंह दल ने स्त्री अध्यापिका रख कर एक अलग पाठशाला खोली। घुन्नासिंह के प्रभाव से वह पाठशाला खूब चल निकली। पीछे इस पाठशाला को इन लोगों ने डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के अधीन कर दिया। अब तक यह पाठशाला अच्छी तरह चल रही है और अब मिडिल बन चुकी है। पाठशाला में स्त्री अध्यापिका रखने की शर्त पर समझौता टूट जाने पर कई अकाली इनके दल में आ मिले थे जिनमें हवलदार वीरसिंह , रसाईदार भोलासिंह , जमादार चन्दनसिंह इनमें मुख्य थे। ये लोग घुन्नासिंह के मित्र बन गये और पाठशाला के कार्यों में सहयोग दिया।
अनुचित हठ को लेकर पराजित होने पर अकालियों ने अपने यश को कलंकित करने वाला षड्यन्त्र रचा। उन्होंने घुन्नासिंह के जीवन को समाप्त करने के लिये एक व्यक्ति को तैयार कर लिया। सामान्य रूप से घुन्नासिंह को भी पता लग गया। यह बात श्री रामलाल जी , प्रिसिंपल आर्य स्कूल लुधियाना ने बतलाई। मास्टरजी ने बतलाया , -एक दिन घुन्नासिंह ने उनसे कहा - अकाली कुछ बिगड़ रहे हैं। आर्यसमाज और पाठशाला मुख्य विषय हैं। मुझे सन्देह है कि कभी आक्रमण होगा। मास्टर जी को तब भी विश्वास न हुआ उन्होंने कहा - ऐसा असम्भव है परन्तु कुछ दिन पीछे जिस दिन धुन्ना सिंह जी शहीद हुये तब उनकी बात पर विश्वास हुआ , परन्तु उससे अब कोई लाभ न था।
अकालियों ने जिस व्यक्ति को उकसाया था उसका घर घुन्नासिंह की दुकान के पास ही था। घुन्नासिंह भी कुछ सावधान रहते थे। इस व्यक्ति ने ग्राम का एक घोगड़ नाम का मुसलमान साथ मिला लिया और दो व्यक्ति किसी अन्य ग्राम के बुलाये।
घटनावाले दिन धुन्नासिंह प्रातःकाल ही अर्थात् उषःकाल में शर्बत बनाने के लिये दुकान पर गये। वह अभी ताला ही खोल रहे थे कि वचनसिंह ने पीछे से आकर पकड़ लिया। वह उससे छूटना ही चाहते थे तब तक दूसरे साथी ने आकर केसों से पकड़े लिया। ये खींच कर अपने मकान में ले गये। वहां दो और भी उनके सहायक थे। चारों ने मिलकर डण्डों लाठियों से मारना प्रारम्भ किया। हल्ला सुनकर जनता भी आगई। कुछ व्यक्ति उस घर पर पहुंचे। उस समय वे लोग इन्हें छोड़कर भाग गये। घुन्नासिंह के पास सवले प्रथम ज्वालासिंह दर्जी पहुंचा। उसने बतलाया वीर घुन्नासिंह ने जो सबसे पहली बात कही वह यह थी- " ज्वालासिंह देखले प्रांख में आंसू नहीं हैं" ।
लोग घुन्नासिंह को उठाकर बाहर लाये। यदि वचनसिंह आदि न भागते तो लड़ाई हो जाती , उनके भाग जाने से न हुई। शफट पर घुन्नासिंह को डाल कर थाना डेहलों को ले चले। जब छपार पहुंचे तो घुन्नासिंह ने कहा - ठहर जावो। शकट टहराया गया । कोई पाँच मिनट के पश्चात् वीर घुन्नासिंह ने कहा - अब काम समाप्त है । पूछा - क्या है ? उसने कहा - अब आत्मा शरीर छोड़ने वाला है। यह कहकर आँखें बन्द की और एक बार ओ३म् कहा तथा वीर आत्मा ने भौतिक शरीर से ११ मई १९३० के प्रातःकाल विदा ली।
डॉक्टरी परीक्षा में डाक्टर ने लिखा था - हाथ , टाँग , कमर , छाती की कोई भी अस्थि साबत नहीं है। आश्चर्य है , यह कुछ समय भी कैसे जीवित रहे।
अभियोग में वचनसिंह भाग गया। घोगड़ पकड़ा गया। दूसरे दो व्यक्तियों को ठीक ठीक पहचाना ही नहीं गया। घोगड़ कालापानी ( अण्डेमान ) भेजा गया। वहां जाकर कुछ समय पश्चात् उसको वहीं मृत्यु हो गई। वचनसिंह १६ मई १९३१ को फिरोजपुर जिले में पकड़ा गया और उसे फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया। वचनसिंह की सजा को तबदील करने के लिये जस्टिस जयलाल की अदालत में लाहौर अपील की गई। जस्टिस जयलाल ने १२ जनवरी १६३२ को फैसला लिखते हुये अन्त में लिखा है - जहां तक आज्ञा का प्रश्न सम्बन्ध रखता है , वचनसिंह का व्यवहार किसी अनुकम्पा के योग्य नहीं है। यह साफ है कि पहली दुश्मनी की वजह से उसने तीन आदमियों को अपने साथ मिलाया ताकि इस मरने वाले पर पाशविक आक्रमण किया जाये और उसे लगभग मार दिया। यह सच है कि सर पर सिवाय एक के और कोई जख्म नहीं था। लेकिन यह बात अपील करने वाले की सहायता नहीं करती। इसके विरुद्ध आक्रमण की निपुणता को सिद्ध करती है।
मेरी सम्मति में मृत्यु की आज्ञा वचनसिंह के बिलकुल अनुरूप है। मैं उसकी अपील खारिज करता है और पहले हुक्म को कायम रखता हूं।
वचनसिंह के मित्र से मालूम हुआ कि वह अफसोस करता था कि मैं अकालियों के बहकाने में या गया। मैंने घुन्नासिंह को निरपराध मारा है। मुझे उससे कोई दुश्मनी न थी। शहीद घुन्नासिंह उत्तम मित्र और भयानक शत्रु था। वह धैर्यवान् , निडर , अपनी धुन का पक्का और धर्मप्रेमी था । सम्भव है धर्मप्रेम माता से लिया हो और शेष गुण पिता से।
धैर्य
इनका ज्येष्ठ पुत्र भजनसिंह आर्य स्कूल लुधियाना में पढ़ता था। वह रोगी हो गया। रोग से उसे मूर्छा हो गई। यह पं० विष्णुदास जी को साथ लेकर आये। लुधियाना के सिविल सर्जन ५० गोकुल चन्द्र जी वैद्य श्री तारवाला हकीम प्रभृति अनेक वैद्य बुलाये गये। परन्तु लाभ न हुआ। उस दिनों मैं अचानक लुधियाना पाया। पता लगने पर उनसे मिला। वे तथा परिवार से उनके भ्राता हरनामसिंह जी वहां थे। भजना मूच्छित था। दूसरे दिन मैं बोडिङ्ग हाउस में गया। मास्टर श्री कृष्ण जी भी वहाँ थे। रोगी की जिह्वा कुछ खुश्क हुई थी। श्री कृष्ण जी को बादाम रोगन लाने के लिये भेजा , वह लगाया गाया परन्तु कुछ पल पश्चात् भजने की आत्मा ने शरीर को छोड़ दिया। स्कूल उस दिन बन्द हो गया। अन्त्येष्टि संस्कार उसका किया गया। घुन्नासिंह से मैंने पूछा - लताला रेल से जाना है वा पंदल ? उन्होंने उत्तर दिया पैदल जाने से शीघ्र पहुंच जाऊँगा। अतः पैदल जाऊंगा। मैंने मास्टर रामलाल जी से पूछा - भोजन तैयार है ? उन्होंने कहा घर में नहीं है परन्तु बोडिङ्ग हाउस में है। मैंने कहा - घुन्नासिंह को भोजन करवा दो। वह बोले - इस अवस्था में मेरे मन में भोजन के लिये कहने का उत्साह नहीं है। वह काम मैंने अपने ऊपर लिया। मैंने घुन्नासिंह से कहा - यदि पैदल जाना है तो भोजन कर लें , क्योंकि आप २० मील पैदल जायेगे , घर में रोना आरम्भ होगा , आपको भोजन किसने देना है। उन्होंने मुझ से कहा - आपकी इच्छा है कि मैं भोजन करलू ? मैंने हां में उत्तर दिया । उसने कहा - बहुत अच्छा। भोजन करके वे ग्राम को चल दिये। चलते समय मुझे केवल ये शब्द कहे - कुछ समय के लिये बोर्डिंग हाउस से सम्बन्ध विच्छेद होगया।
उनके जाने पर श्री रामलाल जी ने मुझे तो उलाहना दिया कि आपने संन्यासी होने से ही भोजन के लिये कह दिया और घुन्नासिंह के धैर्य्य की प्रशंसा की कि १८ वर्षीय युवक पुत्र का देहान्त हुआ , चिकित्सा पर मुक्तहस्त होकर व्यय किया , परन्तु अन्त्येष्टि के समाप्त होते ही २० मील की यात्रा के लिये चल दिये और भोजन भी कर लिया।
दृढ़ता
आर्यसमाजी होने पर माता जी का संस्कार , कन्या का विवाह वैदिक रीति से किया। अपनी दुकान पर अछूतपन मिटा दिया। सब विरोध सहकर सब कुछ किया। अन्त समय में जब कि लाठियों की मार से अस्थिपंजर चूर हो गया था तब भी कहते हैं - देखले आंख से अश्रुपात नहीं हुवा है। कठोर वेदना को सहकर दृढ़ता का परिचय दिया।
धर्म - प्रेम
ग्राम में आर्यसमाज का प्रचार किया। वैदिक धर्म का झण्डा ऊंचा रखने का पूर्ण प्रयत्न किया। कार्य क्षेत्र में सफल हुये। उस सफलता से चिढ़कर ही विपक्षियों ने प्राण लेने का षड्यन्त्र किया। वीर श्रात्मा ने वैदिकधर्म के लिये वीरगति प्राप्त की।
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