गौरक्षक
आचार्य बलदेव जी महाराज
लेखक :- श्री स्वामी वेदरक्षानंद जी
आर्ष गुरुकुल कालवा जींद हरयाणा
जिसकी कीर्ति है वह मरता नहीं। वेद - वेदांग , व्याकरण के पण्डित , कर्मयोगी , तपस्वी , वयोवृद्ध विद्वान् , आदर्श चरित्र के धनी , नैष्ठिक ब्रह्मचारी आचार्य बलदेव जी अब नहीं रहे। 28 जनवरी 2016 को लगभग 85 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। महात्मा आचार्य बलदेव जी ने अपने जीवन में विद्युत् विभाग की अच्छी खासी नौकरी छोड़कर युवावस्था में संस्कृत की आर्ष प्रणाली के अध्ययन को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाया था और इसमें कृतकार्य तो हुए ही अपितु एक दीपक की भान्ति अपनी विद्या के प्रकाश से अनेक प्रमुख विद्वानों व संन्यासियों का जीवन निर्माण कर उन्हें वेदों के प्रकाश से आलोकित किया था।
आर्यजगत् के प्रसिद्ध गुरुकुल कालवा हरयाणा की आपने स्थापना की थी जो आपका सच्चा स्मारक है। भारत ही नहीं अपितु विश्व की कई प्रमुख हस्तियों रामदेव जी को आपके शिष्य होने का सौभाग्य व गौरव प्राप्त है । आदर्श जीवन व चरित्र के धनी आचार्य बलदेव जी का जीवन देश की युवा पीढ़ी के लिए आदर्श है। जीवन की सार्थकता शरीर को स्वस्थ , निरोगी और दीर्घायु बनाने सहित विद्या के क्षेत्र में व्याकरण व वेद - वेदांग का अध्ययन कर व उसका प्रचार कर जीवन को सफल बनाने में है। इसी पथ पर आचार्य बलदेव जी चले थे और यही जीवन शैली मनुष्य जीवन की सर्वोत्तम उन्नति का आधार व साधन रही है व आज भी है।
सभी मानवीय गुणों से पूर्ण व आदर्श आचार्य बलदेव जी का जन्म हरयाणा राज्य के सोनीपत जिले के अन्तर्गत सरगथल गांव में सन् 1930 में एक धार्मिक माता पिता के यहां हुआ था। आपकी अल्पायु में माता जी का देहान्त हो जाने पर पिता ने दूसरा विवाह किया। आपकी दूसरी माता जी का भी आपके प्रति अत्यधिक प्रेम व स्नेह था। ग्रामीण वातावरण के अनुसार आपने बी0 ए0 तक की शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद विद्युत् विभाग में आपकी नौकरी लग गई। आपका कार्यालय झज्जर में था। अत: जब भी आर्य समाज के प्रसिद्ध गुरुकुल झज्जर में विद्युत् सम्बन्धी कोई समस्या आती थी तो आप वहां प्रायः आया करते थे। गुरुकुल में आर्यजगत् शिरोमणी विद्वान् व संन्यासी स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी आचार्य हुआ करते थे। बच्चों को संस्कृत पढ़ते देखकर बलदेव जी में भी इसके प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया। गुरुकुल में ब्रह्मचर्य सहित सत्यार्थ प्रकाश आदि पुस्तकें लेकर आपने इनका अध्ययन किया।
स्वामी ओमानन्द जी के प्रवचनों का भी चमत्कारी प्रभाव आप पर होता था। स्वामी ओमानन्द जी ने भी आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन किया और अनेक गुरुकुलों की स्थापना की थी जिसमें गुरुकुल झज्जर सहित कन्या गुरुकुल नरेला भी सम्मिलित हैं। बलदेव जी कई बार रात्रि में भी गुरुकुल में ही निवास करते थे। गुरुकुलीय शिक्षा के प्रति आपका प्रेम इस सीमा तक बढ़ा कि आपने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और पूर्ण कालिक ब्रह्मचारी वा विद्यार्थी बन गये। प्रचलित स्वभाव के अनुसार उनके परिवार को उनका नौकरी छोड़ना और घर न आना पसन्द नहीं था और वह उन्हें घर ले जाना चाहते थे। इन विघ्नों को देखते हुये आपने स्वामी ओमानन्द जी की प्रेरणा से महर्षि दयानन्द के भक्त श्री देवस्वामी जी के गुरुकुल सिरसागंज के लिए अध्ययनार्थ प्रस्थान किया और वहां संस्कृत व्याकरण के आचार्य पण्डित शंकरदेव जी में अध्ययन किया। अध्ययन में कोई विघ्न उपस्थित न हो इसलिए आपने इस गुरुकुल में अध्ययन की जानकारी अपने परिवार को नहीं दी। इसका ज्ञान केवल स्वामी ओमानन्द सरस्वती जी को ही था। गुरुकुल सिरसागंज में अध्ययन के दिनों में आर्यजगत् के प्रसिद्ध विद्वान् संन्यासी और नेता स्वामी इन्द्रवेश जी आपके साथी व मित्र हुआ करते थे। दोनों ने एक ही गुरु से शिक्षा प्राप्त की थी। आचार्य बलदेव और स्वामी इन्द्रवेश , इन दोनों ब्रहाचारियों ने माता - पिता की अनुमति मिलने की आशा न होने के कारण घर से भागकर गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त की थी। महात्मा बलदेव जी नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। संस्कृत का सम्पूर्ण आर्ष व्याकरण आपको मृत्यु के समय तक कण्ठ था। संस्कृत व्याकरण के आप विलक्षण आचार्य थे।
आर्य समाज के क्षेत्र में गुरुकुल प्रभात आश्रम मेरठ एक प्रसिद्ध गुरुकुल है जहां के ब्रह्मचारी विद्यार्थियों ने खेलकूद में राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अनेक पुरस्कार प्राप्त कर देश और गुरुकुल को गौरवान्वित किया है। इस गुरुकुल के आचार्य स्वामी विवेकानन्द सरस्वती ने आचार्य बलदेव जी से अध्ययन किया है। जिन दिनों गुरुकुल में उन्होंने संस्कृत व्याकरण के अध्ययन से सन्तुष्टी न होने के कारण आपने गुरुकुल छोड़ने का निश्चय कर लिया था। आचार्य बलदेव जी को इस बात का पता लगने पर उन्होंने विवेकानन्द जी से बात की तो उन्होंने बताया कि वह अपने गुरुजनों द्वारा संस्कृत के अध्ययन से संतुष्ट नहीं हैं। इस पर महात्मा बलदेव जी ने कहा कि कल से मैं तुम्हें संस्कृत पढ़ाऊंगा मैं चार बजे या इससे पहले सोकर उठ जाता हूँ यदि तुम मुझसे पहले उठ जाओ तो मुझे जगा देना अन्यथा में तुम्हें जगाऊंगा।
इस प्रकार से प्रतिदिन चार बजे से पहले ही आचार्य बलदेवजी शिष्य विवेकानन्द जी को संस्कृत व्याकरण पढ़ाने लगे। यह क्रम चार से पांच वर्षों तक चला। इससे न केवल विवेकानन्द जी को पूर्ण संतोष हुआ अपितु उन्होंने संस्कृत के व्याकरण में पूर्ण अधिकार प्राप्त किया और गुरुकुल प्रभात आश्रम , मेरठ का संचालन कर वैदिक धर्म व संस्कृति सहित आर्य समाज के गौरव को भी देश देशान्तर में स्थापित किया। देश भर में विभिन्न स्थानों पर 8 गुरुकुलों का संचालन कर रहे आर्यसमाज के सुप्रसिद्ध विद्वान् व संन्यासी स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती आचार्य बलदेव जी के ही शिष्य हैं। आचार्य बलदेव जी ने सन् 1971 से अंतिम सांस तक हरयाणा के जींद जिले में स्थित आर्ष गुरुकुल कालवा तथा राष्ट्रिय गौशाला धड़ौली में संरक्षक की भूमिका निभाई। गुरुकुल कालवा में उपनिषद , दर्शन व वेद आदि की योग्यता प्राप्त करने के लिए संस्कृत के आर्ष व्याकरण सहित प्रायः सभी शास्त्रों का अध्ययन कराया जाता रहा है।
आज के विश्व प्रसिद्ध योग प्रचारक और पतंजलि के योग पीठ के संस्थापक स्वामी रामदेव आपके ही गुरुकुल में आपसे सन् 1985 से 1990 के मध्य पढ़े हैं। आपके अन्य प्रमुख शिष्यों में स्वामी डॉ0 देवव्रत जी , आचार्य डॉ० रघुवीर वेदालंकार , आचार्य डॉ० यज्ञवीर जी , स्वामी विवेकानन्द सरस्वती जी , आचार्य सत्यपति जी , आचार्य अखिलेश्वर जी , स्वामी दिव्यानन्द सरस्वती जी , आचार्य विजयपाल जी , स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती जी आदि प्रमुख शिष्य हैं। अध्यापन का आपका प्रिय विषय संस्कृत का व्याकरण ही था। आपके प्रमुख गुरुओं में स्वामी ओमानन्द जी , देव स्वामी जी , पण्डित शंकरदेव जी , पं0 राजवीर शास्त्री व डॉ0 महाबीर मीमासंक जी आदि सम्मिलित हैं।
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