भक्ति मार्ग और वेद
डॉ विवेक आर्य
अध्यात्म क्षेत्र में आजकल दो मार्ग प्रचलित है। एक भक्ति मार्ग और दूसरा उपासना मार्ग। भक्ति का अर्थ है सेवा या सेवा का मार्ग। इस मार्ग में बाहरी साधनों से स्वामी को प्रसन्न करना उद्देश्य है। उपासना का अर्थ है समीप बैठना। उपासना में अपने को योग्य गुणवान बनाना अर्थात उपास्य के गुणों को धारण करना है। जैसे जैसे भक्ति मार्ग का अध्यात्म क्षेत्र में प्रचलन हुआ वैसे वैसे ईश्वर का अवतार मानना आरम्भ कर दिया। ईश्वर की मूर्तियों की पहले कल्पना करना फिर उन मूर्तियों को नहलाना, वस्त्र पहनाना, चन्दन तिलक लगाना, फूलमाला पहनाना, पालने में झुलाना, भोग लगाना, वस्त्र पहनाना आदि चल पड़ा। इस प्रकार से सेवा करने का नाम भक्ति मार्ग है। ईश्वर को ऐसी भक्ति की कोई आवश्यकता नहीं। वह अपनी सेवा के लिए दूसरों के अधीन नहीं है। वह बाहरी आडम्बरों से प्रसन्न होने वाला नहीं है। वेदों में भक्ति मार्ग का विधान ही नहीं है। भक्ति शब्द वेदों में दो स्थलों पर आया है-
देव संस्फान सहस्रापोषस्येशिषे ।तस्य नो रास्व तस्य नो धेहि तस्य ते भक्तिवांसः स्याम ॥ अथर्ववेद 6/79/3 अर्थात हे संवर्धक देव! तू पुष्टिकारक समृद्धिकारक धन का स्वामी है। उस धन को हमें दे। उस धन को हमें धारण करा। तेरे उस धन के हम भागी हों। यहाँ 'भक्तिवांसः' वस्तुरूप पदार्थ को दर्शा रहा है। इसका सेवा भक्ति मार्ग से कोई सम्बन्ध नहीं है।
दूसरा स्थल देखिये-
इदा हि व उपस्तुतिमिदा वामस्य भक्तये । उप वो विश्ववेदसो नमस्युराँ असृक्ष्यन्यामिव ॥ ऋग्वेद 8/27/11 अर्थात हे सब कुछ धन वाले देवो विद्वानों! मैं अंत धन का इच्छुक सम्प्रति तुम्हारे वननीय धन के भाग लाभ के लिये तुम्हारी अब अपूर्व गुण कीर्ति करता हूँ।
यहां पर भक्ति का अर्थ लाभ दर्शाया गया है जिसका भक्ति मार्ग से कोई सम्बन्ध नहीं है।
इस प्रकार से वेदों में कहीं भी भक्ति मार्ग का वर्णन नहीं है।
मध्य काल में वेदों की शिक्षा का ह्रास होने पर भक्ति मार्ग प्रचलित हुआ। जैसे गीता का यह श्लोक देखिये-
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥9/30 अर्थात कृष्ण जी कहते है कि चाहे बहुत दुराचारी भी हो परन्तु यदि वह अन्य को छोड़कर मुझे भजता हो तो उसे साधु सज्जन ही मानना चाहिए।
अब इस श्लोक को आधार बनाकर भक्त अजामिल की कथा कल्पित कर ली गई। अजामिल व्यभिचारी था। उसने अपने पुत्र का नाम नारायण रखा था। जब काल के दूत उसे लेने आये तो उसके मुख से उसके पुत्र का नाम नारायण निकला। यह सुनकर साक्षात नारायण उसे यम के दूतों से बचा गोलोक ले गए। जन्म-मरण व्यवस्था ईश्वर अंतर्गत है और साक्षात नारायण का इतने अज्ञानी है जो यह भी समझ रहे कि यह उनका नाम स्मरण कर रहा है अथवा अपने पुत्र का। जबकि वेद कहता है कि ईश्वर को यह तक ज्ञात है कि मनुष्य अपने जीवन में कितनी बार आँखों की पलकें झपकता हैं। ऐसी ही अनेक वेद विरुद्ध कहानियां कल्पित कर दी गई।
एक अन्य उदहारण देखिये -
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति । तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥ 9/26 अर्थात कृष्ण जी कहते है कि पत्ता, फूल, जल जो मेरे लिये भक्ति से देता है। उस भक्ति से भेंट किए हुए को मैं यत्न से खाता हूँ। ऐसा प्रतीत होता है कि इस श्लोक के गीता में मिलाने के पश्चात मूर्तियों पर फल, फूल, जल, पत्ते आदि चढ़ाने का प्रपंच आरम्भ हुआ।
भक्ति मार्ग के समर्थकों ने अनेक नवीन उपनिषद् मुक्तिकोपनिषत् कल्पित कर दी। एक उदहारण देखिये-
दुराचाररतो वापि मन्नामभजनात्कपे ॥सालोक्यमुक्तिमाप्नोति न तु लोकान्तरादिकम् । काश्यां तु ब्रह्मनालेऽस्मिन्मृतो मत्तारमाप्नुयात् ॥ 18-19 अर्थात हनुमान से राम कहते है कि ' हे हनुमान दुराचार में रत हुआ मनुष्य भी मेरा नाम भजने से सालोक्य मुक्ति को प्राप्त होता है। अन्य लोक लोकांतर में नहीं जन्मता और काशी में ब्रह्मनाल स्थान में मरा हुआ मेरी शरण पाता है। यह ब्रह्मनाल काशी करवट अर्थात एक कुआँ था जिसमें जीवित मनुष्य आरे से काट बलि कर दिया जाता था।
पूरी रामायण में श्री राम ने कहीं भी अपने नाम को भेजने का सन्देश नहीं दिया है। जबकि वैदिक सिद्धांतों के अनुसार उपासना मार्ग में दुराचार सर्वथा वर्जित है। जैसे- नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः । नाशान्तमानसो वाऽपि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥ कठोपनिषद 1/2/24 अर्थात दुराचार से जो हटा नहीं। वह प्रज्ञा द्वारा भी इसे नहीं पा सकता।
भक्ति मार्ग के समर्थक बहते बहते गीता में वेदों की भी निंदा कर गये। उदाहरण देखिये
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया ।शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा ॥
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप ॥ 11-53,54 अर्थात कृष्ण जी कहते है कि हे अर्जुन! मैं वेदों के पढ़ने जानने से, तप से, दान से और यज्ञ से देखा या जाना नहीं जाता। जैसा की तूने मुझे देखा है किन्तु केवल मेरी एक अनन्य भक्ति से ही इस प्रकार यथार्थ जानने देखने और प्रवेश करने योग्य हूँ।
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ गीता 12/17 अर्थात पुण्य -अपुण्य या धर्म-अधर्म को छोड़कर जो भक्ति करने वाला है। वह मेरा प्यारा है। पाठक स्वयं विचार करे भला धर्म और पुण्य को छोड़ने से ईश्वर की प्राप्ति हो सकती है क्या?
भक्ति मार्ग के मानने वाले अनेक बार अति उत्साह में अनेक वेद विरुद्ध कृत्य भी कर देते है। जिन्हें बुद्धि स्वीकार नहीं करती। जैसे गीता प्रेस गोरखपुर से स. २००६ में प्रकाशित 'श्रीरामचरित मानस' के तृतीय संस्करण में श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार ने 'गोस्वामी तुलसीदास जी की संक्षिप्त जीवनी' नामक प्रकरण में लिखा हैं-
'पंडितों को इस पर भी संतोष न हुआ। तब पुस्तक की परीक्षा का एक और उपाय सोचा गया। भगवान् विश्वनाथ के सामने सब से ऊपर वेद, उस के नीचे शास्त्र , शास्त्रों के नीचे पुराण और सब से नीचे रामचरित मानस रख दिया गया। मंदिर बंद कर दिया गया। प्रात: काल जब मंदिर खोला गया तो लोगों ने देखा कि श्री राम चरित मानस वेदों के ऊपर रखा हुआ है। अब तो पंडित लोग बड़े लज्जित हुए। उन्होंने तुलसीदास जी से क्षमा मांगी और भक्ति से उनका चरणोदक किया। '
यही कल्याण का मानस अंक के रूप में भी प्रकाशित हुआ। इसकी भूमिका में श्री अञ्जनीनंदनशरण यही कहानी दोहराते है। अब ऐसी कल्पनाओं पर कोई बुद्धिमान तो विश्वास नहीं कर सकता। हाँ अंधभक्त बनकर बहे जाओ। तो उसका कोई समाधान नहीं हैं। एक अन्य उदाहरण लीजिये-
एक बार बरेली में कीर्तन और सत्संग हो रहा था। एक पंडित जी ने राम नाम कीर्तन की महिमा बताते हुये कहा कि वेद मंत्र पढ़ने में यदि अशुद्धि हो गई तो नाश हो जायेगा। ऐसा महाभाष्य में लिखा है कि स्वर या अक्षर से बिगड़ा अशुद्ध शब्द ठीक अर्थ नहीं देता है। वह वाक वज्र होकर यजमान का नाश करता है जैसे कि इंद्र शत्रु शब्द स्वर के अपराध से वृत्र मारा गया। इससे वक्त ने सिद्ध किए कि वेद मन्त्र जैसे गायत्री आदि नहीं पढ़ने चाहिये। हाँ राम नाम का जाप और गोपीवल्लभ राधेश्याम का कीर्तन आदि करना चाहिये क्योंकि इससे अशुद्ध बोलने से भी हानि नहीं। क्योंकि
उल्टा नाम जपा जग जाना। वाल्मीकि भये ब्रह्मा समाना। तुलसीदास की इस चौपाई से यह निष्कर्ष निकाला गया कि मरा या राम कहने से ही सिद्धि हो जाती है।
अब आप बताये कि इन गपोड़ों से श्रद्धाजड़ हिन्दू जनता की वेद के प्रति भक्ति बढ़ेगी या घटेगी। एक अन्य प्रपंच भक्ति मार्ग के समर्थन करने वालों ने रचा। धन दीजिये और पाठ करवायें। प्रचलित यह कर दिया गया कि यजमान अपने पुरोहित अथवा कथा बाचने वाले को पारिश्रमिक देकर अपने लिये गायत्री मन्त्र, दुर्गापाठ आदि का पाठ कराता हैं। लोभी पाठकर्ता उसे यह विश्वास दिलाता है कि हमारे इस पाठ का फल तुमको मिलेगा। यह एक प्रकार के धंधा है। वेद में लिखा है-
स्वयं वाजिस् तन्वं कल्पयस्व स्वयं यजस्व स्वयं जुषस्व । महिमा ते ऽन्येन न संनशे ॥ यजुर्वेद 23.16 अर्थात हे ज्ञानी मनुष्य! अपने विस्तार को आप समर्थ कर। स्वयं यज्ञ कर और स्वयं उसका फल प्राप्त कर। तेरा महत्व तुझे दूसरे के द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। मनु जी कहते है
आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राविरोधिना ।यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेद नेतरः ।12/106 अर्थात जो तर्क से खोज करता है। वही धर्म का रहस्य जान सकता है। दूसरा नहीं।
अब एक शंका हमारे समक्ष आती है कि अगर भक्ति गलत है तो फिर भक्ति संतों ने इसका क्यों प्रचार किया? इस शंका का उत्तर यह है कि भक्ति काल जिस समय हमारे देश में हुआ उस समय हमारे यहाँ मुस्लिम राज था। पठन-पाठन की सारी व्यवस्था जीर्ण शीर्ण हो चुकी थी। ऐसे में कुछ सरल हृदय महापुरुषों को आत्मिक प्रेरणा से जो तात्कालिक परिस्थितियों को देखकर समुचित लगा उन्होंने उसका अनुसरण किया। मुस्लिम मार से चोट खाई जनता को यह मार्ग भी एक मरहम के समान आंशिक सुख देने वाला था। इसीलिए भक्ति मार्ग का बहुत प्रचार हुआ।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए। स्वामी दयानन्द के अनुसार जो ईश्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण, ज्ञान, कथन, श्रवण और सत्य भाषण करना है। वह स्तुति कहाती है। अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते हैं। जिससे ईश्वर ही के आनन्द में अपने आत्मा को ना होता है उसको उपासना कहते हैं। स्तुति से मनुष्य की प्रीति ईश्वर में बढ़ती है, उसका ईश्वर में विश्वास होता है और ईश्वर के गुणों का स्मरण करने से उसके गुण, कर्म और स्वभाव में सुधार होता है। प्रार्थना से मनुष्य में निर अभिमानिता आती है और आत्मबल बढ़ता हैं। उपासना से परमात्मा का समीप्य और साक्षात्कार होता हैं। मनुष्य में कष्ट सहन की शक्ति बढ़ जाती है। वह बड़ी से बड़ी आपत्ति में नहीं घबराता, वह मृत्यु के मुख में भी शांत रहता है।
कुछ लोग शंका करेंगे कि आप भक्ति काल के संतों को प्रमाण नहीं मानते तो फिर आप स्वामी दयानन्द को प्रमाण कैसे मानते है? स्वामी दयानन्द को हम प्रमाण इसलिए मानते है क्योंकि उन्होंने जो कुछ कहा वह उनका निज मत नहीं था अपितु वह वेद का मत था। स्वामी जी स्पष्ट रूप से घोषणा करते है कि 'अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनी-मुनि पर्यन्तों के माने हुये ईश्वरादि पदार्थ हैं। जिनको मैं भी मानता हूं सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूं। (स्वमन्त० प्रकाश) इसलिए स्वामी जी का मत वेद का मत होने से स्वीकार्य है।
अंत में मैं वीतराग स्वामी सर्वदानन्द जी का एक उदाहरण देकर अपनी समाप्त करूँगा। स्वामी जी कहा करते थे कि हम रात्रि में दीपक आदि से प्रकाश करते हैं। जैसे ही सुबह होती है। हमें दीपक आदि अनावश्यक लगने लगते है क्योंकि सूर्य का प्रकाश हो जाता है। इसी प्रकार से मत-मतान्तर आदि वेद विरुद्ध तभी प्रकट होती है। जब वेद रूपी सूर्य के ज्ञान का प्रकाश नहीं होता। इसलिए जैसे ही वेद के ज्ञान का प्रकाश होगा। वेद विरुद्ध मत मतान्तरों का लोप स्वयमेव हो जायेगा। इसलिए वेदों के प्रचार में अपना पूर्ण पुरुषार्थ करो।
No comments:
Post a Comment