प्रतिवादी-भयंकर व्याख्यान-वाचस्पति श्री पं० गणपति शर्मा - एक संस्मरण
लेखक- स्व० श्री पं० नरदेव जी शास्त्री वेदतीर्थ
[स्व० श्री पण्डित गणपति शर्मा आर्यजगत् में अवतीर्ण शास्त्रार्थ कला के अतुल्य महारथी और व्याख्यान-वाचस्पति जाने जाते हैं। शास्त्रार्थ में आपके शास्त्रीय प्रणिनाद से विपक्षी घुटने टेक देते थे। आपने वैदिक धर्म के ध्वज की गरिमा को अपनी प्रौढ़ विद्वत्ता से जनमानस के हृदय में प्रतिष्ठित कर दिया था। दुबले-पतले होने के बावजूद ओजस्विनी भाषा में लगभग ५ घण्टे धाराप्रवाह व्याख्यान देना आपकी अद्भुत कला थी। आपका जन्म राजस्थान के चूरू नगर में सं० १९३० वि० में पण्डित भानीरामजी वैद्य नामक ब्राह्मण के घर हुआ था। २२ वर्ष की अल्पायु में ही आप काव्य और व्याकरण दर्शन साहित्य आदि विविध विषयों के तलस्पर्शी प्रगल्भ विद्वान् बन गये। महर्षि दयानन्द के समकालीन वैदिक धर्म के प्रचारक रामगढ़ शेखावटी निवासी ब्र० पं० कालूराम जी योगी ने आपको वैदिक धर्म में दीक्षित किया था। कतिपय वर्षों तक आपने काशी तथा कानपुर में रहकर अध्ययन किया था। आपकी विद्वता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि तार्किकशिरोमणि स्व० स्वामी दर्शनानन्द जी आपका व्याख्यान बड़ी उत्सुकता और तन्मयता से सुना करते थे। आपका २७ जून १९१२ को ३९ वर्ष की अल्पावस्था में स्वर्गवास हो गया। आपकी विद्वत्ता पर दृष्टि डालते हुए आर्यजगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व० श्री पं० नरदेव जी शास्त्री वेदतीर्थ का लिखा यह संस्मरण 'परोपकारी' के जून १९६१ के अंक में प्रकाशित हुआ था। -प्रियांशु सेठ]
स्व० श्री पं० गणपति शर्मा का और हमारा विशेष परिचय महाविद्यालय ज्वालापुर में सन् १९०८ के महाविद्यालय के महोत्सव के अवसर पर हुआ। पहिले हम उनका केवल नाम ही सुनते थे कि वह विद्वान् हैं, अनुपम व्याख्याता हैं, शास्त्रार्थ महारथी हैं, इत्यादि।
वे महाविद्यालय के प्रत्येक महोत्सव पर आते थे। पहिले उनका मेल महात्मा मुन्शीराम से था जब कि उनके साथ काम करते रहे। फिर उनका मुख्य क्षेत्र सामान्यतः आर्यसमाज रहा, और महाविद्यालय विशेष क्षेत्र बना। स्व० मास्टर आत्मारावजी (बड़ौदा) तथा गणपति शर्मा के व्याख्यान सुनने के लिए सहस्रों नर-नारी महाविद्यालय के महोत्सव पर आते थे। उस समय कांगड़ी गुरुकुल गंगा पार कांगड़ी में था, और महाविद्यालय ज्वालापुर में था। दोनों के महोत्सव एक ही तारीखों में होते थे। लोग कांगड़ी का उत्सव १-२ दिन देखकर पिछले दो दिन महाविद्यालय में आते थे। बड़ी भीड़ लगती रही।
व्याख्यान वाचस्पति
दीखने को तो गणपति शर्मा सांवले रंग के थे, दुबले-पतले थे। उनकी आकृति-विकृति को देखकर उनमें श्रद्धा ही नहीं जमती थी कि वे व्याख्यान वाचस्पति होंगे। पर जब वे व्याख्यान देने को खड़े हो जाते थे, तब न जाने उनमें कहां से बल आ जाता था कि दो-दो, तीन-तीन, चार-चार घण्टे बोलते थे। सहारनपुर के जलसे में खड़े हुए कि- 'मैं आज केवल दो प्रश्नों पर बोलना चाहता हूं।' ढाई घण्टे इधर उधर की बातें कहते रहे, पर उन दो प्रश्नों का नम्बर ही नहीं आने पाया।
महाविद्यालय के महोत्सव पर "वेद अपौरुषेय है" इस विषय पर दस सहस्र की उपस्थिति में ऐसा अपूर्व व्याख्यान दिया कि पचास अंग्रेजी पढ़े हुए विद्वानों की वेदसम्बन्धी शंकाएं दूर हो गईं। वे कहने लगे- ऐसा अपूर्व व्याख्यान हमने नहीं सुना। उस व्याख्यान की एक बात मुझे स्मरण है। वह यह कि-
देखो, वेद में 'गणानां त्वा गणपतिं हवामहे' यह मन्त्र आता है। उसमें गणपति शब्द को देखकर कोई यह कहेगा क्या, कोई यह कह सकता है क्या, कि वेद मेरे पीछे के बने हुए हैं? मैं वेदों से पहिले का हूं? इस पर श्रोतृवृन्द में बड़ा उल्लास और हर्ष रहा। उनके व्याख्यान शास्त्रीय ढंग के होने पर भी सरल (आम-फहम) होते थे। हर कोई समझ सकता था। उनके व्याख्यान विनोदप्रचुर होते थे। उनके व्याख्यान में लोग उकताते नहीं थे।
शास्त्रार्थ महारथी
महाविद्यालय के महोत्सव पर साक्षात् स्व० स्वामी दर्शनानन्दजी सरस्वती से "वृक्षों में जीव है कि नहीं" इस विषय पर बड़ा अद्भुत ऐतिहासिक शास्त्रार्थ रहा। जब गणपतिजी की बातें सुनते, तो श्रोतृवृन्द यह समझ जाता था कि वृक्षों में जीव अवश्य है। जब स्वामीजी के उत्तर सुनते थे, तो श्रोतृवर्ग स्वामी के पक्ष का हो जाता था।
काश्मीर का शास्त्रार्थ
एकबार जब गणपति शर्मा काश्मीर में थे, उसी अवसर पर पादरी जॉनसन वहां पहुंचा। और उसने काश्मीरी पण्डितों को वेदान्त विषय पर शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। जॉनसन विद्वान् पादरी था। संस्कृत का पण्डित था। संस्कृत धाराप्रवाह बोलता था। उसने काशी, कुम्भघोण, कांची (दक्षिण की काशी) इत्यादि पचासों स्थानों में पण्डितों को ललकारा था। कुम्भघोण के पण्डितों ने जॉनसन को तीन-तीन अर्थों की संस्कृत बोलकर परास्त किया। वहां तो जॉनसन ने पण्डितों को हाथ जोड़कर उनसे पीछा छुड़ाया। शेष जहां-जहां गया, पण्डितों को हैरान ही करता रहा।
काश्मीरी पण्डितों को ललकारा, जब कोई पण्डित शास्त्रार्थ के लिए तैयार न हुआ, तब महाराजा प्रतापसिंह, जो स्वयं सभाध्यक्ष थे, आश्चर्य में पड़ गये कि क्या काश्मीर की नाक कटेगी? इतने में किसी ने महाराजा को सुझाया कि आर्यसमाज में पण्डित गणपति शर्मा ठहरे हुए हैं, उनको बुला लीजिए। वह जॉनसन की खबर लेंगे।
किसी सनातनी पण्डित ने कहा कि-
"महाराज! वे तो आर्यसमाजी पण्डित हैं।"
महाराजा प्रतापसिंह कट्टर सनातनी होते हुए भी बोले- क्या हर्ज है, यदि गणपति शर्मा आर्यसमाजी है। वह जॉनसन को तो ठीक कर देगा?
सनातनी पण्डित- महाराज! वैसे तो गणपति शर्मा तगड़े पण्डित, अद्भुत व्याख्याता, और शास्त्रार्थ-महारथी हैं।
महाराजा प्रतापसिंह- अरे! फिर तो उनको लाओ जल्दी बुलाकर।
महाराज का सन्देश गणपति को मिला। गणपति शर्मा तुरन्त उठे, और महाराज को भेंट करने के लिए गीता का छोटा गुटका जेब में रखा, और चल दिये। सभा में आकर गीता का गुटका और कुछ पुष्प महाराज के अपर्ण किये, और विनम्र होकर बोले- "महाराज! क्या आज्ञा है?"
महाराज- अरे! देखते नहीं कि वह जॉनसन खड़ा है। इसको परास्त करो।
गणपति- अच्छा, जो महाराजा की आज्ञा।
एक तरफ जॉनसन, दूसरी ओर गणपति शर्मा। हजारों श्रोता विस्मययुक्त थे कि देखें क्या होता है? गणपति शर्मा ने महाराज से कहा कि वह प्रश्न करें हम उत्तर देंगे। महाराज ने जॉनसन से कहा शुरू कीजिए, हमारा पण्डित आ गया है।
अब प्रश्नोत्तर होने लगे
जॉनसन- हम आपसे शास्त्रार्थ करने आये हैं।
गणपति शर्मा- पहिले यह बतलाइए कि शास्त्रार्थ शब्द के क्या अर्थ हैं? क्या शास्त्र से मतलब आपका छ: शास्त्रों से है? और क्या आपको यह ज्ञात है कि अर्थ शब्द भी अनेकार्थ वाचक हैं? अर्थ अर्थात् धन, अर्थ अर्थात् प्रयोजन, अर्थ अर्थात् द्रव्य, गुण, कर्म (वैशेषिक दर्शन के अनुसार)। शास्त्र भी केवल छ: नहीं हैं- धर्म शास्त्र है, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र है। आप जरा समझाइये कि आप किस शास्त्र का अर्थ करने आये हैं? जब 'शास्त्रार्थ' शब्द का अर्थ समझायेंगे, तब हम उत्तर देंगे।
जॉनसन (गड़बड़ाये हुए बोले)- हम इसका उत्तर नहीं दे सकेंगे।
महाराज (हंसकर, सिर हिलाते हुये)- अब काहे को तुमको उत्तर आयेगा?
गणपति शर्मा- महाराज! जॉनसन उत्तर नहीं दे रहा है।
महाराज- जॉनसन आया तो था बड़े घमण्ड के साथ। आपके पहिले ही प्रश्न में उसका सिर नीचे हुआ। जॉनसन उत्तर नहीं देता, वह हार गया। जाये अपने घर। हमारा पण्डित विजयी हो गया।
सभा उठ गयी। सर्वत्र गणपति शर्मा का जय-जयकार होने लगा। महाराज ने गणपति शर्मा को बुलाकर पास बैठाया, उसकी पीठ थोपी, और प्रेम से पूछा- कहो गणपति शर्मा! तुम्हारे जैसा विद्वान् आर्यसमाजी कैसे हो गया? क्या सचमुच तुम आर्यसमाजी हो?
(शायद महाराज ने सोचा हो कि मेरे पूछने से गणपति शर्मा यह कह देंगे कि मैं आर्यसमाजी नहीं हूं।)
गणपति शर्मा- हां महाराज! मैं तो हूं आर्य समाजी।
महाराज- बस, यही खराबी है। तुम जैसा पण्डित सनातनियों में होना चाहिये था। आज आपने काश्मीर की नाक बचा दी।
जब से कश्मीर की विजय हुई, तब से गणपति शर्मा का नाम सर्वत्र भारत में फैल गया। और आने लगे चहुं ओर से निमन्त्रण। वे जहां-जहां जाते श्रोतृवर्ग उमड़ पड़ता था।
हास्यप्रिय
समय पड़ने पर ईसाई मुसलमान जैनियों से खुद शास्त्रार्थ कर लेते थे। पौराणिकों से तो मुठभेड़ रहती है थी। संस्कृत के पण्डित प्रायः शुष्क व्याख्याता होते हैं, पर पण्डितजी में विनोद की मात्रा प्रचुर थी। कोई छोटी-सी बात लेकर खड़े होते थे, और घण्टों बोलते थे। उनका रेवरेण्ड फ्रैंक (रुड़की) के साथ शास्त्रार्थ चिर-स्मरणीय रहेगा। वह तो उनको हाथ जोड़कर ही चला। इतना मधुर बोलते थे कि लोग उनके भाषणों में घण्टों बैठे रहते थे। जहां देखा कि लोग उकता रहे हैं, वहां गणपति शर्मा 'यही नहीं, और यह भी एक बात है' यह कह देते थे, तो उठते-उठते लोग भी बैठ जाते थे।
एक बार मैं और गणपति शर्माजी कहीं जा रहे थे। मार्ग में गाजियाबाद उतर पड़े।
गणपति शर्मा- शास्त्रीजी, यहीं उतर पड़ो न? देखो। अन्धेरा हो गया है, रात यहीं काटेंगे।
मैं- अच्छी बात है।
एक इक्का किया और चल दिये। मार्ग में एक मण्डी पड़ती थी। उसमें ऊपर की ओर स्व० बा० गोकुलचन्द्र वकील मन्त्री आर्यसमाज रहते थे। जब मण्डी के पास आये, मैंने कहा- मैं मन्त्रीजी को आपके आने की सूचना दे आता हूं। मेरे इतना कहते ही वे एकदम इक्के से उतर पड़े, और बोले- मैं तुम्हारे आने की सूचना मन्त्रीजी को दे आता हूं। आप इक्के को यहीं खड़ा रक्खें। मैं तो हैरान हो गया। पूछते-पूछते मन्त्रीजी के मकान पर पहुंचे पर अपनी धुन में पड़ोस के एक वकील के घर में घुस गये।
वकील (हैरान होकर)- आइये बैठिए।
गणपति शर्मा- भारतवर्ष के विख्यात, महापण्डित नरदेव शास्त्री आये हैं। मण्डी के बाहर इक्के में बैठे हैं।
वकील- हमने तो आज तक उनका नाम नहीं सुना।
गणपति शर्मा- आपने ऐसे बड़े पण्डित का नाम नहीं सुना? वे तो आपके यहां आये हैं।
वकील- मैं क्या करूँ? मैं तो उनको नहीं जानता। पण्डितजी उस वकील पर बहुत बिगड़े और उसको पचासों गालियां देते हुए वापस आये। बोले- यह आर्यसमाज का मन्त्री बड़ा दुष्ट है, उसने आपके नाम की परवाह ही नहीं की। चलो, समाज में आज मन्त्री की खबर लेंगे।
हम जब समाज में पहुंचे, तो शायद समाज की अन्तरंग हो रही थी। सब सभासद खड़े हो गये, स्वागत किया। जब सब बैठ गये, पण्डित गणपति शर्मा भिन्नाये हुए बोले- "देखोजी! हम मन्त्रीजी के घर गये। उनको कहा- महापण्डित नरदेव आये हैं। फिर भी उसने परवाह नहीं की, और कहा कि- 'मैं क्या करूं, मैं नहीं जानता नरदेव कौन है?' यहां का मन्त्री बड़ा दुष्ट है। ऐसे को मन्त्री क्यों बनाया, जो अतिथि सत्कार नहीं जानता?"
जब यह बात सुनी, तब असली मन्त्री गोकुलचन्द्र जी बोले- 'मैं तो यहां हूं। आप गलती से पड़ोस के घर में घुस गये होंगे।' यह सुनकर पण्डित जी सटापटाए और बोले- "तो फिर वह वकील, जिसके घर में हम गये थे, बड़ा दुष्ट है। हमको देखकर अपनी जगह से हिला तक नहीं। नरदेव शास्त्री से मिलने की बात तो दूर रही।"
उपस्थित सज्जनों में इस बात पर बड़ा कहकहा रहा। और वह हास्य विनोद का दृश्य देखते ही बनता था।
जिस दिन जिस समय पण्डितजी का व्याख्यान होता था, तब पण्डितजी के पास जाकर तीन चार बार जगाना पड़ता था अर्थात् कहना पड़ता था। तब वे धीरे-धीरे तैयार होते थे।
समझिए कि उनका व्याख्यान ४ बजे रखा गया है, तो एक व्यक्ति एक बजे जाकर कह आयेगा कि पण्डितजी आज आपका व्याख्यान सुनने के लिए बहुत लोग आये हैं।
पण्डितजी- अभी तो एक बजा है, थोड़ा सा लेवें।
दो ढाई बजे दूसरा आदमी गया। बोला- पण्डितजी आज आपके व्याख्यान में बड़ी भीड़ होगी।
पण्डितजी- अच्छा? चार बजे एक आदमी और गया- पण्डितजी आज जिधर देखो आदमी ही आदमी हैं।
पण्डितजी- अच्छा, अभी तो हमको शौच जाना है। अच्छा, लोटा भर लाओ। फिर वे शौच जायेंगे, आधे घण्टे में वे आयेंगे।
उनके शौच से लौटने तक एक और आदमी उनको बुलाने को तैयार रहे। पण्डितजी! आप चलिए। लोग दूर-दूर से आये हैं। आपका व्याख्यान सुनकर शाम की ६ बजे की गाड़ी से लौट जायेंगे।
पण्डितजी- अच्छा? क्या करें लोग सोने नहीं देते, शौच भी नहीं फिरने देते। चलो बाबा, चलो।
फिर प्लैटफार्म पर पहुंच कर सरस्वती का ऐसा प्रवाह बहाते कि लोग मन्त्रमुग्ध होकर २-२, ३-३ घण्टे बैठे रहते।
मैंने पण्डितजी से एक बार कहा- पण्डितजी! आप व्याख्यान के पहिले से ही क्यों नहीं तैयार होकर बैठ जाते? आपके लिए बड़ी प्रतीक्षा करनी पड़ती है। तब बोले- नरदेव! तुम शास्त्री हो गये, पर तुम्हें अकल नहीं आई।
मैं- कैसे?
गणपति शर्मा- श्रोतृवृन्द में एक प्रकार की उत्सुकता न हो, तो व्याख्याता का व्याख्यान फीका पड़ जायगा। श्रोतृवृन्द उत्सुक हो, तो व्याख्याता को भी उत्साह आता है, और फिर व्याख्यान ठीक बनता है। समझ कोरे शास्त्री!
हमको परिचयात्मक दो शब्द भी नहीं कहने दिये। एकदम बोले- मैं गणपति शर्मा हूं, जिसके व्याख्यान को सुनने के लिए आप लोग कृपापूर्वक एकत्रित हुए हैं। आज मुझे केवल दो प्रश्नों का उत्तर देना है।
दो ढाई घण्टे तक धाराप्रवाह व्याख्यान हुआ, पर उन दो प्रश्नों का उसमें उत्तर नहीं था। पता नहीं प्रश्न कहां रल गये?
ऐसे थे हमारे चूरू प्रदेश के गणपति शर्मा। जब उनको क्रोध चढ़ता था तब मेरे जैसा सपेरा ही उनको संभाल सकता था।
शोक कि पण्डित जी जैसा संस्कृत तथा हिन्दी में धाराप्रवाह वक्ता, शास्त्रीय जटिल विषयों को भी सरल से सरल शब्दों में समझानेवाला अब नजर नहीं आता। उनके विनोदपूर्ण स्वभाव के, उनके क्रोध के दो-चार छोटे छोटे उदाहरण मैं और दे सकता हूं। इधर लेख बढ़ता जा रहा है। मैं भी थक सा गया हूं, इसलिये यहीं समाप्त कर रहा हूं। आखिर गणपति शर्मा जी के अन्य सहयोगियों और भक्तों को भी तो कुछ लिखना है। संस्मरणात्मक लेख में संक्षेप से ही काम लेना चाहिये।
कटक का शास्त्रार्थ
पण्डित जी के कटक का शास्त्रार्थ-विवरण भी उल्लेखनीय है जो कि पण्डितजी के मुख से हमने सुना। कटक सनातनी उद्भट विद्वानों का अखाड़ा था। जिस समय पं० गणपति शर्मा उड़ीसा में पहुंचे थे, पण्डित जी का स्वभाव विनोदी था। छोटे बड़े सबके साथ मिल जाते थे, और बड़ा आनन्द रहता था। गणपति शर्मा जी ने स्वयं एक बार हमसे कहा, और हमने विनोदात्मक ढंग से सुना था-
"एक बार हम उड़ीसा (उत्कल प्रदेश) में जा पहुंचे। न जाने किस तरह पण्डितों में यह खबर पहुंची कि गणपति शर्मा आया है। आर्यसमाजी है, नास्तिक है (मैं आर्यसमाजी तो था, पर नास्तिक कभी नहीं था)। असली बात यह है कि मैंने जगन्नाथपुरी कभी नहीं देखी थी। उसी के देखने के लिये मैं पुरी पहुंचा था। पुरी में जगन्नाथ मन्दिर को देखने के पश्चात् मैंने एक पण्डित से पूछा कि- सब जगह मन्दिरों में पत्थर की, पीतल की, कहीं-कहीं सोने की मूर्तियां होती हैं। यहां यह जगन्नाथ जी की मूर्ति काष्ठ की क्यों? इतने में वहां दस पांच पण्डित एकत्रित हुये। तब हमने जगन्नाथ पुरी में विशेषतः मन्दिर के अहाते में, जगन्नाथ सबके हाथ का भात खाते हैं, इस विषय में विनोदात्मक बात चलायी। तब तो बहुत आदमी इकट्ठे हुये। लोगों ने पूछा क्या है? किसी ने कहा- कोई नास्तिक आया है, किसी ने कहा- आर्यसमाजी दीखता है। बातों-बातों में मेरी चर्चा प्रारम्भ हुई, और पूरा भरी भर में बात फैल गई कि कोई आर्यसमाजी आया है। मैं जहां ठहरा था वहां बहुत से लोग पहुंचे, और कहने लगे-
लोग- क्या आप आर्यसमाजी पण्डित हैं?
मैं- आर्य-पण्डित हूं।
लोग- आर्य-पण्डित कैसे होते हैं?
मैं- जैसा मैं हूं।
लोग- पण्डित के साथ आर्य शब्द अच्छा नहीं लगता।
मैं- क्यों? इस देश का प्रत्येक निवासी आर्य है। यह आर्यावर्त देश है। इसमें रहनेवाला प्रत्येक व्यक्ति आर्य है।
लोग- क्या आर्यावर्त में रहनेवाले मुसलमान ईसाई भी आर्य हैं?
मैं- देश के कारण आर्य कहला सकते हैं। धर्म के कारण नहीं।
लोग- आप किस धर्म को मानते हैं?
मैं- वैदिक धर्म को मानता हूं।
लोग- क्या सत्य सनातन धर्म को नहीं मानते हो?
मैं- वैदिक धर्म ही तो सत्य सनातन धर्म है।
लोग- क्या मूर्ति को मानते हो?
मैं- क्यों नहीं? मूर्ति को मूर्ति मानता हूं।
लोग- जगन्नाथ जी को क्या मानते हो?
मैं- जो हैं, सो मानता हूं।
लोग- जगन्नाथ जी को परमेश्वर की मूर्ति नहीं मानते हो?
मैं- हम सब भगवान् की बनाई हुई मूर्तियां हैं।
लोग- श्राद्ध को मानते हो?
मैं- क्यों नहीं? माता-पिता, गुरु आदि का श्राद्ध करना ही चाहिये, अर्थात् इनकी सेवा श्रद्धा से करनी चाहिए।
लोग- और पितरों की?
मैं- पितरों का भी श्राद्ध करो। पितर अर्थात् बड़े-बड़े बुजुर्ग विद्वान् आदि।
लोग (आपस में)- देखो यह कैसी गोल-गोल बात करता है? हम इसकी अपने पण्डितों से क्यों न बात-चीत करायें? (पण्डितजी से) आप हमारे पण्डितों से बात करेंगे?
मैं- क्यों नहीं?
लोग- कल हम आपको अपनी धर्मशाला में ले चलेंगे। वहां हमारे पण्डितों से मिलेंगे?
मैं- अच्छी बात है।
दूसरे दिन सायंकाल दो चार व्यक्ति आये, और मुझे ले गये। वहां देखा तो बड़ा जमघट था। पण्डितों से नमस्कार आदि होने के पश्चात् एक प्रमुख पण्डित ने पूछा- "क्या आप सनातनी पण्डित हैं? आप क्या मानते हैं? मूर्ति पूजा, श्राद्ध आदि मानते हैं या नहीं? जो लोग आपसे बात-चीत कर आये हैं, उनको सन्तोष नहीं हुआ। आप परमात्मा को मानते हैं कि नहीं?"
मैं- वाह! मैं परमात्मा को अवश्य मानता हूं।
पण्डित- साकार कि निराकार?
मैं (अब मुझे खुलकर बोलना पड़ा)- मैं तो परमात्मा को निराकार ही मानता हूं। देखो वेदों में 'स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणम्' इस मन्त्र में परमात्मा को 'अकायम्' लिखा है। एक मन्त्र में लिखा है- 'न तस्य प्रतिमा अस्ति'। सब से बड़ा प्रमाण वेद ही है। हम वेदों की बात को ही मानते हैं।
बस, शास्त्रार्थ छिड़ पड़ा। श्रोतृगण बहुत उत्साहित हुये, और अनेक चिल्ला उठे कि- 'ये नास्तिक हैं। इनके साथ शास्त्रार्थ कैसा?'
मैं- नास्तिक किसे कहते हैं?
पण्डित- नास्तिक वह जो वेदों का निन्दक हो। मनु लिखते हैं- 'नास्तिको वेदनिन्दक:।'
मैं- मैं तो वेदनिन्दक नहीं हूं, वेदों को स्वतः प्रमाण मानता हूं। अब स्वतः प्रमाण और परत: प्रमाण इस विषय पर चर्चा चली। फिर दूसरे दिन इसी बात पर चर्चा रही, तीसरे दिन मूर्ति-पूजा और श्राद्ध का विषय चला।
पण्डित गणपति शर्मा ने विनोदपूर्वक बताया कि सनातनी पण्डित ने मूर्ति-पूजा व श्राद्ध के विषय में कई जूतियां (मतलब युक्तियों से है) दीं। हमने भी इधर से कई जूतियां (युक्तियां) दीं। इस प्रकार घण्टे तक बराबर जूति-प्रजूति (युक्ति-प्रयुक्ति) होती रही। और अन्त में श्रोताओं के हुल्लड़ में शास्त्रार्थ बन्द करना पड़ा।
आपने कहा- उत्कल देश के पण्डित बड़े विद्वान् तथा सौम्य होते हैं। पण्डित जी कहते थे कि मैं पुरी में ८-१० दिन रहा। सर्वत्र मेरी चर्चा रहती रही। मैं जब रास्ते से निकलता था, तब लोग संकेत करते थे- 'देखो, यह नास्तिक जा रहा है'। इस प्रकार उत्कल देश में ५-६ स्थानों पर शास्त्रार्थ हुये। मैं अकेला था, और सौम्यरूप से उत्तर देता रहा। उग्र रूप पकड़ता, तो शायद झगड़ा बढ़ जाता, मैं सौम्य ही रहा।
विनोदी प्रकृति के
गणपति शर्मा स्वगृह में तथा मित्रमण्डली में बड़े विनोदपूर्वक व्यवहार करते थे।
इनके छोटे भाई का नाम श्यामलाल था। जब कुछ हंसने या विनोद के लिये नहीं रहता था, तो वे श्यामलाल से ही विनोद-वार्ता कर बैठते थे। श्यामलाल बेचारा बहुत सरल प्रकृति का व्यक्ति था।
पहिले यह भी पण्डित जी की बातों को वास्तविक समझता रहा।
गणपति शर्मा- श्यामलाल! जरा इधर आओ तो सही।
श्यामलाल- आया जी।
गणपति शर्मा- तेरे कपड़े मैले हो गये हैं।
श्यामलाल- हां जी।
गणपति शर्मा- फट भी गये हैं।
श्यामलाल- हां जी।
गणपति शर्मा- अब हम सोच रहे हैं कि तुम्हारे लिए इकट्ठे ही दस बारह कुरते सिलवा डालें, जिससे चिन्ता मिटे, और उनमें से कुछ मैले हो जायेंगे, कुछ धोबी के यहां धुलने जायेंगे। और ५-६ तुम्हारे पास भी रहेंगे, और तुम साफ सुथरे रहा करोगे। ठीक है न?
श्यामलाल खुश होकर चला जाता। फिर गणपति शर्मा श्यामलाल को बुलाते, और कहते- श्यामलाल तुम १०-१२ कुरते का क्या करोगे? कहीं खो दोगे। इसलिये अब सोचा है एक-दो कुरते ही अच्छे रहेंगे।
श्यामलाल- अच्छा जी।
गणपति शर्मा- श्यामलाल तुम्हारे पास घड़ी नहीं है। तुम कोई काम भी समय पर नहीं करते हो। तुम्हारे लिये एक अच्छी घड़ी मंगा देंगे। ठीक है न?
श्यामलाल (मन में सोचता हुआ कि १०-१२ कुरते तो बन गये, अब घड़ी मिलेगी) 'अच्छा जी घड़ी मिल जाय, तो अच्छा रहेगा'। ऐसा कहकर चला जाता है। थोड़ी देर में श्यामलाल को फिर बुलाते हैं और मुस्कराकर कहते हैं-
गणपति शर्मा- श्यामलाल!
श्यामलाल- हां जी।
गणपति शर्मा- तुम्हारे जाने के पश्चात् मैंने सोचा कि मैं श्यामलाल के लिये घड़ी तो ला दूं, पर उसके हाथ से कहीं कभी घड़ी गिर जाय और टूट जाय तो क्या होगा? घड़ी को कोई उठा ले जाय तो क्या होगा? यह सोचकर मेरा अब विचार हो गया है कि तुम्हारे लिये घड़ी लेना व्यर्थ है। घड़ी लेने में ६०-७० रु० खर्च हो जायेंगे और काम भी नहीं बनेगा। अभी तो तुम ऐसे ही काम करो जैसे पहले घड़ी के बिना काम चलाते रहते थे।
श्यामलाल- अच्छा जी।
इसी प्रकार कभी-कभी दो भाइयों में किस्सा चलता था। भोले श्यामलाल बहुत दिनों में समझ पाये कि पं० जी उसके साथ विनोद कर अपना जी बहला रहे हैं।
ऐसे थे हमारे गणपति शर्मा - उद्भट विद्वान्, सौम्यमूर्ति, विनोदी, मिलनसार, आर्यसमाज के दिग्गज पण्डित।
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