हरयाणा में शिक्षाप्रसार में आर्यसमाज का महान् योग
लेखक :- स्वामी ओमानन्द सरस्वती
हरियाणा संवाद :- 10मई 1975
प्रस्तुति :- अमित सिवाहा
महर्षि दयानन्द जी ने संसार का उपकार करने के लिए बम्बई में चैत्र शुक्ला प्रतिपदा विक्रमी सम्वत् १९३२ को आर्यसमाज की स्थापना की। उस समय आर्य जाति की रीति - नीति , सभ्यता , संस्कृति को पाचात्य सभ्यता का झंझावात समूल उखाड़ फेंकने में प्रयत्नशील था। ऐसी विकट परिस्थितियों में ऋषिवर दयानन्द ने अपने महान् कार्य का सभारम्भ किया। आज राष्ट्र ने जो करवट बदली है , देश में शिक्षा का जो प्रचार प्रसार हुआ है तथा जागृति के जो चिह्न दिखाई देते हैं जैसे देश की स्वतंत्रता , समाज का सुधार , शिक्षा का राष्ट्रीयकरण , वेदोद्धार , गुरुकुल शिक्षा प्रणाली से ब्रह्मचर्य प्रचार , बालविवाह का उन्मूलन , सतीप्रथा का उन्मूलन , विधवा विवाह का प्रचलन , छुआछूत का नाश , स्त्री - शिक्षा का प्रसार होरहा है , उसका सर्वाधिक श्रेय इसी बाल ब्रह्मचारी महर्षि दयानन्द को है।
महर्षि दयानन्द जी हरयाणा के दिल्ली , रेवाड़ी और अम्बाला में आर्यसमाज और वेदप्रचारार्थ अनेक बार पधारे। बेरी तथा भिवानी में उनके पधारने की बात सुनी जाती है। उनके उपदेशामृत से प्रभावित होकर रामपुरा , रेवाड़ी के रावराजा युधिष्ठिर अपने अनेक साथियों सहित उनके शिष्य बन गए। आर्यसमाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक दादा बस्तीराम भी रेवाड़ी में महर्षि के उपदेशों से प्रभावित होकर आर्यसमाजी बने और ११७ वर्ष की आयु तक आर्यसमाज के सिद्धान्तों और शिक्षा का प्रचार करते रहे। महर्षि दयानन्द की प्रेरणा से रावराजा युधिष्ठर ने भारतवर्ष में सर्वप्रथम गोशाला रेवाड़ी में ही खोली थी। महर्षि के उपदेशों से प्रभावित होकर हरयाणा के प्रसिद्ध ब्रह्मचारी जयरामदास ने बेरी और भिवानी में गोशालाएं खोली।
महर्षि दयानन्द के उपदेशों का सबसे अधिक प्रभाव पंजाब , हरयाणा , उत्तरप्रदेश और राजस्थान में पड़ा। पंजाब में ही ब्रह्मर्षि गुरु विरजानन्द जी महाराज का जन्म करतारपुर के निकट गंगापुर ग्राम में हुआ था। उन्हीं के चरणों में स्वामी दयानन्द ने आर्षशिक्षा की दीक्षा मथुरा में ली थी। स्वामी विरजानन्द जी के गुरु स्वामी पूर्णानन्द जी सरस्वती हरयाणाप्रदेश के ही थे। इस प्रकार आर्यसमाज का मूल - जन्मदाता हरयाणाप्रदेश ही था। यही नहीं , स्वामी दयानन्द के पूर्वज औदीच्य ब्राह्मण थे , अर्थात् उत्तरभारत के ही थे। संभव है कि उनके पूर्वजों का निवासस्थान प्राचीनकाल के हरयाणाप्रदेश में ही रहा हो।
महर्षि ने अमरग्रन्थ ' सत्यार्थप्रकाश ' में लिखा है कि कोई कितना ही करे , परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है , वह सवोपरि उत्तम होता है , अर्थात् मत - मतान्तर के -आग्रहरहित अपने और पराए का पक्षपातशून्य , प्रजा पर पिता - माता के समान कृपा , न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परन्तु भिन्न भिन्न भाषा , पृथक् - पृथक् शिक्षा , अलग व्यवहार का छूटना अतिदुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इस निर्भीक संन्यासी ने कितने स्पष्ट शब्दों में विदेशीराज्य के दोष और स्वदेशीराज्य के गुण बताए हैं। यह राष्ट्रप्रेम और देशभक्ति की पराकाष्ठा है। अंग्रेजों के राज्य में उनके ही विरुद्ध इतना निर्भीक होकर बोलना और लिखना इसी वीर संन्यासी का कार्य था। वे लार्ड मैकाले द्वारा प्रचलित दूषित शिक्षाप्रणाली के दोषों से भलीभांति परिचित थे। इसीलिए उन्होंने ' सत्यार्थप्रकाश ' के तृतीय समुल्लास में और संस्कार विधि के वेदारम्भसंस्कार में प्राचीन आर्षशिक्षाप्रणाली को विस्तार से लिखा है। उसी के अनुसार स्वामी श्रद्धानन्द , स्वामी दर्शनान्द जी आदि महर्षि के एकनिष्ठ शिष्यों ने हरद्वार , ज्वालापुर , जालन्धर , देहरादून , सिकन्दराबाद आदि स्थानों पर राष्ट्रीयशिक्षा के उद्धारार्थ गुरुकुलों की स्थापना की।
इन महात्माओं से प्रेरणा लेकर स्वामी ब्रह्मानन्द , पंडित विश्वम्भरदत्त ( झज्जर ) , चौधरी पीरूसिंह ( मटिण्डू ) और महात्मा भक्त फूलसिंह आदि ने झज्जर , मटिण्डू , भैंसवाल और खानपुर में गुरुकुलों की स्थापना की। राष्ट्रीयशिक्षा अर्थात् वेदादि सत्य शास्त्रों की आर्षशिक्षा का प्रचार और प्रसार सारे उत्तरभारत में होने लगा। गुरुकुलों की बाढ़ - सी आगई। उनको देखकर ही डी.ए.वी. स्कूल , कॉलेज , आर्यस्कूल और आर्यकॉलेज भी धड़ाधड़ खुलने लगे। कन्याओं की शिक्षार्थ जालन्धर , देहरादून , कनखल , मीताथल ( भिवानी ) , सासनी , बड़ौदा , पोरबन्दर , खानपुर , नरेला आदि नगर उपनगरों में कन्या गुरुकुल , आर्य कन्या पाठशाला , आर्य कन्या स्कूल और कॉलेज आर्यसमाज ने ही खोलकर स्थापित किए।
पहले पहल कन्याओं की शिक्षा का विरोध हुआ। कन्याएं पढ़ानी चाहिएं या नहीं , इस विषय पर आर्यसमाज ने शास्त्रार्थ भी किए । आर्यसमाज के संन्यासी , विद्वान् , पण्डित , उपदेशक और भजनोपदेशकों ने सारे उत्तरभारत में राष्ट्रीयशिक्षा का इतना प्रबल प्रचार किया कि विरोधी मुंह देखते रहगए। कुछ ही वर्षों में सब विरोध ठण्डा होगया। हरयाणा में आगे चलकर कुरुक्षेत्र , इन्द्रप्रस्थ , सिंहपुरा , कालवा, गदपुरी , गणियार टटेसर , खेड़ाखुर्द , कुम्भाखेड़ा , आर्यनगर , कुरड़ी , धीरणवास , पंचगांवा , सिद्धिपुर लोवा आदि अनेक स्थानों पर नए नए गुरुकुल स्थापित होगए। हरयाणा में शिक्षा का तहलका मच गया।
कुछ अंग्रेजी पढ़े - लिखे लोग जो गुरुकुल खोलने या चलाने में असमर्थ थे , उन्होंने जाट स्कूल , वैश्य स्कूल , गौड़ स्कूल , जांगड़ा ब्राह्मण स्कूल ( विश्वकर्मा स्कूल ) , सैनी स्कूल , अहीर स्कूल , आर्य स्कूल , डी.ए.वी. स्कूल , भारी संख्या में रोहतक , हिसार , भिवानी , सोनीपत , पानीपत , वल्लभगढ़ , करनाल , जींद , हांसी , गुड़गांव , रेवाड़ी , पलवल , होडल , अम्बाला , यमुनानगर , जगाधरी आदि छोटे बड़े नगरों में खोल दिए। उनमें से कितने ही स्कूलों ने कॉलेजों का रूप धारण करलिया। अंग्रेजों ने सरकार की ओर से शायद ही कहीं भूलकर कोई स्कूल कॉलेज हरयाणा में खोला होगा। इन स्कूल कॉलेजों का रहन - सहन , खानपान प्रारम्भ में गुरुकुलों के समान ही था। प्रातः सायं इन सबमें वैदिक संध्या कराई जाती थी। साप्ताहिक यज्ञ भी होते थे। सर्वत्र वेदमंत्रों की गूंज सुनाई देती थी। छात्रावासों में सोने के लिए तख्त थे। मिर्च तक भी कोई विद्यार्थी नहीं खाता था। ब्रह्मचारियों के समान दैनिक व्यायाम करते थे। स्वांग , नाच देखने से बड़ी घृणा थी। व्यायाम , स्नान आदि ब्रह्मचारियों के समान प्रचलित थे।
स्वामी आनन्द मुनि , चौधरी छोटूराम , सेठ छाजूराम , लाला रामनारायण बी.ए. , चौधरी बलदेवसिंह , डॉ ० रामजीलाल , पंडित भूराराम , चौधरी रामप्रकाश , चौधरी टीकाराम , पंडित मुरारीलाल , पंडित जगदेवसिंह सिद्धांती , लाला श्यामलाल , लाला फतेहसिंह आर्य ये सभी आर्यसमाजी थे , जिन्होंने स्कूल कॉलेजों के द्वारा राष्ट्रीयशिक्षा और आर्यसमाज का प्रचार किया और हरयाणा की अनपढ़ जनता को शिक्षित और दीक्षित किया। आर्यसमाज के प्रचार का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि चौ० लालचंद जी भालोठ जैसे धर्मनिरपेक्ष लोग भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। जब हरयाणा के सभी गणमान्य व्यक्ति आर्यसमाजी होगए। जब आर्यसमाजी होना आदर मान की वस्तु समझी जाने लगी , तो चौधरी लालचंद भी न रह सके और आर्यसमाज के संन्यासी स्वामी सत्यानन्द जी से जनेऊ लेकर गुरुकुल मटिण्डू के सेवक व प्रेमी बन गए
आर्यसमाज की देशभक्ति और राष्ट्रीयशिक्षा का ही प्रभाव था कि आर्यसमाजी लोग देशसुधार के सभी आन्दोलनों में सबसे आगे ही रहते थे। आर्यसत्याग्रह हैदराबाद में सबसे अधिक सत्याग्रही पंजाब से गए और पंजाब में भी हरयाणा भाग के सबसे अधिक सत्याग्रही थे। राष्ट्रभाषा हिन्दी के आन्दोलनों में भी आर्यसमाजी ही अग्रणी और प्रमुख रहे। महर्षि दयानन्द ने गुजराती होकर भी अपने सभी ग्रन्थ राष्ट्रभाषा हिन्दी में लिखे।
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प्रजामण्डल आन्दोलन
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मुगलों के राज्य में हरयाणा की जनता को वश में रखने के लिए अनेक नवाबों को बड़ी बड़ी जागीरें प्रदान की थीं । जैसे झज्जर , फरूखनगर , बहादुरगढ़ , दुजाना और लोहारू इत्यादि स्थानों पर अनेक मुसलमान नवाब व जागीरदार थे। उसी प्रकार अंग्रेजों ने हरयाणा को शक्तिहीन करने के लिए इसको अनेक भागों में बांटकर इसे इतस्ततः कर दिया। जैसे मेरठ , मुजफ्फरनगर , सहारनपुर , बिजनौर , देहरादून , मथुरा , आगरा , अलीगढ़ , एटा , मैनपुरी , मुरादाबाद , बदायूं , बरेली , शाहजहांपुर इत्यादि जिलों को हरयाणा से निकालकर उत्तरप्रदेश में मिला दिया। महेन्द्रगढ़ और नारनौल को नाभा और पटियाला में मिला दिया गया। दादरी , जींद , नरवाना , संगमा का क्षेत्र पृथक् करके जींदराज्य की स्थापना की गई। सन् १८५७ के प्रथम स्वातन्त्र्यसंग्राम में हरयाणा की देशभक्त जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध जमकर युद्ध किया था। उसी के फलस्वरूप हरयाणा के अनेक खण्ड करके हरयाणावासियों को यह दण्ड मिला था। हमारे हजारों पूर्वजों को गोली का शिकार बनाया था। छ: हजार से अधिक वीरों को आजीवन कारावास की सजा देकर काला पानी ( अण्डमान निकोबार ) भेज दिया गया था। सर्वप्रथम हरयाणा के पूर्वजों को ही सन् १८५८ में काले पानी के द्वीपों में बसाया था। हरयाणा को तो राष्ट्रभक्ति का उपर्युक्त दण्ड मिला , जींद , नाभा , पटियाला स्टेटों में हरयाणा के कई भाग सम्मिलित कर दिए गए।
झज्जर के नवाब तथा बल्लभगढ़ के जाटराजा नाहरसिंह को दिल्ली में कोतवाली के आगे फांसी देकर और उनका राज्य जब्त करके देशभक्ति का दण्ड दिया गया। आर्यसमाज के प्रचार से पूर्व सारा हरयाणा अशिक्षित था। पढ़ा - लिखा व्यक्ति कार्ड ढूंढने से ही कहीं - कहीं दिखाई देता था। मुस्लिमबादशाहों और अंग्रेजों की यही नीति थी कि यहां की वीरप्रजा मूर्ख और भूखी रहे , तभी ये अधीन रहसकेंगे। किंतु आर्यसमाज के प्रचार से शिक्षा का प्रचार इतना बढ़ा कि अंग्रेज इसे रोक नहीं सके। जितने शिक्षणसंस्थान आर्यसमाज ने प्रचलित किए वे अंग्रेजसरकार से सहायता नहीं लेते थे। उनका माध्यम भी राष्ट्रभाषा हिन्दी ही था। पाठविधि भी उनकी अपनी ही चलती थी। अंग्रेज वायसराय ने स्वयं गुरुकुल कांगड़ी में जाकर लाखों रुपए सहायतार्थ देने चाहे , किन्तु स्वामी श्रद्धानन्द जी ने लेने से निषेध कर दिय। स्वामी ऋद्धानन्द , स्वामी दर्शनानन्द आदि सैंकड़ों आर्यसंन्यासी और विद्वानों ने अपना तन - मन - धन ( अर्थात् सर्वस्व ) राष्ट्रीयशिक्षा पर न्यौछावर कर दिया। उसी के फलस्वरूप हरयाना के तपस्वी त्यागी दादा बस्तीराम , स्वामी ब्रह्मानन्द , स्वामी परमानन्द , स्वामी विद्यानन्द , पंडित विश्वम्भरदत्त ( झज्जर ) , चौधरी पीरूसिंह , भक्त फूलसिंह , स्वामी नित्यानन्द , चौधरी ईश्वरसिंह , पंडित बालमुकन्द , सेठ छाजूराम आदि ने अपना सर्वस्व लगाकर हरयाणा में गुरुकुल विद्यालय और पाठशालाओं की स्थापना की तथा विद्याप्रचार करके हरयाणा की जनता में देशभक्ति और राष्ट्रीय शिक्षा की ज्योति जलादी। इन्हीं महात्मा विद्वान् और दानियों की कृपा से कनीना , महेन्द्रगढ़ , नारनौल , दादरी , जींद , लोहारू , दुजाना आदि देशीराज्यों में पाठशालाएं खुली , स्कूल वने , आर्यसमाज स्थापित हुए और प्रजामण्डल की भी स्थापना हुई।
हरयाणा तथा इसके अन्तर्गत देशीराज्यों में राष्ट्रभाषा हिन्दी की ५०० से अधिक पाठशालाएं चलती थीं। इन्हें सीधा आर्यसमाज ने चला रखा था। आर्यसमाज की सहायता व प्रचार के कारण बिरला बन्धुओं का ट्रस्ट चलरहा था। इन सभी पाठशालाओं में सभी अध्यापक आर्यसमाजी थे। उनके सात व आठ निरीक्षक भी आर्यसमाजी थे। इन निरीक्षकों के ऊपर प्रधान निरीक्षक प्रसिद्ध आर्यसमाजीनेता चौ० निहालसिंह जी तक्षक थे , जो रात दिन ऊंट की पीठ पर सवार रहते थे और इन सभीराज्यों में शिक्षा तथा आर्यसमाज दोनों का प्रचार करते थे। राजस्थान के अतिरिक्त लोहारू , महेन्द्रगढ़ , कनीना , दादरी , जींद और दुजाना आदि राज्यों में इन पाठशालाओं का इस धुन के धनी आर्यनेता ने जाल बिछा दिया था। सभी स्थानों पर शिक्षा के सच्चे प्रचारक और साधक आर्य अध्यापक नियुक्त कर दिए थे। दिन - रात पाठशालाएं चलती थीं। कितने ही अध्यापक तो रविवार को भी अवकाश नहीं करते थे। बीसलवास , गागड़वास , चांदवास , डालावास , बेरला , मानहेडू , रासीवास , दगड़ोली , बडेसरा , बिगोवा , ढ़ाणी , भागवी , इमलोटा , ऊण , रानीला , रावलधी , लूलोढ़ , लूखी , कनीना , पौली , जुलाना , जींद , नरवाना , बारवास , हरियावास , चेहड़नांगल , आर्यनांगल आदि ग्रामों में चारों ओर इन पाठशालाओं की धूमधाम थी।
इनके आदर्श अध्यापक राजेराम , कुन्दनसिंह , भूपसिंह , शिवराम , नानकचंद , फतेहसिंह , बनारसीदास , दीपचंद , लज्जेराम , कलवन्तसिंह , मांगेराम आर्य , हजारीलाल ( कर्मवीर वैद्य ) , दीपचन्द , रामस्वरूप , पंडित शिवकरण , पंडित सोहनलाल , हरिसिंह , सूबेराम आर्य , रामस्वरूप आर्य , रणसिंह आर्य , चौधरी सोहनलाल आर्य आदि सैंकड़ों अध्यापक थे जो इस शिक्षा यज्ञ को राष्ट्रीय धर्म समझकर भूखे प्यासे रहकर चला रहे थे। इनकी साधना ने शिक्षाप्रसार और आर्यसमाज के प्रचार को चार चांद लगादिए। ढाणी , बीसलवास , रावलधी , इमलोटा , डालावास , भागवी आदि अनेक पाठशालाएं तो गुरुकुल ही बने हुए थे। इन्हीं देशभक्त आर्य अध्यापकों ने देशभक्ति का प्रचार करके प्रजामण्डल की स्थापना की। इनमें से फतेहसिंह आर्य , बनारसीदास गुप्त , हजारीलाल ( कर्मवीर ) आदि अनेक अध्यापक जेलों में भी गए।
इन्हीं अध्यापकों ने कन्या गुरुकुल पंचगांवा , आर्यसमाज स्कूल लोहारू , आर्यसमाज लूलोढ , आर्यसमाज लूखी आदि में एक दर्जन से अधिक पाठशालाएं , स्कूल आदि की स्थापना की। ये अध्यापक दिन में पढ़ाते थे , रात्रि में आर्यसमाज और शिक्षा का प्रचार करते थे। दादरी में प्रजामण्डल की स्थापना करके जींद के राजा की तथा नवाब लोहारू की नींद हराम करदी थी। ये अध्यापक देशभक्ति के भजन , कविता बनाकर और गा गाकर प्रचार करते थे।
भारत को छोड़ जाए यह गर्वनमैंट हत्यारी।
मांगेराम कथना करें और अनुमोदन करे हजारी।।
' भारत छोड़ो ' का नारा इन अध्यापकों ने कांग्रेस से भी पहले लगा दिया था। पंडित रामरिछपाल , चौधरी मनसाराम ने आर्यसमाज तथा प्रजामण्डल के प्रचार खूब सहयोग दिया। चौधरी मंगलाराम जी नम्बरदार डालावास तथा चौधरी नत्थाम नम्बरदार बडेसरा ने अंग्रेजों की नम्बरदारी छोड़कर आदर्शभक्ति का परिचय दिया। चौधरी मनसाराम ने भूमि दान दी तथा मंगलाराम ने ५०००० ईंटें देकर कन्या गुरुकुल पंचगांवा डालावास की स्थापना की जो चौधरी भरतकुमार शास्त्री ने सेवाकर अनेक वर्षों तक चलाया। स्वामी ईशानन्द जी , स्वामी कर्मानन्द जी , पंडित समरसिंह वेदालंकार , ठाकुर भगवन्तसिंह , पंडित भरतसिंह आर्य , वैद्य दुलीचन्द ने भी आर्यसमाज के प्रचार में खूब बल लगाया। आर्यसमाजी अध्यापक रात्रिपाठशाला चलाकर हाली - पाली आदि प्रौढ़ों में शिक्षा का प्रचार करते थे। धर्मार्थ औषधालय चलाते थे। ईसाई , मुसलमान , पौराणिकमतों के पाखंड का खण्डन करते थे। लाला लाजपतराय तथा देवतास्वरूप भाई परमानन्द , स्वामी स्वतंत्रानन्द , स्वामी आत्मानन्द , स्वामी दर्शनानन्द , स्वामी श्रद्धानन्द , पंडित लेखराम आदि आर्यनेताओं ने भी हरयाणाप्रति का विशेष ध्यान रखा। इन सबकी कृपा से प्रोफेसर रामसिंह एम.ए. , पंडित हरिश्चन्द्र विद्यालंकार , पंडित प्रियव्रत वेदवाचस्पति , पंडित समरसिंह वेदालंकार , पंडित व्यासदेव शास्त्रार्थमहारथी आदि अनेक प्रकाण्ड पंडित और विद्वान् हरयाणा से आर्यसमाज को मिले। हजारों अध्यापक , शास्त्री , आचार्य , उपदेशक , सुधारक राष्ट्रीयशिक्षा के प्रचार के रूप में हरयाणा में उत्पन्न हुए। जितने भी सुशिक्षित पढ़े - लिखे समाजसुधारक राजनैतिक नेता हमारे से पहली पीढ़ी में हुए उनमें से अधिकतर सब आर्यसमाज की देन हैं। हरयाणा में जो शिक्षासंबंधी धार्मिक और राष्ट्रीयजागृति हुई , उसका भी सबसे अधिक श्रेय आर्यसमाज को है।
राष्ट्रवादी महर्षि दयानन्द के राष्ट्रीयशिक्षा के रंग में रंगे हुए शिष्य देश - विदेश , द्वीप - द्वीपान्तरों में जहां कहीं भी गए , सर्वत्र हलचल मचगई और राष्ट्रीयशिक्षा का प्रचार और प्रसार किया । मारिशस - अफ्रीका , फिजी - इण्डोनेशिया , ब्रिटिश , गयाना , कनाडा आदि देशों में सर्वत्र वेद धर्म और भारतीयसंस्कृति के प्रचार का श्रेय आर्यसमाज को ही है। अब किन्हीं कारणों से कहीं - कहीं प्रचारकार्य में शिथिलता आई दिखाई देती है।
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