दलितों के महान उद्धारक: मास्टर आत्माराम अमृतसरी
डॉ विवेक आर्य
मास्टर आत्माराम अमृतसरी का नाम आपने दलितों के उद्धारक के रूप में शायद ही सुना होगा। कारण दलित मुद्दों पर राजनीति करने वालों को उनके नाम से वोट नहीं मिलते। इसलिए दलित साहित्य, लेखन, प्रकाशन आदि से उनका नाम नदारद हैं। यहाँ तक की कभी उनके नाम पर किसी दलित चेयर से किसी विश्वविद्यालय में कोई गोष्ठी तक होती नहीं सुनी जाती। जबकि जिन लोगों का तुच्छ सा योगदान था उनका महिमा मंडन बढ़ा चढ़ा कर किया जाता हैं। आत्माराम अमृतसरी कौन थे? आपका जन्म अमृतसर में 1866 को हुआ था। आपके पिता जी संपन्न तहसीलदार थे। दसवीं कर आप लाहौर चले गए। वही आपका परिचय पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी से हुआ था। विद्यार्थी जी ने कहा कि जाति लिखना रूढ़ि है। यह गुण कर्म का बोधक नहीं है। उन्हीं के प्रभाव से आपने अपने गोत्र 'महेश्वरी' को हटाकर उसके स्थान पर अमृतसरी कर दिया था। 1891 में आपको सरकारी नौकरी का प्रस्ताव आया तो वह भी आपने गुरुदत्त जी के प्रभाव से अस्वीकार कर आर्य संस्थाओं में नौकरी करना स्वीकार किया।
बरोडा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ आर्य विचारधारा के नरेश थे। आप स्वामी दयानन्द के क्रांतिकारी चिंतन से प्रेरित होकर दलितों के उद्धार के लिए प्रयासरत रहते थे। गुजरात के कट्टरपंथियों के कारण आपको सफलता नहीं मिल रही थी। इसलिए आपने स्वामी नित्यानंद को बरोडा प्रवास के समय किसी योग्य व्यक्ति को बरोडा भेजने के लिए आवेदन किया। आपने कहा कि 'मैं चाहता हूँ कि मेरे राज्य में एक भी अछूत न रहे परन्तु यहाँ की ऊँची जाति वाले इसमें सहयोग नहीं देते और ये ईसाई और मुसलमान बनते जा रहे हैं। मुझे ऐसा हिन्दू उच्च जाति का कोई नहीं मिलता जो इनमें काम करे। पर धर्मी तो काम धर्म परिवर्तन के लिए ही करते है।' स्वामी जी ने महाराज को आश्वासन दिया और पंजाब जाकर मास्टर आत्माराम जी को योग्य समझकर बरोडा जाने की सलाह दी और सयाजी को सहमति मिलने पर सूचित कर दिया। लाहौर में मास्टर जी का भाषण महाराज ने सुन रखा था और उनसे प्रभावित भी थे। सितम्बर 1909 में मास्टर जी पत्नी के संग पंजाब से चलकर बरोडा पहुंच गए। मास्टर जी पंजाब में रहतियों की शुद्धि कर चुके थे। रहतियें कहने को सिख थे मगर अछूत समझे जाते थे। आर्यसमाज ने जब उन्हें शुद्ध किया तो मास्टर से सबसे आगे बढ़कर उनके हाथ से जल ग्रहण करने वाले थे। मास्टर जी की बिरादरी ने उनका इस कारण से बहिष्कार भी कर दिया था पर वे अडिग रहे। जीवन के आरम्भ काल से ही शुद्धि का काम, अछूतोद्धार, विधवा विवाह तथा सामाजिक कुरीतियों का प्रतिवाद उनके जीवन का महत्वपूर्ण अंग था। इसीलिए आपने अपनी संतानों के विवाह सम्बन्ध भी बिरादरी के बाहर किये।
आपको बरोडा में अन्त्यजों (दलितों) के लिये आश्रम और पाठशालाएं खोलने का कार्य मिला। आप गुजरात में नये थे। यहाँ के रहन सहन, रीति रिवाज, भाषा से अनभिज्ञ और आपको काम मिला अनेक वर्षों से पीड़ित और दबाई जा रहे समाज के अंग का पुनरुद्धार। यह कार्य बरोडा के शहर में नहीं अपितु ग्रामों में करना था। जहाँ पर निरक्षरता और सामाजिक पतन शहरों से अधिक होता हैं। स्वामी दयानन्द का यह शिष्य बिना निराशा के अपने कार्यों में लग गया। कार्य करते समय लोग इन्हें ढेढों (दलितों) के मास्टर आये अत: छुआछूत सरकारी धर्मशाला में भी ठहरने नहीं देते थे। इनके कर्मचारियों को कुएँ से पानी नहीं भरने देते थे। इन पर पत्थर फेंके जाते और कोई इनसे व्यवहार नहीं करता था। इतनी परेशानियों के बाद भी आपने महाराज से कभी इसकी शिकायत नहीं की क्योंकि आप बंजर भूमि को सींचने आये थे। बरोडा में आपने आश्रम जहाँ खोला था पहले वह स्थान भूतियाँ बंगले के नाम से प्रसिद्ध था। कोई इस स्थान पर जाता नहीं था। इसलिए मास्टर जी ने इसी स्थान पर आश्रम खोलने का विचार बनाया।
पुरुषार्थ से मास्टर जी ने राज्य में चार बड़े आश्रम और 300 शालाएं खोली। आप स्वयं बरोडा स्थित आश्रम के सुपरिटेंडेंट और 300 शालाओं के 'एजुकेशनल इंस्पेक्टर फॉर डिप्रेस्ड क्लास' नियुक्त हुए। आप इनमें पढ़ने वाले दलित बालकों द्वारा माता जी और पिताजी के नाम से सम्बोधित किये जाते थे। छोटे-बड़े, ऊंच-नीच सभी यह अनुभव करते थे कि पंडित जी की उनके प्रति अगाध सहानुभूति है। सयाजीराव ने अपनी पाठशालाओं में हिंदी को अनिवार्य किया था। यह उनका राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम था। मास्टर जी के प्रेम से बालकों ने गुजराती भाषी होते हुए भी जल्दी ही हिंदी को अपना लिया।
मास्टर जी द्वारा खोले गए अत्यंज वसतिगृह में मुख्य रूप से जुलाहे समाज के बच्चे बड़ी संख्या में प्रविष्ट हुए थे। कुछ वर्षों के पश्चात एक भंगी कहलाने वाले समाज की कन्या प्रविष्ट हुई। इसका ऐसा प्रभाव और परिणाम हुआ कि सब छात्र-छात्राओं तथा रसोइयों ने विरोध किया और खाना बंद कर दिया। मास्टर जी उनके ऐसे रवैये को देखकर तनिक भी विचलित नहीं हुए और उस कन्या को अपने घर में रख लिया। फिर उन्हें समझाया कि स्वच्छता मनुष्य के अछूतपन को दूर करती है। किसी के माथे पर जन्म से ऊंच-नीच का भेदभाव या जाति लिखी नहीं आती। उनकी पाठशालाओं में सभी सेवक अछूत समाज से ही होते थे।
प्रभु भक्ति, नित्य संध्या, हवन प्रार्थना, भजन आदि आपके जीवन के अभिन्न अंग थे। इसलिए आपने इनको दलित बालकों में खूब प्रचारित किया। जब लोग यह मानते थे कि स्त्री और शूद्र वेद मंत्र न पढ़े , न सुने और न ही बोले तब आपने दलित लड़के-लड़कियों को वेद मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण और गीता पाठ सिखाया। बड़े-बड़े विद्वान, सनातनी पंडित उच्चारण सुनकर दंग रह जाते थे। आपकी संतान भी आपके समान दलितों के उद्धार कार्य में लगी। आपके अनेक दलित शिष्य पढ़कर बड़े बड़े पदों पर आसीन हुए। स्वयं महात्मा गाँधी ने बरोडा स्थित अत्यंज वसतिगृह को जब देखा तो उनके कार्यक्रम में दलितोद्धार शामिल हो गया। मास्टर जी को महाराज ने पहले 'पंडितजी', फिर 'राज्यरत्न' और बाद मैं 'राजमित्र' की उपाधि से सम्मानित किया था।
महाराजा छत्रपति शाहू कोहलापुर बरोडा के महाराज के सम्बन्धी थे। जब आप बरोडा आये तो मास्टर जी के कार्यों को देखा तो उन्हें कोहलापुर आमंत्रित किया। महाराज ने आपको धर्मगुरु माना। आपने कोहलापुर जाकर आर्यसमाज की संस्थाएं खोली एवं वहां के स्कूल और कॉलेज में वैदिक धर्म शिक्षा को प्रविष्ट करा राजाराम कॉलेज को आर्यसमाज को हस्तगत करा के वापिस बरोडा में प्रवेश किया।
एक बार बरोडा के विद्याधिकारी एक अंग्रेज नियुक्त हो गए। आपको शिकायत मिली कि पंडितजी गाँवों में इंस्पेक्शन करने जाते हैं, तब आर्यसमाज का भी प्रचार करते हैं और ईसाईयों तथा मुसलमानों का विरोध करते हैं। विद्याधिकारी ने पंडित जी को मना किया तो पंडित जी ने कहा आप भी तो सरकारी नौकर होते हुए हर रविवार को चर्च में जाते हैं। अंग्रेज ने कहा कि मैं प्रचार नहीं करता। पंडित जी ने उत्तर दिया कि मैं भी तो रविवार को जिस गांव में होता हूँ वहां आर्यसमाज का सत्संग कर लेता हूँ।
एक बार बरोडा नरेश ने बिना सुचना दिए प्रो. शिंदे को अत्यंज वसतिगृह देखने भेज दिया। यहाँ की उत्तम व्यवस्था, साफ सफाई और रसोई घर देखकर आप चकित हो गए। आपने जाकर देखा कि हरिजनों के बच्चें वेदमंत्र और शुद्ध गायत्री पाठ सुनकर प्रसन्न हो गए। आपने महाराज को लौटकर कहा कि,' आपका अंतज्यों के उद्धार का स्वप्न पूरा हो रहा है। " ऐसे ही संत निहालचंद, सेठ घनश्याम दास बिड़ला महात्मा गाँधी आदि इनके प्रशंसक थे।
मास्टर जी ने जो सेवा दलितों की गुजरात की धरती पर की उसका दूसरा उदाहरण हमें नहीं मिलता। खेद है कि उनका नाम विस्मृत कर दिया गया।
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