Tuesday, February 12, 2019

इस्लाम के सम्बन्ध में हमारी शंकाएं



इस्लाम के सम्बन्ध में हमारी शंकाएं

-आर्यवीर (पूर्वनाम-मुहम्मद अली)

“Let us visit the mosque, see live namaz (prayer) and understand Islam" अहमदाबाद की एक मस्जिद ने गैर मुसलमानों से यह आग्रह किया है कि आप मस्जिद आईये और इस्लाम के विषय में जानकारी प्राप्त कीजिये। उनका मानना है कि इस्लाम के विषय में गैर मुसलमानों में भ्रांतियां बहुत अधिक हैं। उन्हें दूर करने के लिए मस्जिदों के माध्यम से विचारों के आदान-प्रदान की अत्यंत आवश्यकता है। विभिन्न मत-मतान्तर में परस्पर संवाद बहुत अच्छी परम्परा हैं। यह वस्तुत: प्राचीन दर्शन है।  जहाँ पर विद्वान् आपस में शास्त्र चर्चा के माध्यम से सत्य विचारों का समर्थन और असत्य का असमर्थन करते थे। जबकि इस्लामिक परिपाटी में मज़हब के मामले में अक्ल का दख़ल नहीं जैसे विचारों को प्रमुखता दी गई है। आधुनिक भारत में परस्पर संवाद को स्थापित करने का श्रेय स्वामी दयानन्द को जाता है। जिन्होंने अपने जीवन में अनेक हिन्दू पंडितों, मुसलिम विचारकों और मौलानाओं, ईसाई पादरियों से उन्हीं के धर्म/मत विशेष की पुस्तकों पर वेदों की मान्यताओं के आधार पर संवाद किया। स्वामी जी ऐसा करते हुए स्पष्ट रूप से सत्यार्थ प्रकाश में घोषणा करते है कि

-"मैं पुराण, जैनियों की पुस्तकों, बाइबिल व क़ुरान को पहले ही से कुदृष्टि से न देखकर उनके सद्गुणों को स्वीकार वह दुर्गुणों का परित्याग करता हूँ।" 

-मेरी किसी नूतन विचार या मत को प्रवर्तन करने की तनिक भी इच्छा नहीं है।  अपितु जो सत्य है उसको मानना व मनवाना और जो जुठ है उसको छोड़ना वह छुड़वाना मेरा उद्देश्य है।

-जब तक मनुष्य सत्य-असत्य के विचार में कुछ भी सामर्थ्य नहीं बढ़ाते तब तक स्थूल और सूक्षम खण्डनों के अभिप्राय को नहीं समझ सकते।

-जो विभिन्न मत-मतान्तरों के परस्पर विरोधी विवाद हैं उनको मैं पसंद नहीं करता, क्यूंकि इन्हीं मतवादियों ने अपने मतों का प्रचार करके वह लोगों को उनमें फंसाकर एक दूसरे का शत्रु बना दिया है।

- ऐसे ही अपने अपनी मत-मतान्तरों के सम्बन्ध में सब कहते हैं कि हमारा ही मत सच्चा है, शेष सब बुरे हैं। हमारे मत द्वारा ही मुक्ति मिल सकती है. अन्यों के द्वारा नहीं हो सकती। ....हम तो यही मानते हैं कि सत्यभाषण, अहिंसा, दया आदि शुभगुण सब मतों में अच्छे हैं और शेष झगड़ा बखेड़ा ईर्ष्या, घृणा, मिथ्याभाषण आदि कर्म सभी मतों में बुरे हैं। यदि तुमको सत्य धर्म स्वीकार करने की इच्छा हो तो वैदिक धर्म को ग्रहण करो।

हम भी अपने मुसलमान भाईयों से प्रार्थना करेंगे कि वे स्वामी दयानन्द द्वारा सत्यार्थ प्रकाश के 14 वे समुल्लास में इस्लाम की मान्यताओं पर उठाई गई शंकाओं का समाधान करें। तभी उनकी इस मुहीम को सार्थक प्रयास कहा जायेगा। यह शंकाएं पिछले 130 वर्षों से लंबित हैं।

1. इस्लाम में खुदा को दयालु बताया गया है जबकि व्यवहार में ऐसा नहीं दीखता। देखें-

क़ुरान -सब स्तुति परमेश्वर के वास्ते हैं जो परवरदिगार अर्थात् पालन करनेहारा है सब संसार का।। क्षमा करने वाला दयालु है ।।
-मं० १। सि० १। सूरतुल्फातिहा आयत १। २।।

स्वामी दयानन्द इसकी समीक्षा करते हुए लिखते है- जो कुरान का खुदा संसार का पालन करने हारा होता और सब पर क्षमा और दया करता होता तो अन्य मत वाले और पशु आदि को भी मुसलमानों के हाथ से मरवाने का हुक्म न देता । जो क्षमा करनेहारा है तो क्या पापियों पर भी क्षमा करेगा ? और जो वैसा है तो आगे लिखेंगे कि "काफिरों को कतल करो" अर्थात् जो कुरान और पैगम्बर को न मानें वे काफिर हैं ऐसा क्यों कहता ? इसलिये कुरान ईश्वरकृत नहीं दीखता।

2. ईश्वर का कार्य क्या दिलों के रोगों को बढ़ाना है ? नहीं। फिर क़ुरान का खुदा ऐसा क्यों करता है? देखें-

क़ुरान-उनके दिलों में रोग है, अल्लाह ने उन का रोग बढ़ा दिया।।-मं० १। सि० १। सू० २। आ० १०।।

(समीक्षक) भला विना अपराध खुदा ने उन का रोग बढ़ाया, दया न आई, उन बिचारों को बड़ा दुःख हुआ होगा! क्या यह शैतान से बढ़कर शैतानपन का काम नहीं है? किसी के मन पर मोहर लगाना, किसी का रोग बढ़ाना, यह खुदा का काम नहीं हो सकता क्योंकि रोग का बढ़ना अपने पापों से है।।

3. इस्लाम की बहिश्त में ऐसा क्या विशेष था जो पृथ्वी पर नहीं है। देखें-

क़ुरान-और आनन्द का सन्देशा दे उन लोगों को कि ईमान लाए और काम किए अच्छे। यह कि उन के वास्ते बहिश्तें हैं जिन के नीचे से चलती हैं नहरें। जब उन में से मेवों के भोजन दिये जावेंगे तब कहेंगे कि यह वो वस्तु हैं जो हम पहिले इस से दिये गये थे—— और उन के लिये पवित्र बीवियाँ सदैव वहाँ रहने वाली हैं।। -मं० १। सि० १। सू० २। आ० २५।।

(समीक्षक) भला! यह कुरान का बहिश्त संसार से कौन सी उत्तम बात वाला है ? क्योंकि जो पदार्थ संसार में हैं वे ही मुसलमानों के स्वर्ग में हैं और इतना विशेष है कि यहाँ जैसे पुरुष जन्मते मरते और आते जाते हैं उसी प्रकार स्वर्ग में नहीं। किन्तु यहाँ की स्त्रियाँ सदा नहीं रहतीं और वहाँ बीवियाँ अर्थात् उत्तम स्त्रियाँ सदा काल रहती हैं तो जब तक कयामत की रात न आवेगी तब तक उन बिचारियों के दिन कैसे कटते होंगे ? हां जो खुदा की उन पर कृपा होती होगी! और खुदा ही के आश्रय समय काटती होंगी तो ठीक है।

4. शैतान मनुष्यों को बहका कर काफ़िर बनाता है। ऐसा इस्लामिक मान्यता है। खुदा अगर सर्वज्ञ है तो फिर उसने फरिश्ते को आदम के समक्ष सजदा करने का हुकुम क्यों दिया। क्या वह नहीं जानता था की फरिश्ता सजदा  नहीं करेगा और अवमानना करेगा। देखें-

क़ुरान-जब हमने फरिश्तों से कहा कि बाबा आदम को दण्डवत् करो, देखा सभों ने दण्डवत् किया परन्तु शैतान ने न माना और अभिमान किया क्योंकि वो भी एक काफिर था।। -मं० १। सि० १। सू० २। आ० ३४।।

(समीक्षक) इस से खुदा सर्वज्ञ नहीं अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान की पूरी बातें नहीं जानता। जो जानता हो तो शैतान को पैदा ही क्यों किया ? और खुदा में कुछ तेज भी नहीं है क्योंकि शैतान ने खुदा का हुक्म ही न माना और खुदा उस का कुछ भी न कर सका। और देखिये! एक शैतान काफिर ने खुदा का भी छक्का छुड़ा दिया तो मुसलमानों के कथनानुसार भिन्न जहाँ क्रोड़ों काफिर हैं वहाँ मुसलमानों के खुदा और मुसलमानों की क्या चल सकती है? कभी-कभी खुदा भी किसी का रोग बढ़ा देता, किसी को गुमराह कर देता है। खुदा ने ये बातें शैतान से सीखी होंगी और शैतान ने खुदा से। क्योंकि विना खुदा के शैतान का उस्ताद और कोई नहीं हो सकता।

5. पाप क्षमा करना पाप को बढ़ाने के समान है। क़ुरान पाप का दंड देने के स्थान पर पाप क्षमा होने की बात करती हैं। देखें-

और कहो कि क्षमा मांगते हैं हम क्षमा करेंगे तुम्हारे पाप और अधिक भलाई करने वालों के।। -मं० १। सि० १। सू० २। आ० ५२।।

(समीक्षक) भला यह खुदा का उपदेश सब को पापी बनाने वाला है वा नहीं? क्योंकि जब पाप क्षमा होने का आश्रय मनुष्यों को मिलता है तब पापों से कोई भी नहीं डरता। इसलिये ऐसा कहने वाला खुदा और यह खुदा का बनाया हुआ पुस्तक नहीं हो सकता क्योंकि वह न्यायकारी है, अन्याय कभी नहीं करता और पाप क्षमा करने में अन्यायकारी हो जाता है किन्तु यथापराध दण्ड ही देने में न्यायकारी हो सकता है।

6. इस्लाम मूर्तिपूजा का विरोध करता है परन्तु क्या काबा को बड़ी मूर्ति क्यों नहीं मानते। देखें-

निश्चय हम तेरे मुख को आसमान में फिरता देखते हैं अवश्य हम तुझे उस किबले को फेरेंगे कि पसन्द करे उस को बस अपना मुख मस्जिदुल्हराम की ओर फेर, जहाँ कहीं तुम हो अपना मुख उस की ओर फेर लो।।-मं० १। सि० २। सू० २। आ० १४४।।

(समीक्षक) क्या यह छोटी बुत्परस्ती है? नहीं बड़ी।

7. क़ुरान में पशुहत्या वर्जित नहीं है।  क्या यह हिंसा नहीं है। देखें-

तुम पर मुर्दार, लोहू और गोश्त सूअर का हराम है और अल्लाह के विना जिस पर कुछ पुकारा जावे।। -मं० १। सि० २। सू० २। आ० १७३।।

(समीक्षक) यहां विचारना चाहिये कि मुर्दा चाहे आप से आप मरे वा किसी के मारने से दोनों बराबर हैं। हां! इन में कुछ भेद भी है तथापि मृतकपन में कुछ भेद नहीं। और जब एक सूअर का निषेध किया तो क्या मनुष्य का मांस खाना उचित है? क्या यह बात अच्छी हो सकती है कि परमेश्वर के नाम पर शत्रु आदि को अत्यन्त दुःख देके प्राणहत्या करनी? इस से ईश्वर का नाम कलंकित हो जाता है। हां! ईश्वर ने विना पूर्वजन्म के अपराध के मुसलमानों के हाथ से दारुण दुःख क्यों दिलाया? क्या उन पर दयालु नहीं है? उन को पुत्रवत् नहीं मानता? जिस वस्तु से अधिक उपकार होवे उन गाय आदि के मारने का निषेध न करना जानो हत्या करा कर खुदा जगत् का हानिकारक है । हिंसारूप पाप से कलंकित भी हो जाता है। ऐसी बातें खुदा और खुदा के पुस्तक की कभी नहीं हो सकतीं।

8. मुसलमान-गैर मुसलमान के चक्कर में क्या इस्लाम ने पूरी दुनिया में हिंसा को बढ़ावा नहीं दिया है? देखें-

अल्लाह के मार्ग में लड़ो उन से जो तुम से लड़ते हैं।। मार डालो तुम उन को जहाँ पाओ, कतल से कुफ्र बुरा है।। यहां तक उन से लड़ो कि कुफ्र न रहे और होवे दीन अल्लाह का।। उन्होंने जितनी जियादती करी तुम पर उतनी ही तुम उन के साथ करो।। -मं० १। सि० २। सू० २। आ० १९०। १९१। १९२। १९३।।

(समीक्षक) जो कुरान में ऐसी बातें न होतीं तो मुसलमान लोग इतना बड़ा अपराध जो कि अन्य मत वालों पर किया है; न करते। और विना अपराधियों को मारना उन पर बड़ा पाप है। जो मुसलमान के मत का ग्रहण न करना है उस को कुफ्र कहते हैं अर्थात् कुफ्र से कतल को मुसलमान लोग अच्छा मानते हैं। अर्थात् जो हमारे दीन को न मानेगा उस को हम कतल करेंगे सो करते ही आये। मजहब पर लड़ते-लड़ते आप ही राज्य आदि से नष्ट हो गये। और उन का मन अन्य मत वालों पर अति कठोर रहता है। क्या चोरी का बदला चोरी है? कि जितना अपराध हमारा चोर आदि चोरी करें क्या हम भी चोरी करें? यह सर्वथा अन्याय की बात है। क्या कोई अज्ञानी हम को गालियां दे क्या हम भी उस को गाली देवें? यह बात न ईश्वर की और न ईश्वर के भक्त विद्वान् की और न ईश्वरोक्त पुस्तक की हो सकती है। यह तो केवल स्वार्थी ज्ञानरहित मनुष्य की है।

इस लेख में हमने केवल 8 शंकाएं प्रस्तुत की है।  स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के 14वें समुल्लास में 160 शंकाओं के माध्यम से इस्लाम मत के सिद्धांतों की समीक्षा की हैं। सभी इच्छुक पाठकों को सत्यार्थ प्रकाश का स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए। हम अपने मुस्लिम भाइयों से जिन्होंने मस्जिद में आने का, नमाज़ देखने का और इस्लाम को समझने का आग्रह किया हैं। इन प्रश्नों का उत्तर देने की प्रार्थना करते हैं। धन्यवाद।  

No comments:

Post a Comment