Saturday, February 16, 2019

योग और योगासन - एक चिन्तन



आर्यों के विमर्श के लिए...
योग और योगासन - एक चिन्तन
आसनों के अत्यधिक महत्त्व से योग का लक्ष्य ही लुप्त हो जाएगा
ये श्रद्धा-स्थल अन्धश्रद्धा-स्थल न बन जाएं
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- आचार्य सत्यदेव विद्यालंकार
आर्य समाज के विद्वानों को प्राचीन साहित्य का तर्क सम्मत तथा ऋषि दयानन्द की धारणाओं के अनुकूल रूप उपस्थित करना होगा। ऐसा न हुआ तो पुरानी रूढ़ियां दूर न हो सकेंगी।
इसी तरह प्राचीन चिन्तन का एक क्षेत्र यज्ञ और योग का भी है।
मैं दूरदर्शन पर योगासन देख रहा था। योगिराज कुछ योगासन और योगमुद्रा का रूप समझा रहे थे, युवा तथा युवती आसन करके दिखा रहे थे। योगिराज ने आसनों द्वारा अनेक शारीरिक रोगों के दूर करने के उपाय समझाए।
आजकल योग एक व्यापक रोग-चिकित्सा पद्धति के रूप में विकसित हो रहा है। अंग्रेजी पढ़े लिखे योग को 'योगा' कहते हैं। कभी-कभी शंका होती है कि यदि योग द्वारा रोगों का उपाय सम्भव है तो स्वामी दयानन्द तो परम योगी थे, उनका इलाज डा० अली मर्दान खान तथा डा० लक्ष्मण दास द्वारा क्यों कराया गया, किसी योगिराज को क्यों न बुला लिया गया। स्वा० स्वतन्त्रानन्द जी की मृत्यु कैंसर रोग से आपरेशन टेबल पर हुई। आनन्द स्वामी जी ने प्रोस्टेट ग्लैंड का आपरेशन करवाया। स्वा० सुधानन्द जी और स्वा० सत्यानन्द जी आदि का देहावसान डाक्टरी इलाज के बाद हुआ।
ऋषि दयानन्द ने 'ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका' के उपासना प्रकरण में पातंजल योग शास्त्र के उद्धरणों से योग के रूप को स्पष्ट किया है। कहीं भी रोग दूर करने की बात नहीं लिखी। योगासन हठयोग की क्रियाओं के अन्तर्गत हैं। ऋषि दयानन्द पातंजल योग शास्त्र को ही प्रमाण मानते हैं। नाथ पन्थ के हठ योग को नहीं।
मैं यह नहीं कहता कि आसनों का लाभ नहीं। केवल इतना कहना है कि आसन एक व्यायाम की विधा है। पर व्यायाम शरीर स्वास्थ्य के लिए उपयोगी है। सब मानते हैं। पर व्यायाम चिकित्सा शास्त्र नहीं बन सकता। आयुर्वेद एक अलग शास्त्र है। उसका क्षेत्र अलग है। रोगों के सैकड़ों भेद हैं। उनका अध्ययन, शरीर का अध्ययन, उपायों का चयन तथा विशाल औषध भण्डार का ज्ञान, ये सब आयुर्वेद के अंग हैं। इनके गहरे ज्ञान के बिना चिकित्सा संभव ही नहीं। केवल आसनों का अभ्यासी रोगों का इलाज कैसे कर सकता है?
पातंजल योग में तो आसन का स्वरूप केवल 'स्थिर सुखमासनम्' ऐसा है। अर्थात् वह ढंग जिससे ठीक मुद्रा में अधिक से देर तक आराम से बैठा जाय। यही उपयोग ऋषि दयानन्द को मान्य है। आसन अष्टांग की एक प्रारम्भिक वस्तु है। उसका इतना महत्त्व नहीं जितना आजकल बताया जाता है। इस महत्त्व से योग का लक्ष्य ही लुप्त हो गया। आजकल तो' योगा' वे भी करते हैं जो नाश्ते में आधा दर्जन अण्डे खाते हैं और खाने में मांस और मदिरा से परहेज नहीं करते, ब्रह्मचर्य का जिनसे नजदीक और दूर का कोई रिश्ता नहीं। क्या यही भारतीय परम्परा है?
पातंजल योग शास्त्र में योग शास्त्र का अर्थ समाधि है।
युज्-समाधौ-दिवादि गणी।
युजिरयोगे-समाधौ-रूधादि गणी।
युज्-संयमने चुरादिगणी।
पहले ही समाधि पाद में ऋषि ने स्पष्ट किया है - चित्त की पांच वृत्तियां हैं। क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। [एकाग्र और निरुद्ध] चित्त वृत्ति के होने पर ही योग सम्भव है। अन्य वृत्तियों में नहीं। कहने का अभिप्राय यह है कि वस्तुतः योग का जो क्षेत्र है आजकल उससे दूर ही बातें हो रही हैं।
मैं यह नहीं कहता कि योग की क्रियाओं से स्वास्थ्य पर प्रभाव नहीं पड़ता। मनुस्मृति में छठे अध्याय में लिखा है - 'प्राणयामैर्दहेद्दोषान् ।' तथा 'तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषा:।' - अर्थात् प्राणायाम से शरीर की धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं - शरीर स्वस्थ होता है। पर यह बात सामान्य स्वास्थ्य के विषय में है। किसी विशेष रोग का यहां उल्लेख नहीं।
आजकल नए योगाचार्य न केवल रोगों की निवृत्ति के लिए ही योग की प्रक्रियाओं को बतलाते हैं, अपितु विषय भोग की सामर्थ्य बढ़ाने के लिए भी योग का उपदेश देते हैं। इसीलिए आजकल योगियों के दर्शन धनवानों अथवा राजनीतिक महत्त्व के लोगों की कोठियों में ही प्रायः होते हैं। पर योग का यह रूप न ऋषि दयानन्द को मान्य है न आर्य समाज को, न शास्त्र को।
मैं कहना चाहता हूं कि -
(1) योग शास्त्र तथा आयुर्वेद विज्ञान दोनों का क्षेत्र बिल्कुल अलग-अलग है। दोनों का लक्ष्य, विचार और कार्य पद्धति भिन्न है।
(2) यह ठीक है कि योग साधना के लिए शरीर स्वस्थ होना चाहिए। यह भी ठीक है कि प्राणायाम आदि की प्रक्रिया द्वारा शरीर के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। यह भी ठीक है कि मानसिक स्थिरता और शान्ति का स्वास्थ्य पर बहुत अच्छा प्रभाव होता है। पर इन सब तथ्यों के होते हुए भी योग साधना आयुर्वेद का स्थान नहीं ले सकती। योग के साधक रोग निदान के सम्बन्ध में वैद्य या डाक्टर का स्थान नहीं ले सकते। प्रयत्न करें भी तो वे असफल होंगे।
(3) आर्य समाज तथा ऋषि दयानन्द की दृष्टि से 'पातंजल योग शास्त्र' ही योग का प्रामाणिक ग्रन्थ है।
(4) विविध आसन योग के अंग नहीं व्यायाम की भिन्न-भिन्न पद्धतियों का एक भाग हैं। इनकी उपयोगिता उसी दृष्टि से जांचनी चाहिए।
(5) योग का अर्थ ही चित्त वृत्तियों को निरोधावस्था में जाना है। इसी से योग सम्बन्धी विचार को मुख्यता देनी चाहिए। शारीरिक कमी के लिए तो प्रत्येक प्राणी को आयुर्वेद का आश्रय लेना ही पड़ता है।
यज्ञ, योग तथा वेद - ये तीन आर्य समाज के मुख्य श्रद्धा स्थल हैं। इनका विवेचन इसलिए आवश्यक है कि ये श्रद्धा स्थल अन्ध श्रद्धा स्थल न बन जायें। तर्क संगत श्रद्धा स्थल रहें। नहीं तो ऋषि दयानन्द का सनातन वैदिक धर्म परिष्कार सम्बन्धी सारा प्रयत्न निष्फल हो जायेगा।
[स्रोत : टंकारा आकर्षण - आध्यात्मिक अनुभव, पृ. 60-62, 1995 संस्करण, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]

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