यह कैसा सेक्यूलरिज्म है?
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भारतीय संविधान इस अर्थ में अटपटा बना दिया गया है कि इसका एक आधारभूत सिद्धांत ‘सेक्यूलरिज्म’ नितांत अस्पष्ट है। प्रथम पृष्ठ पर यह शब्द लिख कर संविधान में जोड़ दिया गया, किन्तु कहीं परिभाषित नहीं किया गया। न अलग से कोई कानून बनाकर, न सुप्रीम कोर्ट के किसी निर्णय में इसका कोई स्पष्ट अर्थ दिया गया है। सबसे लाक्षणिक बात तो यह कि इसे पारिभाषित करने के प्रयास को भी बाधित किया जाता है। नेतागण, सुप्रीम कोर्ट और प्रभावी बुद्धिजीवी वर्ग सब ने इसे अस्पष्ट रहने देने की सिफारिश की है। यह सामान्य बात नहीं, क्योंकि इसी के सहारे भारत में एक विशेष प्रकार ही राजनीति का दबदबा बना, जिसकी धार हिन्दू-विरोधी है। और इसी को कवच बनाकर देश-विदेश की भारत-विरोधी शक्तियाँ भी अपने कारोबार करती हैं।
ध्यान देने पर यह किसी को भी दिख सकता है। कुछ पहले मधु किश्वर ने तवलीन सिंह (दोनों प्रसिद्ध पत्रकार) का ध्यान इस बात पर आकृष्ट कराया कि विचार-विमर्श में "हिंदू" शब्द केवल गाली के रूप में इस्तेमाल हो रहा है। तवलीन जी ने ध्यान देना शुरू किया और पाया कि बात सच है। उन्हें स्थिति ऐसी गंभीर लगी कि सेक्यूलरिज्म ‘हिंदू सभ्यता के विरुद्ध चुनौती’ बन गया है। भारतीय सभ्यता अपने उत्कर्ष पर हिंदू सभ्यता ही थी, जिसने संपूर्ण विश्व को गणित से लेकर दर्शन, धर्म, साहित्य और विज्ञान तक हर क्षेत्र में अनमोल उपहार दिए, किंतु आज भारत में यह बात कहना "हिंदू सांप्रदायिकता" है। इसीलिए किसी पाठ्य-पुस्तक में ऐसी बातों का संकेत भी अवांछित है। विश्व-प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वेबर "भगवतगीता" को नैतिक राजनीति का विश्व में एकमात्र ग्रंथ कह सकते थे, किंतु कोई भारतीय आज यह लिखे तो उसे ‘भगवा लेखक’ बताकर अपमानित किया जाता है। अतः सेक्यूलरिज्म को हिंदू-विरोध का दूसरा नाम कहकर तवलीन जी ने कड़वी सच्चाई बयान की थी।
सच पूछें तो ऐसे प्रसंग हमारे देश के बौद्धिक वातावरण पर एक टिप्पणी है कि किस तरह एक विकृत मतवाद ने लोगों को इतना दिग्भ्रमित कर दिया है कि वे देखकर भी नहीं देख पाते। अन्यथा तवलीन सिंह को यह समझने में इतने दशक न लगे होते। प्रसिद्ध इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार ने 1965 में ही स्पष्ट देखा था कि, “इस देश में "मुस्लिम संस्कृति" और "भारतीय संस्कृति" की चर्चा की जा सकती है, मगर "हिंदू संस्कृति" की नहीं। हिंदू शब्द केवल नकारात्मक अर्थों में प्रयोग किया जाता है”। याद रहे, यह तब की बात है जब न राम-जन्मभूमि आंदोलन था, न विश्व-हिंदू परिषद थी, मगर तब भी ‘हिंदू’ शब्द का प्रयोग पोंगापांथी, सांप्रदायिक, फासिस्ट संदर्भ में ही होता था। चार दशक में आज वह ‘विष’ भी बन गया, जिससे विवध पुस्तकों, पदों, संस्थानों को मुक्त करने का ‘डि-टॉक्सिफिकेशन’ चलाना पड़ता है!!
दुनिया के सबसे बड़े हिन्दू देश में हिन्दू-विरोध ही बौद्धिकता की कसौटी कैसे बन गया! यह सोचने की बात है। आरंभ यह जैसे भी हुआ, किन्तु दिनों-दिन इसकी बढ़त अपरिभाषित सेक्यूलरिज्म के कारण ही हुई। इसी से संभव होता है कि एक समुदाय के मजहबी शिक्षा-संस्थानों को भी अनुदान, सम्मान, पहचान मिले, जबकि दूसरे को अपनी औपचारिक शिक्षा में महान दार्शनिक ग्रंथों को भी पढ़ने की अनुमति न दी जाए। अपरिभाषित सेक्यूलरिज्म के डंडे से ही हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जा कर लिया जाता है, जबकि मस्जिदों, गिरजाघरों को संबंधित समुदाय को मनमर्जी से चलाने के लिए छोड़ दिया जाता है। इतना ही नहीं, कई बड़े हिन्दू मंदिरों की आमदनी से दूसरे समुदाय की हज यात्रा को करोड़ों का अनुदान दिया जाता है (कर्नाटक, आंध्र)।
यहाँ अवैध धर्मांतरण कराने वाले विदेशी ईसाई को राष्ट्रीय सम्मान दिया जाता है, जबकि अपने धर्म में रहने या वापस आने की अपील करने वाले हिंदू समाजसेवी को सांप्रदायिक कहकर लांछित किया जाता है। अप्रमाणित आरोप पर भी एक शंकराचार्य दीवाली के दिन गिरफ्तार कर अपमानित किए जाते हैं, जबकि मौलवियों-इमामों को देश-द्रोही बयान देने, संरक्षित पशुओं को अवैध रूप से अपने घर में लाकर बंद रखने, न्यायालयों की उपेक्षा करने पर भी छुआ तक नहीं जाता। उल्टे राजनीतिक निर्णयों में उन्हें विश्वास में लेकर उनकी शक्ति बढ़ा दी जाती है। भयंकर आतंकवादी तक ‘लादेन जी’ का सम्मानित संबोधन पाता है, जबकि लब्ध प्रतिष्ठित योगाचार्य को ‘रामदेव ठग’ कहा जाता है।
यदि सेक्यूलरिज्म वैधानिक रूप से परिभाषित हो गया तो यह सभी राजनीतिक मनमानियाँ और वैचारिक गुंडागर्दी नहीं हो सकेगी। इस सेक्यूलरिज्म की अस्पष्टता का ही करिश्मा है कि शिक्षा, संस्कृति और राजनीति – हर क्षेत्र में भारत में अन्य समुदायों को हिंदुओं से अधिक अधिकार मिले हुए हैं। इस अत्याचार पर जानकार हिंदू कसमसाते हैं, पर कुछ कर नहीं पाते, क्योंकि उन पर यह जुल्म हिंदू कुल में जन्मे, किंतु सेक्यूलरिज्म में दीक्षित हो गए नेता व बुद्धिजीवी ही करते रहे हैं, कोई और नहीं।
कहने को अभी देश में सेक्यूलरिज्म की कम से कम चार परिभाषाएं हैं, यद्यपि कोई वास्तविक नहीं। विभिन्न लोग इच्छानुसार इनका उपयोग करते हैं। एक परिभाषा 1973 में न्यायाधीश एच. आर. खन्ना ने दी कि “राज्य मजहब के आधार पर किसी नागरिक के विरुद्ध पक्षपात नहीं करेगा”। कुछ बाद दूसरी परिभाषा कांग्रेस पार्टी ने दी, “सर्वधर्म समभाव”। तीसरी परिभाषा भाजपा की, “न्याय सबको, पक्षपात किसी के साथ नहीं”। चौथी एक टिप्पणी है, किंतु सुप्रीम कोर्ट के पूर्व-मुख्य न्यायाधीश एम. एन. वेंकटचलैया की होने के कारण इसका महत्व है। इनके अनुसार, “सेक्यूलरिज्म का अर्थ बहुसंख्यक समुदाय के विरुद्ध नहीं हो सकता”। यह टिप्पणी प्रकारांतर स्वीकारती है कि व्यवहार में इसका यही अर्थ हो गया है। यहाँ याद करें कि स्वयं संविधान निर्माता डॉ. अंबेदकर ने भारतीय संविधान को सेक्यूलर नहीं माना था क्योंकि “यह विभिन्न समुदायों के बीच भेद-भाव करती है”।
उपर्युक्त परिभाषाओं में सबसे विचित्र बात यही है कि इनमें से किसी को वैधानिक रूप नहीं दिया गया। कांग्रेस ने 1976 में इमरजेंसी के दौरान 42वाँ संशोधन करके संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्यूलर’ शब्द जबरन जोड़ दिया, किंतु बिना कोई अर्थ दिए। जबरन इस रूप में कि तब विपक्ष जेल में डाला हुआ था और प्रेस पर अंकुश था। बाद में आई जनता सरकार ने 1978 में 45वें संशोधन द्वारा कांग्रेस वाली परिभाषा को ही वैधानिक रूप देने की कोशिश की। लोकसभा में यह पारित भी हो गया। पर राज्यसभा में कांगेस ने ही इसे पारित नहीं होने दिया!
यह इसका पक्का प्रमाण था कि संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्यूलर’ शब्द गर्हित उद्देश्य से जोड़ा गया था। इसीलिए उसे जान-बूझ कर अपरिभाषित रखा गया, ताकि जब जैसे चाहे, दुरुपयोग किया जाए। यह अन्याय सुप्रीम कोर्ट ने भी दूर नहीं किया। उलटे 1992 में ‘एस. आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार’ वाले निर्णय में इसने लिख डाला कि सेक्यूलरिज्म लचीला शब्द है, जिसका अपरिभाषित रहना ही ठीक है। जबकि ऐसा कहना कानून की धारणा के ही विरुद्ध है। कानून का अर्थ ही निश्चित रूप से लागू होने वाला आदेश होता है। पर जो स्पष्ट ही नहीं, वह मनमानी के सिवा और लागू कैसे होता? [विस्तार से जानने के लिए देखें, इस लेखक की पुस्तक ‘भारत में प्रचलित सेक्यूलरवाद’, अक्षय प्रकाशन, दिल्ली]
दुर्भाग्य से राष्ट्रीय चेतना वाले लोगों ने न तो 1978 में, न बाद में कभी इस गड़बड़ी के विरुद्ध कोई आंदोलन चलाना आवश्यक समझा। वे अपरिभाषित सेक्यूलरिज्म के दूरगामी घातक परिणामों को समझने में विफल रहे। जिस भाजपा को ‘स्यूडो-सेक्यूलरिज्म’ के विरुद्ध लंबे समय से शिकायत थी, उसने भी अपने शासन काल (1998-2004) में सेक्यूलरिज्म को परिभाषित करने पर कोई विचार तक नहीं किया। उल्टे वह ‘हम भी सेक्यूलर’ की होड़ में लग गई, अन्यथा उसने इसे कानूनी रूप से परिभाषित करना-करवाना अपना प्रधान कर्तव्य समझा होता। पर हिंदू समुदाय के गले में फंदे की तरह पड़े इस अस्पष्ट सेक्यूलरिज्म को परिभाषित करने की जरूरत पर उनके हाथ-पैर भी ठंढे हो गए। यह चिर-परिचित हिंदू भीरुता थी। इसी कारण "स्यूडो-सेक्यूलरिज्म" के खिलाफ रोने-धोने वाले नेताओं को इस ‘स्यूडो’ को ‘रीयल’ रूप देने का साहस न हुआ। इसीका प्रमाण था कि संविधान कार्यचालन की समीक्षा का आयोग तो बनाया गया, किंतु उसने भी इस पर कोई अनुशंसा नहीं दी। यह भी हिंदू महानुभावों पर लाक्षणिक टिप्पणी ही है कि इस आयोग के अध्यक्ष वही न्यायमूर्ति एम. एन. वेंकटचलैया थे। स्पष्टतः उन्होंने भी सेक्यूलरिज्म को ‘बहुसंख्या के विरुद्ध प्रयोग किए जाने’ के चलन को रोकने के लिए कुछ करना आवश्यक नहीं समझा!
यह मानना गलत है कि सेक्यूलरिज्म को परिभाषित करने का विधेयक संसद से पास नहीं होता या नहीं होगा। ऐसा विधेयक आने पर उसका विरोध करने पर भी जो राष्ट्र-व्यापी बहस होगी, उसी में उस की बड़ी सफलता निश्चित है। भारतीय जनता – हिंदू, मुस्लिम दोनों – ही यह देखेगी कि अपरिभाषित सेक्यूलरिज्म राजनीतिक दुष्टताओं की जड़ है। जिस चीज को संविधान और शासन का आधारभूत सिद्धांत कहा जाता है, उसे परिभाषित होने से किस आधार पर रोका जाएगा? एक अर्थ पसंद नहीं तो दूसरा सही, पर कोई पक्का, वैधानिक अर्थ तो होना ही चाहिए। इस से हीला-हवाला करने पर लोगों को समझने में कठिनाई नहीं होगी कि सेक्यूलरिज्म को अपरिभाषित रखना विभिन्न समुदायों के बीच दूरी को बनाए रखने का औजार है। इसलिए यदि सेक्यूलरिज्म को परिभाषित करने का गंभीर प्रयास हो तो इसका कोई न कोई कानूनी अर्थ तय करवाना बिलकुल संभव है। यदि प्रयास शुरू में विफल भी हो तब भी उस पर राष्ट्रीय बहस भारतीय समाज को जागृत करेगा।
लेखक : डॉ. शंकर शरण
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