Wednesday, February 6, 2019

स्वामी ओमानंद (आचार्य भगवान देव) एक निर्भीक सन्यासी



स्वामी ओमानंद (आचार्य भगवान देव) एक निर्भीक सन्यासी



हरियाणा प्रदेश का गौरव मुगलों व अंग़्रेजों के समय भी वैसा था जैसा की आज, वो सिर्फ यहां के रण बांकुरों की वजह से, पाखंड का चुहूं ओर बोलबाला था। स्वामी दयानंद सरस्वती जी के रुप में इस गुलाम भारत को स्वराज्य का नारा देने वाला एक फरिश्ता मिला। वही फरिश्ता एक वेद रुपी चमक का दीपक लेकर हरियाणा प्रदेश में लोगों को पाखंड से छुटकारा दिला गया। वैसे यहां का इतिहास बयां करता है कभी यहां पर आर्यों का राज व बोलबाला था।

स्वामी दयानंद सरस्वती जी की बातों का यहां के लोगों काफी हद तक अनुसरण किया। ओर हरियाणा में ऋषि के दिवानों की लाइन लग गई। उन सब का जिक्र तो नहीं करेगें केवल एक का जिक्र करते हैं। "हरियाणा प्रदेश के निर्माता आचार्य भगवान देव"

आचार्य भगवान देव जी का जन्म नरेला दिल्ली में चौधरी कनक सिंह जी के घर सन् 22मार्च 1911 को हूआ। घर परिवार में सब प्यार से भानु कहते थे। किसको पता था अागे चलकर यही भानु (सूर्य) के समान देदीप्यमान तेजस्वी बनकर संसार को चमत्कृत करेगा। इसी भानु व भगवान देव जी ने गुरुकुल अध्ययन काल में ब्रह्मचारी भगवान देव नाम से प्रसिद्धि पाई।

चौ० कनकसिंह जी आर्य समाज से प्रभावित थे, पुनरपि उस समय की प्रचलित प्रथा के अनुसार अपने पुत्र भानु का विवाह सात आठ वर्ष की आयु में ही बादली (झज्झर) निवासी प्रतिष्ठित किसान चौ०भरत सिंह गुलिया की पुत्री सरुपा से कर दिया। तब सरुपा भी इतने वर्ष की थी। सन् १९३६में आर्य समाज नरेला के वार्षिक उत्सव पर भगवान सिंह ने बाल्यकाल के विवाह संबंध को नकारते हुए आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत धारण कर लिया। और कभी ग्रहस्थी नही बने।

ब्रह्मचर्य से सीधा सन्यास लेकर स्वामी ओमानंद सरस्वती बन गये। स्वामी दयानंद जी की भांति इन्होने भी प्रजातन्तु (वंशबेल) तोड़ दी।

उधर सरुपा ने भी सूं खा ली वह ब्रह्मचारी रहेगा तो मैं भी रहूंगी। सरुपा के बड़े भाई ने कहा की तु दुसरा ब्याह करवाले तो सरुपा बोली - मैं तेरी गंडासे में नाड़ काट दूंगी। तो सरुपा ने भी दुसरा ब्याह नहीं करवाया।

आचार्य भगवान देव जी का परिवार वैसे तो खानदानी रहा है। इनके दादा जी दो भाई थे। पुस्तेनी जमीन करीबन ६००बीघा थी। इनके दादा जी चौ०निहाल सिंह नरेला के गीने चुने व्यक्तियों की अग्रिम पंक्ति में आते थे। वे गांव के नंबरदार भी थे। भगवान देव जी के जन्म से पूर्व ही इनके पिता आर्य समाज में काफी रुची लेते थे। वे न केवल प्रचार सुनते बल्कि उपदेशकों को भोजन निवास आदी की भी व्यवस्था करते। उन्होने गांव में आर्य समाज की स्थापना करने का निश्चय किया। उन्होने चौ०अभय राम तथा अन्य साथियों से मिलकर गांव विधिवत आर्य समाज की स्थापना सन् १९२९ में की। आर्य समाज का प्रथमोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया। चौ०कनक सिंह संस्थापक व चौ० अभय राम प्रधान चुने गए। इसी अवसर पर अनेको व्यक्तियों ने यज्ञोपवीत धारण किया। उसी दिन से पुरानी रुढ़ियों को छोड़ दिया।

गांव में प्रतिष्ठित लोगों का भी उन्हें इस कार्य में भरपूर सहयोग मिला था। स्वर्णकार चन्द्रभान और ओमदेवा ने आर्यसमाज के लिये कमरा दिया। जो नरेला मस्जिद के साथ था।

आर्यसमाज मंदिर की आधारशिला महात्मा नारायण जी के कर कमलों द्वारा भव्य समारोह में २७मार्च १९३३में स्थापित की गई। इन्हीं आर्य संस्कारों का प्रभाव बालक भगवान सिंह पर पड़ा।

गांव में आर्य समाज की स्थापना के साथ साथ समाज में फैली कुरितियों को दुर कर समाज सुधार कार्य किये। सबसे पहले गांव में सांग को बंद करवाया। जो नौजवान पीढ़ी को खराब कर रहा था।

इसी बीच बालक भगवान सिंह का यज्ञोपवीत करवाया। पुरोहित पं०गंगाशरण को बुलवाकर।

जब ये आठ साल के थे तो पिता जी ने गांव की प्राथमिक पाठशाला में अध्ययनार्थ प्रविष्ट करवा दिया। शौभाग्यशाली इनके हैड मास्टर जी अध़्यापक भी कट्टर आर्य समाजी थे। (रामचन्द्र भारती)

दसवीं श्रेणी उत्तीर्ण करने तक भगवानसिंह पक्के आर्यसमाजी हो गये थे। सत्यार्थ प्रकाश का कई बार पारायण कर चुके थे। इन्हीं दिनों दीनदयाल स्वर्णकार (धर्म देव के पिता) ओर मौतीराम आर्य समाज में जाकर प्रतिदिन व्यायाम ओर कुश्ती करते। भगवानसिंह जी इनसे क़ाफी प्रभावित थे। एक दिन दीनदयाल जी ने इनको पास बैठा कर ब्रह्मचर्य और व्यायाम के संबंध में उपदेश दिया :- नौजवान हम तो बुढ़ापे की ओर बढ़ रहे हैं, तुम्हारा समय है, कुछ बनों ओर करके दिखाओ। ओर उसी दिन से भगवान सिंह ने ठान ली आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा।

नमक ओर मीठे का त्याग इन्होने स्वामी स्वरुपानंद जी की प्ररेणा से किया। इन्होने कांग्रेस ते जलसों में भाग लेना ओर स्वंय जगह जगह पर मीटिगें करके राष्ट्रिय आंदोलन को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

युवक भगवान सिंह की गतिविधियों पर अंग्रेजी सरकार के पुप्तचरों की निगाहें रहने लगी। गांव वालो ने इनके पिता जी को कहा बालक को रोको नही तो आपत्ति आ जाएगी।ओर आई क्योंकि इनके पिता इनसे खिन्न रहने लग गए।

आर्यसमाजियों पर अंग्रेजी सरकार ने झूठे मुकदमें बनाए,और गांव वालो से ही शिनाख्त गवाह भी तैयार किये। समस्या जब बनी जब खुद इनके पिता जी सरकारी गवाह बन गए। लोगों ने व्यंग्य करना शुरु कर दिया।भगवान सिंह ने इसके विरुद्ध अनशन कर दिया। पिता ने पुत्र का आग्रह किया ओर कहा मैं सरकारी गवाह नहीं बनूंगा। न ही सरकार की कोई सहायता करूंगा।

गुरुकुल वृंदावन की यात्रा के बाद इन्होने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का फैसला लिया। ओर सन् १९३६में नरेला आर्य समाज में वार्षिक उत्सव पर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली।

अब भगवान सिंह से ब्रह्मचारी भगवानदेव होग्या। घर बार मोहमाया छोड़कर सांसारिकबंधन तोड़ दिये। और ये देवमार्ग के पथिक बन गए। ब्रह्मचारी भगवान देव ने घर सर्वथा त्याग दिया, और नरेला में अपने बाग में ""आर्य विधार्थी आश्रम"" की स्थापना की ओर असहाय विधार्थियो को पढ़ाने की व्यवस्था की। कालांतर में गौशाला व औषधालय भी खोला गया।

देश सेवा के कार्यों में रुची बढ़चढ़कर लेते थे। ईसाई पादरियों के जाल का उच्छेद, मिस सरकार से टक्कर, आर्यवीरदल आदि के द्वारा जनसेवा, हैदराबाद सत्याग्रह,भारत छोड़ो आंदोलन, रेल पटरी उखाड़ना (ब्रह्मचारी जी की प्ररेणा से अनेक क्रांतिकारी कार्य हूए। स्वामी धर्मानंद जी के साथ मिलकर श्री जयलाल आर्य स्वर्णकार, श्री हरनंद जी, श्री ताराचंद जी, आदि ने दिल्ली अम्बाला रेलवे लाइन ऱाठधाणा गांव के पास उखाड़ दी। फलस्वरूप वहां भयंकर रेल दुर्घटना हूई। उसके बाद अंग्रेजी सरकार काफी हिल गई।

इसी बीच ८नवम्बर १९४२ को दीपावली के दिन इन्होने गुरुकुल झज्झर संभाला, स्वामी ब्रह्मानंद जी, पं०जगदेव सिद्धांत जी के द्वारा।

इसी बीच इनकी माता का देहांत हो गया, सूचना पाकर आचार्य जी बिना विचलित हूए भगवान में ध्यान लगाकर बैठ गए। मोहमाया से दुर रखने की शक्ति के लिए वो प्रार्थना कर वे निरंतर काम में जुटे रहे। इस परीक्षा में वो खरे उतरे। इनके पिता का देहांत तो काफी पहले हो चुका था।

आचार्य जी ने गुरुकुल झज्झर में ही हरयाणा साहित्य संस्थान की रचना की। (२८फरवरी १९६० )
उसके बाद कन्या गुरुकुल नरेला की स्थापना, नारी जाति के उत्थान के लिए। इसके बाद आयुर्वेद महाविधालय की स्थापना गुरुकुल झज्झर में ही की।

पंजाब का हिंदी रक्षा आंदोलन पर जो आचार्य जी ने किया वो कौन भुल सकता है, आजादी के बाद बहुत बड़ा विवाद भाषासंबंधी फैल गया। सरकारी नौकरी व पढ़ाई में पंजाबी अनिवार्य कर दी, ओर राजभाषा पंजाबी बना दी। हरियाणा वालो में काफी रोष उत्पन्न हूआ, जगह जगह धरने प्रदर्शन हूए। लेकिन सरकार पर जूं तक नै रैंगी। इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए जून १९५६ में जालंधर के साईंदास कॉलेज में पंजाब के आर्यनेताओं की विशेष बैठक हूई। उसमें महात्मा आनंद स्वामी जी, आचार्य भगवान देव जी, आचार्य रामदेव (सत्यमुनि) जी, श्री यश सम्पादक हिंद केसर दैनिक, प्रिंसिपल सूरजभान, प्रिंसिपल भगवानदास, कैप्टन केशचन्द्र आदि मौजुद थे। इस बैठक में गम्भीरता से विचार हूआ। अब तक लाखों लोगों ने पंजाब सरकार के भाषा नीति के विरुद्ध हस्ताक्षर कर दिये। पंजाब वाले केवल पंजाबी के पक्ष में थे।

ओर १०जून १९५७ को आंदोलन प्रारंभ करने की घोषणा की। सबसे पहले स्वामी आत्मानंद जी ने ही सत्याग्रह किया। धड़ाधड़ सत्याग्रही जत्थे पहुंचने लगे। सत्याग्रह का जोर पकड़ने लगा। सरकार घभराने लगी। इधर आंदोलन को व्यापक बनाने के लिए बागडोर आर्य प्रतिनिधि सभा को सौंप दी। सभा में भाषास्वातन्त्रसमिति का गठन हूआ जिसके प्रधान श्री घनश्याम सिंह गुप्त व मंत्री श्री रघुवीर सिंह शास्त्री चुने गए। हरियाणा में बागडोर आचार्य भगवान देव जी को सौंपी गई। आचार्य जी ने जगह जगह झलसे करके पंजाब सरकार की नींव हिला दी। कोने कोने से सत्याग्रही चंढीगढ जा पहूंचे। ओर २८जुलाई सन् १९५७ को रोहतक में विशाल जनसभा हूई। इसके बाद स्वामी रामेश्वरानंद जी को गिरफ्तार कर लिया गया। जनता में एक रोष की लहर दौड़ गई। उसके बाद आचार्य जी ने ३०जुलाई को घोषणा कर दी हरियाणा की जनता से, उस दिन भारी संख्या में रोहतक पहूंचने का आह्वान किया। फलस्वरूप यह दिन रोहतक के इतिहास में ऐतिहासिक दिन साबित हूआ। उस दिन जिलाधीश की कोठी पर सत्याग्रह हूआ । उसमें ५०हजार से ज्यादा आदमी पहुंचे। हजारों की संख्या में इश अभूतपूर्व दृश्य को देखने लग गए।

भीड़ बेकाबू हो उठी, अनेको सत्याग्रही घायल हो गए। अनेको सत्याग्रही जेल में डाल दिये। पंजाब सरकार की नींद हराम हो गई। जिसके फलस्वरूप सरकार को झूकना पड़ा। ओर एक नए प्रांत हरियाणा का उदय हूआ।

इस हिंदी आंदोलन में आचार्य जी का वाक्य पुरे हरयाणा में गुंजायान है :- हरयाणा के वीर की गर्दन टूट सकती है झूक नहीं सकती।

इसके बाद आचार्य जी ने गोरक्षा आंदोलन, कुंडली बूचड़खाना,, चंढीगढ आंदोलन, इत्यादी किये।

सन् १९७०में ये सन्यास दीक्षा लेकर आचार्य भगवान देव जी से स्वामी ओमानंद सरस्वती हो गए।

इसके अलावा आचार्य जी ने अनेकों विदेश यात्राएं की।

इनका जीवन ऐसे ही पुरुषार्थ से भरा रहा। जब तक जिये आर्य समाज के लिए कार्य करते रहे।हरियाणा के लिए एक देवता बनकर आए। आचार्य जी पर हर हरियाणा वासी को गर्व होना चाहिए। आचार्य भगवान देव जी २३मार्च २००३ को अपनी जीवन लीला समाप्त कर गए। मैं नमन करता हूँ ऐसे निर्भीक सन्यासियों को।

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