Friday, February 15, 2019

कुरान से ही सब कुछ तो चर्चा क्यों नहीं?



कुरान से ही सब कुछ तो चर्चा क्यों नहीं?
शंकर शरण
अनेक लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिटलर से प्रभावित बताते हैं। जैसे, जेएनयू प्रोफेसर जयती घोष के शब्दों में ‘‘आर.एस.एस. ने कभी हिटलर को अपने से दूर नहीं किया। … उन के पास पारंपरिक हिन्दू किताबों के अलावा अपनी पाठ्य-सामग्री भी है, पर राजनीतिक रूप से विश्वसनीय दिखने हेतु उन्हें कुछ अंतर्राष्ट्रीय सामग्री भी चाहिए। उस में माइन काम्फ (हिटलर की आत्मकथा) बिलकुल फिट बैठती है।’’ अर्थात्, प्रोफेसर घोष के अनुसार, हिटलर की किताब पढ़-पढ़ा कर ही आर.एस.एस. कार्यकर्ता तैयार होते हैं। इतनी गंभीर बात कहने वाली वे अकेली नहीं। हिन्दू राष्ट्रवाद पर लिखने-बोलने वाले अनेक लेखकों ने यही माना है। सचाई कोई भी पत्रकार आसानी से खोज सकता है।
दूसरी ओर, हालिया दशकों में दुनिया में अनेक आतंकी कांड हुए, जिन में आतंकवादियों ने खुद नाम लेकर, उद्धृत कर, कुरान को अपने कारनामों का आधार बताया। पर अनोखी बात है कि कभी इस किताब का जिक्र नहीं होता। अनेक देशों के, अनेक अवसरों पर, अनेक संगठनों के आतंकी इसी किताब का उल्लेख क्यों करते हैं? मगर सारे विद्वान, विशेषज्ञ पहले से तय किए रहते हैं, कि आतंकवादियों की प्रेरणा और जो हो, कुरान नहीं हो सकती। इसीलिए, आतंकवाद पर विश्लेषण में कभी इस का नाम नहीं मिलता!
कितना हैरतअंगेज! एक ओर किसी संगठन को एक खास किताब से निराधार भी जोड़ा जाए; दूसरी ओर दुनिया भर के कुख्यातों द्वारा अन्य खास किताब का नाम ले-लेकर सारे कांड करने पर भी कभी जिक्र न हो? गालिब होते तो पूछतेः इलाही, ये माजरा क्या है! अभी जाकिर नाइक खबरों में हैं, जिन से प्रभावित बंगलादेशी जिहादियों ने 20 विदेशियों का गला रेत कर कत्ल किया। जाकिर भी हर तकरीर में कुरान का ही हवाला देते हैं। यही नहीं, इस बंगलादेश आतंकी कांड में भी कुरान की आयत जानने, न जानने के आधार पर ही हत्याएं की गई थी! कि वल्लाह, जो कुरान नहीं जानते, अभी कत्ल हों। इस का संदेश समझने में क्या मुश्किल है?
ध्यान दें, कुरान का खुला हवाला देकर आतंकी कांड पहली बार नहीं हुआ। न्यूयॉर्क के ट्विन-टॉवर पर ग्यारह सऊदी आतंकवादियों ने जहाजी हमला कर तीन हजार लोगों को एकबारगी मार डाला, तब उन के नेता मुहम्मद अट्टा ने अंतिम पत्र में कुरान का ही हवाला दिया था, ‘हमारे लिए इतना ही काफी है कि कुरान की आयतें अल्लाह के शब्द हैं।’ अट्टा ने जन्नत का वर्णन भी किया, जो इस्लाम में एक मात्र ईनाम है। ईराक में निक बर्ग का कत्ल करने वालों, और भारतीय कर्मचारियों को बंधक बनाने वालों, आदि ने भी कुरान का ही हवाला दिया था।
उस से पहले, ओसामा बिन लादेन ने सऊदी शासक किंग फहद को लिखे पत्र में सारा झगड़ा केवल कुरान से चलने, न चलने का ही बताया था। 11 जुलाई 1995 लिखित उस पत्र में कम से कम बीस बार कुरान की आयतें उद्धृत कर घोषणा थी, कि उन से हटने पर ‘हम अल्लाह के मजहब में विश्वास कायम करने और उन विश्वासों के लिए बदला लेंगे।’ तब से बिन लादेन ने आजीवन दुनिया में जो आतंक मचाया, उस का उद्देश्य, उस के अपने शब्दों में, कुरान का शासन स्थापित करना ही था।
लादेन के बाद, अब इस्लामी स्टेट के सारे काम घोषित रूप से ‘प्रोफेट मेथडोलॉजी’ पर आधारित हैं। उस के झंडे पर लिखे शब्द कुरान से लिए गए हैं। मुहर भी प्रोफेट की है। खलीफत बनाने से लेकर अखीरत, तकफीर, आदि पर आधारित उस के सभी कारनामे कुरान और सीरा (प्रोफेट द्वारा किए काम) के ही हवाले चल रहे हैं। उस की पत्रिका ‘दबीक’ के हर अंक से इस की पुष्टि होती है। प्रोफेट और कुरान के सिवा उन की अपनी कोई प्रेरणा है ही नहीं।
तब क्या ओसामा बिन लादेन से लेकर जाकिर नायक, इस्लामी स्टेट और इस के हजारों दीवाने तक, सभी ऐसे जड़-मूर्ख हैं, जो कुरान नहीं समझते? या, अपने आवाहनों, कारनामों, कदमों के लिए कुरान का नाम यूँ ही लेते हैं? जाकिर बाकायदा ‘इस्लामी रिसर्च फाऊंडेशन’ चलाने वाले विद्वान हैं, जिन के लाखों प्रशंसक कहे जाते हैं। इस हाल में उन के द्वारा, बात-बात में केवल कुरान का हवाला विचारणीय तो था!
ध्यान दें, इस्लामी स्टेट या जाकिर मियाँ की कुरान व्याख्याओं पर देश-विदेश के किसी ईमाम, आलिम ने आपत्ति नहीं की है। यह नोट करें, क्योंकि कोई गड़बड़ी होने पर फतवे, हिंसा, प्रदर्शन, अगलगी, आदि में देर नहीं लगती। जाकिर तो बरसों से यहीं भाषण दे रहे हैं। सम्मानित वक्ता के रूप में बड़ी-बड़ी इस्लामी संस्थाओं द्वारा न्योते जाते हैं। सो, कुरान की उन की व्याख्या सही है। उन के चेले भी सही हैं, जो ठसक से काफिरों के गले रेत रहे हैं, जैसे सातवीं सदी से ही होता आ रहा है। फिर भी, दुनिया भर के तर्कों पर विमर्श चलता है, सिवा उस के, जो आतंकी, अपराधी, आरोपी खुद देते है। कितना विचित्र!
सच यह है कि जब हर किस्म के, विभिन्न देशों के जिहादियों ने, विभिन्न तारीखों में, विभिन्न मौकों पर, बार-बार केवल कुरान का हवाला दिया, अन्य किताब का नहीं, तो हर हाल कुरान को विचार के केंद्र में लाना चाहिए था। उस में कौन से विचार आतंकियों को अपने कारनामों के लिए भरोसा देते हैं? इस से जान-बूझ कर बचना ही दिखाता है कि दाल में कुछ काला है। ठीक उसी काम से बचने की कोशिश है, जो सब से स्वाभाविक होता।
अनेक बड़े मुस्लिम लेखकों, विचारकों, ने भी आग्रह किया है कि इस्लामी किताबों, मदरसों की शिक्षा, आदि की कड़ी समीक्षा करें। तभी आतंकवाद को समझना, और उपाय सोचना संभव है। जैसे, नगीब महफूज, इब्न वराक, वफा सुलतान, तसलीमा नसरीन, अय्यान हिरसी अली, अनवर शेख, तारिक फतह, आदि। यहाँ तक कि बच-बच के रहने वाले सलमान रुश्दी ने भी पूछा है: ‘जिस मजहबी विश्वास में मुसलमानों की इतनी श्रद्धा है, उस में ऐसा क्या है जो सब जगह इतनी बड़ी संख्या में हिंसक प्रवृत्तियों को पैदा कर रही है?’
दुर्भाग्य से अभी तक इस प्रश्न पर विचार नहीं हुआ। थोक भाव ऐसे मुसलमानों को ‘इस्लाम के दुश्मन’ या ‘गद्दार’ कहना कोई उत्तर नहीं। जबकि अल्जीरिया से लेकर अफगानिस्तान और लंदन से लेकर श्रीनगर, ढाका, गोधरा, बाली तक, कई दशकों से जितने आतंकी कांड हुए, सब इस्लामी विश्वास से चालित रहे हैं। अधिकांश ने इस्लाम का नाम ले-लेकर अपनी करनी को फख्र से दुहराया है। अतः इस पर विचार न करना साफ भगोड़ापन है। कानून और न्याय-दर्शन की दृष्टि से भी यह अनुचित है। कोई भी सभ्य न्याय-प्रणाली किसी हत्यारे के अपने बयान को महत्व देती है। उस की जाँच भी होती है। पर उसे उपेक्षित नहीं किया जाता। क्योंकि उस से हत्या की प्रेरणा, मोटिव का पता चलता है। जब असंख्य जिहादी, बार-बार अपने काम का कारण कुरान का आदेश बता रहे हों, तब इस से नजर चुराना आतंकवाद को प्रकारान्तर बढ़ावा देना ही हुआ। इस से नए-नए जिहादी बनने कैसे रुकेंगे? आखिर, दुनिया भर में मुसलमान आत्मघाती मानव-बम में कैसे बदलते रहते हैं, किस प्रेरणा से?
अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सहायता मिशन (यू.एन.ए.एम.ए.) की आधिकारिक शोध-कर्ता क्रिस्टीन फेयर ने जिहादी मानव-बमों पर अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि लगभग सभी जिहादी इस विश्वास से प्रेरित होते हैं कि ‘काफिर को मारना हमारा फर्ज है’। बस। चाहे बेचारे ने कुछ बिगाड़ा हो या नहीं, उस का काफिर होना काफी है। जरा सोचें, किसी को ‘काफिर’ चिन्हित करने, उसे मारने-मरने की शब्दावली जिहादियों को कहाँ से मिलती है?
इसी तरह, पाकिस्तानी पत्रकार आरिफ जमाल ने कश्मीर में सक्रिय रहे छः सौ जिहादियों के अंतिम पत्रों का अध्ययन करके ‘एसिया टाइम्स’ में अपना शोध प्रकाशित किया था। उन्होंने पाया कि शायद ही कोई पत्र हो, जिस में जिहाद में मरने के बाद ईनाम-स्वरूप जन्नत में 72 कुँवारियों मिलने का जिक्र न था! इस का क्या अर्थ? यही, कि यदि ये लालसा न मिली होती, तो वे जिहाद के लिए नहीं जाते। अन्यथा, जीवन के अंतिम पत्र में कोई जिहादी इस का जिक्र क्यों करेगा! जरूर वह इसे महत्वपूर्ण मानता है।
कृपया खोजें, यह जिहाद में गैर-मुस्लिमों को मारने, और उस के लिए मरने पर जन्नत में बहत्तर हूरें पाने, और मनमाने भोग-विलास वाली प्रेरणाएं कहाँ लिखी है? वह सब किसी भटके, सिरफिरे का मनगढ़ंत नहीं हैं। अतः वह जहाँ भी लिखी है, बिना उसे गलत कहे, वैसी बातों को शिक्षा से बाहर किए, नए-नए मुस्लिम लड़कों को उस ओर खिंचने से कैसे रोका जा सकता है?

1 comment: