Saturday, May 25, 2019

वैदिक त्रैतवाद



वैदिक त्रैतवाद

डॉ० सोमदेव शास्त्री

प्रत्येक वस्तु का कोई बनाने वाला (निर्माता) होता है तथा जिस पदार्थ से वह वस्तु बनती है वह पदार्थ भी होता है और जिसके लिए वह वस्तु बनाई गई है उस वस्तु का उपयोग करने वाला भी अवश्य होता है। इन तीनों के बिना वस्तु का निर्माण नहीं हो सकता और न ही उसकी उपयोगिता सिद्ध हो सकती है।
जैसे घड़े को बनाने वाला (निर्माता) कुम्हार होता है तथा मिट्टी से घड़ा बनता है और मिट्टी के घड़े का उपयोग करने वाला घड़े में पानी भरने वाला, घड़े के पानी को पीने वाला व्यक्ति भी होता है। यदि तीनों में से कोई एक भी न हो तो घड़ा नहीं बन सकता और उसकी उपयोगिता भी सिद्ध नहीं हो सकती है। जैसे घड़े को बनाने वाला कुम्हार हो और यदि मिट्टी न हो तो घड़ा नहीं बन सकता है और यदि मिट्टी हो और घड़ा बनाने वाला कुम्हार न हो तब भी घड़ा नहीं बन सकता है। यदि घड़ा बनाने वाला कुम्हार और मिट्टी दोनों ही हों तब घड़ा तो बन जाता है किन्तु यदि घड़े का उपयोग करने वाला, घड़े को काम में लेने वाला न हो तो घड़े का निर्माण निरर्थक है। इसलिए घड़े को बनाने वाले के साथ घड़े का उयोग करने वाले का होना भी आवश्यक है तथा जिस मिट्टी से घड़ा बनाता है उसका होना भी आवश्यक है, ये तीनों ही घड़े के निर्माण में आवश्यक हैं इन सबका अपना महत्त्व है। इसी प्रकार भोजन, वस्त्र, मकानादि प्रत्येक पदार्थ में बनाने वाला, जिससे भोजन वस्त्रादि बनते हैं वह पदार्थ तथा जिसके लिए बनाया जाता है वह ये तीनों ही होते हैं। इन तीनों को शास्त्रीय भाषा में निमित्त कारण, उपादान कारण और साधारण कारण कहते हैं। घड़ा बनाने वाले कुम्हार को घड़े का निमित्त कारण कहते हैं तथा जिस मिट्टी से घड़ा बनता है वह मिट्टी घड़े के उपादान का कारण है और जिसके लिए घड़ा बना है वह साधारण कारण कहलाता है।

इसी प्रकार इस सृष्टि को बनाने वाला परमेश्वर है, जिससे यह सृष्टि बनी है वह प्रकृति कहलाती है और जिसके लिए सृष्टि का निर्माण परमेश्वर ने किया है उसे जीवात्मा कहते हैं। इस सृष्टि में इन तीनों का होना आवश्यक और महत्त्वपूर्ण है। यदि इन तीनों में से कोई एक भी न हो तो यह सृष्टि नहीं बन सकती है। यदि सृष्टि का बनाने वाला परमेश्वर ही हो और जिससे वह सृष्टि का निर्माण करता है वह प्रकृति न हो तो परमेश्वर सृष्टि नहीं बना सकता है और यदि प्रकृति ही हो और इसका बनाने वाला ईश्वर न हो तब भी सृष्टि अपने आप नहीं बन सकती है। क्योंकी जड़ पदार्थ में अपने आप क्रिया नहीं होती है। बिना कुम्हार के मिट्टी से घड़ा अपने आप स्वयं नहीं बनता है। वैसे ही जड़ प्रकृति से सृष्टि अपने आप नहीं बनती है। यदि ईश्वर और प्रकृति दोनों ही हों और जिसके लिए सृष्टि का निर्माण होता है वह जीवात्मा न हो तब भी सृष्टि की कोई उपयोगिता नहीं होती है। यदि जीवात्मा न हो तो सृष्टि का निर्माण परमेश्वर किसके लिए करता है, उसका सृष्टि निर्माण करना निरर्थक होगा। इसलिए सृष्टि के निर्माण में जीवात्मा का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।
ये तीनों ही आवश्यक हैं, इन तीनों के अनिवार्यता की दृष्टि से ही उनके लिए "त्रैतवाद" शब्द का प्रयोग किया जाता है। वेद में इन तीनों के अस्तित्त्व उपयोगिता और अनिवार्यता का स्पष्ट वर्णन किया गया है।

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।
तयोरन्य: पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकशीति।। -ऋ० १/१६४/२०
अर्थात् ईश्वर और जीव दोनों चेतन और अनादि हैं तथा तीसरा अनादि कारण प्रकृति है। प्रकृति से बने हुए संसार रूपी वृक्ष का फल जीवात्मा भोग रहा है, तथा परमेश्वर इसका फल न खाता हुआ चारों ओर देख रहा है। अर्थात् सृष्टि का निर्माण परमेश्वर ने अपने लिए नहीं जीवात्मा के लिए किया है वही इस सृष्टि में कर्म करता और उनका फल भोगता है।

महाभारत के युद्ध के पश्चात् वेदादि शास्त्रों के विपरीत अनेक विचारधारा प्रारम्भ हो गई। उन्हीं विचारधाराओं में "वैदिक त्रैतवाद" के स्थान पर द्वैतवाद-अद्वैतवाद विशिष्टाद्वैतवादादि विचारधाराओं का प्रचलन प्रारम्भ हुआ और जन सामान्य वैदिक त्रैतवाद के महत्त्व को भूल गया है। जड़ (प्रकृति) और चेतन (पुरुष) ये दोनों पृथक तत्व हैं जिनके परस्पर सहयोग से संसार बनता है। निमित्त (ईश्वर) और उपादान (प्रकृति) दोनों के द्वारा जीवात्मा के लिए सृष्टि की रचना होती है। इसके स्थान पर यह विचारधारा प्रारम्भ हो गई कि इस सृष्टि का निर्माता निमित्त कारण परमेश्वर नहीं है। जड़ प्रकृति से ही सृष्टि अपने आप बन गई है। जड़ पदार्थों के परस्पर मिलने से अवस्था विशेष में चेतनता आ जाती है। जैसे दही और गोबर के मिलने से बिच्छू पैदा हो जाता है। वैसे ही पंच स्थूल भूतों- पृथ्वी-जल-अग्नि-वायु और आकाश के विशेष सहयोग होने पर चेतन जीवात्मा बन जाता है। अर्थात् "जड़ से ही चेतन बन जाता है" यह विचारधारा प्रारम्भ हो गई। जिसे चारवाक्, जैन बौद्धादि सम्प्रदायों ने प्रचारित किया। आधुनिक भौतिकवादी भी इसी प्रकार मानते हैं कि कुछ प्राकृतिक द्रव्यों के मिश्रण से प्रोटोप्लाज्म (जीवन) प्रारम्भ हो जाता है।
इस विचारधारा के ठीक विपरीत शंकराचार्य ने घोषणा की कि चेतन (ब्रह्म) से ही जड़ जगत् पैदा हुआ है। "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति" का उद्घोष किया, उनकी विचारधारा को "अद्वैतवाद" के नाम से जाना जाता है। उन्होंने अपनी मान्यता को स्थापित करने के लिए उदाहरण दिए हैं। केवल ब्रह्म ही जगत् का निमित्त और उपादान कारण है इसके लिए ब्रह्म से अतिरिक्त प्रकृति के मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैसे मकड़ी अपने अन्दर से ही जाला बनाती है वैसे ही चेतन ब्रह्म (परमेश्वर) ने अपने द्वारा ही यह संसार रूपी जाला बनाया है।

किन्तु मकड़ी के जाले का गहन चिन्तन करने से स्पष्ट होता है कि मकड़ी का शरीर मकड़ी के शरीर के अन्दर रहने वाला जीवात्मा ये दोनों मिलकर जाले को बनाते हैं। मरी हुई मकड़ी जाला नहीं बना सकती। इसी प्रकार बिना शरीर के केवल जीवात्मा भी जाला नहीं बना सकता है। इस उदाहरण से भी वैदिक त्रैतवाद की मान्यता ही पुष्ट होती है कि अकेला चेतन ब्रह्म परमेश्वर सृष्टि की रचना नहीं कर सकता है और अकेली प्रकृति जड़ भी सृष्टि की रचना नहीं कर सकती है अपितु चेतन और जड़ के सहयोग से निमित्त और उपादान कारण से जगत् की रचना होती है।
यदि चेतन ब्रह्म ही जगत् का (उपादान) कारण है तो सामान्य नियम है कि जो गुण (उपादान) कारण से होते हैं वे ही गुण उससे बने हुए कार्य पदार्थ में भी रहते हैं। जैसे मिट्टी के गुण मिट्टी के बने हुए घड़े में रहते हैं। वैसे चेतन ब्रह्म से जड़ जगत् कैसे बन गया। चेतन से जड़ता कैसे आ गई? ब्रह्म तो आनन्द स्वरूप है परन्तु इससे बने हुए संसार में दुःख क्यों है, यह प्रश्न अब अद्वैतवादी के समक्ष रखा जाता है तब सिद्ध करने के लिए श्री शंकराचार्य ने अपने शब्दों की रचना की और अपने ढंग से इनका अर्थ किया। वे कहते हैं कि एक परिणाम होता है और एक विवर्त होता है दूध को जमाने पर दही बनता है। दही दूध का परिणाम है। अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी को मनुष्य प्रकाश पूरी तरह से न होने के कारण सांप समझता है और भयभीत होने लगता है। अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी को सर्प समझना "विवर्त" कहलाता है। रस्सी वास्तव में सांप नहीं है किन्तु भ्रम के कारण मनुष्य उसे सर्प समझता है, ठीक इसी प्रकार मनुष्य जिस जगत् को जड़ कहता है, प्रत्येक मनुष्य पृथक्-पृथक् अपनी सत्ता स्वीकार करता है यह सब विवर्त है, भ्रम है। वास्तव में केवल ब्रह्म की ही सत्ता है और सारा संसार मिथ्या है। यह उनका प्रसिद्ध वाक्य है- "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या" अर्थात् ब्रह्म की सत्ता वास्तविक रूप में है, चेतन ब्रह्म का ही अस्तित्व है और सारा संसार मिथ्या- झूठा है, भ्रम है। संसार मिथ्या क्यों है? इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि जैसे स्वप्न में मनुष्य देखता है कि अपना भाई या पुत्र पास में खड़ा नहीं दिखता है अर्थात् स्वप्न में देखी हुई वस्तुओं का अस्तित्व नहीं होता है वैसे ही संसार का वास्तविक रूप में अस्तित्व नहीं है। यह सब स्वप्न के समान भ्रम या मिथ्या झूठा है। जिस विवर्त शब्द की कल्पना करके रस्सी को सांप समझने का उदाहरण देकर शंकराचार्य और उनके अनुयायी अद्वैतवादी यह सिद्ध करने का प्रयास करते हैं कि जैसे सांप की सत्ता नहीं है वैसे ही जगत् का अस्तित्व नहीं है किन्तु उनके दिए हुए उदाहरण से ही स्पष्ट होता है कि सांप का अस्तित्व होता है उसकी सत्ता होती है इसलिए टेढ़ी-मेढ़ी रस्सी को देखकर टेढ़े-मेढ़े सांप का भ्रम होता है। अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी को देखकर टेबल-कुर्सी या छाते का भ्रम नहीं होता अपितु सांप का ही होता है क्योंकि रस्सी और सांप के टेढ़ेपन की समानता है। यदि कहीं पर भी सांप का अस्तित्व न होता और यदि मनुष्य ने सांप न देखा होता तो कभी भी उसे सांप का भ्रम न होता। रस्सी में सांप के भ्रम होने से ही सिद्ध होता है कि सांप की सत्ता है। इसी प्रकार विवर्त शब्द की कल्पना करके जिस जगत् को मिथ्या सिद्ध करने वाले अद्वैतवादियों को जगत् की यथार्थता, इसका अस्तित्व, इसकी सत्ता अवश्य ही माननी पड़ेगी। भले अपने मनस्तुष्टि के लिए इस जगत् को मिथ्या कहें किन्तु दूसरी जगह तो जगत् का अस्तित्व स्वीकार करना ही पड़ेगा जिससे उस यथार्थ जगत् के आधार पर इस जगत् को मिथ्या कहने का दुःसाहस करते हैं।

स्वप्न का उदाहरण देकर भी लोगों को भ्रमित किया जाता है। जब कि वास्तविकता यह है कि जागृत अवस्था के अनुसार स्वप्न अवस्था होती है। जागते हुए मनुष्य जो देखता सुनता है वे ही वस्तुएं स्वप्न में देखता है। जो व्यक्ति जन्म से अन्धा होता है जिसने कभी भी किसी भी पदार्थ को नहीं देखा उसे स्वप्न में भी कोई वस्तु नहीं दीखती है। इससे स्पष्ट है कि जागृत अवस्था के अनुसार स्वप्न है, न कि स्वप्न अवस्था के अनुसार जागृत अवस्था। जागृत अवस्था में व्यक्ति के पास उसका भाई या पुत्र अनेकों बार खड़ा रहता है वे ही संस्कार स्वप्नावस्था में सक्रिय हो जाते हैं और स्वप्न में भी वैसा ही दीखने लगता है। इस विवेचन से भी यह स्पष्ट होता है कि स्वप्न में जो चीजें दिखाई देती हैं वे जागृत अवस्था में अवश्य होती है। यह वर्तमान संसार स्वप्न के समान मिथ्या है तो, जागृत अवस्था के समान कहीं अवश्य ही यथार्थ संसार मानना पड़ेगा जिसके संस्कार इस वर्तमान संसार में स्वप्न के समान प्रतीत हो रहे हैं। अर्थात् कहीं न कहीं तो संसार की यथार्थता को स्वीकार करना ही पड़ेगा। जैसे बिना सांप की सत्ता को स्वीकार किये उसका भ्रम नहीं हो सकता है। वस्तुतः संसार मिथ्या नहीं है, अस्थिर है, नित्य नहीं है अनित्य है जैसा कि यजुर्वेद ..... ४०/१ में कहा है "ईशा वास्यमिद सर्वंयतकिञ्च जगत्याञ्जगत्"। अर्थात् ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है, नित्य है, ऐश्वर्यशाली है, यह जगत् चलायमान अस्थिर अनित्य है गतिशील है। संसार का प्रत्येक पदार्थ विनाश की ओर जा रहा है। जगत् को जगत् इसलिए कहते हैं कि- "गच्छतीति जगत्" जो चल रहा है वह जगत् है, संसरति इति संसार: जो संसरण कर रहा है वह संसार है। जगत् और संसार की अस्थिरता का अतिश्योक्ति रूप से इसे मिथ्या कहकर लोगों को भ्रमित किया है। यथार्तता यह है कि ब्रह्म का भी अस्तित्व है और जगत् का भी अस्तित्व है। अन्तर केवल इतना ही है कि चेतन ब्रह्म नित्य है और प्रकृति से बना हुआ जगत् अनित्य है, किन्तु दोनों ही हैं।
अद्वैतवादियों के समक्ष जब यह प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि यदि ब्रह्म एक है तो एक से अनेक कैसे हो गये। इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि माया के कारण एक से अनेक हो गये। फिर यदि यह प्रश्न किया जाता है कि माया है द्रव्य या गुण है। यदि माया को द्रव्य अर्थात् पदार्थ मानते हैं तो अद्वैत एक नहीं रहा फिर तो ब्रह्म और माया ये दो हो गये फिर तो द्वित्व अर्थात् द्वैत हो गया और यदि आप इसे गुण कहें तो यह प्रश्न होगा कि ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ दूसरा तत्व तो है ही नहीं, फिर यह गुण ब्रह्म का माना जायेगा तो क्या आप यह स्वीकार करेंगे कि माया के कारण ज्ञानी ब्रह्म अज्ञानी हो गया। यह कैसा गुण कि सूर्य जो प्रकाश का भण्डार है उसमें आप अंधेरा है यह सिद्ध करने का दुःसाहस कर रहे हैं। क्योंकि माया के कारण ही ब्रह्म अपने को जीव समझता है, और प्रत्येक जीव अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व स्वीकार करता हैं। संसार के विविध पदार्थ माया के कारण ही दिखाई देते हैं। यदि माया को जड़ मानते हों या चेतन मानते हों तो यह प्रश्न उपस्थित होता है। यदि इसे आप जड़ कहते हैं तो बड़ा आश्चर्य है कि जड़ माया का चेतन ब्रह्म पर इतना प्रभाव कि नित्य आनन्द स्वरूप ब्रह्म अपने आपको अज्ञानी, दुःखी मानने लगा और यदि माया को चेतन मानते हैं तो फिर वही समस्या है कि दो चेतन हो जायेंगे। "एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति" यह सिद्ध नहीं होगा। ऐसे अनेक प्रश्न अद्वैतवादियों के समक्ष हैं जिनका वे समुचित समाधान नहीं कर पाते हैं।

वस्तुतः माया शब्द का प्रयोग श्वेताश्वेतर उपनिषद् (४/१०) में प्रकृति के लिए हुए है, वहां स्पष्ट ही लिखा है "मायां तु प्रकृतिं विद्यात् मायाविनं तु महेश्वरम्"।। अर्थात् माया को प्रकृति समझो और मायावी को ईश्वर समझो। ब्रह्म और माया से अर्थात् ईश्वर और प्रकृति से सृष्टि की रचना होती है, यह स्पष्ट होता है।
जीव के विषय में अद्वैतवादियों का मत है कि "जीवो ब्रह्मैव नापरः" अर्थात् जीव ब्रह्म ही है अन्य नहीं है। इसलिए "अहं ब्रह्मास्मि" मैं ब्रह्म हूं ऐसा उल्लेख उपनिषदों में है यह सिद्ध करते हैं। उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हैं कि जैसे सूर्य एक है और दस बर्तन में पानी भरकर रखा है तो दस बर्तनों में सूर्य की परछाई दिखाई देती है जैसा कि दस सूर्य हैं, किन्तु वास्तव में सूर्य तो एक ही है। वैसे ही ब्रह्म तो एक ही है किन्तु अन्तःकरण में प्रतिबिम्बित होने वाले ब्रह्म को जीव कहा जाता है वस्तुत: वह जीव ब्रह्म ही है। किन्तु इस उदाहरण को देते समय वे भूल जाते हैं कि सूर्य और पानी का बर्तन दोनों एक दूसरे से दूर हैं इसलिए सूर्य की प्रतिच्छाया- (परछाईं) पानी में पड़ती है। ब्रह्म तो सर्व व्यापक है उसकी दूरी न होने से परछाईं का प्रश्न ही नहीं होता। फिर सूर्य स्थूल भौतिक पदार्थ है। क्या ब्रह्म भी स्थूल और भौतिक पदार्थ है? फिर अन्तःकरण वाला ब्रह्म जिसे जीव कहते हैं, वह अज्ञानी-दुःखी और अन्तःकरण रहित ब्रह्म सर्वज्ञ और आनन्द स्वरूप है, इस प्रकार ज्ञानी ब्रह्म को अज्ञानी आनन्द के भण्डार को दुःखी ब्रह्म सिद्ध करते हैं, जिसका भी कोई समाधान नहीं है।

वेदादि शास्त्रों में जीवात्मा को ब्रह्म से पृथक् ही वर्णित किया है, जैसा कि कहा है ....... "त्यक्तेन भुंजीथा:" ।।४०/१।। हे मनुष्य त्याग पूर्वक भोग कर। यदि जीवात्मा का पृथक अस्तित्व स्वीकार नहीं करेंगे तो क्या यह वेद मन्त्र ब्रह्म के लिए आदेश देता है कि ... हे ब्रह्म/ तू त्याग पूर्वक भोग कर। ब्रह्म तो पूर्ण है उसमें कोई न्यूनता नहीं है। "रसेन तृप्तो न कुतश्चनोन:"।। अथर्ववेद १०/८/४४ में ऐसा कहा है। वेदान्त दर्शन के प्रारम्भ में ही "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" कहा है अर्थात् मैं ब्रह्म को जानने की इच्छा करता हूं। यह इच्छा जीवात्मा ही कर सकता है। यदि जीवात्मा का अस्तित्व न मानेंगे तो क्या कहेंगे कि ब्रह्म, ब्रह्म को जानने की इच्छा करता है। ऐसा कहने वाला उपहास का ही पात्र होगा। अतः ईश्वर, जीव और प्रकृति के इस "त्रैतवाद" के सिद्धान्त को स्वीकार करना चाहिए, जो वेदानुकूल है।

[स्त्रोत- वैदिक सार्वदेशिक : सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली का साप्ताहिक मुख-पत्र का २३-२९ मई, २०१९ का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

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