Saturday, May 4, 2019

पुरुष सूक्त



🌺 पुरुष सूक्त पढ़ और सुन कर लाभ लें व शंकायें दूर करें।
(ऋग्वेद  १०।९०।०१ से १६)

🔥सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङुलम् ॥१॥
🌺 भावार्थ - पुरुष-सूक्त (पुरुष) पुर में व्यापक शक्ति वाले राजा के तुल्य समस्त ब्रह्माण्ड में व्यापक परम पुरुप परमात्मा (सहस्र-शीपः) हजारों शिरों वाला है। (सः) वह (भूमि) सब जगत् के उत्पादक, सर्वाश्रय प्रकृति को ( विश्वतः धृत्वा ) सब ओर से, सब प्रकार से चरण कर, व्याप कर (देश अंगुलम् अति अतिष्ठत् ) दश अंगुल अतिक्रमण करके विराजता है। अंगुल यह इन्द्रिय,वा देह को उपलक्षण है, अर्थात् वह दश इन्द्रियों के भोग और कर्म के क्षेत्र से बाहर है। वह न कर्म-बन्धन में बद्ध रहता है और न मन का विषय है। समस्त संसार के शिर उसके शिर हैं और समस्त संसार के चक्षु और चरण भी उसी के चक्षु और चरणवत् हैं । सर्वत्र उसी की दर्शन शक्ति और गतिशक्ति कार्य कर रही है। 

🔥 पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥२॥
🌺 भावार्थ - (पुरुपः एव इदं सर्वम्) यह सब कुछ वह पुरुष ही है। ( यद् भूतं यत् च भव्यम् ) ये जो भूत अर्थात् उत्पन्न और जो भव्य अर्थात् आगे भी उत्पन्न होने वाले कार्य और कारण हैं। (उत्त) और वह ( अमृतत्वस्य ईशानः) अमृतस्वरूप मोक्ष का स्वामी है, (यत्) जो ( अन्नैन ) अन्न से ( अति रोहति ) सर्वोपरि है। वहीं समस्त प्राणियों के अन्न अर्थात् भौग्य कर्मफल का स्वामी होकर उन सब पर वश किये हुए है। 

🔥 एतावानस्य महिमातो ज्यायाँश्च पूरुषः ।
पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ॥३॥
🌺 भावार्थ - (अस्य महिमा एतावान्) इस जगत् को महान् साम इतना है पर (पूरुपः ) वह सर्वशक्तिमान् इस जगत् में व्यापक प्रभु (अतः ज्यायान् ) इससे कहीं बड़ा है । ( विश्वा भूतानि ) समस्त उत्पन्न पदार्थं इस के ( पादः ) एक चरणवत् हैं। (अस्य त्रिपाद) इस के तीन चरण ('दिवि ) प्रकाशमय स्वरूप में ( अमृतं ) अविनाशी अमृत रूप हैं। 

🔥 त्रिपादूर्ध्व उदैत्पूरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ॥४॥
🌺 भावार्थ - ( त्रिपात् पूरुपः ) तीन चरण वाला, जो पूर्व अमृत स्वरूप कहा है, वह (ऊर्ध्वः ) सब से ऊपर (उत् ऐव) सर्वोत्तम रूप से जाना जाता है, (अस्य पादः पुनः इह अभवत्) इसका व्यक्त स्वरूप-एकचरणवत् यहां जगत रूप से प्रकट है। (ततः) वह व्यापक प्रभु ही (विश्वः वि अक्रम) सर्वत्र व्यापता है। (स:अशन-अनशने अभि) जो ‘अशन' अर्थात् भोजन व्यापार से युक्त प्राणिगग,चैतन और अनशन' अर्थात भोजन न करने वाले अचेतन, जड़ अथवा व्यापक और अव्यापक पदार्थ सत्र में वही विद्यमान है। 
🔥 विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमैक्रॉन स्थितो जगत् ॥ गीता ॥ 
मैं जगत् भर को विशेष रूप से थाम कर बैठा हूँ। मैरे एक अंश में जगत् स्थिर है। 

🔥 तस्माद्विराळजायत विराजो अधि पूरुषः ।
स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥५॥१७॥ 
🌺 भावार्थ - ( तस्मात् ) उससे (विराट् अजायत) विराटु अर्थात् ब्रह्माण्ड रूप महान् शरीर समस्त शरीरों का समष्टि देह विविध पदार्थों से प्रकाशित, उत्पन्न हुआ, ( विराजः अधि पूरुपः ) उस विराट् ब्रह्माण्डमय देह के पर अध्यक्ष रूप से ‘पुरुप' देह में आत्मा, वा नगर में राजा के तुल्य ब्रह्माण्ड में स्वामी के तुल्य वह परम पुरुष है। ( स जातः) वह व्यक्त होकर (अति अरिच्यत) सब से बड़ा होता है। वो परमेश्वर समस्त प्राणिर्यों से अतिरिक्त, सब से पृथक् रहता है। (पश्चाद् भूमिम् ) विराट् के प्रकट होने के उपरान्त, प्रभु ने भूमि को उत्पन्न किया ( अधो पुरः) उसके अनन्तर नाना शरीर उत्पन्न किये । इति सप्तदशो वर्गः ॥ 

🔥 यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत ।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः ॥६॥
🌺 भावार्थ - ( देवाः) विद्वान् मनुष्य (यद् यज्ञ) जिस यज्ञ को { इविपी पुरुषेण ) पुरुष रूप साधन से ( अतन्चत) प्रकट करते हैं। (अन्य ) उस यज्ञ का (वसन्तः आज्यम् आसीद ) वसन्त घृत के तुल्य रहा, (ग्रीष्म इध्मः) ग्रीष्म ऋतु इंधन अर्थात् जलती लकड़ी के तुल्य रहा, और (शरद हावः) शरद् ऋतु हवि के तुल्य था । ऋतुओं से ब्रह्माण्ड में संवत्सर यज्ञ हो रहे हैं। जैसे घृत से अग्नि अधिक दीप्त होता है इसी प्रकार वसन्त के अनन्तर प्रेम अधिक तीव्र हो जाता है। शरद फलप्रद होने है हविरूप है। सूर्य की रश्मियां 'दैव' हैं जो सवंत्सर यज्ञ को करते हैं। 

🔥 तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः ।
तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये ॥७॥
🌺 भावार्थ - (तं यज्ञं ) उस यज्ञ रूप सर्वपूज्य, ( अग्रतः जातम् ) सबसे पहले प्रकट हुए, ( पुरुषं) पुरुप को (बहिपि ) हृदयान्तरिक्ष में (प्रौक्षन्) यज्ञ में दीक्षित पुरुप के तुल्य ही अभिषिक्त करते हैं । (देवाः) विद्वान् गण, (साध्याः) साधना वाले, और ( ये च ऋषयः ) जो ऋषिगण हैं वै सव (तेन ) उसी पुरुप के द्वारा ( अयजन्त) उपासना करते हैं । 

🔥 तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः सम्भृतं पृषदाज्यम् ।
पशून्ताँश्चक्रे वायव्यानारण्यान् ग्राम्याश्च ये ॥८॥
🌺 भावार्थ - (सर्वहुतः ) समस्त जगत् को अपने भीतर आहुतिवत् लेने वाले, सर्वपूज्य ( यज्ञाद) यज्ञरूप ( तस्माद् ) उस परमेश्वर से ( पृपत् आज्यं संभृतम्) तृप्तिकारक, सर्वसेचक, वर्धक, प्राणदायक अन्नादि और घृत, मधु, जल, दुग्ध आदि भी ( सं-भृतम्) उत्पन्न हुआ है। ( तान् पशून् चक्रे ) वह परमेश्वर ही इन पशुओं, प्राणियों को भी बनाता है जो (वायव्यान्) वायु में उड़ने वाले पक्षी हैं। (आरण्यान् ) जंगल में रहने वाले सिंह आदि और I( ये च ग्राम्याः ) और जो पशु ग्राम के गौ भैस आदि हैं। 

🔥 तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचः सामानि जज्ञिरे ।
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत ॥९॥
🌺 भावार्थ - (तस्मात्) उस ( यज्ञान ), सर्वोपास्य यज्ञस्वरूप (सर्व-हुत) सर्वं जगत्-मय विराट् रूप परम पुरुप को अपने में धारण करने वाले परमेश्वर से ( ऋचः ) ऋचाएं, ( सामानि ) सामगुण ( जज्ञिरे ) उत्पन्न हुए। (छन्दांसि जज्ञिरे तस्मात् ) उससे छन्द उत्पन्न हुए । ( तस्माद) उससे ( यजुः अजायत ) यजुर्वेद उत्पन्न हुआ । ‘छन्दांसि’-पद से अथर्ववेद को ग्रहण है । ( दया० ) 

🔥 तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः ।
गावोः ह जज्ञिरे तस्मात् तस्माज्जाता अजावयः ॥१०॥
🌺 भावार्थ - ( तस्माद् अश्वाः अजायन्त) उससे अश्व उत्पन्न हुए और उससे वे पशु भी उत्पन्न हुए (ये के च )जो भी (उभयदितः ) दोनों जबढ़ों में दाँत वाले हैं।(तस्मात् ) उससे { गावः ह जज्ञिरे ) गौ आदि जन्तु भी उत्पन्न हुए, ( तस्मात् अजावयः जाताः) उससे बकरी और भेड़ आदि छोटे पशु भी पैदा हुए । इत्यष्टादशो वर्ः॥ 

🔥 यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन् ।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते ॥११॥
🌺 भावार्थ - ( यत्) जो (पुरुष) पुरुष को ( वि अदधुः ) विशेष रूप से वर्णन किया तो (कतिधा) कितने प्रकारों से (विसअकल्पयन्) उसने विशेष रूप से कल्पित किया अर्थात् उस पुरुष को कितने भागों में विभक किया ( अस्य मुखम् किम् ) इस पुरुष को मुख भाग क्या कहलाया, ( बाहू कौ ) दोनों बाहू क्या कहलाये और ( करू) जांचें क्यों कहलाई और ( पादौ की उच्येते) दोनों पैर क्या कहाये । इन समस्त प्रश्नों को उत्तर अगली ऋचा में देते हैं - 

🔥 ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥१२॥
🌺 भावार्थ - ( ब्राह्मणः अस्य मुखम् ) ब्राह्मण इसका मुख ( आसीत् ) है। (राजन्यः बाहूकृतः ) राजन्य इसके दोनों बाहू हैं। ( यद् वैश्यः ) जो वैश्य है (तत्) व ( अस्य ऊरू ) इसकी जाँघें और वह पुरुष (पद्म्यां ) पैरों के भाग से ( शूद्रः अजायत ) शूद्र बना । अर्थात् जिस प्रकार समाज में ब्राह्मण प्रमुख, क्षत्रिय बलशाला और वैश्य संग्रही और शुद्र मेहनत करने वाले होते हैं उसी प्रकार शरीर में भी देहवान् आत्मा के भिन्न - २ भागों की कल्पना विद्वानों ने की है। उसमें शिर भाग गले तक ब्राह्मण के तुल्य ज्ञान संग्रह करने वाला और अन्यों को ज्ञान मार्गों से जाने वाला है। बाहुएं, और छाती, शत्रु को मारने, शरीर को बचाने और वीर कर्म करने के लिये हैं और पेट और जांघ का भाग अन्न-भोजन का संग्रह वैश्य के समान करता और शरीर के अन्य अंगों को उचित रूप में पहुंचाता है, इसी प्रकार पैर शरीर को अपने ऊपर मज़दूर वा सेवकों के समान ढोते और उनकी आज्ञा पालन करते हैं। इस व्याख्यान से जन समुदाय और शरीर में अंग-समुदाय को तुलना करके चारों वर्णों के कर्तव्य भी वेद ने कहे हैं। 

🔥 चन्द्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत ।
मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥१३॥
🌺 भावार्थ -  मनसः) मन अर्थात् मनन करने के समर्थ्य से (चन्द्रमा जातः ) चन्द्र हुआ । (चक्षोः ) रूप दर्शन के सामर्थ्य से ( सूर्यः अजायते) सूर्य हुआ । (मुखाव इन्द्रः च अग्निः च ) और मुख से इन्द्र और अग्नि, विद्युत् और आग अर्थात् तेजस्तव हुए । और (प्राणाद) प्राण से (वायुः अजायत) वायु हुआ । 

जिस प्रकार पहले दो मन्त्रों में पुरुष, सदेह आत्मा की तुलना विशाल जन समुदाय की व्यवस्था से की है उसी प्रकार उस की तुलनां विशाल ब्रह्माण्ड से भी की गई है। अर्थात् जिस प्रकार जगत् रूप विराट देह में चन्द्र है उसी प्रकार शरीर में मन है। जिस प्रकार चन्द्र मुख्य सूर्य से प्रकाशित होकर शीतल प्रकाश देता है रात्रि के अन्धकार में भी ज्योति देता है उसी प्रकार आत्मा के चैतन्य से मन चेतन है जो मनोमय-संकल्प विकल्पात्मक ज्योति पार्थिव निश्चेतन देह में सर्वत्र प्रकाश करती है। जिस प्रकार विशाल जगत् में सूर्य महान् ज्योति है और बाह्य जगत् को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार देह में चक्षु है जो बाह्य स्थूल जगत् को प्रकाशित करती, उसका ज्ञान हमें प्रदान करती है चक्षु से सभी ज्ञानेन्द्रियों को ग्रहण करना चाहिये जो हमें अनेक पदार्थों को ज्ञान कराने हैं। जिस प्रकार जगत् में सूर्य के अतिरिक्त भी अग्नि और विद्युत् ये दो तेज विद्यमान हैं उसी प्रकार देह में भी दो ज्योतियें हैं दोनों मुख में विद्यमान हैं। एक तो इन्द्र अर्हतत्व वा ओज, जो मुख पर क्रांति रूप से चेतना रूप से रहता है, दुसरा अग्नि जो वाणी और पेट की अग्नि के रूप में विद्यमान है। इसी प्रकार जैसे पञ्चभूतभय विराट् जगत् में वायु अन्तरिक्ष मैं बहता है उसी प्रकार पञ्चभूतमय इस देह-जगत में प्राण हैं । ये शरीर के मध्य भाग छाती, फेफड़ों में गति करते और जलों, रुधिरों के हित देह भर में व्यापते हैं। इसी प्रकार महान् आत्मा, प्रभु-परमेश्वर की इस आत्मा के तुल्य ही मन, चक्षु, मुख, प्राण आदि शक्तियों की कल्पना करके उन से विराट् जगत् में चन्द्र, सूर्य, इन्द्र (विद्युत) अग्नि, वायु आदि महान शक्तिमय तत्वों की उत्पत्ति या प्रकट होने की व्यवस्था जाननी चाहिये । 

🔥 नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत ।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥१४॥
🌺 भावार्थ - (नाम्याः अन्तरिक्षम् आसीत् ) नाभि से अन्तरिक्ष को कल्पित किया है। (शीर्ष्णो) सिर भाग से ( चौः सम् अवर्तत) विशाल आकाश कल्पित हुआ, ( पद्भ्यां भूमिः) पैरों से भूमि और ( श्रोत्रात्तथा) श्रोत्र अर्थात् कानों से दिशाएं (तथा लोकान् अकल्पयन्) और इस प्रकार से समस्त, लो की कल्पना की है। 

यहां भी पूर्व मन्त्र के समान ही विराट् जगन्मय देह के अन्तरिक्ष, घौ, भूमि, दिशा और अन्य लोकों तुल्य नाभि, शिर, पैर, श्रोत्र इन्द्रिय तथा अन्यान्य, अंगों की कल्पना जाननी चाहिये। इसी प्रकार जगत् के इन 3 अंगों को देख कर परमेश्वर, महान् आत्मा की उन २ अनेक शक्तियों वा सामथ्र्यों को ही उनका मूल कारण वा आश्रय जानना चाहिये । 
लोक-संमित पुरुष और पुरुष-सम्मित लोकों का विस्तृत वर्णन देखो (चरकसंहिता–शारीरस्थान शरीरविचयाध्यय० ५) 

🔥 सप्तास्यासन् परिधयस्त्रिः सप्त समिधः कृताः ।
देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम् ॥१५॥
🌺 भावार्थ - देवयज्ञ का वर्णन करते हैं। (यत्) जो (यज्ञं तन्वानाः) 'यज्ञ, परस्पर संगति करते हुए ( देवाः ) दैव, इन्द्रिये वा पञ्चभूतादि, ( पशुम) द्वष्टा, चैतन ( पुरुपं ) पुरुष को (अबध्नन् ) बांध लेते हैं। उस समय (अय) इस आत्मा चेतन की( सप्त परिधयः) सात परिधियें; तथा( त्रिः सप्त समिधः कृताः) २९ समिधाएं बनी हैं। यह अध्यात्म यज्ञ का स्वरूप है, जिससे सूक्ष्म पञ्च तन्मत्राएं ही इन्द्रिय रूप देव होकर परस्पर संगति और शक्ति के दान-आदान पूर्वक यज्ञ रच रहे हैं। इसी प्रकार विशाल ब्रह्माण्ड में भी विद्वानों ने एक महान यज्ञ की रचना वा कल्पना की है। उसमें उस परम प्रभु सर्वद्रष्टा पुरुष, को योगी, ध्यानी, जन अन्तःकरण में ध्यान योग से बांधते हैं । अथवा पञ्चभूत रूप देव महद अंहकारादि विकृति ये उस प्रभु व्यापक पुरुषो पशु अर्थात् सर्वोपरि द्रष्टा साक्षी रूप से बांधते, अर्थात् अपने ऊपर सर्पोपरि शासक प्रभु को अध्यक्ष रूप से व्यवस्थित वा नियमबद्ध मानते हैं। इस प्रकार यद्यपि परमेश्वर जीव के समान बद्ध नहीं तो भी धर्मात्मा राजा के तुल्य जगत को नियम में बाँधता हुआ स्वयं भी उन नियमों में बद्ध होता है। राजा यदि प्रजावर्ग को बांधती है तो प्रकारान्तर से प्रजावर्ग राजा को भी व्यवस्थित करते हैं क्योंकि यह व्यवस्या परस्परापेक्षित है। उस दशा में इस ब्रह्माण्ड की सात परिधियाँ हैं। गोल चीज़ के चारों ओर एक सूत से नाप के जितनी परिमार्ग होता है उसको ‘परिधि' कहते हैं सो जितने ब्रह्माण्ड में लोक हैं ईश्वर ने उन एक २ के ऊपर सात २ आवरण बनाये हैं। एक समुद्र, दूसरा त्रसरेणु, तीसरा मैघ मण्डल अर्थात् वहां का वायु चौथा वृष्टि जल, उसके ऊपर पांचवाँ वायु, छठा अत्यन्त सूक्ष्म धनंजय वायु, और सात सूत्रात्मा वायु जो बहुत सूक्ष्म है। यह सात आवरण एक दूसरे के ऊपर विद्यमान हैं (दया०)। इस समस्त ब्रह्माण्ड के घटक २१ पदार्थ २१ समिधा के तुल्य है। प्रकृति, महान्, बुद्धि आदि अन्तःकरण और जीव, यह एक सामग्री परम सूक्ष्म रूप में हैं। इनके इश इन्द्रियगण, श्रोत्र,  त्वचा, चक्षु, जिह्वा, नासिका, वाणी, दो चरण, दो हस्त, गुदा और उपस्य और पांच तन्मात्राएं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और पांच भूत पृथिवी, आपः, तेज, वायु और आकाश । ये सब मिलकर २१ सामग्रियाँ ब्रह्माण्ड महायज्ञ की २१ समिधाएं हैं। इसके अवयव रूप से अनेक तत्व हैं। इन झव में दैव, विद्वान्गण परमेश्वर को ही सर्वसंचालक, सर्वघटक रूप से ध्यान करते और उसी को बांधते अर्थात् उसी की व्यवस्था नियत करते हैं। 

इसके अनुकरण में यह वैदिक यज्ञ भी प्रवृत्त होता है—यज्ञ में सात परिधियाँ होती हैं, ऐष्टिक आहवनीय की तीन और उत्तर वेदी की तीन और सातवीं आदित्य ‘परिधि’ मानी जाती है। और २१ समिधाएँ, कहि की बनाई जाती हैं। जो संवत्सर यज्ञ में १२ मास, पांच ऋतु, तीन लोक और २१ वां आदित्य इनकी प्रतिनिधि होती हैं। वे जिस प्रकार सर्वद्रष्टा, सूर्य रूप पुरुष को व्यवस्थित करते हैं इसी प्रकार अध्यात्म यज्ञ में आत्मा को और यज्ञ में पशु को बांधते हैं। 
संवत्सर यज्ञ किस प्रकार का वैद ने बतलाया है एतद्विषयक यजुर्वेद में 'यद पुरुषेण०' । आदि मन्त्र विशेष हैं। 

🔥 यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥१६॥
🌺 भावार्थ - ( यज्ञेन, यज्ञम् अयजन्त ) यज्ञ से यज्ञ की संगति करते हैं और यज्ञ, आत्मा से ही यज्ञ, सर्वोपास्य प्रभु की उपासना करते हैं। क्योंकि (तानि) वे ही ( धर्माणि ) संसार को धारण करने वाले अनेक बल (प्रथमानि) सर्वश्रेष्ठ, सब के मूलकारण रूप से (आसन) होते हैं। (ते ह),और वे ही निश्चय से (महिमानः) महान् सामर्थ्य वाले होकर (नाकं सचन्त ) परम सुख, आनन्दमय उस प्रभु को सेवते, और प्राप्त करते हैं (यत्र) जिस में (पूर्वे) पूर्व के, ज्ञान से पूर्ण, (साध्याः) साधनों से सम्पन्न और अनेक साधनों वाले (देवाः) ज्ञान से प्रकाशित, सब को ज्ञान देने वाले, विद्वान् जन (सन्ति ) रहते हैं। वे प्रभु के उपासक, मुक्त होकर मोक्ष को भोगते हैं। इत्येकोनविंशो वर्गः ॥ इति सप्तमोऽनुवाकः॥

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✍🏻 भाष्यकार - जयदेव शर्मा जी
🎤 उपदेशक - आचार्य धर्मवीर 
जी
साभार - अतुल साहू जी 

प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

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