Monday, October 8, 2018

दयानन्द-आर्षज्ञान का प्रचारक



● दयानन्द-आर्षज्ञान का प्रचारक●
--------------------------------------------------------------------

यूरोप अनार्ष ज्ञान का गुरु और प्रचारक है। पाठक ! क्या तुमने पृथिवी पर रहनेवाली इस समय की मनुष्यजाति की अवस्था को विचार कर देखा है? क्या सारी पृथिवी इस समय घोर अशान्ति से म्रियमाण दशा को प्राप्त नहीं हो रही है? क्या नाना जाति, नाना जनपद, नाना राज्य, नाना देश अनेक प्रकार की अशान्ति की अग्नि से जलकर छार-खार नहीं हो रहे हैं? क्या मनुष्य-संसार में इतने उपद्रव, इतनी अशान्ति, इतने अस्वास्थ्य का विस्तार किया गया है? क्या कभी सभ्यता के नाम पर मनुष्यों ने इतने मनुष्यों के शिर काटे हैं? यदि पहले ऐसा कभी नहीं हुआ तो आज क्यों हो रहा है? हम उत्तर देते हैं कि इसका कारण है अनार्ष शिक्षा और अनार्ष ज्ञान का विस्तार! इसका कारण है यूरोप का पृथिवीव्यापी प्रभाव और प्रतिष्ठा। यहाँ यह लिखने की आवश्यकता नहीं है कि यूरोप अनार्ष ज्ञान का गुरु और प्रचारक है। जो यूरोप अनार्ष ज्ञान का प्रचारक है वही यूरोप आज ससागर वसुंधरा का अधीश्वर है। छोटी-बड़ी, सभ्य-असभ्य, शिक्षित-अशिक्षित, नाना जातियों और जनपदों में उसी यूरोप की शासन पद्धति प्रतिष्ठित और प्रचलित है। इसलिए जो जाति व राज्य यूरोप के शासन व संसर्ग में आ जाता है, उसमें अनार्ष ज्ञान का प्रचार और प्रतिष्ठा हो जाती है। इसी कारण से उस जाति वा राज्य के भीतर अनेक प्रकार की अशांति की अग्नि धक्-धक् करके जल उठती है।

यूरोप! तूने प्रधानतः दो शिक्षाओं का सहारा लिया है, तूने विशेषतः दो सद्धान्तों पर अपनी समाज-प्रणाली और सभ्यता के जीवन की स्थिति और उन्नति स्थापित की है। इनमें से पहला है-क्रमोन्नति (Evolution) और दूसरा है, योग्यता की जय (Survival of the fittest)। इन दोनों सिद्धान्तों के द्वारा तूने संसार का जो अनिष्ट किया है हम उसे कहना नहीं चाहते। “योग्यतम की जय” का नाम लेकर तू सहज में ही दुर्बल के मुँह से भोजन का ग्रास निकाल लेता है, सैकड़ों मनुष्यों को अन्न से वंचित कर देता है, एक-एक करके सारी जाति को निगृहित, निपीड़ित और निःसहाय कर देता है। जब तू बिजली के प्रकाश से प्रकाशित कमरे में संगमर्मर से मण्डित मेज के चारों ओर अर्धनग्न सुन्दरियों को लेकर बैठता है उस समय यदि तेरे भोजन, सुख और सम्भाषण के लिए दस मनुष्यों के सिर काटने की भी आवश्यकता हो तो अनायास ही तू उन्हें काट डालेगा, क्योंकि तेरी तो शिक्षा यही है कि योग्यतम की जय होती है। यूरोप! आसुरीय वा अनार्ष-शिक्षा तेरे रोम-रोम में भरी हुई है। अपनी अतर्पणीय धन-लालसा को पूरी करने के लिए तू एक मनुष्य नहीं, दस मनुष्य नहीं, सौ मनुष्य नहीं, बल्कि बड़ी-से-बड़ी जाति को भी विध्वस्त कर डालता है। अपनी दुर्निवार्य भोग-तृष्णा की तृप्ति के लिए तू केवल मनुष्य ही को नहीं, वरन् पशु-पक्षी और स्थावर-जंगम तक को अस्थिर और अधीर कर डालता है। अपनी भोगविलास-पिपासा की तृप्ति के लिए तू लखूखा मनुष्यों के सुख और स्वतन्त्रता को सहज में ही हरण कर लेता है। तेरे कारण पृथिवी सदा ही अस्थिर और कम्पायमान रहती है।

यूरोप! तेरे पदार्पण मात्र से ही शान्तिदेवी मुँह छिपाकर पलायमान हो जाती है। भू-मण्डल के जिस स्थल में तेरे कदम जाते हैं, जिस राज पर अधिकार हो जाता है, वह स्थल और वह राज्य सुखशून्य और शान्तिशून्य हो जाता है। जिस स्थान पर तू अपनी जय-पताका फहराता है उस स्थान में सौ प्रकार की विशृंखलता आकर उपस्थित हो जाती है। जिस देश में तेरे शिक्षा-मन्दिर का द्वार खुलता है, तू उस देश को वंचना, प्रतारणा, कपट और मुकद्दमेबाजी के जाल में फाँस लेता है। जिस-जिस स्थान में तेरे धूमरथ (रेल) का नाद प्रतिध्वनित होता है, वहाँ दुर्भिक्ष और अनावृष्टि पिशाचिनी के डेरे लग जाते हैं। जिस भूमि में तेरे नहरों की जलधारा बहती है उस भूमि में नाना प्रकार की आधि-व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। जिस जनपद को तेरे कारखानों की चिमनियों से धुँआ आच्छादित करता है वह जनपद भोगेच्छा का आकार बन जाता है, इससे अधिक हम क्या कहें।

यूरोप! तूने संसार का जितना अनिष्ट और अकल्याण किया है, मनुष्य का जितना अहित सम्पादन किया, उसमें सबसे बड़ा अनिष्ट और अकल्याण यही है कि तूने मनुष्य-जीवन की प्रगति को उलटा करने का प्रयत्न किया है। जिस मनुष्य ने निरन्तर मुक्तिरूप शान्ति पाने के उद्देश्य से जन्म लिया था, उसे तूने धन का दास और दुर्निवार्य भोगेच्छा का क्रीत किंकर बनने के लिए शिक्षित और दीक्षित कर दिया है। तेरी शिक्षा का उद्देश्य इस सिद्धान्त का नाना भाव और नाना प्रकार से प्रचार और विस्तार करना है कि धन संचय करना ही मनुष्य-जीवन में सबसे अधिक वाञ्छनीय है। तू भोगमय और भोग-सर्वस्व है। जो वृत्ति मनुष्य-समाज में प्रथम वा प्रधान पर आरूढ़ थी उसे तूने सबसे नीचे स्थान पर रखने का निर्देश किया है और जो वृत्ति सबसे नीचे स्थान पर थी उसे तूने प्रथम प्रधानपद पर आरूढ़ कर दिया है। तूने ब्रह्मवृत्ति का अपमान किया और उसे नीचे गिरा दिया है और वैश्यावृत्ति का सम्मान किया और उसे सबसे उँचा आसन दिया है। इसकी अपेक्षा और किस बात से मनुष्य का अधिकतर अनिष्ट साधन हो सकता है? यद्यपि तूने जहाँ-तहाँ दो चार अनाथालय और रोगी-आश्रम स्थापित करके दया, दाक्षिण्य और परहित-परायणता का भी परिचय दिया है, परन्तु यह ऐसा ही है जैसे कोई पहले गौ का वध करके पीछे दान-दक्षिणा की व्यवस्था करे, क्योंकि तूने अनेक मनुष्यों का विध्वंस कर डाला है, सैकड़ों-सहस्त्रों नर नारियों के हाथ में एकदम भीख का प्याला दे दिया है, जो स्थान शान्ति और आनन्द के निकेतन थे, उन्हे श्मशान बना दिया है।

जबकि यूरोप अनार्ष ज्ञान का गुरू वा प्रचारक है, जो इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है कि उसके प्रभाव से संसार का घोरतम अकल्याण सम्पादित होगा और मनुष्य-समाज में नित्य नूतन अशान्ति की अग्नि प्रज्वलित होकर सबको भस्मसात् कर डालेगी। इसमें तनिक भी संशय नहीं हो सकता कि ऋषि-प्रणीत शिक्षा और ऋषि-प्रचारित ज्ञान ही मनुष्य की शान्ति का एकमात्र हेतु है।

यूरोप ने जिन गुरूओं से मन्त्र लिया है वे तत्ववित् वा तत्वदर्शी नहीं थे। बेन (Bain) और बेन्थम (Bentham), पेन (Payane) और स्पेन्सर (Spencer), कुन्त (Compte) और काण्ट (Kant) अथवा प्लैटो (Plato) और पाइथागोरस (Pythagoras), ज्ञान-पर्वत पर बहुत उँचे तो चढ़ गये थे और उन्होने अनेक तत्वों का अनुशीलन कर बहुत-सी जटिल समस्याओं की मीमांसा भी की था, परन्तु वे केवल तत्वों की खोज करनेवाले ही रहे, वे किसी वस्तु के प्रकृत स्वरूप वा विषयविशेष के यथार्थ तत्व का निश्चय करने में समर्थ नहीं हुए। जो ऋषि-महर्षि आर्यभूमि को पवित्र कर गये हैं उनके सिवाय जगत् में और कोई तत्ववित् वा तत्वदर्शी पद का वाच्य नहीं हो सकता। यही कारण है कि वे अविद्यान्धकार से मुक्ति पाने में समर्थ नहीं हुए थे। बेकन (Bacon) वा डार्विन (Darwin), हक्सले (Huxley) वा टिण्डल (Tyndall) ने अवश्यमेव विषयविशेष के प्रकृत तत्व के निश्चय करने में यथाशक्ति यत्न किया, परन्तु अविद्यान्धकार से विमुक्तचित्त नहीं हो सके। फिर वे कैसे यथार्थ तत्वावधारण में समर्थ हो सकते थे? और उनकी शिक्षा से मनुष्य-समाज में किस प्रकार शान्ति स्थापित हो सकती है? इसी कारण से यूरोप स्वयम् अपनी अशान्ति की अग्नि में जल रहा है और इसलिए जो कोई जाति भी किसी-न-किसी प्रकार यूरोप के संसर्ग में आ जाती है उसे भी अशान्ति की अग्नि से दग्धविदग्ध होना पड़ता है।

इस जगद्वयापिनी अशान्ति का प्रतीकार एकमात्र आर्षज्ञान के विस्तार पर निर्भर है। आर्षज्ञान का सूर्य सबसे पहले भारत-भूमि पर उदित हुआ था, परन्तु अब भारत-भूमि स्वयं सहस्त्रों वर्षों से आर्षज्ञान से वञ्चित हो रही है। इस दीर्घकाल में अन्य देशों में अनेक आचार्यों का अभ्युदय हुआ, अनेक महान् आत्माओं ने जन्म ग्रहण किया, अनेक चिकित्सकों ने आविर्भूत होकर मनुष्य-जाति की मानसिक व्याधियों के जाल को तोड़ने का यत्न किया, परन्तु उनमें से किसी ने भी आर्ष-ज्ञान को पुनरूद्दीपित करने का उद्योग नहीं किया। इन पाँच सहस्त्र से अधिक वर्षों में स्वयम् आर्यभूमि में ही अनेक आचार्यों का आविर्भाव हुआ, परन्तु दुःख है कि उनमें से भी कोई विशेष रूप से ऋषि-महर्षि-प्रवर्त्तित ज्ञान के पुनरूद्धार में नहीं किया, अतः यह मानना पड़ता है कि इन पाँच सहस्त्र से अधिक वर्षों में पृथिवी आर्ष-ज्ञान के आलोक से शून्य ही रही है।

लगभग एक सौ वर्ष हुए होंगे कि यमुना के तट पर मथुरा में एक अन्धे सन्यासी ने इस बात का प्रचार किया आर्ष-शिक्षा ही मनुष्य के यथार्थ सुख और शान्ति का हेतु है और उसकी शिक्षा-दिक्षा और आदेश से गुजरात देश की एक ब्राह्मण-सन्तान ने ऋषि-प्रवर्त्तित ज्ञान को समस्त संसार में पुनरूद्दीपित करने में अपने जीवन की सम्पूर्ण शक्ति समर्पित की थी। पाठक! हम समझते हैं कि हमें यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि इस अन्धे सन्यासी का नाम दण्डी विरजानन्द और इस गुजराती ब्राह्मण का नाम दयानन्द सरस्वती था। हम पूछते हैं कि उन पाँच सहस्त्र वर्षों में दयानन्द सरस्वती के समान किस आर्ष-ज्ञान के पुनरूद्धारक ने जन्म लिया है? दयानन्द के समान आर्ष-ज्ञान के किस अद्वितीय प्रचारक का वर्त्तमान समय में आविर्भाव हुआ है? महर्षि कृष्णद्वैपायन के पीछे दयानन्द के समान अन्य कौन आचार्य आर्ष-ज्ञान में तन्मय हुआ है? वेद आर्ष-ज्ञान का स्वरूप है। क्या दयानन्द के समान दूसरा वेदसर्वस्व वा वेदप्राण मनुष्य दिखाया जा सकता है? पाठक! शायद आप हमारी बातों पर अच्छे प्रकार ध्यान न देंगे। इसमें आपका अपराध नहीं है। “यथा राजा तथा प्रजा”-जैसा राजा होता है वैसी ही प्रजा भी हो जाती है। राजा अनार्षविद्या का प्रचारक है। राजकीय शिक्षा पाने और उसका अभ्यास करने से आपके मस्तिष्क की अवस्था अन्यथा हो गई है और इसलिए हमारे कथन की आपके कानों में समाने की सम्भावना नहीं हो सकती, परन्तु आप सुनें वा न सुनें हम बिना किसी सन्देह और संकोच के घोषणा करते हैं कि वर्त्तमान युग में दयानन्द ही एकमात्र वेदप्राण पुरूष और आर्ष-ज्ञान का अद्वितीय प्रचारक हुआ है। आर्ष-ज्ञान के विस्तार पर ही सारे विश्व की शान्ति निर्भर है, आर्ष-शिक्षा के साथ ही मनुष्य-समाज की सर्वप्रकार की शान्ति अनुस्यूत है। जैसे और जिस प्रकार यह सत्य है कि आर्ष-ज्ञान ही मानवीय शान्ति का अनन्य हेतु है।

ऐसी अवस्था में क्या फिर भी यह कहने की आवश्यकता रह जाती है कि आर्ष-ज्ञान के अद्वितीय प्रचारक दयानन्द सरस्वती को समझने व समझाने का यत्न करना, उसे अच्छे प्रकार जानने व जनाने का प्रयास करना, उसके विषय में आलोचना करना और कराने का प्रयत्न करना हर एक व्यक्ति का, जो मनुष्य-जाति का हितैषी हो, कर्त्तव्य है। मनुष्य! यदि तू शान्ति का इच्छुक है तो तुझे आर्षज्ञान की महिमा समझनी होगी और आर्षज्ञान की महिमा समझने के लिए तुझे दयानन्द को भी समझना होगा। इस दृष्टि से दयानन्द सारे मनुष्यों का आलोचनीय है। वास्तव में दयानन्द ऐसा सर्व-कल्याणकर, सुमहत् और सार्वजनिक कार्य कर गया है कि उसका जीवन सर्वसाधारण की आलोचना का विषय होना ही चाहिए। जो ऋषिगण व्याकुल चित्त से “द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष शान्तिः” आदि शब्दों से परमात्मा की प्रार्थना कर गये हैं उन्हीं मनुष्यकुल-पूज्य ऋषियों की शिक्षा, ज्ञान और उपदेश को संसार में प्रतिष्ठित करना दयानन्द का जीवन का अद्वितीय और एकमात्र लक्ष्य बनाया था। तब इसमें क्या सन्देह रह जाता है कि दयानन्द का जीवन सारी भूमि और सब मनुष्यों के साथ संसृष्ट है? इसलिए जिस जीवन के साथ सार्वभौम और सामाजिक कल्याण इस प्रकार संलग्न है, उसके क्रमबद्ध इतिहास के लिखने में जो कठिनाइयाँ हमारे मार्ग में आई हैं, हम उन्हे क्लेश नहीं समझते। हम आशा करते हैं कि अब हमारे पाठक समझ गये होंगे कि उपर्युक्त हेतु दयानन्द की जीवनी प्रकाशित करने में हमारा पहला हेतु है।

● (सन्दर्भ ग्रन्थः बाबू देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय संकलित महर्षि दयानन्द का जीवन-चरित्र) संस्करण २०६८ सन् २०१३ पृष्ठ - १०

No comments:

Post a Comment