◆ भारतीय बौद्धिकता को धिम्मी वाद की दीमक!
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इस्लाम में धिम्मी (dhimmi ([ˈðɪmːiː]; अरबी: ذمي , समूह में أهل الذمة अह्ल अल-धिम्माह; ओटोमान तुर्की एवं उर्दू में जिम्मी) उस व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को कहते हैं जो मुसलमान नहीं है और शरियत कानून के अनुसार चलने वाले किसी राज्य की प्रजा है
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भारतीय मीडिया में एक ही तरह की घटनाओं पर, मुस्लिम या हिन्दू मामलों में दोहरे मानदंड अपनाने की व्याख्या एक ही अवधारणा कर सकती है – ‘जिम्मी’ (dhimmi) मानसिकता। अफ्रीकी मूल की लेखिका "बात ये’ओर" ने इस पर गंभीर पुस्तक लिखी है, Islam and Dhimmitude (‘इस्लाम एंड जिम्मीच्यूड’)। मुख्यतः अरबी पृष्ठभूमि पर लिखी इस पुस्तक से वह मानसिकता ठीक-ठीक समझी जा सकती है, जिस से अधिकांश भारतीय नेता, बुद्धिजीवी ग्रस्त हैं।
अरबी शब्द ‘जिम्मा' का अर्थ है करार, जिस से जिम्मेदारी शब्द भी बना है। वह करार जो सदियों पहले इस्लाम द्वारा अपने राज्य में कुछ ईसाइयों, यहूदियों को जिंदा रहने देने की शर्त के रूप में एकतरफा तय किया गया था। (हालाँकि वह छूट बौद्धों, मूर्तिपूजकों के लिए नहीं थी – उन्हें इस्लाम या मौत के बीच एक ही चुनना था।) खलीफा उमर के शासन में, सन् 634 के आस-पास, जिम्मियों संबंधी बारह नियम सूत्र-बद्ध हुए थे। इस की मूल बात है कि जिम्मी लोग इस्लाम और मुसलमानों को श्रेष्ठ मानते हुए, उन्हें जजिया टैक्स और नजराने देते हुए नीच लोगों की तरह रहेंगे। इस प्रकार, इस्लामी अधीनता में लंबे समय रहते गैर-मुस्लिमों में जो हीन-भाव उन का स्वभाव बन जाता है, उसे ही जिम्मी मानसिकता कहा गया है। इस की विशेषता यह है कि इस्लामी शासन से मुक्त हो जाने पर भी जिम्मियों के विचार-व्यवहार में इस्लाम के प्रति विशेष आदर-भाव आदतन बना रहता है।
उसी भाव में हमारे पत्रकारों, बुद्धिजीवियों का दोहरा व्यवहार समझा जा सकता है। भारत में छः सौ वर्ष तक इस्लामी शासन रहने के कारण हिन्दुओं, विशेष कर उच्चवर्गीय हिन्दुओं में जिम्मी भाव जम कर बैठ गया, जिस से वे मुक्त नहीं हुए हैं।
उसी का समानांतर, उच्च भाव मुस्लिमों में भी है। वे सदैव अपने लिए हर चीज कुछ विशेष, कुछ ऊपर, अधिक चाहते हैं। याद करें, जिन्ना ने मुसलमानों के मालिक कौम (‘मास्टर रेस’) होने के दावे से अलग पाकिस्तान माँगा था। आखिर मालिक और नौकर बराबरी से कैसे रहते, जो स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र में होता!
वह मानसिकता आज भी पाकिस्तान में, और भारत के मुसलमान नेताओं में भी है। वे ऐसे विशेषाधिकार चाहते हैं, जो दूसरों को न हों। जैसे, वे ‘काफिरों’, ‘मूर्तिपूजकों’, राष्ट्र-गान, आदि की हर साँस में निंदा करेंगे, क्योंकि यह उन का मजहबी विश्वास है। किंतु हिन्दुओं, बौद्धों, जैनों, आदि के विश्वास कुछ भी हों, वे इस्लामी कुरीतियों और ‘शरीयत’ की आलोचना क्या, उपेक्षा तक नहीं कर सकते। ऐसा होते ही मुस्लिम नेता धमकियाँ देने लगते हैं। जब चाहे किसी की हत्या का आवाहन कर सकते हैं। आवाहन करने वाला मंत्री पद पर क्यों न हो, उसे कुछ नहीं कहा जाता! मीडिया, न्यायपालिका, मानवाधिकार आयोग, सब बगलें झाँकने लगते हैं। ध्यान दें, कोई तर्क-वितर्क या विचार-विमर्श नहीं, सदैव धमकी, हिंसा की भाषा का प्रयोग होता है। यह सब मुसलमानों की ‘भावना’ के नाम पर स्वीकार किया जाता है। मानो मुस्लिम भावनाएं अन्य समुदायों, संविधान, कानून या सामान्य न्याय-बुद्धि और विवेक से ऊँची चीज हों! यानी, इस्लाम की वरिष्ठता की स्वीकृति। इस में डर भी समाहित है। मुस्लिम नेता इसे जानते हैं, और जम कर उपयोग करते हैं। अभी ईद के असर पर ओवैसी ने यही कहा। पर हमारे सेक्यूलर नेता, पत्रकार और प्रोफेसर, सब यशपाल की कहानी में फूलो की तरह अपने कुरते से इज्जत ढाँकने का विफल प्रयास करते हैं। हमारे मीडिया और राजनीति में जिम्मी मानसिकता सर्वत्र फैली हुई है। कश्मीर से हिन्दुओं को सामूहिक रूप से मार कर, अपमानित, बलात्कृत, धमका कर भगा देने के बाद उन की छोड़ी गई संपत्ति – घर, दुकान, खेत आदि – की खुली लूट-बाँट हुई। उन संपत्तियों को ‘माले गनीमत’ कहकर हिन्दुओं द्वारा बेची जाने वाली संपत्ति की कीमत कौड़ी के मोल लगी। किंतु उन घटनाओं पर कभी कोई रिपोर्ट, तस्वीरें, इंटरव्यू आदि नहीं आए। ‘फ्रंटलाइन’, ‘ई.पी.डबल्यू’, ‘एन.डी.टी.वी’., ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, किसी भी मीडिया महारथियों से पूछ देखिए। उन हिन्दू मकानों, खेतों, दुकानों की गिनती या हश्र पर उन्होंने कभी कोई स्टोरी की? कोई आँकड़ा, कोई तस्वीर है उन के पास? वर्षों सामूहिक संहार का शिकार होने पर भी उन लाखों कश्मीरी हिन्दुओं में से कोई वह ‘आइकन’ न बना, जैसे गुजरात का वह मुस्लिम दर्जी युवक, कुतुबुद्दीन अंसारी, जो हाथ जोड़े, आँखों में आँसू भरे, संभवतः किसी से रक्षा की याचना कर रहा है। 2002 की वह तस्वीर आज भी इस्तेमाल हो रही है। अभी असम विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने उस का उपयोग किया। किन्तु, उसी वेदना, दीनता और असहायता से भरे हजारों हिन्दू अंतहीन बार कश्मीर, केरल, असम, बल्कि अब तो उत्तर प्रदेश में भी, सामूहिक संहार, उत्पीड़न का शिकार हुए हैं। उन में से किसी की तस्वीर वैसी प्रचारित क्यों न हुई? क्या इसीलिए नहीं, क्योंकि उसे समान्य, मैटर ऑफ कोर्स, लिया जाता है?
कुतुबुद्दीन अंसारी के समानांतर किसी कश्मीरी पंडित की दयनीय तस्वीर का गायब रहना, जिम्मीवाद का ही एक उदाहरण है। इस्लामी आतंक के सामने किसी हिन्दू की दुर्दशा सदियों से यथावत् सामान्य घटना की तरह ली जाती है।
क्षमा कौल का ‘दर्दपुर’ या कुंदनलाल चौधरी का कविता-संग्रह ‘ऑफ गॉड, मेन एंड मिलिटेंट्स’ पढ़कर देखें। उस गुजराती मुस्लिम युवक, कुतुबुद्दीन अन्सारी की आँखों की वेदना आपको क्षणिक और हल्की जान पड़ेगी! क्योंकि असंख्य हिन्दू कुतुबुद्दीन उसी वेदना के साथ बचे नहीं, सपरिवार मारे गए! अपमान और जिल्लत के साथ, यहाँ तक कि कुछ मामलों में धर्मांतरित होकर मुसलमान बनने के बावजूद, उन की बहू-बेटियों को बलात्कार के बाद लोमहर्षक रूप से काट कर फेंक दिया गया। इस तरह कश्मीर हिन्दुओं से खाली हुआ। जैसे, पहले लाहौर, मुलतान और ढाका से हुआ था।
यदि कोई तर्क देने को अधीर हों कि ‘जिम्मी वाली बातें पुराने समय की है’, तो दो बातों पर ध्यान दें। प्रथम, इस्लामी मूल किताबों, जिन से ऐसे कायदे-कानून बने हैं, को आज भी पत्थर की लकीर माना जाता है। सैयद शहाबुद्दीन या रफीक जाकरिया जैसे आधुनिक प्रबुद्ध मुस्लिम भी यही दुहराते रहे हैं कि उन किताबों का एक शब्द भी अमान्य नहीं किया जा सकता। दूसरे, ‘पुराने समय’ वाला तर्क भी मुस्लिम प्रवक्ता केवल भारत जैसे देश में देते हैं जहाँ सभी इस्लामी मान्यताओं की माँग करना उन्हें अभी लाभप्रद नहीं लगता। अन्यथा, मुस्लिम देशों में आज भी सिद्धांत और व्यवहार वही है।
आज के सऊदी विद्वान अब्दुल रहमान बिन हम्माद अल-उमर ने अपनी पुस्तक ‘द रिलीजन ऑफ ट्रुथ’ में लिखा, ‘‘मुस्लिम शासन वाले किसी देश में किसी गैर-मुस्लिम को अपने विश्वास की आजादी है… किन्तु उसे समर्पित भाव से सदैव मुसलमानों को आदर, नजराना देना होगा, इस्लामी कानूनों के सामने आत्मसमर्पण करना होगा, और अपने बहुदेव-पंथी रिवाजों का पालन सार्वजनिक रूप से नहीं करना होगा।’’ यह मूल इस्लामी मान्यता ही है, जिसे छोड़ा नहीं गया है। केवल इंडोनेशिया, तुर्की जैसे देश जो शरीयत कानूनों से नहीं चलते, वहाँ स्थिति भिन्न है।
इस प्रकार, उन जिम्मी कानूनों के प्रसंग में ही भारत में आज भी उन आपत्तियों को समझा जा सकता है, जब भारत में दशहरे या रामनवमी अवसरों पर मुस्लिम बस्तियों के पास हिन्दू जुलूसों, ढोल, कीर्तन आदि पर की जाती हैं। यह आपत्तियाँ उस गुजरे मुगल शासन दौर के जिम्मी कानूनों के पालन की जिद है जिस के तहत हिन्दू सार्वजनिक रूप से अपने पर्व-त्योहार नहीं मना सकते थे!
अतः रामनवमी जुलूस पर आपत्ति का भाव यह है कि मुगल काल वाले बलात् कानून हिन्दू समाज इस स्वतंत्र, लोकतांत्रिक भारत में भी यथावत स्वीकारता रहे। डॉ. अंबेदकर ने भी लिखा है कि अफगानिस्तान, ईरान, आदि मुस्लिम देशों में मस्जिद के बाहर गाने-बजाने पर आपत्ति नहीं होती, किन्तु भारत में होती है तो केवल इसलिए कि हिन्दुओं को वह अधिकार नहीं देना है। अंबेदकर के अनुसार, यह मुगलिया राज के अहंकार के अवशेष हैं, कोई इस्लामी सिद्धांत नहीं।
स्वतंत्र भारत के हिन्दू पत्रकार वह दावा स्वीकारते हैं! मुस्लिम इलाकों से रामनवमी के जुलूस नहीं जाने दिए जाते, जबकि रमजान में कश्मीर में किसी हिन्दू या ईसाई को भी दिन में सार्वजनिक रूप से खाने-पीने नहीं दिया जाता। सेक्यूलर मीडिया को इस में कुछ गलत नहीं लगता।
इसीलिए वह इस्लामी बयानों, आपत्तियों, कांडों, मुद्दों, व्यक्तियों, देशों, संगठनों पर कभी वह मानदंड लागू नहीं करता जो गैर-इस्लामी माँगों, इच्छाओं, देशों, संगठनों, नेताओं पर करता है। यह एक रोग है। इसे समझें, सही नाम से पुकारें। रोग के लक्षण पहचानें, तभी किसी उपचार की आशा हो सकती है।
- लेखक : डॉ. शंकर शरण
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