पावन तीर्थस्थल श्री हरिमन्दिर का प्राचीन इतिहास और निर्माण कार्य
पावन तीर्थस्थल श्री हरिमन्दिर के प्रति हिन्दू-सिक्ख समाज में अपार श्रद्धा है। यह "गुरू का चक्क" नामक नगर में, जिसे आजकल अमृतसर कहते हैं, स्थित है। "गुरू का चक्क" मद्रदेश के अन्तर्गत आता है। इस जनपद की स्थापना चन्द्रवंशी राजा ययाति के पुत्र अनु के वंशज मद्रक ने की थी। इतिहास प्रसिद्ध धर्मात्मा राजा शिबि औशीनर के पुत्र मद्रक द्वारा स्थापित मद्र जनपद का विस्तृत साम्राज्य कालान्तर में श्रीराम के पुत्रों के अधिकार में चला गया था।
मद्रदेश में रामपुत्रों ने दो पुरियां बसायीं
गुरु गोविन्द सिंह अपनी कृति बचित्र नाटक २/२३-२५ में बताते हैं :
"श्रीराम के शासन के अनन्तर भगवती सीता के दोनों पुत्र राजा बने। उन्होंने जब मद्रदेश की राज-कुमारियों से विवाह किए तब भांति-भांति के यज्ञ किए। वहीं पर उन्होंने दो पुरियां बसायीँ : ज्येष्ठ कुश ने कसूर (कुशपुर, सतलुज नदी के किनारे) तथा कनिष्ठ लव ने लहरवा (लवपुर=लाहौर, रावी नदी के किनारे)। उन्होंने बहुत काल तक वहां राज्य किया और फिर कालधर्म को प्राप्त हुए।"
मद्रदेश का राज्य बीस ग्राम तक सीमित हुआ
गुरु गोविन्द सिंह आगे बताते हैं कि काल की गति से कुश-लव-वंशी राजाओं में परस्पर युद्ध होते रहे। कालान्तर में लववंशी राजा ने कुशवंशी राजा को राज सौंपकर वानप्रस्थ ग्रहण कर लिया। अब मद्रदेश पर कुशवंशी राज्य करने लगे। काल की गति से उनका वह विस्तृत राज्य सिमट कर बीस ग्राम मात्र रह गया जिस पर कुशवंशी कृषिकार्य करके अपना जीवन-यापन किया करते थे। इसी कुशवंश में गुरु नानक राय प्रकट हुए (बचित्र नाटक २/२६-३३, ३/५२, ५/१-४)।
बीस ग्रामों का मुग़ल साम्राज्य में विलय
राजा कुश के वंशधर श्री नानकदेव समय पाकर गुरु रूप में सुप्रतिष्ठित हुए। उधर मुस्लिम आक्रान्ता बाबर का १५६१ विक्रमी में काबुल पर अधिकार हो गया। इसके कई वर्ष बाद वैशाख १५८३ वि•=अप्रैल १५२६ ई• में मुक़ाम पानीपत पर हुए युद्ध में इब्राहीम लोधी बाबर के हाथों हार गया। तब बाबर के हाथ में बादशाही आने के बाद किसी समय में उपरोक्त बीस ग्राम मुग़ल साम्राज्य में मिला लिए गए।
कवि वीर सिंह बल कृत गुर कीरत प्रकाश (१८९१ वि•) ३/१३६-१३८ से ज्ञात होता है कि जिन बीस ग्रामों पर कुशवंशी कृषिकार्य करते थे और जो ग्राम मुग़ल आक्रान्ताओं ने छीन लिए थे, उनमें एक रामदास पुर भी था :
जिहि जिह ठवर लिखे वहु ग्रिांम।
सो सुण लेहु भूंम का नांम।
मद्र देस सु लिखे सतारां।
दुइ दुवाबे इकु देस रिआरां।१३६।
रांमादास पुर सत्रवां खोडस हैं संग और।
दुवैं पुर दुवाबे में लिखे स्री कर्तारपुर ठौर।१३७।
वैरोवाल ते बीस कोहु उत्तर ओर निहार
लिखियो तहां पर बीसवां विआसा नदी करार।१३८।
[ मद्रदेश के १७ ग्राम, दो दोअाबा के तथा एक और।
जिनमें रामदासपुर १७ वां है तथा इसके संग १६ और हैं। दो पुर दोअाबे में और बीसवां व्यास नदी के पास। इस प्रकार कुल २० ग्राम हुए ]।
यही रामदासपुर आजकल अमृतसर कहलाता है और इसी रामदासपुर=अमृतसर में पावन तीर्थस्थल श्री हरिमन्दिर जी विद्यमान है।
अमृत सरोवर आदि-तीर्थस्थल है
भाई मनी सिंह कृत सिक्खां दी भगतमाला (१७७२ विक्रमी) की साखी ७८ के अनुसार पांचवें गुरु श्री अर्जुनदेव अपने भक्तों को बताते हैं कि "यह अमृतसर = अमृत-सरोवर आदि-तीर्थ है परन्तु युगों के प्रभाव से लोप हो गया था।"
अमृत-सरोवर के आदितीर्थ होने का पता महाभारत के एक प्रसंग से भी चल जाता है। वनपर्व ८२/१०२, १०७ में बताया गया है :
अथ गच्छेत राजेन्द्र देविकां लोकविश्रुताम्।
प्रसूतिर्यत्र विप्राणां श्रूयते भरतर्षभ।। ••
अर्धयोजनविस्तारा पञ्चयोजनमायता।
एतावती वेदिका तु पुण्या देवर्षिसेविता।।
[ पुलस्त्य मुनि भीष्म के प्रति कहते हैं : राजेन्द्र ! (रुद्र- पद तीर्थ से) लोकविख्यात देविका नदी को जाए जहां पर विप्रों=विशेष प्रतिभाशाली मनुष्यों की प्रसूति हुई थी भरतश्रेष्ठ। ••वहां आधा योजन चौड़ी और पांच योजन लम्बी (४ मील × ४० मील = १६० वर्ग मील) एक आयताकार पुण्या वेदिका=यज्ञभूमि है जो देव-ऋषि सेवित है जहां मनुष्यों की आदिसृष्टि हुई थी ]।
स्वायम्भुव मनु से शिक्षा प्राप्त पुलस्त्य ऋषि ने इसी देविका नदी के तट पर वीर नगर नामक अति रम्य और समृद्धशाली पुर की स्थापना की थी जैसा कि विष्णुपुराण २/१५/६ में लिखा है :
देविकायास्तटे वीरनगरंनाम वै पुरम्।
समृद्धमतिरम्यं च पुलस्त्येन निवेशितम्।।
मानव की आदिसृष्टि की साक्षिणी यह देविका नदी हिमालय के अन्तर्गत जम्मू-काश्मीर की पहाड़ियों से निकलकर महादेव, व्याडिपुर और पुरमण्डल होती हुई विजयपुर (पठानकोट-जम्मू राजमार्ग) पहुंचती है। यहां से वह बृहत्तर पंजाब (पाकिस्तान बनने से पहले) के सियालकोट, गुजरांवाला और शेख़ूपुरा ज़िलों से होती हुई रावी में जाकर मिल जाती है। यह सारा क्षेत्र मद्रदेश के अन्तर्गत आता है।
देविका नदी के किनारे वाली पुण्या-वेदिका=पावन- भूमि पर उत्पन्न हुए आदिकालीन विप्र=विशेष- प्रतिभाशाली-मनुष्य जब पहली बार हिमालय से उतर कर नीचे आए तो उन्होंने उस रमणीक स्थान को तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित किया होगा जहां आज अमृत सर = सरोवर विद्यमान है। मानवों के पहली बार यहां प्रवेश करने के कारण यह रमणीक स्थल आदितीर्थ बन सका होगा।
ज्ञानी ज्ञान सिंह कृत श्री गुरु पन्थ प्रकाश (मतबा मुर्तज़वी, दिल्ली, १९३६ विक्रमी) ९/२५-३३ और तवारीख़ गुरू ख़ालसा, (भाग-१, गुरु गोविन्द सिंह प्रेस, सियालकोट, १९४८ विक्रमी) पृष्ठ १८९ के अनुसार "सूर्यवंशी राजा इक्ष्वाकु ने जब इस स्थान पर यज्ञ किया था तो बहुत सारे ऋषि-मुनि और देवगण यहां पधारे थे। तब ब्रह्मा जी ने इसका नाम अमृतसर रक्खा था और वर दिया था कि कलियुगी जीवों के उद्धार के लिए सब तीर्थ यहां आकर निवास करेंगे।
कुश-लव के काल में भी यहां पर अमृत की वर्षा हुई थी। कलियग में वह प्रचीन तीर्थस्थान लुप्तप्रायः हो गया था।"
गुरु अमरदास द्वारा सुधासर की
पुनः प्रतिष्ठा का संकल्प करना
श्रीगुरु अमरदास, जो श्रीराम के अनुज भरत के वंश में जन्मे थे, गुरु-शिष्य-परम्परा से इस तीर्थस्थान की प्राचीनता और बीस ग्रामों पर बाबरवंश के अवैध अधिकार की बात भली-भांति जानते थे। १६०९ वि• मार्गशीर्ष नवमी के दिन श्री अमरदास जी गुरु नानक-परम्परा के तीसरे गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हुए थे। १६१४ विक्रमी में उन्होंने कुरुक्षेत्र, ज्वालापुर और हरिद्वार इत्यादि तीर्थस्थानों की भक्तिभावपूर्ण यात्रा की। इसी काल में उनके हृदय में यह शुभ विचार आया कि इस्लामी सत्ता के अवैध अधिकार में चले गए बीस ग्रामों को, विशेषकर सुधासर को, पुनः प्रतिष्ठित किया जाए।
भाई मनी सिंह कृत सिक्खां दी भगतमाला (१७७२ विक्रमी, डा• त्रिलोचन सिंह बेदी द्वारा सम्पादित, पंजाबी यूनीवर्सिटी, पटियाला, १९८६ ई•) की साखी ७८ के अनुसार गुरु अर्जुनदेव जी अपने भक्तों को बताते हैं कि एक दिन गुरु अमरदास ने अपने शिष्य रामदास को, जो बाद में चौथे गुरु के रूप में प्रतिष्ठित हुए, प्रेरित करते हुए कहा :
"पुरखा ! कलियुग के जीवों की कामनाएं छोटी और बुद्धियां मोटी होंगी तथा वे पदार्थों से हीन होने से सब तीर्थों पर स्नान और दान की सामर्थ्य प्राप्त नहीं कर सकेंगे। इसलिए कोई ऐसा तीर्थ यहां मद्रदेश में निर्मित होना चाहिए जहां पर स्नान करने से त्रिलोकी के सब तीर्थों का फल प्राप्त होवे।
तब श्री रामदास जी ने कहा : दीनबन्धु ! जहां अमर = अमृत होवे। वस्तुतः वहां एक थेहु=प्रचीनस्थल था। (उसे देखकर) गुरु अमरदास ने वचन किया : यहां ही उद्यम करो, अमृतसर नाम रखना, बहुत महान् तीर्थ होगा।"
इस प्रकार श्रीगरु अमरदास जी ने आदितीर्थ सुधा-सर को पुनः प्रतिष्ठित करने का दृढ़ संकल्प किया।
अकबर के कान में भनक पड़ी
उधर तत्कालीन मुस्लिम शासक अकबर के कान में
श्रीगुरु जी के उक्त दृढ़ निश्चय की भनक पड़ी। उसकी दृष्टि में इस पावन तीर्थ की पुनः प्रतिष्ठा से नई समस्या उठ खड़ी होने वाली थी। उसने इससे निपटने के लिए कूटनीति से काम लेने की सोची। वह श्रीगुरु जी के पास १६२४ या १६२६ विक्रमी = १५६७ या १६६९ ईसवी में गोइन्दवाल आया और यह बताया कि वह कहुछ भूमि पट्टा लिखकर उन्हें अर्पित करना चाहता है।
बंसावलीनामा दसां पातशाहीआं का (१८२६ वि•) ३/६६-६७ के अनुसार श्रीगुरु ने स्पष्ट कहा कि "चाह कुछ नहीं हमारे।"
इतिहासकार तेजासिंह-गण्डासिंह भी अपनी रचना सिक्ख इतिहास (पंजाबी यूनीवर्सिटी, पटियाला, १९८५ ई•, पृष्ठ २५) में लिखते हैं :
"यह कहा जाता है कि अकबर बादशाह पंजाब में अपनी एक यात्रा समय गुरु (अमरदास) साहिब से गोइन्दवाल जाकर मिला और लंगर चलता रखने के लिए एक जागीर देने की पेशकश की जिसे गुरु जी ने अस्वीकार कर दिया।"
गुर कीरत प्रकाश के अनुसार इस अवसर पर श्रीगुरु जी ने उसे इस सच्चाई से अवगत करा दिया कि मद्र देश के इन २० ग्रामों की भूमि तो श्रीराम के वंशधरों के अधिकार में रहती चली आई है जिसे उसी के पूर्वज ने बल-छलपूर्वक छीन कर मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया था। सत्यवादी गुरु जी का उत्तर सुनकर अकबर अपना-सा मुंह लेकर लौट गया।
अकबर को अभी पूरी तसल्ली नहीं हुई थी। कवि वीर सिंह बल कृत गुर कीरत प्रकाश (१८९१ विक्रमी, डा• गुरबचन कौर द्वारा सम्पादित, पंजाबी यूनीवर्सिटी, पटियाला, १९८६ ईसवी) ३/१४१-१३४ में यह बताया गया है :
फिर अकबर निज डेरे आइ। सरब दफतरी तीर बुलाए।
सुलतान तबै मुख एहु अलाई। बीस ग्रिांव गुर भेट चढाई।१३१।
यां मै देर न रंचक कीजै। कहो कौन तल्लके दीजै।
वजीर मसद्दी सरब बुलाए। पराचीन दफतर मंगवाए।१३२।
कांनूंगोइ सोध कर कही। सुणु सुलतांन सलांमत सही।
जिंहि पर बसते बेदी राइ। क्रिसानी खाते करवाइ।१३३।
पूरब तोहि पितामां छीने। सो चहीएं गुर को अब दीने।१३४।
[ फिर अकबर अपने डेरे पर चला आया। उसने सारे दफ़्तरी अपने पास बुलाए। तब उसने मुख से यह कहा : बीस ग्राम गुरु को भेंट चढ़ाने हैं। इसमें रंच मात्र देर न करो। बताओ कौन-से ताल्लुक़े दिए जाएं। सारे वज़ीर और मुत्सद्दी बुलाए तथा पुराने दफ़्तर भी मंगवाए। क़ानूनगो ने जांच-पड़ताल करके अकबर से कहा : सुल्तान सुनो ! श्रीगुरु जी की बात सही है। जिन बीस ग्रामों पर बेदी राजा बसते थे और कृषिकर्म करवा कर
जीवनयापन करते थे तथा जो पूर्वकाल में तुम्हारे पितामह=बाबर ने छीने थे, वे ग्राम अब गुरु को दे देने चाहिएं ]।
इस बात ने मुग़ल सल्तनत के अवैध अधिकार की सारी पोल खोल कर रक्ख दी। अब मुग़ल दरबार के अनाचार से उसका अपयश फैलने का भय अकबर को सताने लगा। उससे बचने का एक ही उपाय था कि वे बीस ग्राम किसी बहाने से गुरुघर को लौटा दिए जाएं।
यह सब सोचकर तब :
तथा कही सुलतांन उचार। लिखो फरद चांड़ां दरबार।१३४।
दफतरु देख फरद बणवाइ। बीस ग्रांव पर पटे लिखाइ।
सुवाद पाइ निज मुहिर लगाई। सुलतान फरद दरबार पुचाई।१३५।
[ सुल्तान=अकबर ने बोलकर हामी भर दी। उसने कहा कि फ़र्द लिखो ताकि उसे दरबार में चढ़ा दूं। दफ़्तर देख कर फ़र्द बनवा दी गई। बीस ग्रामों के पट्टे लिखवा दिए। अकबर ने उन्हें जांच कर शाही मुहर लगा दी और फ़र्द को दरबार पहुंचवा दिया ]।
वस्तुतः भूमि का अनुदान नहीं हुआ
उधर शाही दरबार के चाटुकारों ने यह बात उड़ा दी कि बादशाह अकबर ने बीस ग्रामों की विस्तृत भूमि गुरुघर को अनुदान में दी है। इस उड़ाई बात के प्रभाव से कालान्तर में सिक्खों में भी यह प्रचलित हो गया कि जिस स्थल पर श्रीगुरु रामदास जी ने "गुरू का चक्क" नामक नगर बसाया था, वह भूमि बादशाह अकबर द्वारा अनुदानित थी। वस्तुतः ऐसी कोई बात नहीं थी।
इस सन्दर्भ में अधिक-से-अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि अकबर ने अपने-आप को न्यायप्रिय प्रसिद्ध करने के लिए बाबर-हुंमायुं द्वारा उपरोक्त बीस ग्रामों की भूमि छीनकर किए गए पापकर्मों का प्राय-श्चित्त भर किया था। भूमि लौटा देने के इस प्रायश्चित्त को अनुदान देना नहीं कहा जा सकता। वास्तव में धर्म-पूर्वक उपायों से अर्जित वस्तु का ही दान हो सकता है। अकबर के पास आए वे बीस ग्राम अन्याय से अर्जित थे। इसलिए वह उनका अधिकृत और वैध स्वामी नहीं था। जो जिस वस्तु का धर्मतः स्वामी न हो, वह उसका दान नहीं कर सकता। अतः अकबर ने इस चर्चित भूमि का कोई दान नहीं किया था।
इतिहासकार मनजीत कौर अपनी अंग्रेज़ी रचना दि गोल्डन टेम्पल : पास्ट एण्ड प्रैज़ेण्ट (गुरु नानकदेव यूनीवर्सिटी, अमृतसर, १९८३ ईसवी) के पृष्ठ ५ पर बताती हैं कि अकबर द्वारा गुरु अमरदास को कथित रूप से दान=भेंट में भूमि देने के दिन-तिथि का कोई हवाला नहीं मिलता। •• श्री हरिमन्दिर के निर्माण के लिए बादशाह अकबर द्वारा सिक्ख गुरु को भूमि देने का कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं होता।
अमृतसर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर की
तीन परस्पर विरोधी बातें
कालान्तर में अंग्रेज़ी-काल में प्रकाशित "अमृतसर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर" (H D Craik द्वारा सम्पादित), १९१४ ई• के पृष्ठ १३ पर बताया गया है :
"सन् १५७७ में गुरु रामदास ने अमृतसर वाली भूमि और इसके साथ लगी ५०० बीघा भूमि जागीर में प्राप्त की जिसके लिए तुंग ग्रामवासी भूमि-मालिक ज़मींदारों को ७०० रुपये अदा किए गए।"
इसी गज़ेयियर के सन् १९४७ में प्रकाशित संशोधित संस्करण (A Macfarquhar द्वारा सम्पादित) में पृष्ठ १ पर लिखा है :
"that the site was permanently occupied by the fourth Guru, Ram Das, who obtained the land in the neighbourhood."
इसी संस्करण के पृष्ठ २० पर यह लिखा है :
"•• Ram Das, the fourth Guru who obtained from the Emperor Akbar the grant of a piece of land where now stands the city of Amritsar."
अमृतसर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर की एक ही विषय में तीन विभिन्न बातों की आलोचना करते हुए डा• मन-जीत कौर लिखती हैं :
"लेकिन अमृतसर डिस्ट्रिक्ट गज़ेटियर में उल्लिखित जानकारी की ऐतिहासिकता को स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि उसमें ऐसा कोई दस्तावेज़ी प्रमाण प्राप्त नहीं होता जिससे यह पता चले कि हरिमन्दिर उस भूमि पर बनाया गया था जो बादशाह अकबर द्वारा जागीर में दी गई थी। यहां तक कि बादशाह अकबर के दरबारी लेखक अबुल फ़ज़ल भी इस विषय में चुप है" (दि गोल्डन टेम्पल : पास्ट एण्ड प्रैज़ेण्ट, पृष्ठ ६)।
इस प्रकार यह बात पूर्णतः स्पष्ट हो जाती है कि अकबर ने श्री हरिमन्दिर जी के निर्माण के लिए किसी प्रकार की कोई भी भूमि का अनुदान नहीं किया था।
जिन बीस ग्रामों की भूमि का पट्टा उसने सरकारी काग़-ज़ातों में दर्ज करने का दिखावा किया था और ख्याति प्राप्त करना चाही थी वह भूमि तो उन कुशवंशी बेदियों की ही थी जिनके कुल में गुरु नानकदेव प्रकट हुए थे।
गुरु रामदास द्वारा "चक्क गुरु का"
नामक नगर की स्थापना करना
अकबर के लोक-दिखावे की बात जानकर श्रीगुरु अमरदास समझ गए कि आक्रान्ता बाबर का यह पोता अब बीस ग्रामों वाली हमारी प्राचीन भूमि के पुनरुद्धार का विरोध करने की स्थिति में नहीं रहा। अतः उन्होंने उसकी ओर से निश्चिन्त होकर उस प्राचीन भूमि के एक भाग में एक नगर बसाने की योजना पर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने इस कार्य की सिद्धि के लिए अपने शिष्य और जामाता श्री रामदास को प्रेरित किया।
इसके कुछ वर्ष उपरान्त श्री रामदास जी को चौथे गुरु के पद पर प्रतिष्ठित करने उपरान्त श्रीगुरु अमर दास १६३१ विक्रमी की भाद्रपद पूर्णिमा को परलोक सिधार गए।
भाई केसर सिंह छिब्बर अपनी कृति बंसावलीनामा दसां पातशाहीआं का (१८२६ वि•, प्रो• प्यारा सिंह पदम द्वारा सम्पादित, सिंह ब्रदर्ज़, अमृतसर, १९९७ ई•) ४/१७-२१ में बताते हैं :
"सम्वत् १६३३ विक्रमी में गुरु रामदास अमृतसर वाले स्थान पर आ विराजे। वे बहुत सारी संगत साथ लेकर आए थे। उन्होंने कुलालों को बुलवा कर उन्हें ईंटें बनाने-पकाने के काम पर लगा दिया। फिर यहां नगर निर्माण का उपाय किया। इसका नाम 'चक्क गुरु का' रक्खा। कोट की उसारी करके उसमें घरों का निर्माण करवाया। फिर खतरी इत्यादि लोगों का बुला बसाया। शास्त्रों में वर्णित पावन तीर्थ अमृत-सरोवर का पुनः उद्धार किया। सम्वत् १६३४ विक्रमी के अन्त तक नगर के निर्माण का कार्य पूरा हुआ।"
भाई केसर सिंह छिब्बर आगे लिखते हैं :
"सुधासर नामक प्राचीन तीर्थ के पुनरुद्धार करने पर दो नाम लोक-प्रचलित हुए। कुछ लोग इसे रामदास-सर कहते हैं और कई अमर-सर। श्रीगुरु जी ने उस नगर में अपने लिए भी धाम बनवाए थे। कुछ काल तक वहां स्वयं भी बसते रहे। सभी कार्य गुरु अमरदास और गुरु रामदास ने सम्पन्न कराए थे" (बंसावलीनामा दसां पातशाहीआं का ४/२५-२६)।
इस प्रकार तीसरे गुरु की सद्प्रेरणा से चौथे गुरु ने यह शुभ कार्य साकार कर दिखाया था। किन्तु अमृत सरोवर अभी कच्चा बन पाया था। एक दिन श्रीगुरु रामदास ने यह शुभ संकल्प किया कि अमृत सरोवर को पक्का बनवाने के साथ-साथ उसके मध्य में श्रीहरि के पावन मन्दिर का भी निर्माण किया जाए। उन्होंने मन-ही-मन दोनों की रूपरेखा तैयार कर ली। फिर उन्होंने आगे क्या किया, इस विषय में आगामी पंक्तियों में विचार किया जाएगा। ०
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