Thursday, November 20, 2014

प्रेरणदायक संस्मरण



1. स्वामी श्रद्धानन्द जी का हिंदी प्रेम


स्वामी श्रद्धानन्द जी के महाराज के हिंदी प्रेम जगजाहिर था। आप जीवन भर स्वामी दयानंद के इस विचार को की सम्पूर्ण देश को हिंदी भाषा के माध्यम से एक सूत्र में पिरोया जा सकता हैं सार्थक रूप से क्रियान्वित करने में अग्रसर रहे। सभी जानते हैं की स्वामी जी ने कैसे एक रात में उर्दू में निकलने वाले सद्धर्म प्रचारक अख़बार को हिंदी में निकालना आरम्भ ...कर दिया था जबकि सभी ने उन्हें समझाया की हिंदी को लोग भी पढ़ना नहीं जानते और अख़बार को घाटा होगा। मगर वह नहीं माने। अख़बार को घाटे में चलाया मगर सद्धर्म प्रचारक को पढ़ने के लिए अनेक लोगों ने विशेषकर उत्तर भारत में देवनागरी लिपि को सीखा। यह स्वामी जी ने तप और संघर्ष का परिणाम था। स्वामी जी द्वारा 1913 में भागलपुर में हुए हिंदी सहित्य सम्मेलन में अध्यक्ष पद से जो भाषण दिया गया था उसमें उनका हिंदी प्रेम स्पष्ट झलकता था। स्वामी जी लिखते हैं मैं सन 1911 में दिल्ली के शाही दरबार में सद्धर्म प्रचारक के संपादक के अधिकार से शामिल हुआ था। मैंने प्रेस कैंप में ही डेरा डाला था। मद्रास के एक मशहूर दैनिक के संपादक महोदय से एक दिन मेरी बातचीत हुई। उन सज्जन का आग्रह था कि अंग्रेजी ही हमारी राष्ट्रभाषा बन सकती हैं। अंग्रेजी ने ही इन्डिन नेशनल कांग्रेस को संभव बनाया हैं, इसीलिए उसी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहिए। जब मैंने संस्कृत की ज्येष्ठ पुत्री आर्यभाषा (हिंदी) का नाम लिया तो उन्होंने मेरी समझ पर हैरानी प्रकट की। उन्होंने कहा कि कौन शिक्षित पुरुष आपकी बात मानेगा? दूसरे दिन वे कहार को भंगी समझ कर अपनी अंग्रेजीनुमा तमिल में उसे सफाई करने की आज्ञा दे रहे थे। कहार कभी लोटा लाता कभी उनकी धोती की तरफ दौड़ता। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मिस्टर एडिटर खिसियाते जाते। इतने में ही मैं उधर से गुजरा। वे भागते हुए मेरे पास आये और बोले "यह मुर्ख मेरी बात नहीं समझता" इसे समझा दीजिये की जल्दी से शौचालय साफ़ कर दे। मैंने हंसकर कहा - "अपनी प्यारी राष्ट्रभाषा में ही समझाइए।" इस पर वे शर्मिंदा हुए। मैंने कहार को मेहतर बुलाने के लिए भेज दिया। किन्तु एडिटर महोदय ने इसके बाद मुझसे आंख नहीं मिलाई।

भागलपुर आते हुए मैं लखनऊ रुका था। वहां श्रीमान जेम्स मेस्टन के यहाँ मेरी डॉ फिशर से भेंट हुई थी। वे बड़े प्रसिद्द शिक्षाविद और कैंब्रिज विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर हैं, भारतवर्ष में पब्लिक सर्विस कमीशन के सदस्य बनकर आये थे। उन्होंने कहां कि मैंने अपने जीवन में सैकड़ों भारतीय विद्यार्थियों को पढ़ाया हैं। वे कठिन से कठिन विषय में अंग्रेज विद्यार्थियों का मुकाबला कर सकते हैं, परन्तु स्वतंत्र विचार शक्ति उनमें नहीं हैं। उन्होंने मुझसे इसका कारण पूछा। मैंने कहा की यदि आप मेरे गुरुकुल चले तो इसका कारण प्रत्यक्ष दिखा सकता हूँ, कहने से क्या लाभ? जब तक शिक्षा का माध्यम मातृभाषा नहीं होगी, तब तक इस अभागे देश के छात्रों में स्वतंत्र और मौलिक चिंतन की शक्ति कैसे पैदा होगी ?

(100 वर्ष पहले दिए गए विचार आज भी कितने प्रसांगिक और यथार्थ हैं पाठक स्वयं अवगत हैं)


2. आर्यसमाज के इतिहास में अनेक प्रेरणादायक संस्मरण हैं जो अमर गाथा के रूप में सदा सदा के लिए प्रेरणा देते रहेंगे। एक ऐसी ही गाथा रोपड़ के लाला सोमनाथ जी की हैं। आप रोपड़ आर्यसमाज के प्रधान थे। आपके मार्गदर्शन में रोपड़ आर्यसमाज ने रहतियों की शुद्धि की थी। यूँ तो रहतियों का सम्बन्ध सिख समाज से था मगर उनके साथ अछूतों सा व्यवहार किया जाता था। आपके शुद्धि करने पर रोपड़ के पौराणिक समाज ने... आर्यसमाज के सभी परिवारों का बहिष्कार कर दिया एवं रोपड़ के सभी कुओं से आर्यसमाजियों को पानी भरने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। आखिर में नहर के गंदे पानी को पीने से अनेक आर्यों को पेट के रोग हो गए जिनमें से एक सोमनाथ जी की माता जी भी थी। उन्हें आन्त्रज्वर (Typhoid) हो गया था। वैद्य जी के अनुसार ऐसा गन्दा पानी पीने से हुआ था। सोमनाथ जी के समक्ष अब एक रास्ता तो क्षमा मांगकर समझोता करने का था और दूसरा रास्ता सब कुछ सहते हुए परिवार की बलि देने का था। आपको चिंताग्रस्त देखकर आपकी माताजी जी आपको समझाया की एक न एक दिन तो उनकी मृत्यु निश्चित हैं फिर उनके लिए अपने धर्म का परित्याग करना गलत होगा। इसलिए धर्म का पालन करने में ही भलाई हैं। सोमनाथ जी माता का आदेश पाकर चिंता से मुक्त हो गए एवं और अधिक उत्साह से कार्य करने लगे। उधर माता जी रोग से स्वर्ग सिधार गई तब भी विरोधियों के दिल नहीं पिघले। विरोध दिनों दिन बढ़ता ही गया। इस विरोध के पीछे गोपीनाथ पंडित का हाथ था। वह पीछे से पौराणिक हिन्दुओं को भड़का रहा था। सनातन धर्म गजट में गोपीनाथ ने अक्टूबर 1900 के अंक में आर्यों के खिलाफ ऐसा भड़काया की आर्यों के बच्चे तक प्यास से तड़पने लगे थे। सख्त से सख्त तकलीफें आर्यों को दी गई। लाला सोमनाथ को अपना परिवार रोपड़ लेकर से जालंधर लेकर जाना पड़ा। जब शांति की कोई आशा न दिखी दी तो महाशय इंदरमन आर्य लाल सिंह (जिन्हें शुद्ध किया गया था) और लाला सोमनाथ स्वामी श्रद्धानन्द (तब मुंशीराम जी) से मिले और सनातन गजट के विरुद्ध फौजदारी मुकदमा करने के विषय में उनसे राय मांगी। मुंशीराम जी उस काल तक अदालत में धार्मिक मामलों को लेकर जाने के विरुद्ध थे। कोई और उपाय न देख अंत में मुकदमा दायर हुआ जिस पर सनातन धर्म गजट ने 15 मार्च 1901 के अंक में आर्यसमाज के विरुद्ध लिखा "हम रोपड़ी आर्यसमाज का इस छेड़खानी के आगाज़ के लिए धन्यवाद अदा करते हैं की उन्होंने हमें विधिवत अदालत के द्वारा ऐलानिया जालंधर में हमें निमंत्रण दिया हैं। जिसको मंजूर करना हमारा कर्तव्य हैं। "


3 सितम्बर 1901 को मुकदमा सोमनाथ बनाम सीताराम रोपड़ निवासी" का फैसला भी आ गया। सीताराम अपराधी ने बड़े जज से माफ़ी मांगी। उसने अदालत में माफीनामा पेश किया। "मुझ सीताराम ने लाला सोमनाथ प्रधान आर्यसमाज रोपड़ के खिलाफ छपवाई थी, मुझे ऐसा अफ़सोस से लिखना हैं की इसमें आर्यों की तोहीन के खिलाफ बातें दर्ज हो गई थी। जिससे उनको सख्त नुकसान पहुंचा। इस कारण मैं बड़े अदब (शिष्टाचार) से मांफी मांगता हूँ। मैं लाला साहब के सुशील हालत के लिहाज से ऐसी ही इज्जत करता हूँ जैसा की इस चिट्ठी के छपवाने से पूर्व करता था। मैं उन्हें बरादारी से ख़ारिज नहीं समझता, उनके अधिकार साधारण व्यक्तियों सहित वैसे ही समझता हूँ जोकि पहिले थे। मुझे आर्य लोगों से कोई झगड़ा नहीं हैं। साधारण लोगों को सूचना के वास्ते यह माफीनामा अख़बार सत्यधर्म प्रचारक और अख़बार पंजाब समाचार लाहौर में और जैन धर्म शरादक लाहौर में प्रकाशित कराता हूँ। "

इस प्रकार से अनेक संकट सहते हुए आर्यों ने दलितोद्धार एवं शुद्धि के कार्य को किया था। मौखिक उपदेश देने में और जमीनी स्तर पर पुरुषार्थ करने में कितना अंतर होता हैं इसका यह यथार्थ उदहारण हैं। सोमनाथ जी की माता जी का नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हैं। सबसे प्रेरणादायक तथ्य यह हैं की किसी स्वर्ण ने अछूतों के लिए अपने प्राण न्योछावर किये हो ऐसे उदहारण केवल आर्यसमाज के इतिहास में ही मिलते हैं।



3. स्वामी दर्शनानन्द जी महाराज का सम्पूर्ण जीवन एक आदर्श सन्यासी के रूप में गुजरा। उनका परमेश्वर में अटूट विश्वास एवं दर्शन शास्त्रों के स्वाध्याय से उन्नत हुई तर्क शक्ति बड़ो बड़ो को उनका प्रशंसक बना लेती थी। संस्मरण उन दिनों का हैं जब स्वामी जी के मस्तिष्क में ज्वालापुर में गुरुकुल खोलने का प्रण हलचल मचा रहा था। एक दिन स्वामी जी हरिद्वार की गंगनहर के किनारे खेत में बैठे हुए गाजर...खा रहे थे। किसान अपने खेत से गाजर उखाड़कर , पानी से धोकर बड़े प्रेम से खिला रहा था। उसी समय एक आदमी वहां पर से घोड़े पर निकला। उसने स्वामी जी को गाजर खाते देखा तो यह अनुमान लगा लिया की यह बाबा भूखा हैं। उसने स्वामी जी से कहा बाबा गाजर खा रहे हो भूखे हो। आओ हमारे यहां आपको भरपेट भोजन मिलेगा। अब यह गाजर खाना बंद करो। स्वामी जी ने उसकी बातों को ध्यान से सुनकर पहचान कर कहा। तुम ही सीताराम हो, मैंने सब कुछ सुना हुआ हैं। तुम्हारे जैसे पतित आदमी के घर का भोजन खाने से तो जहर खाकर मर जाना भी अच्छा हैं। जाओ मेरे सामने से चले जाओ। सीताराम दरोगा ने आज तक अपने जीवन में किसी से डांट नहीं सुनी थी। उसने तो अनेकों को दरोगा होने के कारण मारापीटा था। आज उसे मालूम चला की डांट फटकार का क्या असर होता हैं। अपने दर्द को मन में लिए दरोगा घर पहुंचा। धर्मपत्नी ने पूछा की उदास होने का क्या कारण हैं। दरोगा ने सब आपबीती कह सुनाई। पत्नी ने कहा स्वामी वह कोई साधारण सन्यासी नहीं अपितु भगवान हैं। चलो उन्हें अपने घर ले आये। दोनों जंगल में जाकर स्वामी जी से अनुनय-विनय कर उन्हें एक शर्त पर ले आये। स्वामी जी को भोजन कराकर दोनों ने पूछा स्वामी जी अपना आदेश और सेवा बताने की कृपा करे।
सीताराम की कोई संतान न थी और धन सम्पति के भंडार थे। स्वामी जी ने समय देखकर कहा की सन्यासी को भोजन खिलाकर दक्षिणा दी जाती हैं। सीताराम ने कहा स्वामी जी आप जो भी आदेश देंगे हम पूरा करेंगे। स्वामी जी ने कहा धन की तीन ही गति हैं। दान, भोग और नाश। इन तीनों गतियों में सबसे उत्तम दान ही हैं। मैं निर्धन विद्यार्थियों को भारतीय संस्कृति के संस्कार देकर, सत्य विद्या पढ़ाकर विद्वान बनाना चाहता हूँ। इस पवित्र कार्य के लिए तुम्हारी समस्त भूमि जिसमें यह बंगला बना हुआ हैं। उसको दक्षिणा में लेना चाहता हूँ। इस भूमि पर गुरुकुल स्थापित करके देश, विदेश के छात्रों को पढ़कर इस अविद्या, अन्धकार को मिटाना चाहता हूँ। स्वामी जी का संकल्प सुनकर सीताराम की धर्मपत्नी ने कहा। हे पतिदेव हमारे कोई संतान नहीं हैं और हम इस भूमि का करेंगे क्या। स्वामी जी को गुरुकुल के लिए भूमि चाहिए उन्हें भूमि दे दीजिये। इससे बढ़िया इस भूमि का उपयोग नहीं हो सकता। सिताराम ने अपनी समस्त भूमि, अपनी सम्पति गुरुकुल को दान दे दी और समस्त जीवन गुरुकुल की सेवा में लगाया। एक जितेन्द्रिय, त्यागी, तपस्वी सन्यासी ने कितनो के जीवन का इस प्रकार उद्धार किया होगा। इसका उत्तर इतिहास के गर्भ में हैं मगर यह प्रेरणादायक संस्मरण चिरकाल तक सत्य का प्रकाश करता रहेगा।


4.नारायण स्वामी जी और दलितोद्धार

आर्यसमाज के महान नेता महात्मा नारायण स्वामी जी का जीवन आज हमारे लिए कदम कदम पर आर्य बनने की प्रेरणा दे रहा हैं। स्वामी जी की कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था। उनके जीवन के अनेक प्रसंगों में से दलितोद्धार से ...सम्बंधित दो प्रसंगों का पाठकों के लाभार्थ वर्णन करना चाहता हूँ। नारायण स्वामी जी तब मुरादाबाद आर्यसमाज के प्रमुख कर्णधार थे। आर्यसमाज में ईसाई एवं मुस्लमान भाइयों की अनेक शुद्धियाँ उनके प्रयासों से हुई थी जिसके कारण मुरादाबाद का आर्यसमाज प्रसिद्द हो गया। मंसूरी से डॉ हुकुम सिंह एक ईसाई व्यक्ति की शुद्धि के लिए उसे मुरादाबाद लाये। उनका पूर्व नाम श्री राम था व वह पहले सारस्वत ब्राह्मण थे। ईसाईयों द्वारा बहला-फुसला कर किसी प्रकार से ईसाई बना लिए गए थे। आपकी शुद्धि करना हिन्दू समाज से पंगा लेने के समान था। मामला नारायण स्वामी जी के समक्ष प्रस्तुत हुआ। अपने अंतरंग में निर्णय लिया की नाम मात्र की शुद्धि का कोई लाभ नहीं हैं। शुद्धि करके उसके हाथ से पानी पीने का नम्र प्रस्ताव रखा गया जो स्वीकृत हो गया। यह खबर पूरे मुरादाबाद में आग के समान फैल गई। शुद्धि वाले दिन अनेक लोग देखने के लिए जमा हो गए। शुद्धि कार्यकर्म सम्पन्न हुआ एवं शुद्ध हुए व्यक्ति के हाथों से आर्यों द्वारा जल ग्रहण किया गया। अब घोर विरोध के दिन आरम्भ हो गए। "निकालो इन आर्यों को जात से", "कोई कहार इनको पानी न दे", "कोई मेहतर इनके घर की सफाई न करे", "कोई इन्हें कुँए से पानी न भरने दे" ऐसे ऐसे अपशब्दों से आर्यों का सम्मान किया जाने लगा। बात कलेक्टर महोदय तक पहुँच गई। उन्होंने मुंशी जी को बुलाकर उनसे परामर्श किया। मुंशी जी ने सब सत्य बयान कर दिया तो कलेक्टर महोदय ने कहा की आर्य लोग इसकी शिकायत क्यों नहीं करते। मुंशी जी ने उत्तर दिया। "हम लोग स्वामी दयानंद के अनुयायी हैं। एक बार ऋषि को किसी ने विष दिया था। कोतवाल उसे पकड़ लाया। ऋषि ने कहा इसे छोड़ दीजिये। मैं लोगों को कैद करने नहीं अपितु कैद से मुक्त कराने आया हूँ। ये लोग मूर्खतावश आर्यों का विरोध करते हैं। इन्हें ज्ञान हो जायेगा तो स्वयं छोड़ देंगे। " अंत में कोलाहल शांत हो गया और आर्य अपने मिशन में सफल रहे।

5. एक अन्य प्रेरणादायक घटना नारायण स्वामी जी के वृन्दावन गुरुकुल प्रवास से सम्बंधित हैं। गुरुकुल की भूमि में गुरुकुल का स्वत्व में एक कुआँ था। उस काल में एक ऐसी प्रथा थी कुओं से मुस्लमान भिश्ती तो पानी भर सकते थे मगर चमारों को पानी भरने की मनाही थी। मुस्लमान भिश्ती चाहते तो पानीचमारों को दे सकते थे। कुल मिलाकर चमारों को पानी मुस्लमान भिश्तीयों की कृपा से मिलता था। जब नारायण स्वामी जी ने यह अत्याचार देखा तो उन्होंने चमारों को स्वयं से पानी भरने के लिए प्रेरित किया। चमारों ने स्वयं से पानी भरना आरम्भ किया तो उससे कोलाहल मच गया। मुस्लमान आकर स्वामी जी से बोले की कुआँ नापाक हो गया हैं क्यूंकि जिस प्रकार बहुत से हिन्दू हमको कुँए से पानी नहीं भरने देते उसी प्रकार हम भी इन अछूतों को कुँए पर चढ़ने नहीं देंगे। स्वामी जी ने शांति से उत्तर दिया "कुआँ हमारा हैं। हम किसी से घृणा नहीं करते। हमारे लिए तुम सब एक हो। हम किसी मुस्लमान को अपने कुँए से नहीं रोकते। तुम हमारे सभी कुओं से पानी भर सकते हो। जैसे हम तुमसे घृणा नहीं कर्ट, हम चाहते हैं की तुम भी चमारों से घृणा न करो।" इस प्रकार से एक अनुचित प्रथा का अंत हो गया।

आर्यसमाज के इतिहास में अनेक मूल्यवान घटनाएँ हमें सदा प्रेरणा देती रहेगी।

(साभार-श्री नारायण स्वामी जी महाराज का जीवन चरित्र। लेखक पंडित गंगा प्रसाद उपाध्याय, विश्वप्रकाश जी। )

6. मनुष्यता !

अपनी खेती कि देखभाल करके घर लौट रहे हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार और
कर्णधार आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को रास्ते में सहसा किसी के चिल्लाने की
ध्वनि सुनाई दी| शीघ्र जाकर देखा कि एक स्त्री को साँप ने काट लिया है| त्वारित्बुद्धि आचार्य को लगा कि यहाँ ऐसा कोई साधन नही है जिससे सर्प-विष को फैलने से रोका जाये| इसलिये उन्होंने फौरन यज्ञोपवीत(जनेऊ) तोड़ कर सर्प-दंश के ऊपरी हिस्से में मजबूती से बांध दिया| फिर सर्प-दंश को चाकू से चीरकर विषाक्त रक्त को बलात् बहार निकाल दिया|| उस स्त्री की प्राण-रक्षा हो गयी| इस बीच गाँव के बहुत से लोग इकट्ठे हो गये| वो स्त्री अछूत थी| इसलिये गाँव के पण्डितो ने नाराज़गी प्रकट करते हुए कहा “जनेऊ जैसी पवित्र वस्तु का इस्तेमाल इस औरत के लिये करके आपने धर्म कि लूटिया डुबो दी| हाय ! गज़ब कर दिया|"
विवेकी आचार्य ने कहा ‘अब तक नही मालूम तो अब से जान लीजिये, मनुष्य और मनुष्यता से बड़ा कोई धर्म नही होता| मैंने अपनी ओर से सबसे बड़े धर्म
का पालन किया है|

डॉ विवेक आर्य

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