24 सितम्बर, 2014 के हिंदुस्तान टाइम्स अख़बार में कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी द्वारा लिखा लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जातिवाद के विषय में मान्यता का विश्लेषण एवं मनुस्मृति पर जातिवाद का पोषण करने का आरोप लगाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हाल ही में कुछ पुस्तकों को प्रकाशित किया हैं जिनके माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया हैं की जातिवाद, छुआछूत आदि कुप्रथा का हिन्दू समाज में प्रवेश उस काल में हुआ जब भारत पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का राज था। इससे प्राचीन काल में छुआछूत का यहाँ के समाज में कोई स्थान नहीं था। येचुरी जैसे साम्यवादी विचारधारा को मानने वाले लोगो के लिए द्वारा इस लेख में पुरानी घिसी पिटी बातों जैसे की प्रक्षिप्त मनुस्मृति के जातिवाद समर्थक कुछ श्लोक, पुरुष सूक्त की गलत व्याख्या, आर्यों का छदम विदेशी आक्रमणकारी आदि को लिखना अपेक्षित हैं क्यूंकि उनके पास इसके अतिरिक्त और कुछ लिखने-कहने को हैं ही नहीं। मैंने इस लेख का शीर्षक सब गड़बड़ झाला हैं जानकार लिखा हैं क्यूंकि सत्य यह भी नहीं हैं जो संघ का विचार हैं और यह भी सत्य नहीं हैं जो येचुरी जैसे लोगो का मानना हैं यह भी सत्य नहीं हैं । दोनों का उद्देश्य अपना अपना वोट बैंक सहेजने का अधिक लगता हैं। प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था मुख्य व्यवस्था थी जिसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति का उसके गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित किया जाता था। एक ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण तभी कहलाता था जब वह ज्ञानवान हो, चरित्रवान हो, शुद्ध विचारों वाला एवं सात्विक कर्मों के द्वारा दूसरो का मार्गदर्शन करने की क्षमता रखता हो। एक क्षत्रिय का पुत्र तभी क्षत्रिय कहलाता था जब वह बलशाली हो, नेतृत्व की क्षमता रखता हो एवं राज्य की रक्षा करने के योग्य हो। एक वैश्य का पुत्र तभी वैश्य कहलाता था जब वह व्यापार आदि के माध्यम से राज्य की उन्नति करने के योग्य हो एवं इन सभी गुणों से विहीन व्यक्ति को शूद्र कहा जाता था और उसका कर्तव्य इन तीनों वर्णों का इनके कार्यों में सहयोग देना था। ब्राह्मण के पुत्र को गुणरहित होने शूद्र वर्ण में रखा जाता था एवं शूद्र के पुत्र को गुणवान होने पर ब्राह्मण का वर्ण दिया जाता था। प्राचीनकालीन वर्णव्यवस्था बिना किसी भेदभाव के एवं राज्य द्वारा संचालित थी। कालांतर में जातिवाद ने वर्णव्यवस्था का स्थान ले लिया। एक ब्राह्मण का पुत्र अशिक्षित, दुर्व्यवसनी, चरित्रहीन होते हुए भी ब्राह्मण कहलाने लगा एवं एक शूद्र का पुत्र सुशिक्षित, गुणी एवं सात्विक होते हुए भी शूद्र कहलाने लगा। इस कारण से अनेक गुणवान व्यक्ति अपनी प्रतिभा का अवसर दिखाने से वंचित रह गए एवं अनेक गुणरहित व्यक्ति महत्वपूर्ण पदों पर बैठकर समाज का अहित करते रहे। इससे देश और समाज का जो अहित हुआ उसका आंकलन करना असंभव हैं। यह व्याधि अभी भी बनी हुई हैं। आज आरक्षण के नाम पर गुणों से रहित व्यक्ति को महत्वपूर्ण पदों पर बैठा दिया जाता हैं एवं गुणवान व्यक्ति भूखों मरता हैं। समस्या यह हैं की संघ को इस समस्या का समाधान मालूम नहीं हैं और येचुरी सरीखे लोगो से इसकी अपेक्षा रखना मूर्खता हैं। मध्य काल में कुछ मूर्खों ने मनुस्मृति में जातिवादी श्लोकों को मिश्रित कर दिया था जिनका प्रयोग जातिवाद को बढ़ावा देने के लिए किया गया था। गलत को गलत कहने में कोई बुराई नहीं हैं मगर उस गलती के लिए महर्षि मनु को कोसना कहाँ तक सत्य हैं। यही गलती अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकने के लिए येचुरी कर रहे हैं। कुछ युवाओं के अपरिपक्व मस्तिष्क को सत्यता से अनभिज्ञ रखकर बरगला रहे हैं। आर्यों को बाहर से आया हुआ बतलाकर उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के मध्य मतभेद को बढ़ाना अंग्रेजों की पुरानी रणनीति थी जिसका अनुसरण येचुरी जैसे अवसरवादी नेता करते हैं। खेद हैं की इनका यथोचित उत्तर देने के स्थान पर संघ इस बीमारी का दोष मुस्लिम आक्रमणकारियों के सर मढ़ने का प्रयास कर रहा हैं । इस प्रयास से हमें संतुष्टि इसलिए नहीं हैं क्यूंकि दवा न मिलने से मर्ज यूँ का यूँ ही बना रहता हैं। इस समस्या का समाधान अगर पाना हैं तो स्वामी दयानंद की वैदिक विचारधारा से परिचित होना आवश्यक हैं। स्वामी दयानद
के अनुसार गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार मनुष्य के वर्ण का निर्धारण चाहिये। इस सन्दर्भ में सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में स्वामी जी प्रश्नोत्तर शैली में लिखते हैं।
प्रश्न- जिसके
माता-पिता अन्य
वर्णस्थ (क्षत्रिय,
वैश्य, शूद्र) हो क्या उनकी
संतान कभी
ब्राह्मण हो
सकती हैं?
उत्तर- बहुत
से हो
गये हैं,
होते हैं
और होंगे
भी। जैसे
छान्दोग्योपनिषद 4 /4 में जाबाल
ऋषि अज्ञात
कुल से,
महाभारत में
विश्वामित्र क्षत्रिय
वर्ण से
और मातंग
चांडाल कुल
से ब्राह्मण
हो गये
थे। अब
भी जो
उत्तम विद्या,
स्वाभाव वाला
हैं, वही ब्राह्मण
के योग्य
हैं और
मुर्ख ( गुण रहित)
शुद्र के
योग्य हैं।
स्वामी दयानंद
कहते हैं
कि ब्राह्मण
का शरीर
(मनु 2/28 के अनुसार)
रज वीर्य
से नहीं
होता हैं।
स्वाध्याय, जप, नाना
विधि होम
के अनुष्ठान,
सम्पूर्ण वेदों
को पढ़ने-पढ़ाने, इष्टि आदि
यज्ञों के
करने, धर्म से
संतान उत्पत्ति
मंत्र, महायज्ञ अग्निहोत्र
आदि यज्ञ,
विद्वानों के
संग, सत्कार, सत्य
भाषण, परोपकार आदि
सत्कर्म, दुष्टाचार छोड़
श्रेष्ठ आचार
में व्रतने
से ब्राह्मण
का शरीर
किया जाता
हैं। रज
वीर्य से
वर्ण व्यवस्था
मानने वाले
सोचे कि
जिसका पिता
श्रेष्ठ उसका
पुत्र दुष्ट
और जिसका
पुत्र श्रेष्ठ
उसका पिता
दुष्ट और
कही कही
दोनों श्रेष्ठ
व दोनों दुष्ट
देखने में
आते हैं।
जो लोग
गुण, कर्म, स्वभाव
से वर्ण
व्यवस्था न
मानकर रज
वीर्य से
वर्ण व्यवस्था
मानते हैं
उनसे पूछना
चाहिये कि
जो कोई
अपने वर्ण
को छोड़
नीच, अन्त्यज्य अथवा
कृष्टयन, मुस्लमान हो
गया हैं
उसको भी
ब्राह्मण क्यूँ
नहीं मानते?
इस पर
यही कहेगे
कि उसने
"ब्राह्मण के
कर्म छोड़
दिये इसलिये
वह ब्राह्मण
नहीं हैं"
इससे यह
भी सिद्ध
होता हैं
कि जो
ब्राह्मण आदि
उत्तम कर्म
करते हैं
वही ब्राह्मण
और जो
नीच भी
उत्तम वर्ण
के गुण,
कर्म स्वाभाव
वाला होवे,
तो उसको
भी उत्तम
वर्ण में,
और जो
उत्तम वर्णस्थ
हो के
नीच काम
करे तो
उसको नीच
वर्ण में
गिनना अवश्य
चाहिये।
सत्यार्थ प्रकाश
अष्टम समुल्लास
में स्वामी
दयानंद लिखते
हैं श्रेष्ठों
का नाम
आर्य, विद्वान, देव
और दुष्टों
के दस्यु
अर्थात डाकू,
मुर्ख नाम
होने से
आर्य और
दस्यु दो
नाम हुए।
आर्यों में
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य
एवं शुद्र
चार भेद
हुए। मनु
स्मृति के
अनुसार जो
शुद्र कुल
में उत्पन्न
होके ब्राह्मण,
क्षत्रिय और
वैश्य गुण,
कर्म स्वभाव
वाला हो
तो वह
शुद्र ब्राह्मण,
क्षत्रिय और
वैश्य हो
जाये। वैसे
ही जो
ब्राह्मण क्षत्रिय
और वैश्य
कुल में
उत्पन्न हुआ
हो और
उसके गुण,
कर्म स्वभाव
शुद्र के
सदृश्य हो
तो वह
शुद्र हो
जाये। वैसे
क्षत्रिय वा
वैश्य के
कुल में
उत्पन्न होकर
ब्राह्मण, ब्राह्मणी वा
शुद्र के
समान होने
से ब्राह्मण
वा शुद्र
भी हो जाता
हैं। अर्थात
चारों वर्णों
में जिस
जिस वर्ण
के सदृश्य
जो जो
पुरुष वह
स्त्री हो
वह वह
उसी वर्ण
में गिना
जावे।
आपस्तम्भ सूत्र
2/5/1/1 का प्रमाण
देते हुए
स्वामी दयानंद
कहते हैं
धर्माचरण से
निकृष्ट वर्ण
अपने से
उत्तम उत्तम
वर्णों को
प्राप्त होता
हैं,और वह
उसी वर्ण
में गिना
जावे, कि जिस
जिस के
योग्य होवे।
वैसे ही
अधर्माचरण से
पूर्व पूर्व
अर्थात उत्तम
उत्तम वर्ण
वाला मनुष्य
अपने से
नीचे-नीचे वाले
वर्णो को
प्राप्त होता
हैं, और उसी
वर्ण में
गिना जावे।
स्वामी दयानंद
जातिवाद के
प्रबल विरोधी
और वर्ण
व्यवस्था के
प्रबल समर्थक
थे। वेदों
में शूद्रों
के पठन
पाठन के
अधिकार एवं
साथ बैठ
कर खान
पान आदि
करने के
लिए उन्होंने
विशेष प्रयास
किये थे।
स्वामी दयानंद
का वैदिक
चिंतन इस
विषय में
मार्गदर्शन करने
वाली क्रांतिकारी
सोच हैं।
वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है । कही भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है।
हे मनुष्यों!
जैसे मैं
परमात्मा सबका
कल्याण करने
वाली ऋग्वेद
आदि रूप
वाणी का
सब जनों
के लिए
उपदेश कर
रहा हूँ,
जैसे मैं
इस वाणी
का ब्राह्मण
और क्षत्रियों
के लिए
उपदेश कर
रहा हूँ,
शूद्रों और
वैश्यों के
लिए जैसे
मैं इसका
उपदेश कर
रहा हूँ
और जिन्हें
तुम अपना
आत्मीय समझते
हो , उन सबके
लिए इसका
उपदेश कर
रहा हूँ
और जिसे
‘अरण’
अर्थात पराया
समझते हो,
उसके लिए
भी मैं
इसका उपदेश
कर रहा
हूँ, वैसे ही
तुम भी
आगे आगे
सब लोगों
के लिए
इस वाणी
के उपदेश
का क्रम
चलते रहो।
(यजुर्वेद 26 /2)
प्रार्थना हैं
की हे
परमात्मा ! आप मुझे
ब्राह्मण का,
क्षत्रियों का,
शूद्रों का
और वैश्यों
का प्यारा
बना दें।इस
मंत्र का
भावार्थ ये
हैं की
हे परमात्मा
आप मेरा
स्वाभाव और
आचरण ऐसा
बन जाये
जिसके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय,
शुद्र और
वैश्य सभी
मुझे प्यार
करें। (अथर्ववेद 19/62/1)
हे परमात्मन
आप हमारी
रुचि ब्राह्मणों
के प्रति
उत्पन्न कीजिये,
क्षत्रियों के
प्रति उत्पन्न
कीजिये, विषयों के
प्रति उत्पन्न
कीजिये और
शूद्रों के
प्रति उत्पन्न
कीजिये। मंत्र
का भाव
यह हैं
की हे
परमात्मन! आपकी कृपा
से हमारा
स्वाभाव और
मन ऐसा
हो जाये
की ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और
शुद्र सभी
वर्णों के
लोगों के
प्रति हमारी
रूचि हो। सभी वर्णों
के लोग
हमें अच्छे
लगें, सभी वर्णों
के लोगों
के प्रति
हमारा बर्ताव
सदा प्रेम
और प्रीति
का रहे।
(यजुर्वेद 18/46)
हे शत्रु
विदारक परमेश्वर
मुझको ब्राह्मण
और क्षत्रिय
के लिए,
वैश्य के
लिए, शुद्र के
लिए और
जिसके लिए
हम चाह
सकते हैं
और प्रत्येक
विविध प्रकार
देखने वाले
पुरुष के
लिए प्रिय
करे। (अथर्ववेद 19/32/8)
इस प्रकार
वेद की
शिक्षा में
शूद्रों के
प्रति भी
सदा ही
प्रेम-प्रीति का
व्यवहार करने
और उन्हें
अपना ही
अंग समझने
की बात
कही गयी
हैं।
वेदों में
शूद्रों को
आर्य बताया
गया हैं
इसलिए उन्हें
अछूत समझने
का प्रश्न
ही नहीं
उठता हैं।
वेदादि शास्त्रों
के प्रमाण सिद्ध होता
हैं कि
ब्राह्मण वर्ग
से से
लेकर शुद्र
वर्ग आपस
में एक
साथ अन्न
ग्रहण करने
से परहेज
नहीं करते
थे। वेदों
में स्पष्ट
रूप से
एक साथ
भोजन करने
का आदेश
हैं।
हे मित्रों
तुम और
हम सब
मिलकर बलवर्धक
और सुगंध
युक्त अन्न
को खाये
अर्थात सहभोज
करे। (ऋग्वेद 9/98/12)
हे मनुष्यों
तुम्हारे पानी
पीने के
स्थान और
तुम्हारा अन्न
सेवन अथवा
खान पान
का स्थान एक
साथ हो।
(अथर्ववेद 6/30/6)
वेदों में
शुद्र को
अत्यंत परिश्रमी
कहा गया
हैं।
यजुर्वेद 30/5 में
आता हैं
"तपसे शूद्रं"
अर्थात श्रम
अर्थात मेहनत
से अन्न
आदि को
उत्पन्न करने
वाला तथा
शिल्प आदि
कठिन कार्य आदि का
अनुष्ठान करने
वाला शुद्र
हैं। तप
शब्द का
प्रयोग अनंत
सामर्थ्य से
जगत के
सभी पदार्थों
कि रचना
करने वाले ईश्वर
के लिए
वेद मंत्र
में हुआ
हैं।
ऋग्वेद 5/60/5 में
आता हैं
कि मनुष्यों
में न
कोई बड़ा
है , न कोई
छोटा हैं। सभी आपस
में एक
समान बराबर
के भाई
हैं। सभी
मिलकर लौकिक
एवं पारलौकिक
सुख एवं
ऐश्वर्य कि
प्राप्ति करे।
इस प्रकार
से स्वामी
दयानंद की
वैदिक विचारधारा
को मानने
से, प्रक्षिप्त मनुस्मृति
के त्याग
से, जातिवाद के
स्थान पर
वर्ण व्यवस्था
को सुचारू
रूप से
लागु करने
से ही
हिन्दू समाज
में एकता
संभव हैं।
मुस्लिम आक्रमणकारियों की देन
बताकर जातिवाद
का विनाश
करने की
कल्पना अपरिपक्व
सोच हैं।
आशा हैं
मेरे इस
लेख के
आशय को
समझकर मानवता
पर जातिवाद
के रूप
में अत्याचार के
विरुद्ध सभी
सार्थक पहल
करेंगे तभी
इस जातिवादी
दानव का
नाश होगा।
डॉ विवेक
आर्य
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