Sunday, November 30, 2014

शाकाहार vs मांसाहार


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श्रीमान मुहम्मद फारूख खान जी द्वारा लिखित "दयाभाव और मांसाहार " नामक १४ पृष्टीय लेख पढ़ने को मिला |

आपका कथन है-
"कुछ लोग कहते है की मांसाहारियों को ईश्वर ने दांत और पंजे दिये है जो की इस बात का प्रमाण है की वे शिकारी है परंतु मनुष्यों को नहीं दिये | इस प्रकार की बात करने वाला यह नहीं सोचता है की ईश्वर ने जो मनुष्य को चीरने और पकड़ने के लिये दांत और पंजे नहीं दिये मगर उसको बुद्धि दी है जिसके द्वारा वह अपने उपयोग के लिये अच्छे से अच्छा हथियार बन सकता है | ईश्वर ने पशुओं को ठंडी से बचने के लिये मोटी चमडी और बड़ी चमडी दी है , तब मनुष्य को उसने बुद्धि दी है जिससे काम लेकर वह अपने लिये अच्छी से अच्छी शाल और कंबल तैयार कर सकता है पशुओं के शरीर पर उन व बाल देखकर कोई भी मनुष्य यह परिणाम खोजने लगे की मनुष्य को उनी वस्त्रों का उपयोग नहीं करना चाहिये स्पष्ट है की इस प्रकार का विचार बड़ा हास्यास्पद है |"
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समीक्षा -
______ आपका यह तर्क निश्चित ही सुन्दर व प्रभावी है परंतु आप यह न सोचें की शाकाहारियों के पास यही एक रामबाण है | हमारे पास अन्य अनेकों अस्त्र शस्त्र तर्क है जिन से बचना (उत्तर देना ) मांसाहारियों के वश की बात नहीं |
1 सर्वप्रथम तो प्रकवर्णित तर्कों , वैज्ञानिक व आर्थिक तथ्यों का कोई उत्तर आपके पास है नहीं |

2 चलिये पंजों का काम हथियार ने कर लिया परंतु जो दांत रचना मांसाहारियों व शाकाहारियों की भिन्‍न है उसका क्या करेंगे ?दांत 3 श्रेणियों के होते है काटने वाले , पकड़ने या फाड़ने वाले , पीसने या चबाने वाले | मांसाहारियों में पकड़ने वाले दांत अति नुकीले व तीक्ष्ण होते है , वे हमारे पास नहीं है | मसाहारियों का जबड़ा अगल बगल नहीं हटता जिस से वे अपना आहार पीस नहीं सकते बल्कि चबा ही सकते है , जबकि हमारे दाढ पीसने का ही काम करते है |

3 मांसाहारी जानवरों का आमाशय लगभग गोल और आँतें मुह से पुच्छ मूल तक की लंबाई से 3 से 5 गुनी तक होती है जबकि हमारी आँतें पूरे शरीर से दस से बारह गुनी होती है और सिर से रीढ़ की अंतिम केशरूका से लगभग 24 गुनी | उधर घास खाने वाले पशुओं में लगभग 20 से 28 गुनी होती है | आप विचारें की हमारी आँतें मांसाहारी की अपेक्षा शाकाहारी पशुओं से ही समानता रखती है |

अब आपकी मांसाहार से निर्मित बुद्धि आंतों को छोटी तो नहीं कर पायेगी ? आमाशय को गोल तो नहीं किया जा सकेगा ?

4 जिस बच्चे ने पशुवध के विषय में कुछ नहीं सुना है , वह यदि मांस खाता भी हो तो भी किसी मोटे ताजे बकरे अथवा बैल को देखकर लालायित नहीं होगा जबकि मांसाहारी प्राणी लालायित ही होगा |

5 शाकाहारियों में पाचन मुह से प्रारंभ होता है जबकि मांसाहारियों का पाचन आमाशय से प्रारंभ होता है |

6 मांसाहारी जनवर मांस के साथ हड्डी भी खाते है परंतु मानव हड्डी नहीं खा सकता

7 शाकाहारियों की लार मे क्षारीय एंजाइम टाइलिन सोलाइवा एमाईलेस होता है जो स्टार्च को पछता है जबकि मांसाहारियों की लार अम्लीय होती है |

8 शाकाहारियों के नवजात शिशु को मांसाहार पर जीवित व स्वस्थ नहीं रखा जा सकता मांसाहारी पशु व महिलाओं में दूध भी कम उतरता है

9 मांसाहारी रात्रि में भी स्पष्ट देखते है | उनकी आँखें चमकीली व गोल होती है जबकि शाकाहारी की आँखें ऐसी नई होती |

10 शाकाहारी प्रायः होठ लगाकर पानी पीते है जबकि मांसाहारी जीभ से पानी पीते है |

11 फूल ,पत्ती, फल, गुलदस्तों से घरों को सजाकर ही मानव का चित्त प्रसन्न रहता है जबकि घोर मांसाहारी भी अपने घर द्वार फर्नीचर को मास चमड़ा खून हड्डी आदि से सजना नहीं चाहेगा | इस से सिद्ध होता है की मानव को इन पदार्थों से स्वभाविक घृणा है |

12 मांसाहारी जनवर को देखते ही उनके भक्ष्य जनवर भाग खड़े होते है और चीखते व चिल्लाते है जैसे बिल्ली को देखते ही पक्षी गिलहरी आदि भागकर चीखते व चिल्लाते है जबकि फारूख साहब आपको सहज स्थिति में देखकर बकरे मुर्गे गाय गधे भैंस भाग नहीं सकते और न भयभीत होकर चीखने लगेंगे

महाशय क्या यह 12 वर्णित भेद आपकी समझ में नहीं आते ?
किस कुदरत व खुदा पर यह आरोप लगा रहे है की उसने पशुओं को हमारे खाने के लिये बनाया तो वह खुदा कुरान का मनुष्‍यवत खुदा हो सकता है अथवा हजरत मुहम्मद का आदेश हो सकता है न की सृष्टि का सृजन करने हारा , पालनहार व नियंता परमात्मा | क्यूं की यदि ईश्वर को यही स्वीकार होता तो वा हमरी शरीर रचना भी मांसाहारियों के समान क्यूं नहीं बनाता?

- आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक

Chanakya's most popular quotes



Chanakya's most popular quotes

Chanakya on Lust

There is no disease so destructive as lust. There is no disease so destructive as lust. Chanakya described lust as the biggest barrier in a man's growth. Lusty individual would never be able to concentrate of other requisites of life. However, Chanakya was not against sex.

Chanakya on Self Improvement..

Before you start some work, always ask yourself three questions : 1. Why am I doing it. 2. What the results might be and 3. Will I be successful. Only when you think deeply and find satisfactory answers to these questions, go ahead.


Chanakya on Family

He who is overly attached to his family members experiences fear and sorrow, for the root of all grief is attachment. Thus one should discard attachment to be happy.

Chanakya on Kingdom

If the king is pious, the subjects become so; but if the king is vicious, the subjects become the same. If he be indifferent to both (virtue and vice), then they too bear the same character. In short, as is the king so are his subjects.


Chanakya on Failures

Once you start a working on something, don't be afraid of failure and don't abandon it. People who work sincerely are the happiest."

Chanakya on Education

Education is the best friend. An educated person is respected everywhere. Education beats the beauty and the youth

Chanakya on Good Person

The fragrance of flowers spreads only in the direction of the wind. But the goodness of a person spreads in all directions.

Chanakya on Parenting
For five years one’s son should be pampered, the next ten years he should be beaten (meaning he must be disciplined) and once he turns sixteen he should be treated as a friend.

Chanakya on Dharma
For one in an alien land learning is friend, for one staying at home mother is friend , for one suffering from illness medicine is friend and for the departed souls dharma is friend.

Chanakya on Kids
What is the purpose of having a son who is neither learned nor devoted to God? It is useless to have a blind eye which will only result in eye-ache.

Chanakya on Generations
Even as a single good tree with fragrant flowers can spread the fragrance in the entire forest, so also the entire family (or clan) shines by a son possessing good qualities.

Chanakya on Scholars
Scholarship and kingship can never be equated. A king is respected in his own kingdom whereas a scholar is respected everywhere.

Chanakya on Fool men
A wise man has all qualities in him, a fool has only faults. Therefore a single wise person is better than a thousand fools.

Saturday, November 29, 2014

गधे की मजार




एक फकीर किसी बंजारे की सेवा से बहुत प्रसन्‍न हो गया। और उस बंजारे को उसने एक गधा भेंट किया। बंजारा बड़ा प्रसन्‍न था गधे के साथ। अब उसे पेदल यात्रा न करनी पड़ती थी। सामान भी अपने कंधे पर न ढोना पड़ता था। और गधा बड़ा स्‍वामीभक्‍त था।
लेकिन एक यात्रा पर गधा अचानक बीमार पडा और मर गया। दुःख में उसने उसकी कब्र बनायी, और कब्र के पास बैठकर रो रहा था कि एक राहगीर गुजरा। उस राहगीर ने सोचा कि जरूर किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी है। तो वह भी झुका कब्र के पास। इसके पहले कि बंजारा कुछ कहे, उसने कुछ रूपये कब्र पर चढ़ाये। बंजारे को हंसी भी आई आयी। लेकिन तब तक भले आदमी की श्रद्धा को तोड़ना भी ठीक मालुम न पडा। और उसे यह भी समझ में आ गया कि यह बड़ा उपयोगी व्‍यवसाय है।
फिर उसी कब्र के पास बैठकर रोता, यही उसका धंधा हो गया। लोग आते, गांव-गांव खबर फैल गयी कि किसी महान आत्‍मा की मृत्‍यु हो गयी। और गधे की कब्र किसी पहूंचे हुए फकीर की समाधि बन गयी। ऐसे वर्ष बीते, वह बंजारा बहुत धनी हो गया।
फिर एक दिन जिस सूफी साधु ने उसे यह गधा भेंट किया था। वह भी यात्रा पर था और उस गांव के करीब से गुजरा। उसे भी लोगों ने कहा, "एक महान आत्‍मा की कब्र है यहां, दर्शन किये बिना मत चले जाना।"
वह गया देखा उसने इस बंजारे को बैठा, तो उसने कहा, "किसकी कब्र है यहा, और तू यहां बैठा क्‍यों रो रहा है ?"
उस बंजारे ने कहां, "अब आप से क्‍या छिपाना, जो गधा आप ने दिया था। उसी की कब्र है। जीते जी भी उसने बड़ा साथ दिया और मर कर और ज्‍यादा साथ दे रहा है।"
सुनते ही फकीर खिल खिलाकर हंसाने लगा। उस बंजारे ने पूछा - "आप हंसे क्‍यों ?"
फकीर ने कहां - "तुम्‍हें पता है। जिस गांव में मैं रहता हूं वहां भी एक पहूंचे हएं महात्‍मा की कब्र है। उसी से तो मेरा काम चलता है।"
बंजारे ने पूछा - "वह किस महात्‍मा की कब्र है ?"
फकीर ने जवाब दिया- "वह इसी गधे की मां की।
शिक्षा- जो लोग यह कहते हैं कि केवल आस्था से ही ईश्वर की भक्ति संभव हैं उन्हें यह नहीं मालूम की बिना ज्ञान के आस्था अन्धविश्वास कहलाती हैं।

संस्कृत भाषा की महता



आज संस्कृत एवं जर्मन भाषा को लेकर चर्चा जोरो पर हैं। तीसरी भाषा के रूप में केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन के स्थान पर संस्कृत भाषा को लागु करने के सरकार के फैसले का कुछ लोग जोर शोर से विरोध कर रहे हैं। उनका कहना हैं की जर्मन जैसी विदेशी भाषा को सीखने से रोजगार के नवीन अवसर मिलने की अधिक सम्भावना हैं जबकि संस्कृत सीखने का कोई लाभ नहीं हैं। कोई भी व्यक्ति जो संस्कृत भाषा कि महता से अनभिज्ञ हैं इसी प्रकार की बात करेगा परन्तु जो संस्कृत भाषा सीखने के लाभ जानता हैं उसकी राय निश्चित रूप से संस्कृत के पक्ष में होगी। संस्कृत भाषा को जानने का सबसे बड़ा लाभ यह हैं कि हमारे धर्म ग्रन्थ जैसे वेद, दर्शन, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, गीता इत्यादि में वर्णित नैतिक मूल्यों, सदाचार,चरित्रता, देश भक्ति, बौद्धिकता शुद्ध आचरण आदि गुणों को संस्कृत की सहायता से जाना जा सकता हैं। जो जीवन में हर कदम पर मार्गर्दर्शन करने में परम सहायक हैं। मनुष्य जीवन का उद्देश्य केवल आजीविका कमाना भर नहीं हैं। अगर ऐसा होता तो मनुष्य एवं पशु में कोई अंतर नहीं होता क्यूंकि पेट भरना, बच्चे पैदा करना और उनका लालन पोषण करना दोनों में एक समान हैं। मनुष्य के पास कर्म करने की स्वतंत्रता हैं एवं कर्म करते हुए आध्यात्मिक उन्नति करना उसके जीवन का लक्ष्य हैं। इस उन्नति में नैतिक मूल्यों का यथार्थ योगदान हैं। इन मार्गदर्शक मूल्यों को वेदादि धर्म ग्रंथों के माध्यम से प्रभावशाली रूप से सीखा जा सकता हैं।
              एक उदहारण से इस विषय को समझने का प्रयास करते हैं। एक सेठ की तीन पुत्र थे। वृद्ध होने पर उसने उन तीनों को आजीविका कमाने के लिए कहा और एक वर्ष पश्चात उनकी परीक्षा लेने का वचन दिया और कहा जो सबसे श्रेष्ठ होगा उसे ही संपत्ति मिलेगी। तीनों अलग अलग दिशा में चल दिए। सबसे बड़ा क्रोधी और दुष्ट स्वाभाव का था। उसने सोचा की मैं जितना शीघ्र धनी बन जाऊंगा उतना पिताजी मेरा मान करेंगे। उसने चोरी करना, डाके डालना जैसे कार्य आरम्भ कर दिए एवं एक वर्ष में बहुत धन एकत्र कर लिया। दूसरे पुत्र ने जंगल से लकड़ी काट कर, भूखे पेट रह कर धन जोड़ा मगर उससे उसका स्वास्थ्य बेहद कमजोर हो गया , तीसरे पुत्र ने कपड़े का व्यापार आरम्भ किया एवं ईमानदारी से कार्य करते हुए अपने आपको सफल व्यापारी के रूप में स्थापित किया। एक वर्ष के पश्चात पिता की तीनों से भेंट हुई।  पहले पुत्र को बोले तुम्हारा चरित्र और मान दोनों गया मगर धन रह गया इसलिए तुम्हारा सब कुछ गया क्यूंकि मान की भरपाई करना असंभव हैं, दूसरे पुत्र को बोले तुम्हारा तन गया मगर धन रह गया इसलिए तुम्हारा कुछ कुछ गया और जो स्वास्थ्य  का तुम्हें नुक्सान हुआ हैं उसकी भरपाई संभव हैं, तीसरे पुत्र को बोले तुम्हारा मान और धन दोनों बना रहा इसलिए तुम्हारा सब कुछ बना रहा। ध्यान रखो मान-सम्मान तन और धन में सबसे कीमती हैं।
              यह मान सम्मान, यह नैतिकता, यह विचारों की पवित्रता, यह श्रेष्ठ आचरण, यह चरित्रवान होना यह सब उस शिक्षा से ही मिलना संभव हैं जिसका आधार वैदिक हैं और जिस शिक्षा का उद्देश्य केवल जीविकोपार्जन हैं उससे इन गुणों की अपेक्षा रखना असंभव हैं। यह केवल उसी शिक्षा से संभव हैं जो मनुष्य का निर्माण करती हैं। मनुष्य निर्माण करने और सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान से प्रभावित करने की अपार क्षमता केवल हमारे वेदादि धर्म शास्त्रों में हैं और इस तथ्य को कोई नकार नहीं सकता हैं। एक साधारण से उदहारण से हम इस समझ सकते हैं कि जीवन यापन के लिए क्या क्या करना चाहिए यह आधुनिक शिक्षा से सीखा जा सकता हैं मगर जीवन जीने का क्या उद्देश्य हैं यह धार्मिक शिक्षा ही सिखाती हैं। समाज में शिक्षित वर्ग का समाज के अन्य वर्ग पर पर्याप्त प्रभाव होता हैं। अगर शिक्षित वर्ग सदाचारी एवं गुणवान होगा तो सम्पूर्ण समाज का नेतृत्व करेगा। अगर शिक्षित वर्ग मार्गदर्शक के स्थान पर पथभ्रष्टक होगा तो समाज को अन्धकार की और ले जायेगा।
     इसके अतिरिक्त जर्मन सीखने वाले कितने बच्चे भविष्य में जर्मनी जाकर आजीविका ग्रहण करेंगे यह तो केवल एक अनुमान मात्र हैं। मगर नैतिक शिक्षा ग्रहण कर समाज में आदर्श सदस्य बनने वाले समाज का निश्चित रूप से हित करेंगे। इसमें कोई दौराय नहीं हैं। इसलिए समाज का हित देखते हुए संस्कृत भाषा के माध्यम से नैतिक मूल्यों की शिक्षा देकर समाज का आदर्श नागरिक बनाना श्रेयकर हैं।

डॉ विवेक आर्य



          

Thursday, November 20, 2014

पाप का घड़ा एक न एक दिन भरता अवश्य है



बोध कथा



राम और श्याम दो मित्र थे। दोनों ने दूध बेचने का व्यापार आरम्भ किया। राम स्वाभाव से ईमानदार, शांतिप्रिय, सज्जन व्यवहार का था जबकि श्याम कुटिल, लालची एवं क्रूर स्वाभाव का था। राम ने सदा ईमानदारी से दूध बेचा और कभी मिलावट नहीं करी। जबकि श्याम पानी मिला मिलाकर दूध बेचता रहा। धीरे धीरे श्याम धनी बनता गया और उसके पास अपना मकान, सम्पति आदि हो गए जबकि राम निर्धन का निर्धन बना रहा।
धीरे धीरे राम के मन में एक विचार बार बार  घर करने लगा कि क्या कलियुग में अधर्म से ही सुख मिलता हैं? राम के मन में यह विचार उठ ही रहा  था कि एक साधु उनके गांव में पधारे। राम ने उनके समीप जाकर कहा- महात्मा जी मनुष्य धर्म से फलता हैं अथवा अधर्म से फलता हैं। महात्मा जी मुस्कुराएं एवं राम को अगले दिन इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए आने को कहा।
राम जब अगले दिन उनके समीप पहुंचा तो उसने देखा की महात्मा जी के यहाँ पर धरती में आठ फुट गहरा गढ़ा खुदा हुआ हैं। महात्मा जी ने राम को उस गढ़े में खड़े होने को कहा। अब उस गढ़े में जल डाला जाने लगा। जब जल राम के पैरों तक पहुँच गया तो महात्मा जी ने पूछा कोई कष्ट। राम ने उत्तर दिया नहीं कोई कष्ट नहीं हैं। जब जल राम कि कमर तक पहुँच गया तो महात्मा जी ने पूछा कोई कष्ट। राम ने उत्तर दिया नहीं कोई कष्ट नहीं हैं। जब जल राम कि गर्दन तक पहुँच गया तो महात्मा जी ने पूछा कोई कष्ट। राम ने उत्तर दिया नहीं कोई कष्ट नहीं हैं। जब जल राम के सर तक पहुँच गया तो महात्मा जी ने पूछा कोई कष्ट। राम ने उत्तर दिया महात्मा जी बाहर निकालिये नहीं तो जान पर बन आएगी।
महात्मा जी ने राम को बाहर निकाला और पूछा अपने प्रश्न का उत्तर समझे। राम ने कहा जी नहीं समझा। महात्मा जी ने कहा- “जब पानी आपके पैरों, कमर, गर्दन तक पंहुचा तब तक आपको कष्ट नहीं हुआ और जैसे ही सर तक पहुँचा आपके प्राण निकलने के हो गए। इसी प्रकार से पापी व्यक्ति के पाप जब एक सीमा तक बढ़ते जाते हैं तब  एक समय ऐसा आता हैं कि उसके फल से उसका बच निकलना संभव नहीं होता और वह निश्चित रूप से अपने पापों का फल भोगता हैं। मगर पापों का फल मिलना निश्चित हैं”
“अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दशवर्षाणि तिष्ठति
प्राप्त एकादशे वर्षे समूल्ञ्च् विनश्यति”
शिक्षा- पाप का घड़ा एक न एक दिन भरता अवश्य है।

क्या आप स्वामी हैं अथवा सेवक हैं?


बोध कथा


एक गांव में एक व्यक्ति रहता था जिसके पास एक घोड़ा था। उस व्यक्ति ने अपने घोड़े की सेवा करने के लिए एक सेवक रखा हुआ था। वह सेवक हर रोज प्रात: चार बजे उठता, घोड़े को पानी पिलाता, खेत से घास लेकर उसे खिलाता,चने भिगो कर खिलाता और उसका शौच हटाता, उसे लेकर जाने के लिए तैयार करता, उसके बालों को साफ करता, उसकी पीठ को सहलाता। यही कार्य सांयकाल में दोबारा से किया जाता। इसी दिनचर्या में पूरा दिन निकल जाता। अनेक वर्षों में सेवक ने कभी घोड़े के ऊपर चढ़कर उसकी सवारी करने का आनंद नहीं लिया। जबकि मालिक प्रात: उठकर तैयार होकर घर से बाहर निकलता तो उसके लिए घोड़ा तैयार मिलता हैं । वह घोड़े पर बैठकर, जोर से चाबुक मार मार कर घोड़े को भगाता था और अपने लक्ष्य स्थान पर जाकर ही रुकता था। चाबुक से घोड़े को कष्ट होता था और उसके शरीर पर निशान तक पड़ते मगर मालिक कभी ध्यान नहीं देता था। मालिक का उद्देश्य घोड़ा नहीं अपितु लक्ष्य तक पहुँचना था।
जानते हैं कि मालिक कौन हैं और सेवक कौन हैं और घोड़ा कौन हैं? यह मानव शरीर घोड़ा हैं। इस शरीर को सुबह से लेकर शाम तक सजाने वाला, नए नए तेल, उबटन, साबुन, शैम्पू, इत्र , नए नए ब्रांडेड कपड़े, जूते, महंगी घड़ियाँ और न जाने किस किस माध्यम से जो इसको सजाता हैं वह सेवक हैं अर्थात इस शरीर को प्राथिमकता देने वाला मनुष्य सेवक के समान हैं। वह कभी इस शरीर का प्रयोग जीवन के लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए नहीं करता अपितु उसे सजाने-संवारने में ही लगा रहता हैं, जबकि वह जानता हैं की एक दिन वृद्ध होकर उसे यह शरीर त्याग देना हैं। जबकि जो मनुष्य इन्द्रियों का दमन कर इस शरीर का दास नहीं बनता अपितु इसका सदुपयोग जीवन के उद्देश्य को, जीवन के लक्ष्य को सिद्ध करने में करता हैं वह इस शरीर का असली स्वामी हैं। चाहे इस कार्य के लिए शरीर को कितना भी कष्ट क्यों न देना पड़े, चाहे कितना महान तप क्यों न करना पड़े, यम-नियम रूपी यज्ञों को सिद्ध करते हुए समाधी अवस्था तक पहुँचने के लिए इस शरीर को साधन मात्र मानने वाला व्यक्ति ही इस शरीर का असली स्वामी हैं।
आप स्वयं विचार करे क्या आप स्वामी हैं अथवा सेवक हैं?
डॉ विवेक आर्य

मेरे जीवन का एक अनुभव



मेरे जीवन का एक अनुभव


अपने जीवन में छात्रावस्था में मुझे तमिलनाडु एवं मध्य प्रदेश दोनों प्रदेशों में पढ़ने का अवसर मिला। चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े होने के कारण आपको एक अनुभव बताना चाहता हूँ। तमिलनाडु में लोग बीमार मरीज को हस्पताल से जबरन छुट्टी करवा कर चर्च ले जाकर प्रार्थना करवाते हैं जबकि मध्यप्रदेश में लोग बीमार मरीज को हस्पताल से जबरन छुट्टी करवा कर तांत्रिक के यहां पर झाड़ा लगवाने
जाते हैं। आम लोगों की भाषा में दोनों अन्धविश्वास हैं मगर दोनों में भारी अंतर हैं। मध्यप्रदेश के लोग अनपढ़ता एवं अज्ञानता के कारण अन्धविश्वास के फलस्वरूप तांत्रिक के पास जाते हैं जबकि तमिलनाडु में लोग पढ़े लिखे होने के बाद भी चर्च जाकर प्रार्थना से चंगाई रूपी अन्धविश्वास को मानते हैं। अनपढ़ता के वश अंधविश्वास का सहारा लेना अज्ञानता का प्रतीक हैं जबकि शिक्षित होने के
बाद भी अन्धविश्वास का सहारा लेना मूर्खता का प्रतीक हैं। अज्ञानी व्यक्ति में सुधार की निश्चित सम्भावना हैं जबकि मुर्ख व्यक्ति में चाहे जितना जोर लगा लो वह कभी बदलना नहीं चाहता हैं। खेद हैं की अपने आपको ज्ञानी, विज्ञानी, तर्कशील, नास्तिक, साम्यवादी वगैरह वगैरह कहने वाले केवल अज्ञानी लोगों के अन्धविश्वास को उजागर कर चर्चित होने में प्रयासरत रहते हैं जबकि शिक्षित लोगों
के विषय में रहस्यमय मौन धारण कर लेते हैं।

डॉ विवेक आर्य

सब गड़बड़ झाला हैं



24 सितम्बर, 2014 के हिंदुस्तान टाइम्स अख़बार में कम्युनिस्ट नेता सीताराम येचुरी द्वारा लिखा लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जातिवाद के विषय में मान्यता का विश्लेषण एवं मनुस्मृति पर जातिवाद का पोषण करने का आरोप लगाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हाल ही में कुछ पुस्तकों को प्रकाशित किया हैं जिनके माध्यम से यह दिखाने का प्रयास किया हैं की जातिवाद, छुआछूत आदि कुप्रथा का हिन्दू समाज में प्रवेश उस काल में हुआ जब भारत पर मुस्लिम आक्रमणकारियों का राज था। इससे प्राचीन काल में छुआछूत का यहाँ के समाज में कोई स्थान नहीं था। येचुरी जैसे साम्यवादी विचारधारा को मानने वाले लोगो के लिए द्वारा इस लेख में पुरानी घिसी पिटी बातों जैसे की प्रक्षिप्त मनुस्मृति के जातिवाद समर्थक कुछ श्लोक, पुरुष सूक्त की गलत व्याख्या, आर्यों का छदम विदेशी आक्रमणकारी आदि को लिखना अपेक्षित हैं  क्यूंकि उनके पास इसके अतिरिक्त और कुछ लिखने-कहने को हैं ही नहीं। मैंने इस लेख का शीर्षक सब गड़बड़ झाला हैं जानकार लिखा हैं क्यूंकि सत्य यह भी नहीं हैं जो संघ का विचार हैं और यह भी सत्य नहीं हैं जो येचुरी जैसे लोगो का मानना हैं यह भी सत्य नहीं हैं दोनों का उद्देश्य अपना अपना वोट बैंक सहेजने का अधिक लगता हैं। प्राचीन भारत में वर्ण व्यवस्था मुख्य व्यवस्था थी जिसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति का उसके गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार उसका वर्ण निर्धारित किया जाता था। एक ब्राह्मण का पुत्र ब्राह्मण तभी कहलाता था जब वह ज्ञानवान हो, चरित्रवान हो, शुद्ध विचारों वाला एवं सात्विक कर्मों के द्वारा दूसरो का मार्गदर्शन करने की क्षमता रखता हो। एक क्षत्रिय का पुत्र तभी क्षत्रिय कहलाता था जब वह बलशाली हो, नेतृत्व की क्षमता रखता हो एवं राज्य की रक्षा करने के योग्य हो। एक वैश्य का पुत्र तभी वैश्य कहलाता था जब वह व्यापार आदि के माध्यम से राज्य की उन्नति करने के योग्य हो एवं इन सभी गुणों से विहीन व्यक्ति को शूद्र कहा जाता था और उसका कर्तव्य इन तीनों वर्णों का इनके कार्यों में सहयोग देना था। ब्राह्मण के पुत्र को गुणरहित होने शूद्र वर्ण में रखा जाता था एवं शूद्र के पुत्र को गुणवान होने पर ब्राह्मण का वर्ण दिया जाता था।  प्राचीनकालीन वर्णव्यवस्था बिना किसी भेदभाव के एवं राज्य द्वारा संचालित थी। कालांतर में जातिवाद ने वर्णव्यवस्था का स्थान ले लिया। एक ब्राह्मण का पुत्र अशिक्षित, दुर्व्यवसनी, चरित्रहीन होते हुए भी ब्राह्मण कहलाने लगा एवं एक शूद्र का पुत्र सुशिक्षित, गुणी एवं सात्विक होते हुए भी शूद्र कहलाने लगा। इस कारण से अनेक गुणवान व्यक्ति अपनी प्रतिभा का अवसर दिखाने से वंचित रह गए एवं अनेक गुणरहित व्यक्ति महत्वपूर्ण पदों पर बैठकर समाज का अहित करते रहे। इससे देश और समाज का जो अहित हुआ उसका आंकलन करना असंभव हैं। यह व्याधि अभी भी बनी हुई हैं। आज आरक्षण के नाम पर गुणों से रहित व्यक्ति को महत्वपूर्ण पदों पर बैठा दिया जाता हैं एवं गुणवान व्यक्ति भूखों मरता हैं। समस्या यह हैं की संघ को इस समस्या का समाधान मालूम नहीं हैं और येचुरी सरीखे लोगो से इसकी अपेक्षा रखना मूर्खता हैं। मध्य काल में कुछ मूर्खों ने मनुस्मृति में जातिवादी श्लोकों को मिश्रित कर दिया था जिनका प्रयोग जातिवाद को बढ़ावा देने के लिए किया गया था। गलत को गलत कहने में कोई बुराई नहीं हैं मगर उस गलती के लिए महर्षि मनु को कोसना कहाँ तक सत्य हैं। यही गलती अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकने के लिए येचुरी कर रहे हैं। कुछ युवाओं के अपरिपक्व मस्तिष्क को सत्यता से अनभिज्ञ रखकर बरगला रहे हैं। आर्यों को बाहर से आया हुआ बतलाकर उत्तर भारत एवं दक्षिण भारत के मध्य मतभेद को बढ़ाना अंग्रेजों की पुरानी रणनीति थी जिसका अनुसरण येचुरी जैसे अवसरवादी नेता करते हैं। खेद हैं की इनका यथोचित उत्तर देने के स्थान पर संघ इस बीमारी का दोष मुस्लिम आक्रमणकारियों के सर मढ़ने का प्रयास कर रहा हैं इस प्रयास से हमें संतुष्टि इसलिए नहीं हैं क्यूंकि दवा मिलने से मर्ज यूँ का यूँ ही बना रहता हैं।  इस समस्या का समाधान अगर पाना हैं तो स्वामी दयानंद की वैदिक विचारधारा से परिचित होना आवश्यक हैं। स्वामी दयानद के अनुसार गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार मनुष्य के वर्ण का निर्धारण चाहिये। इस सन्दर्भ में सत्यार्थ प्रकाश के चतुर्थ समुल्लास में स्वामी जी प्रश्नोत्तर शैली में लिखते हैं।
प्रश्न- जिसके माता-पिता अन्य वर्णस्थ (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) हो  क्या उनकी संतान कभी ब्राह्मण हो सकती हैं?
उत्तर- बहुत से हो गये हैं, होते हैं और होंगे भी। जैसे छान्दोग्योपनिषद 4 /4  में जाबाल ऋषि अज्ञात कुल से, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण से और मातंग चांडाल कुल से ब्राह्मण हो गये थे। अब भी जो उत्तम विद्या, स्वाभाव वाला हैं, वही ब्राह्मण के योग्य हैं और मुर्ख ( गुण रहित) शुद्र के योग्य हैं। स्वामी दयानंद कहते हैं कि ब्राह्मण का शरीर (मनु 2/28 के अनुसार) रज वीर्य से नहीं होता हैं। स्वाध्याय, जप, नाना विधि होम के अनुष्ठान, सम्पूर्ण वेदों को पढ़ने-पढ़ाने, इष्टि आदि यज्ञों के करने, धर्म से संतान उत्पत्ति मंत्र, महायज्ञ अग्निहोत्र आदि यज्ञ, विद्वानों के संग, सत्कार, सत्य भाषण, परोपकार आदि सत्कर्म, दुष्टाचार छोड़ श्रेष्ठ आचार में व्रतने से ब्राह्मण का शरीर किया जाता हैं। रज वीर्य से वर्ण व्यवस्था मानने वाले सोचे कि जिसका पिता श्रेष्ठ उसका पुत्र दुष्ट और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट और कही कही दोनों श्रेष्ठ दोनों दुष्ट देखने में आते हैं।
  जो लोग गुण, कर्म, स्वभाव से वर्ण व्यवस्था मानकर रज वीर्य से वर्ण व्यवस्था मानते हैं उनसे पूछना चाहिये कि जो कोई अपने वर्ण को छोड़ नीच, अन्त्यज्य अथवा कृष्टयन, मुस्लमान हो गया हैं उसको भी ब्राह्मण क्यूँ नहीं मानते? इस पर यही कहेगे कि उसने "ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिये इसलिये वह ब्राह्मण नहीं हैं" इससे यह भी सिद्ध होता हैं कि जो ब्राह्मण आदि उत्तम कर्म करते हैं वही ब्राह्मण और जो नीच भी उत्तम वर्ण के गुण, कर्म स्वाभाव वाला होवे, तो उसको भी उत्तम वर्ण में, और जो उत्तम वर्णस्थ हो के नीच काम करे तो उसको नीच वर्ण में गिनना अवश्य चाहिये।
सत्यार्थ प्रकाश अष्टम समुल्लास में स्वामी दयानंद लिखते हैं श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान, देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात डाकू, मुर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए। आर्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र चार भेद हुए। मनु स्मृति के अनुसार जो शुद्र कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गुण, कर्म स्वभाव वाला हो तो वह शुद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाये। वैसे ही जो ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण, कर्म स्वभाव शुद्र के सदृश्य हो तो वह शुद्र हो जाये। वैसे क्षत्रिय वा वैश्य के कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, ब्राह्मणी वा शुद्र के समान होने से ब्राह्मण वा शुद्र भी  हो जाता हैं। अर्थात चारों वर्णों में जिस जिस वर्ण के सदृश्य जो जो पुरुष वह स्त्री हो वह वह उसी वर्ण में गिना जावे।
आपस्तम्भ सूत्र 2/5/1/1 का प्रमाण देते हुए स्वामी दयानंद कहते हैं धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम उत्तम वर्णों को प्राप्त होता हैं,और वह उसी वर्ण में गिना जावे, कि जिस जिस के योग्य होवे। वैसे ही अधर्माचरण से पूर्व पूर्व अर्थात उत्तम उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वाले वर्णो को प्राप्त होता हैं, और उसी वर्ण में गिना जावे। स्वामी दयानंद जातिवाद के प्रबल विरोधी और वर्ण व्यवस्था के प्रबल समर्थक थे। वेदों में शूद्रों के पठन पाठन के अधिकार एवं साथ बैठ कर खान पान आदि करने के लिए उन्होंने विशेष प्रयास किये थे।
स्वामी दयानंद का वैदिक चिंतन इस विषय में मार्गदर्शन करने वाली क्रांतिकारी सोच हैं। वेदों में शूद्र शब्द लगभग बीस बार आया है कही भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है  और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है
हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे अरण अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो। (यजुर्वेद 26 /2)
प्रार्थना हैं की हे परमात्मा ! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें।इस मंत्र का भावार्थ ये हैं की हे परमात्मा आप मेरा स्वाभाव और आचरण ऐसा बन जाये जिसके कारण  ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें। (अथर्ववेद 19/62/1)
हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये। मंत्र का भाव यह हैं की हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वाभाव और मन ऐसा हो जाये की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रूचि हो।  सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें, सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे। (यजुर्वेद 18/46)
हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए, शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय करे। (अथर्ववेद 19/32/8)  
इस प्रकार वेद की शिक्षा में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी हैं। 
वेदों में शूद्रों को आर्य बताया गया हैं इसलिए उन्हें अछूत समझने का प्रश्न ही नहीं उठता हैं। वेदादि शास्त्रों के प्रमाण  सिद्ध होता हैं कि ब्राह्मण वर्ग से से लेकर शुद्र वर्ग आपस में एक साथ अन्न ग्रहण करने से परहेज नहीं करते थे। वेदों में स्पष्ट रूप से एक साथ भोजन करने का आदेश हैं।
हे मित्रों तुम और हम सब मिलकर बलवर्धक और सुगंध युक्त अन्न को खाये अर्थात सहभोज करे। (ऋग्वेद 9/98/12)
हे मनुष्यों तुम्हारे पानी पीने के स्थान और तुम्हारा अन्न सेवन अथवा खान पान का  स्थान एक साथ हो। (अथर्ववेद 6/30/6)
वेदों में शुद्र को अत्यंत परिश्रमी कहा गया हैं।
यजुर्वेद 30/5 में आता हैं "तपसे शूद्रं" अर्थात श्रम अर्थात मेहनत से अन्न आदि को उत्पन्न करने वाला तथा शिल्प आदि कठिन कार्य  आदि का अनुष्ठान करने वाला शुद्र हैं। तप शब्द का प्रयोग अनंत सामर्थ्य से जगत के सभी पदार्थों कि रचना करने  वाले ईश्वर के लिए वेद मंत्र में हुआ हैं।
ऋग्वेद 5/60/5 में आता हैं कि मनुष्यों में कोई बड़ा है , कोई छोटा हैं।  सभी आपस में एक समान बराबर के भाई हैं। सभी मिलकर लौकिक एवं पारलौकिक सुख एवं ऐश्वर्य कि प्राप्ति करे।
इस प्रकार से स्वामी दयानंद की वैदिक विचारधारा को मानने से, प्रक्षिप्त मनुस्मृति के त्याग से, जातिवाद के स्थान पर वर्ण व्यवस्था को सुचारू रूप से लागु करने से ही हिन्दू समाज में एकता संभव हैं। मुस्लिम आक्रमणकारियों की देन बताकर जातिवाद का विनाश करने की कल्पना अपरिपक्व सोच हैं। आशा हैं मेरे इस लेख के आशय को समझकर मानवता पर जातिवाद के रूप में  अत्याचार के विरुद्ध सभी सार्थक पहल करेंगे तभी इस जातिवादी दानव का नाश होगा।

डॉ विवेक आर्य