क्रांतिवीरों की अमर ओजस्वी वाणी
-संकलयिता राधेलाल मित्तल
( १ ) " भाइयों ! बगावत करो। अब देर नहीं करनी चाहिये। ( मंगल पाडे , २६ मार्च १ ९ ५७ ) ( २ ) ( शिवाजी श्लोक ) -केवल बैठे - बैठे शिवाजी की गाथा की आवृत्ति करने से किसी को आजादी नहीं मिल सकती। हमें तो शिवाजी और बाजी राव की तरह कमर कसकर भयानक कृत्यों में जुट जाना पड़ेगा। दोस्तो ! अब आजादी के निमित्त ढाल - तलवार उठा लेनी पड़ेगी। हमें अब शत्रुओं के सैकड़ों गुंडों को काट डालना पड़ेगा। सुनो , हम राष्ट्रीय युद्ध के मैदान में अपने जीवन का बलिदान कर देंगे और आज उन लोगों के रक्तपात से जो हमारे धर्म को नष्ट कर रहे हैं या आघात पहुंचा रहे हैं , पृथ्वी को रंग देंगे। हम मारकर ही मरेंगे और तुम लोग घर बैठे औरतों की तरह हमारा किस्सां सुनोगे ।
' आर्य भ्राताओं के दिल में उत्साह की लहर पैदा हो और हम लोग विद्रोह का टीका माथे पर लगायें। ” ( क्रांतिकारी हुतात्मा चाफेकर बधु , जून १८९७ )।
( ३ ) मैं मानता हूं कि मैंने एक अंग्रेज का रक्त बहाने का प्रयास किया। किन्तु उसका उद्देश्य यही था कि अंग्रेजों ने जिस प्रकार भारतवर्ष के देशभक्त युवकों को फांसी , कालापानी या लम्बी सजायें देने का क्रम जारी कर रखा है , उसके प्रतिकारात्मक विरोध प्रकट करूं। ऐसा करते समय मैंने अपनी आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति से नहीं पूछा न उसको राय ली। मैंने जो कुछ किया , कर्तव्य के नाते ही किया।
हिन्दू होने के नाते मेरा विश्वास है कि आत्मा कभी मरती नहीं अतः शरीर गिरने के पूर्व प्रत्येक भारतीय दो अंग्रेजों को समाप्त करता चले तो
देश की स्वतन्त्रता एक दिन में प्राप्त की जा सकती है। जब तक भारत स्वतंत्र न हो जाये ,
श्रीकृष्ण का देशवासियों के लिए यही कर्म संदेश है। मेरी अंतिम कामना है कि मैं फिर से भारत की ही गोद में जन्म लू तथा पुन: देश को स्वतंत्र कराने के कार्य में संलग्न हो जाऊं। मैं चाहूंगी कि मेरी पुन: मृत्यु होने तक मेरा प्रिय देश स्वतन्त्र हो जाये। भारत के स्वतन्त्र होन तक मैं इसी ध्येय के लिए बार - बार जन्म लूं और मृत्यु का वरण करू। प्रभु मेरी यह प्रार्थना स्वीकार करें। मेरी यही कामना है। वन्दे मातरम्।.. " मदनलाल ढींगरा ( १७ अगस्त १६०९ ' पेन्टन विले कारागार , लन्दन )
( ४ ) " तुम रोती हो तो रोओ , किन्तु इस रोने से क्या मिलेगा ? दुःख तो मुझे भी है। मैंने किस बात का बेड़ा उठाया था और उसे कितना सिद्ध कर पाया। मर तो मैं रहा हूँ , पर जिस कारण मैं मर रहा है , वह पूरा कहां हुआ। मैं यह देखकर मर रहा हूँ कि मैंने जो कुछ भी किया वह छिन्न भिन्न हो गया। मुझे दु.ख है कि मैं माता पर अत्याचार करने वालों से बदला नहीं ले सका। जो मन की बात थी वह मन में ही रह गयी। मेरा यह शरीर नष्ट हो जायेगा , किन्तु मैं मोक्ष नहीं चाहता। मैं तो चाहता है। कि बार - बार इसी भूमि में जन्म लूं और बार - बार इसी के लिए मरूं ' ऐसा तब तक करता रहूं , जब तक देश पराधीनता के पाश से मुक्त हो जाये ... " ( महान क्रांतिकारी पं० गेंदालाल दीक्षित का मृत्यु पूर्व पत्नी के प्रति संदेश , २१ दिसम्बर , १९२० )।
' है देश को स्वाधीन करना जन्म मम संसार में ,
तत्पर रहूंगा में सदा अंग्रेज दल संहार में।
अन्याय का बदला चुकाना मुख्य मेरा धर्म है ;
मद - दलन अत्याचारियों का यह प्रथम शुचिकर्म है।
मेरी अनेकों भावनायें उठ रही हृद्धनाम में ,
बस शांत केवल कर सकुंगा में उन्हें संग्राम में।
स्वाधीनता का मूल्य बढ़कर है सभी संसार से,
बदला चुकेगा हरणकर्ता के रुधिर की धार से।
अंग्रेज रुधिर प्रवाह में निज पितृगण तर्पण करूं।
हो तुष्ट दुःशासन रुधिर के स्नान से यह द्रौपदी ,
हो सहस्त्रावाहु विनाश से यह रेणुका सुख में पड़ी।
है कठिन अत्याचार का ऋण ब्रिटिश ने हमको दिया ,
सह ब्याज उसके उऋण का हमने कटिन प्रण है किया।
मैं अमर हूं मेरा कभी भी नाश हो सकता नहीं ,
है देह नश्वर त्राण इसका हो नहीं सकता कहीं होते हमारे मातृ जग में ,
पद - दलित होगी नहीं , रहते करोड़ों पुत्र के जननी दुखित होगी नहीं।
उद्धार हो जब देश का इस क्लेश से तलवार से।
भयभीत होंगे नहीं हम जेल - कारागार से।
रहते हुए तन प्राण रण से मुख न छोड़गे कभी ,
कर शक्ति है जब तक न अपने शस्त्र छोड़ेगे कभी।
परतंत्र होकर स्वर्ग के भी वास की इच्छा नहीं ,
स्वाधीन होकर नरक में रहना भला उससे कहीं।
है स्वर्ण पिजर वास अति दुख पूर्ण सुन्दर कीर को ,
वह चाहता स्वच्छंद वितरक अति विपिन गंभीर को चाण।
जंजीर की झनकार में शुभ गीत गाते जाएंगे ,
तलवार के आधात में निज जया मनांते जायेंगे।
हे ईश ! भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो ,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो।
( महान क्रांतिकारी पं० गेंदालाल दीक्षित , अध्यापक व उनके साथियों की प्रतिज्ञा के स्वर , )
( ५ ) दिनांक १६ दिसम्बर १६२७ को जो कुछ होने वाला है उसके लिए मैं अच्छी तरह तैयार है। यह है ही क्या ? शरीर का बदलना मात्र है। मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा मातृभूमि तथा उसकी दीन संतति के लिए नये उत्साह और ओज केप साथ काम करने के लिए शीघ्र ही फिर लोट आयेगी।
यदि देश हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी ,
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊ कभी।
( काकोरी कांड के नायक पं० रामप्रसाद बिस्मिल का फांसी के दिन १६ दिसम्बर , १६२७ के पूर्व एक मित्र को लिखा पत्र )
( ६ ) मैंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के नालदार जूतों के नीचे अपने देश आसियों को रोंदे जाते देखा है। इस प्रकार अपना प्रतिवाद प्रस्तुत करते हुए मुझे कोई दु:ख नहीं है। मुझे इस बात में इंच भर भी शंका नहीं है कि मुझे आप फांसी दे देंगे या और सजा देंगे। मृत्यु का भय मुझमें नहीं रह गया। बुढ़ापे तक लड़खड़ाते हुए जीने का कोई अर्थ नहीं होता। देश के लिए जवानी में मर जाना कहीं अधिक अच्छा है । ( महाक्रांतिकारी सरदार ऊधमसिंह का लन्दन के न्यायालय में बयान , बलिदान ( फांसी ) [ ३१-७-१९४० ]।
( ७ ) ' कल मैंने सुना कि प्रिवी कौंसिल ने मेरी अपील अस्वीकार कर दी। आप लोगों ने हम लोगों की प्राण रक्षा के लिए बहुत - कुछ किया , कुछ उठा नहीं रखा पर मालूम होता है कि देश की बलिवेदी को हमारे रक्त की आवश्यकता है। मृत्यु क्या है ? जीवन की दूसरी दिशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं। इसलिए मनुष्य मृत्यु से दुःख और भय क्यों माने ? वह तो नितान्त स्वाभाविक अवस्था है। उतनी ही स्वाभाविक जितना प्रभात कालीन सूर्योदय। यदि यह सच है कि इतिहास पलटा खाया करता है तो मैं समझता हूं कि हमारी बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा। सबको मेरा अंतिम नमस्कार।
[ क्रांति के दीवाने राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी का बलिदान ( फांसी ) १७-१२-१९२७ के तीन दिन पूर्व लिखा पत्र। .
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