तालस्ताय की वेदों में श्रद्धा
-स्वर्गीय फतेहचन्द शर्मा ' आराधक '
युगस्त्रष्टा लियो तालस्ताय भारतीय साहित्य के प्रति विशेष अभिरुचि रखत थे। उनकी भारत के प्राचीनतम साहित्य और महाकाव्यों के प्रति अगाव अद्ध थी। वेदों के नम्बन्ध में उनका ध्यान सबसे पहले आकर्षित हुआ था। वैदिक ज्ञान की उपलब्धि उन्हें गुरुकुल विश्वविद्यालय कांगड़ी से प्रकाशित वैदिक पत्रिका में मिली थी। यह पत्रिका गुरुकुल के भूतपूर्व आचार्य स्व० प्रो० रामदेव के सम्वादकत्व में निकलती थी। पत्रिका में आर्यसमाज के सिद्धान्तों की अपेक्षा वेदविषयक जानकारी विशेष रूप से दी जाती थी। इस कारण महपि तालस्ताय का पत्र - व्यवहार समय - समय पर प्रो० रामदेव से चलता रहता था और प्रो० रामदेव तालस्ताय के भारतीय मित्रों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते थे। लियो तालस्ताय के संग्रहालय के एक विशेष अधिकारी अलेक्जेण्डर शिफमान के अनुसार तालस्ताय वेदों के गम्भीर ज्ञान पर मुग्ध थे। वे वेदों के उन खण्डों पर विशेष ध्यान देते थे जिनका सम्बन्ध नीतिशास्त्र सम्बन्धी समस्याओं से है। यह एक ऐसा विषय था जिसमें उनकी प्रगाढ़ अभिरुचि थी। वेदों में व्याप्त मानवीय प्रेम के सिद्धान्त , मानववाद तथा शान्तिमय श्रम की प्रशस्ति के वे समर्थक थे। दमा अनुभव करते थे कि मानव आत्मा में निहित गुणसम्बन्धी उनके अपने सिद्धान की इससे पुष्टि होती है।
तालस्ताय के सम्बन्ध में बनाया जाता है कि वे वेद तथा उसके भाप्य एवं उप निपदों को विव्व की सर्वागपूर्ण रचनाओं की श्रेणी में मानते थे क्योंकि इस साहित्य ने कई गताब्दियों ने देश और धर्म की परम्परा को छोड़कर हजारों हृदयों को अपने उत्कृष्ट माहित्य द्वारा विमोहित किया है , जो इस देश के नागरिक भी नहीं। इस दृष्टि से तालस्ताय इस साहित्य को सच्ची कला का अंश मानते थे। उन्होंने अपने एक निबन्ध में लिखा था कि शाक्य मुनि का इतिहास और वेद की कथाएं अपने उदात्त भाव के कारण हमारे लिए अत्यन्त बोधगम्य हैं , चाहे हम विक्षित हों या नहीं। उस युग के लोग हमारी श्रमिक जनता की तुलना में अल्प शिक्षित थे। किन्तु बोधगम्य थे।
तालस्ताय ने केवल वेदों को पढ़ा ही नहीं , वरन् उनकी शिक्षाओं का भी इस प्रकार से प्रचार किया जिससे उनके बहुत से अनुयायी वेद और उपनिषदों के ज्ञान को भली प्रकार जान सकें। तालस्ताय ने वेद और उपनिषद् दोनों की अनेक सूक्तियों और उक्तियों का संग्रह " पठन विस्तार तथा बुद्धिमान् मनुष्यों के विचार " नाम से किया है। वेदों के अतिरिक्त तालस्ताय अन्य भारतीय प्राचीन कृतियों से विशेषकर ' महाभारत ' और ' रामायण ' से परिचित थे। तालस्ताय ने रूसी और पश्चिमी यूरोप की भाषाओं के श्रेष्ठ अनुवादों के माध्यम से इन उत्कृष्ट कृतियों का ज्ञान प्राप्त किया। यास्नाया पोल्याना के पुस्तकालय में अब भी ' रामायण ' का दो भागों का संस्करण है जो १८६४ में पैरिस से प्रकाशित हुआ था। तालस्ताय श्रीमद्भगवद्गीता के विशेष उपासक थे। महाभारत के सभी भागों की अपेक्षा उन्हें गीता अधिक प्रिय थी। गीता प्रिय होने की जानकारी तालस्ताय के पत्रों और डायरी में लिखे गए समय - समय के उल्लेखों से होती है और पता है चलता कि वे उस पर कितनी श्रद्धा रखते थे। भारतीय महाकाव्यों के कवित्व की भी प्रशंसा उन्होने अपने मित्रों से की थी। भारत के एक प्रसिद्ध विद्वान् को तालस्ताय ने अपने एक पत्र में लिखा था कि महाभारत के सभी भागों की अपेक्षा गीता के प्रति मेरी विशेष आस्था इसलिए भी है कि उसमें पूरे मनोयोग के साथ कर्तव्य पालन करने की प्रेरणा की गई है। उसके प्रति मेरी पूरी निष्ठा रही है और अपने जीवन में मैंने उसका उपयोग करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने यह भी लिखा था कि उसका प्रभाव मेरे जीवन पर यहां तक हुआ है कि मैंने अपनी रचनाओं में भी यत्र - तत्र उसका उपयोग किया है। तालस्ताय के पत्र और डायरी के साहित्य से यह पूरी तरह से पता चलता है कि उन्होंने महाभारत और रामायण की सैकड़ों सूक्तियां संग्रहीत की थों और बहुत - सी लोक - कथाएं भी संकलित की थीं।
उन्होंने इन कथाओं का पढ़ने योग्य रूसी पुस्तकों में प्रयोग किया था। बाद में उन्होंने इन और तरुणवर्ग के लिए इसी तरह का साहित्य लिखा। तालस्ताय का स्वप्न था कि भारतीय साहित्य का रसास्वादन सोवियत रूस के नागरिक भली प्रकार कर सकें। उनके इस प्रयत्न से हजारों रूसी नागरिकों को भारतीय साहित्य और दर्शन सम्बन्धी विचारधारा को जानने का अवसर मिला। रूसी नागरिक तालस्ताय के माध्यम से शंकराचार्य , रामकृष्ण परमहंस , स्वामी विवेका नन्द आदि भारतीय महापुरुषों और उनके विचारों को जान सके।
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