Friday, July 12, 2019

आर्य द्रविड़ के झूठे प्रचारक



आर्य द्रविड़ के झूठे प्रचारक

लेखक: राजेशार्य आट्टा (सह सम्पादक शांतिधर्मी)

    पाठकवृंद! आज देश ऐसी अवस्था में पहुंच गया है कि भारत की प्राचीन संस्कृति का उपहास उड़ाया जाना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता माना जाता है और ऐसे दुष्प्रचार का विरोध करने वालों को असहिष्णु कहकर बदनाम किया जाता है। शांति के इन तथाकथित उपासकों के लिए राष्ट्रकवि दिनकर जी ने लिखा है- 
सुख समृद्धि का विपुल कोष संचित कर कल-बल-छल से,
किसी क्षुधित का ग्रास छीन, धन लूट किसी निर्बल से।।
सब समेट, प्रहरी बिठला कर, कहती कुछ मत बोलो।
शांति-सुधा बह रही, न इसमें गरल क्रांति का घोलो।।
हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त अपना मुझको पीने दो।
अचल रहे साम्राज्य शांति का, जियो और जीने दो।।
    लगभग 3 वर्ष पूर्व संसद में आर्य-दलित (हम दलित भारत के मूल निवासी हैं, शेष आर्य विदेशी हैं) की राजनीति करने वाले नेता के कथन (निराधार) का विरोध केवल आर्य संन्यासी स्वामी सुमेधानंद (सांसद) ने ही किया। ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं।’ कहने वाले भी मौन रहे। इस अपराध का दोषी किसे माना जाए! जब भारत के प्रथम प्रद्दानमंत्री ही दृढ़तापूर्वक इस प्रचार में जुटे हुए थे। अपनी आठ-नौ वर्ष की बेटी (इंदिरा) को लिखे पत्रों में भी वे आर्यों को विदेशी ही लिखते थे। यह अलग बात है कि आर्यों को विदेशी व सिंधु घाटी को द्रविड़ सभ्यता सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण उनके पास (अंग्रेजों के कथन के अतिरिक्त) नहीं था। यदि होता तो वे उसे दिनकर जी को भी दे देते और दिनकर जी को यह न लिखना पड़ता कि द्रविड़ों को आर्यों से भिन्न मानना भ्रामक और मूर्खतापूर्ण है।
    स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आर्यों की मूल भूमि ‘आर्यावर्त’ को धर्मनिरपेक्ष, उनकी भाषा संस्कृत को ‘मृत-भाषा’, हिंदी को (उसमें अरबी, फारसी के शब्द फंसा कर) हिंदुस्तानी बना दिया गया। डाॅक्टर अंबेडकर के कहने पर भी संस्कृत राष्ट्रभाषा नहीं बनाई। फलतः हिंदी को दक्षिण वालों का विरोध झेलना पड़ा। सोचिए, आर्य द्रविड़ के प्रचारक कैसा षड्यंत्र रच गए।
    इस विषय पर ‘हमने क्या खोजा? भारत या इण्डिया!’ पुस्तक में पहले लिखा जा चुका है। स्वयं दिनकर जी ने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में अपनी और अपने मि नेहरूजी की मान्यता के विपरीत लिखा है, जो यथार्थ है। देखिए-
    ‘द्रविड़ और आर्यों के मूल स्थानों के बारे में जितने भी सिद्धांत प्रचलित हैं, वे सब अनुमान और अटकल पर आधारित हैं। (पृष्ठ 19)
    ‘भारत को भी यह नहीं मानना चाहिए कि आर्य और द्रविड़ दो प्रजातियों के नाम हैं। (आर्य) जो आर्यभाषा बोलते हैं। द्रविड़ शब्द भी भारत में प्रजातिवाचक नहीं, स्थान वाचक ही रहा है। मनु ने द्रविड़ शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए किया है जो द्रविड़ देश में बसते थे। हमारे पूर्वजों ने द्रविड़ शब्द का अर्थ प्रजाति नहीं रखा था। हमारे लिए भी यही उचित है कि हम यूरोप से आए हुए जातिवाद का जहरीला अर्थ अपने शब्दों में न ठूंसें। (पृष्ठ 18)
    ‘18 वीं सदी तक भारत में किसी को भी इसका अनुमान नहीं था कि आर्य इस देश के मूल निवासी नहीं हैं, अथवा यह कि आर्य और द्रविड़ दो हैं और दोनों के पूर्वज इस देश में बाहर से आए थे। सन 1786 ईस्वी में सर विलियम जोंस ने यह स्थापना रखी कि-- (पृष्ठ 21-22)
    ‘इससे इस बात पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है कि द्रविड़ों को आर्यों से भिन्न मानना कितना भ्रामक और मूर्खतापूर्ण है। (पृष्ठ 37)
    ‘संस्कृत साहित्य पर जितना ऋण उत्तर वालों का है, उतना ही ऋण दाक्षिणात्यों का भी है। उत्तर-दक्षिण का प्रश्न अभी हाल में उठा है। प्राचीन काल में सारा भारत संस्कृत को ही अपनी साहित्य भाषा मानता था। (पृष्ठ 39)
    फिर भी मित्रता व सम्मान के बोझ तले दबे दिनकर जी उपसंहार तक आर्यों को विदेशी लिखते रहे। अतः इस विषय में कुछ बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक है।
1- यदि बाढ़ आदि किसी प्राकृतिक आपदा से सिंधु सभ्यता के ये नगर नष्ट हो गए और बाद में सुरक्षित बचे लोगों ने उनके ऊपर पुनः नगर बसा लिए तो वे पहले वालों के दुश्मन या विदेशी कैसे हो गए? क्या पुनः नगर बसाने के लिए विदेशियों का आना अनिवार्य है? फिर वर्तमान में बसने वाले लोगों की और दबने वालों की बहुत सी परंपराएं समान क्यों हैं?
2- ‘सिंधु सभ्यता पर आक्रमण कर आर्यों ने इसे नष्ट किया’, इस कल्पना का प्रचार करने वाले मोर्टिमर व्हिलर को पुरातत्ववेत्ता श्रीधर वाकणकर ने आर्यों के आक्रमण प्रमाणित करने की चुनौती दी थी, वह निरुत्तर हो गया। जबकि उसकी बात को प्रमाण मानकर देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय व रामस्वामी पणिक्कर ने उत्तर भारत के विरोध में आंदोलन चलाया जो ‘ब्राह्मण बनाम शूद्र’ में बदल गया।
3- क्या यह संभव था कि ‘कुछ’ आर्य समस्त उत्तर भारत के द्रविड़ों को मार भगा देते, और उसे इस तरह आबाद कर लेते कि द्रविड़ों का कोई भी चिह्न शेष न रहे। कोई इतिहासकार यह तो बताए कि आर्यों ने द्रविड़ों के जिस देश पर अधिकार किया था, उसका नाम क्या था? और द्रविड़ों ने अपने देश का नाम आर्यावर्त क्यों रखने दिया!
4- शक, हूण, मुस्लिम आदि आक्रमणकारियों ने मिनांडर, मिहिरगुल, सिकंदर, कासिम, गजनवी, गौरी, तैमूर, बाबर, अब्दाली आदि के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किए। इनका लिखित इतिहास है। पर कोई इतिहासकार आर्यों के आक्रमणकारी नेता का नाम तो बताए!
5- आर्य राम वनवास के समय दक्षिण भारत में गए तो दक्षिण वालों (तथाकथित द्रविड़ों) ने उनका विरोध नहीं किया, अपितु उनकी सहायता की और आज जिन्हें अलग-अलग जाति (वास्तव में मनुष्य) माना जाता है- (वानर= हनुमान, सुग्रीव आदि; पक्षी= जटायु, संपाती; राक्षस= रावण, विभीषण आदि) इनके लिए रामायण में राम की तरह आर्य शब्द का प्रयोग हुआ है, द्रविड़ का क्यों नहीं?
6- यदि आर्यों ने द्रविड़ों पर विजय पाई थी तो रामायण, महाभारत आदि की तरह उस विजय का वर्णन करने के लिए कोई ग्रंथ क्यों नहीं लिखा? अथवा अपने किसी ग्रंथ में उसका उल्लेख क्यों नहीं किया। और द्रविड़ों के कौन से प्राचीन ग्रंथ में लिखा है कि वे उत्तर भारत में रहते थे और आर्यों ने उन्हें मारपीट कर दक्षिण में भगा दिया? फिर भी दक्षिण वालों ने अपना साहित्य आर्यों की भाषा संस्कृत में क्यों लिखा?
7- क्या कारण है कि वर्तमान के तथाकथित द्रविड़ों का इतिहास अगस्त्य व कण्व आदि वैदिक ऋषियों से आरंभ होता है? दक्षिण के शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने संस्कृत वैदिक ग्रंथों का प्रचार किया और उत्तर भारत में भी मठ स्थापित किए। शंकराचार्य आज भी पूरे हिंदू समाज के लिए आदरणीय हैं और रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य आदि राम- कृष्ण आदि आर्यों की भक्ति का प्रचार करते रहे?
8- आर्यों के प्राचीन साहित्य में उनकी विरोधी या समानता के रूप में कहीं भी द्रविड़ जाति का उल्लेख नहीं है। वहां तो आर्य (श्रेष्ठ आचरण=गुणवाचक) की तरह दस्यु (सामाजिक नियम तोड़ने वाला) शब्द मिलता है। यह भी गुणवाचक है, जातिवाचक नहीं। द्रविड़ तो स्थानवाची शब्द है। महाभारत में राजसूय यज्ञ से पूर्व सहदेव की दिग्विजय के समय द्रविड़ देश का वर्णन है। कृष्णा और पोलर नदियों के मध्यवर्ती जंगली भाग के दक्षिण में स्थित कोरोमंडल का समस्त समुद्री तट, जिसकी राजधानी कांची= कांजीवरम थी, (मद्रास से 42 मील दक्षिण-पश्चिम में) उस के वासी होने से व्यक्ति भी द्रविड़ कहलाते थे। जैसे पंजाब, बंगाल, बिहार के सभी लोग पंजाबी, बंगाली, बिहारी कहे जाते हैं।
9-भारत के राष्ट्रगान में ‘द्रविड़’ शब्द पंजाब, सिंध, गुजरात आदि की तरह स्थानवाची है, जातिवाचक नहीं।
10- मनुस्मृति (10/22) में ‘द्रविड़’ शब्द जाति के लिए आया है पर ये श्लोक प्रक्षिप्त हैं और उस समय जोड़े गए हैं जब समाज में जन्मना विभिन्न जातियां बन गई थीं। (संभवतः शुंग या गुप्त काल में) फिर भी मनुस्मृति में वर्णित द्रविड़ जाति आर्यों की विरोद्दी नहीं, अपितु आर्यों के ही एक वर्ण क्षत्रिय (क्षत्रिय व्रात्य) वर्ण से उत्पन्न संतान के रूप झल्ल, मल्ल, नट आदि की तरह है।
11- स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद आदि की तरह डाॅक्टर अंबेडकर भी मानते हैं- ‘यह धारणा गलत है कि आर्य आक्रमणकारियों ने शूद्रों को जीता। आर्यों के बाहर से आने और यहां के मूल निवासियों को जीतने की कहानी के समर्थन में कोई प्रमाण मौजूद नहीं है। भारत ही आर्यों का मूल निवास स्थान था। (डाॅक्टर अंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेज खंड 3 पृष्ठ 420)
12- डाॅक्टर सूर्यदेव विद्यावाचस्पति ने ‘आर्य-द्रविड़’ प्रचार को अंग्रेजों का षड्यंत्र कहकर उसका भंडाफोड़ करते हुए कुछ तथ्य दिए हैं-
(1) द्रविड़ (तमिल) के महान लेखक श्री शुद्धानंद भारती ने स्वयं लिखा है कि मेरे विचार में दोनों संस्कृतियाँ एक हैं। राम जन्मे उत्तर में, बसे दक्षिण में। बाल्मीकि ने राम-गाथा उत्तर में लिखी, गायी कंबन ने दक्षिण में; गीता उत्तर में कुरुक्षेत्र में बनी, भाष्य किया दक्षिण के शंकर, रामानुज और माधवाचार्य ने। वेद उत्तर में फैले, भाष्य किया दक्षिण में विजय नगर में बैठकर विद्यारण्य और सायणाचार्य ने। तमिल की प्राचीन राजधानी कबाटपुर भव्य नगर था। बाल्मीकि ने ‘कवार्ट पांड्यानां’ लिखा है। तमिल ऋषि मणिक्क वाचकर ने कहा है- प्रभु तुम आर्य भी हो, तमिल भी। तमिल कोष के पृष्ठ 244 पर आर्य का अर्थ दिया गया है- आर्यावर्त का निवासी, भद्र, संत, गुरु, द्रष्टा, श्रेष्ठ, विद्वान, आचार्य। द्रविड़ भाषाएँ संस्कृत के बिना एक कदम नहीं चल सकतीं।
(2) तमिल संस्कृति के आदि प्रवर्तक तो आर्य ऋषि अगस्त्य मुनि थे, जिन्होंने तमिल भाषा को व्यवस्थित रूप देकर उसका प्रथम व्याकरण ‘अगस्त्यम्’ रचा। इन्हें तमिल संस्कृति का पिता माना जाता है। हिमालय केदारनाथ के पास में इनका अगस्त्य आश्रम अभी भी है।
(3) लोकमान्य तिलक ने 1915 में लखनऊ कांग्रेस में कहा था- ‘आर्य और द्रविड़ में कोई अंतर नहीं। उत्तर में भी नाटे व काले लोग हैं। दक्षिण में भी लंबे, गोरे लोग हैं। हम सब भारतीय एक हैं। संस्कृत और संस्कृति हमको बांधती है।
(4) पांडिचेरी आश्रम में योगी अरविंद ने कहा था- ‘दक्षिण के ब्राह्मणों में उत्तर के आर्यों के चेहरे मिलते हैं और तमिल भाषा में संस्कृत के सैंकड़ों शब्द हैं।’
(5) ‘तिरुक्कुरल’ महान ग्रंथ के रचयिता श्री तिरुवल्लुवर उत्तर दक्षिण दोनों संस्कृतियों के समन्वय थे। उनके पिता उत्तर के ब्राह्मण ‘भगवान’ और माता तमिल हरिजन कन्या ‘आदी’ थी। तिरुक्कुरल में गीता, उपनिषद्, मनुस्मृति, चाणक्य-नीति आदि के समस्त विचारों का समन्वय है। अतः उत्तर के आर्य और दक्षिण के द्रविड़ एक ही जाति के लोग हैं।
    मोर्टिमर व्हीलर काले रंग के लोगों को ‘द्रविड़’ और गोरे रंग के लोगों को ‘आर्य’ मानते थे व हड़प्पा सभ्यता को द्रविड़ सभ्यता बताकर उसके विनाश के लिए आर्यों के आक्रमणों को दोषी मानते थे। वे उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय में पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर श्रीधर वाकणकर से भलीभांति परिचित थे। वाकणकर गोरे रंग के थे व उनकी नाक भी बांकदार थी। एक दिन वाकणकर ने व्हीलर से पूछा- ‘अच्छा बताइए, मुझे आप द्रविड़ मानते हैं या आर्य?’ व्हीलर ने दृढ़तापूर्वक कहा- ‘आप तो निश्चित ही आर्य हैं।’ तब वाकणकर जी बोले- ‘आपने जो उत्तर मुझे दिया है, उसी से मैं जान गया हूं कि आपके आर्य-वंश सिद्धांत तथा आर्य द्रविड़ द्वैत में जरा भी दम नहीं है। मेरे पास मेरी 23 पीढ़ियों का इतिहास है। बिल्कुल प्रारंभ से हम लोग द्रविड़ माने जाते हैं। आपका ‘आर्य वंश सिद्धांत’ पूर्णतः निराधार है।’ व्हीलर ने निरुत्तर होकर मौन साध लिया।
    भारतीय तकनीकी संस्थान (आईआईटी) के शोद्दकर्ता आर0 बालासुब्रह्मण्यम ने बताया कि हड़प्पा और मौर्यकालीन दोनों वास्तुशिल्पों में ण्763 सें मी के माप का इस्तेमाल होता था। भारत में इसे पारंपरिक तौर पर ‘अंगुलम्’ के नाम से जानते हैं। उन्होंने कहा कि सिंधु के किनारे बसने वाले और गंगा के किनारे बसने वाले लोग एक थे। अप्रत्यक्ष तौर पर मैं कहूंगा कि आर्यों के आक्रमण का सिद्धांत आधारहीन है। (पंजाब केसरी 28/9/2009)
    9 जून 2018 के दैनिक जागरण समाचार पत्र में लिखा था- सिनौली (बागपत) उत्तर प्रदेश में उत्खनन में पहली बार सिंधु घाटी सभ्यता और कापर हार्डकल्चर (ताम्रयुगीन संस्कृति) का सामंजस्य सामने आया है। एक ही स्थान पर दोनों ही सभ्यताओं के चिह्न के मेल ने हमारे वेद-ग्रंथों की बात पर मुहर लगा दी है। सिनोली की खुदाई में तीन कंकाल, उनके ताबूत, आस पास रखी पाॅटरी पर जहां सिंधु घाटी सभ्यता के चिह्न मिले हैं, वहीं लकड़ी के रथ में बड़े पैमाने पर तांबे का इस्तेमाल, मुट्ठे वाली लंबी तलवार, तांबे की कीलें, कंघी कापर होर्ड का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस खुदाई ने अंग्रेजों की आर्य-आक्रमण थ्यूरी को गलत साबित कर दिया है। खुदाई में मिले सामान लगभग 4 से 5 हजार वर्ष पूर्व के हैं। लिहाजा अंग्रेजों का भारत पर आर्यों के आक्रमण (1500-2000 वर्ष ईसा पूर्व) और उनके द्वारा यहां पर नई सभ्यता की स्थापना के दावे द्दूल में मिल गए हैं।
    4 जून 2019 के दैनिक भास्कर में लिखा है कि राखीगढ़ी हिसार से मिली 8000 साल पुरानी सभ्यता। यहीं के थे आर्य। 5000 साल पहले हमने ही विकसित की हड़प्पा संस्कृति। दुनिया को बताया शहर बनाना। डेक्कन डीम्ड यूनिवर्सिटी पुणे के पुरातत्वविद् प्रोफेसर वसंत शिंदे के नेतृत्व में 2015 में राखीगढ़ी के आसपास खुदाई हुई थी, जिसमें कई कंकाल और सभ्यता के अवशेष मिले थे। प्रोफेसर शिंदे ने दावा किया कि आर्य भारतीय ही थे। इनके कहीं ओर से आने का ठोस प्रमाण नहीं है। इनके बाहर की दुनिया से संबंध थे। इनका ईरान इजिप्ट (मिश्र) से मेलजोल भी हुआ; अर्थात् राखीगढ़ी की रिसर्च रिपोर्ट इतिहास की दिशा को बदल देगी।
    यदि स्वतंत्र देश की सत्ता संभालने वाले नेताओं में अपने देश व अपनी संस्कृति से प्रेम होता और उन्होंने देशभक्त इतिहासकारों को मान्यता दी होती तो इतिहास तो कभी का बदल जाता। ऋषि दयानंद ने आर्यसमाज की स्थापना से पूर्व ही ‘आर्य विदेशी हैं’ इस सिद्धांत की जड़ों पर प्रहार करना शुरू कर दिया था। उनके शिष्य पंडित रघुनंदन शर्मा, पंडित भगवद् दत्त, आचार्य उदयवीर, डाॅ0 फतहसिंह, स्वामी विद्यानंद सरस्वती जैसे विद्वान प्रमाणों के साथ उपर्युक्त भ्रांत ‘स्थापना’ का खंडन करते रहे हैं। दूसरे सत्यप्रेमी लोग भी सत्य का प्रचार करने के लिए सतत् प्रयत्नशील रहे हैं। सन 1975 ईस्वी में यूनेस्को ने एक अंतरराष्ट्रीय विद्वत् सभा ताझिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में बुलाई। सोवियत संघ, जर्मनी, ईरान, पाकिस्तान तथा भारत के 90 विद्वानों ने उसमें भाग लिया था। भारत शासन ने डाॅ बी0 लाल के नेतृत्व में एक सप्त-सदस्यीय दल उस में भाग लेने भेजा था। विचार विमर्श का विषय था- ‘ई0 पूर्व द्वितीय सहस्रक की नृवंश विषयक गतिविधियाँ।’ भारतीय दल ने वहां पुरातत्व के आधार पर आर्यों के आक्रमण के सिद्धांत का विरोध किया। दूसरे विद्वानों ने भी उनका समर्थन किया। अमेरिका के मानव वैज्ञानिक और पुरातत्ववेत्ता डाॅक्टर जे मार्क केनोयर का मानना है कि सिंधु घाटी आर्यों की ही सभ्यता है। इसी तरह बहुत से देसी-विदेशी विद्वान् तथाकथित आर्य व द्रविड़ जातियों व उनके परस्पर संघर्ष को झूठा सिद्ध कर चुके हैं। विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार अनवर शेख आर्यों के आक्रमण को बकवास घोषित कर चुके हैं।
    सन 2003 में भाजपा के शासनकाल में एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित एकादश कक्षा की इतिहास पुस्तक ‘प्राचीन भारत’ में आर्यों के विदेशी हमलावर के सिद्धांत को नकारते हुए सिंधु सभ्यता को वैदिक आर्यों की सभ्यता लिखा था। कैंब्रिज विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एडमंड लीच को उद्धृत करते हुए लिखा था- ‘सच मानिए, आर्यों के आक्रमण तो कभी हुए ही नहीं।’ 2004 ईसवी में सरकार बदली तो फिर वही झूठ प्रचारित किया गया। देश अब पुनः राष्ट्रभक्त नेतृत्व से सत्य की आशा लगाए बैठा है। 

(शांतिधर्मी जून 2019 अंक में प्रकाशित)

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