10 मई 1857 का स्वतंत्रता संग्राम और धन सिंह कोतवाल
4 जुलाई पर विशेष
-अशोक चौधरी मेरठ
भारत का इतिहास संघर्षों से भरा है, एक वह समय था कि पितामह भीष्म का सामना करने वाला दुनिया में नहीं था। उसके बाद समय ऐसा आया कि भारत
मुगल शाही, कुतुब शाही, निजाम शाही व आदिल शाही के चंगुल में फंस गया, ऐसा लगने लगा कि यह सनातन संस्कृति समाप्त हो जायेगी, परंतु छत्रपति शिवाजी के नेतृत्व में भारतीयों ने ऐसी बहादुरी का प्रदर्शन प्रारम्भ किया कि एक समय मुगल बादशाह नाम मात्र का ही रह गया, लेकिन तभी ईस्ट इंडिया कंपनी के नेतृत्व में ब्रिटेन ने पूरे भारत पर अधिकार कर लिया, अंग्रेजो का शासन इतना फैल गया कि उनके शासन में सूर्य अस्त ही नहीं रहता था, वे विश्व की सबसे बड़ी शक्ति बन गए, अंग्रेजों ने भारतीयों से बड़ा व्यापार छीन कर अपने हाथ में ले लिया तथा भारतीय व्यापारियों को जमींदारे बेच दिए, साहूकारे के लाइसेंस दे दिये। लगान व ब्याज बडी कठोरता से वसूला जाने लगा, उस वसूली के लिए जिस पुलिस का उपयोग अँग्रेज कर रहे थे, वे किसानों के ही बेटे थे, जिस सेना के बल पर अंग्रेजों ने भारत जीता था वे सिपाही भी भारतीय किसान के ही बेटे थे,अतः जब अंग्रेजों की दमनकारी नीति से किसानों को दर्द हुआ तो उसकी प्रतिक्रिया सेना व पुलिस मे बंदूक थामे, उसके बेटो में होनी स्वभाविक थी। रही सही कसर डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति ने पूरी कर दी, दारूल इस्लाम के स्थान पर दारूल हरब बन गया था, इसलिए वहाबी भी सक्रिय थे, परंतु हथियार तो सेना व पुलिस के पास थे, जब तक भारतीय सेना अंग्रेजों के विरुद्ध न खडी हो, कोई प्रयास कामयाब नहीं था। वो दिन आया 10 मई 1857 को, जब मेरठ की भारतीय सेना, मेरठ की पुलिस व मेरठ के किसान एक साथ मिलकर ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार से भिड़ गए। आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक ट्रेंड सिपाही से लेकर सामान्य आदमी विश्व की सबसे शक्तिशाली सत्ता से लड़ गया। सामान्य किसान अपने सर से कफन बांध कर अपने देश की सेना व पुलिस के साथ मेरठ में खडा हो गया।
उस समय मेरठ में दो कोतवाली थी, एक शहर कोतवाली दूसरी सदर कोतवाली। सदर कोतवाली छावनी की वजह से थी जो केंट एरिये की कानून व्यवस्था देखती थी। दिल्ली से मेरठ व सहारनपुर, देहरादून तक गंगा यमुना के बीच का ऐरिया जाट, गूजर, राजपूत बाहुल्य था आज भी है, ये जातियां हिन्दू व मुसलमान दोनों धर्मों में मजबूत स्थिति में थी, पूर्वी परगना नाम से गूजर रियासत थी जिसे राजा जैत सिंह नागर ने सन् 1749 में मुगलों से लडकर प्राप्त किया था, वारिस ना होने के कारण इस रियासत को अंग्रेजों ने जब्त कर लिया था, अंतिम राजा नत्था सिंह के चाचा के पौत्र राव कदम सिंह जो रियासत की राजधानी किला परिक्षत गढ के निकट गांव पूठी में निवास करते थे, अंग्रेजों से रियासत वापस लेने की ताक में थे, राव कदम सिंह के तीन भाई क्रमशः दलेल सिंह, पिरथी सिंह व देवी सिंह थे, इनका सम्पर्क बिजनौर के नजीबाबाद के नवाब महमूद खान से था, महमूद खान का सम्बन्ध बरेली के बख्त खान से था और बख्त खान दिल्ली के बहादुर शाह जफर के सम्पर्क में था, राव कदम सिंह के परिवार की रिश्तेदारी बागपत रोड पर स्थित गांव पाचली के मुखिया सालगराम से थी, सालगराम मुखिया के सात बेटे थे, जिनके नाम क्रमशः चैनसुख, नैनसुख, हरिसिंह, धनसिंह, मोहर सिंह, मैरूप सिंह व मेघराज सिंह थे, इनमें धनसिंह सालगराम मुखिया के चौथे पुत्र थे, धन सिंह का जन्म 27 नवम्बर सन् 1814 दिन रविवार (सम्वत् 1871 कार्तिक पूर्णिमा) को प्रात:करीब छ:बजे माता मनभरी के गर्भ से हुआ था। धन सिंह मेरठ की सदर कोतवाली में पुलिस में थे। राव कदम सिंह गांव पांचली व बेगमाबाद (वर्तमान में मोदीनगर) के पास स्थित गांव सिकरी में अपनी गढ़ी बनाना चाहते थे, अतः जब क्रांति की तैयारी चल रही थी, गांव गांव रोटी और कमल का फूल लेकर प्रचार किया जा रहा था, तथा क्रांति की तिथि 31 मई निश्चित की गई थी, क्योंकि धनसिंह पुलिस में थे, वो जानते थे कि सब कार्य क्रांतिकारियों की योजना से होने मुश्किल है, अंग्रेजों का खुफिया तंत्र हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठा रहेगा, अतः धनसिंह ने अपने गांव के आसपास सिकरी तक अपने सजातीय बंधुओं को यह समझा दिया था कि वह हर समय तैयार रहे, ताकि आवश्यकता पडने पर कम से कम समय में जहां जरूरत हो पहुंच सके।
10 मई 1857 को मेरठ में जो महत्वपूर्ण भूमिका धनसिंह और उनके अपने गांव पांचली के भाई बन्धुओं ने निभाई उसकी पृष्ठभूमि में अंग्रेजों के जुल्म की दास्तान छुपी हुई है। धन सिंह कोतवाल एक किसान परिवार से थे। धन सिंह के पिता पांचली गांव के मुखिया थे, अतः अंग्रेज पांचली के उन ग्रामीणों को जो किसी कारणवश लगान नहीं दे पाते थे, उन्हें धनसिंह के अहाते में कठोर सजा दिया करते थे।
1857 की क्रांति के कुछ समय पूर्व अप्रेल के महीने में घटी एक घटना ने भी धनसिंह को अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े होने को मजबूर कर दिया। गांवो में प्रचलित किवदंती के अनुसार "किसान अपनी फसल उठाने में लगे थे। एक दिन करीब 10-11 बजे के आसपास दो अँग्रेज तथा एक अंग्रेज मेम पांचली खुर्द के आमों के बाग में थोड़ा आराम करने के लिए रूके। इसी बाग के निकट पांचली गांव के तीन किसान जिनके नाम मंगत सिंह, नरपत सिंह और झज्जड सिंह थे, कृषि कार्यो में लगे थे। अंग्रेजों ने इन किसानों से पानी पिलाने का आग्रह किया। किसी बात को लेकर इन किसानों व अंग्रेजों में संघर्ष हो गया। इन किसानों ने अंग्रेजों पर हमला कर दिया, एक अंग्रेज व मेम को पकड़ लिया। एक अंग्रेज भागने में सफल हो गया। पकड़े गए अंग्रेज सिपाही को किसानों ने हाथ-पैर बांध कर गर्म रेत में डाल दिया और मेम से बलपूर्वक दांय हकवाई। दो घंटे बाद भागा हुआ सिपाही एक अंग्रेज अधिकारी और 25-30 सिपाहियों के साथ वापस आ धमका। तब तक किसान अंग्रेज सैनिकों से छिने हुए हथियारों, जिनमें सोने के मूठ वाली एक तलवार भी थी, को लेकर भाग चुके थे। अंग्रेजों ने इस घटना की जांच करने और दोषियों को गिरफ्तार कर शासन को सौंपने की जिम्मेदारी धनसिंह के पिता को सौंपी। घोषणा कर दी गई कि यदि मुखिया ने तीनों बागियों को पकड़कर शासन को नहीं सौंपा तो सजा गांव वालों और मुखिया को मिलेगी। बहुत से गांववासी भयवश गांव से पलायन कर गए। आखिर में नरपत सिंह और झज्जड सिंह ने तो समर्पण कर दिया किन्तु मंगतसिंह को नहीं पकड़ा जा सका। दोनों किसानों को 30-30 कोडे और जमीन से बेदखली की सजा दी गई। फरार मंगतसिंह के परिवार के तीन सदस्यों को गांव के समीप ही फांसी पर लटका दिया गया। धन सिंह के पिता को मंगतसिंह को न ढूंढ पाने के जुर्म में छ:माह के कठोर कारावास की सजा दी गई। अतः जब 10 मई को क्रांति हुई तो धनसिंह कोतवाल के पिता भी मेरठ की उसी जेल में बंद थे जो उन्होंने रात को तोड दी।
मेरठ में 8 मई को उन सैनिकों को हथियार जब्त कर कैद कर लिया गया था,जिन्होंने गाय व सूअर की चर्बी लगे कारतूस लेने से इंकार कर दिया था। इन गिरफ्तार सिपाहियों को मेरठ डिवीजन के मेजर जनरल डब्ल्यू एच हेविट ने 10-10 वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया था। मेरठ में देशी सिपाहियों की केवल दो पैदल रेजिमेंट थी, जबकि यहां गोरे सिपाहियों की एक पूरी राइफल बटालियन तथा एक ड्रेगन रेजिमेंट थी, एक अच्छे तोपखाने पर भी अंग्रेजों का ही पूर्ण अधिकार था। इस स्थिति में अंग्रेज बेफिक्र थे। उन्हें भारतीय सिपाहियों से मेरठ में कोई खतरा दिखाई नहीं दे रहा था।
मेरठ में क्रांति का कार्यक्रम बड़ी बुद्धिमानी से बनाया गया था। कार्यक्रम इस प्रकार था कि सबसे पहले अचानक आक्रमण किया जाय, बंदी सैनिकों को जेल से मुक्त कराते ही अंग्रेजों का वध प्रारंभ कर दिया जाये। जब अंग्रेज सहसा होने वाले विस्फोट से घबरा उठें तो मेरठ की जनता पुलिस के नेतृत्व में शहर में सभी अंग्रेजों से सम्बंधित ठिकानों पर हमला कर दें। जिससे अंग्रेजों को यह पता ही न चले कि संघर्ष का केंद्र स्थल कहा है।
10 मई को चर्च के घंटे के साथ ही भारतीय सैनिकों की गतिविधियाँ प्रारंभ हो गई।शाम 6.30बजे भारतीय सैनिकों ने ग्यारहवीं रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर कर्नल फिनिश व कैप्टन मेक डोनाल्ड जो बीसवीं रेजिमेंट के शिक्षा विभाग के अधिकारी थे, को मार डाला तथा जेल तोडकर अपने 85 साथियों को छुड़ा लिया। सदर कोतवाली के कोतवाल धन सिंह गुर्जर तुरंत सक्रिय हो गए, उन्होंने तुरंत एक सिपाही अपने गांव पांचली जो कोतवाली से मात्र पांच किलोमीटर दूर था भेज दिया। पांचली से मात्र 10 किलोमीटर की दूरी पर सिकरी गांव था, तुरंत जो लोग संघर्ष करने लायक थे एकत्र हो गए और हजारों की संख्या में धनसिंह कोतवाल के भाईयों के साथ सदर कोतवाली में पहुंच गए। धनसिंह कोतवाल ने योजना के अनुसार बड़ी चतुराई से ब्रिटिश सरकार के प्रति वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वही रहने का आदेश दिया। आदेश का पालन करते हुए अंग्रेजों के वफादार पुलिसकर्मी क्रांतिकारी घटनाओं के दौरान कोतवाली में ही बैठे रहे। दूसरी तरफ धनसिंह कोतवाल ने क्रांतिकारी योजनाओं से सहमत सिपाहियों को क्रांति में अग्रणी भूमिका निभाने का गुप्त आदेश दिया, फलस्वरूप उस दिन कई जगह पुलिस वालों को क्रान्तिकारियों की भीड़ का नेतृत्व करते देखा गया। मेरठ के आसपास के गांवों में प्रचलित किवदंती के अनुसार इस क्रांतिकारी भीड़ ने धनसिंह कोतवाल के नेतृत्व में देर रात दो बजे जेल तोडकर 839 कैदियों को छुड़ा लिया और जेल में आग लगा दी। मेरठ शहर व कैंट में जो कुछ भी अंग्रेजों से सम्बंधित था उसे यह क्रांतिकारियों की भीड़ पहले ही नष्ट कर चुकी थी। क्रांतिकारी भीड़ ने मेरठ में अंग्रेजों से सम्बन्धित सभी प्रतिष्ठान जला डाले थे, सूचना का आदान-प्रदान न हो, टेलिग्राफ की लाईन काट दी थी, मेरठ से अंग्रेजी शासन समाप्त हो चुका था, कोई अंग्रेज नहीं बचा था, अंग्रेज या तो मारे जा चुके थे या कहीं छिप गये थे।
11 मई को सेना ने दिल्ली पहुंच कर मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया और अंग्रेजों को दिल्ली के बाहर खदेड़ दिया।
ग्यारह मई को जब मेरठ में घटित घटनाओं की सूचना आसपास क्षेत्र में पहुँचते ही बडौत के पास के गांव बिजरोल के जाट जमींदार चौधरी शाहमल सिंह, सरधना के पास अकलपुरा के राजपूत ठाकुर नरपत सिंह, बरनावा के पास गढी गांव के राजपूत मुसलमान (रांघड) कलंदर खान ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर क्षेत्र से लगान वसूलना शुरू कर दिया। किला -परिकछत गढ के राव कदम सिंह ने अपने आप को पूर्वी परगने का राजा घोषित कर दिया।
परंतु 10 मई की क्रांति की घटनाओं के बाद से अंग्रेजों की गतिविधियों व भारतीयों की गतिविधियों में एक बड़ा अंतर रहा, जहां अंग्रेजों की गतिविधि अत्यधिक तेज थी वहीं भारतीयों की गतिविधियां मन्द गति से चल रही थी। उसका सबसे प्रमुख कारण अंग्रेजों के पास अत्याधुनिक संचार प्रणाली का होना था। सन् 1853 में ही भारत में इलेक्ट्रॉनिक टेलिग्राफ का प्रवेश हो गया था। सन् 1857 तक अंग्रेजों ने भारत के सभी महत्वपूर्ण नगरों को टेलिग्राफ के द्वारा जोड़ दिया था।
मेरठ से बाहर जाने वाले आगरा -दिल्ली मार्ग को क्रांतिकारियों ने पूरी तरह से रोक दिया था, जिस कारण से मेरठ का सम्पर्क अन्य केंद्रों से कट गया था। अंग्रेजों ने अपने शासन की व्यवस्था बनाने के प्रयास शुरू कर दिए। आगरा उस समय उत्तर -पश्चिम प्रांत की राजधानी थी। अंग्रेज आगरा से सम्पर्क टूट जाने से बहुत परेशान थे। नूरनगर, लिसाडी व गगोल के क्रांतिकारियों ने बुलंदशहर -आगरा मार्ग को रोक सूचना तंत्र भंग कर दिया था।
तत्कालीन परिस्थितियों में दिल्ली की भारतीय सरकार के लिए मेरठ क्षेत्र अति महत्वपूर्ण हो गया था। मेरठ के आसपास के सामान्य नागरिक दिल्ली के क्रांतिकारियों को धन व रसद की भारी मदद पहुंचा रहे थे। उन परिस्थितियों में मुगल बादशाह ने मालागढ के नवाब वलीदाद खान को इस क्षेत्र का नायब सूबेदार बना दिया। वलीदाद खान ने मेरठ के आसपास की क्रांतिकारी गतिविधियों को गति प्रदान करने के लिए दादरी में उमराव सिंह भाटी से मिलकर अँग्रेजों से लड़ने की योजना बनाई।
मेरठ अंग्रेजों की पुरे डिविजन का केंद्र था , मेरठ को आधार बनाकर ही अंग्रेज इस क्रांति का दमन कर सकते थे। इसलिए अंग्रेजों को यह संदेह था कि क्रांतिकारी मेरठ पर हमला कर सकते हैं। अंग्रेज अपने मकसद को हल करने के लिए, दिल्ली को पुनः प्राप्त करने की तैयारी में जुट गए। 20 मई 1857 को भारतीयों ने हिंडन नदी का पुल तोड दिया, जिससे दिल्ली के बाहर के की ओर शरण लिए अंग्रेजों का सम्पर्क मेरठ व उत्तरी जिलों से टूट गया। अब अंग्रेजों की एक बड़ी सेना अंग्रेज अधिकारी बर्नाड के नेतृत्व में दिल्ली पर धावा बोलने के लिए अम्बाला छावनी से चल दी। बर्नाड ने दिल्ली पर हमले से पहले मेरठ की अंग्रेजी सेना को साथ लेने का फैसला लिया। अतः 30 मई 1857 को जनरल आर्कलेड विल्सन के नेतृत्व में मेरठ की अंग्रेजी सेना बर्नाड की मदद के लिए हिंडन नदी के तट पर पहुंच गई। किन्तु इन दोनों सेनाओं को एक दूसरे की मदद से रोकने के लिए क्रांतिकारी सैनिकों व सामान्य जनता ने हिंडन नदी के दूसरी तरफ मोर्चा लगा लिया। जब अंग्रेजी सेना अपनी व्यवस्था बनाने का प्रयास कर रही थी, तभी क्रांतिकारी सेना ने उन पर तोपों से हमला कर दिया। क्रांतिकारी सेना की कमान मुगल शहजादे मिर्जा अबू बकर, दादरी के उमराव सिंह भाटी व नवाब वलीदाद खान के हाथ में थी। इस युद्ध के प्रारम्भ में क्रांतिकारी सैनिकों की गोलाबारी ने अंग्रेजी सेना के अगले भाग को भारी हानि पहुंचायी। अंग्रेजों ने रणनीति बदलते हुए भारतीय सेना पर जोरदार हमला किया। इस हमले के कारण क्रांतिकारी सेना को पीछे हटना पड़ा और उसकी पांच तोपे वहीं छूट गई। जैसे ही अंग्रेजी सेना इन तोपों को कब्जे में लेने के लिए वहाँ पहुँची, वहीं छुपे एक भारतीय सिपाही ने बारूद में आग लगा दी, जिससे एक भयंकर विस्फोट में अंग्रेज अधिकारी कै.एण्डूरज और 10 अंग्रेज सैनिक मारे गए। इस प्रकार एक भारतीय वीर ने अपने प्राणों की आहुति देकर दुश्मन से अपनी बहादुरी का लोहा मनवा दिया।
अगले दिन भारतीय सेना ने दोपहर में अंग्रेजी सेना पर हमला कर दिया, यह दिन बेहद गर्म था। इस युद्ध में लै0 नैपियर और 11 जवान अंग्रेजी सेना की ओर से मारे गए तथा बहुत से घायल हो गए। 1 जून 1857 को अंग्रेजों की मदद को गोरखा पलटन भी पहुंच गई, फिर भी अंग्रेजी सेना आगे बढने का साहस नहीं कर सकी और बागपत की ओर मुड़ गई।
तीन जून को अंग्रेजों ने फोर्स लेकर मेरठ शहर के कोतवाल बिशन सिंह यादव को अंग्रेज सेना को गाईड करने का आदेश दिया। परंतु बिशन सिंह यादव ने पहले ही हमले की सूचना गगोल के क्रांतिकारियों को दे दी तथा जानबूझकर अंग्रेजी फोर्स के पास देर से पहुंचे। जब यह फोर्स गगोल पहुंची, तब तक सभी ग्रामीण भाग चुके थे, अंग्रेजों ने गांव में आग लगा दी। बिशन सिंह भी सजा से बचने के लिए फरार हो गये।
वहाबी सेनापति बख्त खान बरेली से सेना लेकर दिल्ली की ओर चल दिया। सेना दिल्ली ना पहुंचे, उसे रोकने के लिए अंग्रेजों ने गढ़ मुक्तेश्वर में बने पीपे के पुल को तोड दिया। परंतु राव कदम सिंह ने 27 जून को नावों की व्यवस्था कर बख्त खान की सेना को गंगा पार करा दी। तब मेरठ के तत्कालीन कलेक्टर आरएच डनलप ने मेजर जनरल हैविट को 28 जून 1857 को पत्र लिखा कि यदि हमने शत्रुओं को सजा देने और अपने समर्थकों को मदद देने के लिए जोरदार कदम नहीं उठाए तो क्षेत्र कब्जे से बाहर निकल जायेगा।
तब अंग्रेजों ने खाकी रिसाला के नाम से मेरठ में एक फोर्स का गठन किया जिसमें 56 घुड़सवार, 38 पैदल सिपाही और 10 तोपची थे। इनके अतिरिक्त 100 रायफल धारी तथा 60 कारबाईनो से लैस सिपाही थे। इस फोर्स को लेकर सबसे पहले क्रांतिकारियों के गढ़ धनसिंह कोतवाल के गांव पांचली, नगला, घाट गांव पर कार्रवाई करने की योजना बनी।
धनसिंह कोतवाल पुलिस में थे, वह क्रांतिकारी गतिविधियों में राव कदम सिंह के सहयोगी थे, अतः उनके पास भी अपना सूचना तंत्र था, धनसिंह को इस हमले की भनक लग गई। वह तीन जुलाई की शाम को ही वह अपने गांव पहुंच गए। धनसिंह ने पांचली, नंगला व घाट के लोगों को हमले के बारे में बताया और तुरंत गांव से पलायन की सलाह दी। तीनों गांव के लोगों ने अपने परिवार की महिलाएं, बच्चों, वृद्धों को अपनी बैलगाड़ियो में बैठाकर रिश्तेदारों के यहाँ को रुखसत कर दिया। धनसिंह जब अपनी हबेली से बाहर निकले तो उन्होंने गांव की चौपाल पर अपने भाई बंधुओं को हथियारबंद बैठे देखा, ये वही लोग थे जो धनसिंह के बुलावे पर दस मई को मेरठ पहुंचे थे। धनसिंह ने उनसे वहां रूकने व एकत्र होने का कारण पूछा। जिस पर उन्होंने जबाब दिया कि हम अपने जिंदा रहते अपने गांव से नहीं जायेंगे, जो गांव से जाने थे वो जा चुके हैं। आप भी चले जाओ। धन सिंह परिस्थिती को समझ गए कि उनके भाई बंधु साका के मूड में आ गए हैं। जो लोग उनके बुलावे पर दुनिया की सबसे शक्तिशाली सत्ता से लड़ने मेरठ पहुंच गए थे, उन्हें आज मौत के मुंह में छोड़कर कैसे जाएं। धनसिंह ने अपना निर्णय ले लिया। उन्होंने अपने गाँव के क्रांतिकारियों को हमले का मुकाबला करने के लिए जितना हो सकता था मोर्चाबंद कर लिया।
चार जुलाई सन् 1857 को प्रात:ही खाकी रिसाले ने गांव पर हमला कर दिया। अँग्रेज अफसर ने जब गाँव में मुकाबले की तैयारी देखी तो वह हतप्रभ रह गया। वह इस लड़ाई को लम्बी नहीं खींचना चाहता था, क्योंकि लोगों के मन से अंग्रेजी शासन का भय निकल गया था, कहीं से भी रेवेन्यू नहीं मिल रहा था और उसका सबसे बड़ा कारण था धनसिंह कोतवाल व उसका गांव पांचली। अतः पूरे गांव को तोप के गोलो से उड़ा दिया गया, धनसिंह कोतवाल की कच्ची मिट्टी की हवेली धराशायी हो गई। भारी गोलीबारी की गई। सैकड़ों लोग शहीद हो गए, जो बच गए उनमें से 46 कैद कर लिए गए और इनमें से 40 को फांसी दे दी गई। मृतकों की किसी ने शिनाख्त नहीं की। इस हमले के बाद धनसिंह कोतवाल की कहीं कोई गतिविधि नहीं मिली, सम्भवतः धनसिंह कोतवाल भी इसी गोलीबारी में अपने भाई बंधुओं के साथ शहीद हो गए। उनकी शहादत को शत् -शत् नमन।
10 मई 1857 को मेरठ में हुई क्रांतिकारी घटनाओं में पुलिस की भूमिका की जांच के लिए मेजर विलियम्स की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई। मेजर विलियम्स ने 10 मई की घटनाओं का भिन्न-भिन्न गवाहियों (डेपोजिशंस) के आधार पर गहन विवेचन किया तथा इस सम्बन्ध में एक स्मरण पत्र तैयार किया। जिसके अनुसार उन्होंने मेरठ में जनता की क्रान्तिकारी गतिविधियों के विस्फोट के लिए धनसिंह कोतवाल को मुख्य रूप से दोषी ठहराया, उसका मानना था कि यदि धनसिंह कोतवाल ने अपने कर्तव्य का निर्वाह ब्रिटिश हित के लिए किया होता तो सम्भवतः मेरठ में जनता को भडकने से रोका जा सकता था। धनसिंह कोतवाल को पुलिस नियंत्रण के छिन्न-भिन्न हो जाने के लिए दोषी ठहराया गया। क्रांतिकारी घटनाओं से दमित लोगों ने अपनी गवाहियों में सीधे आरोप लगाते हुए कहा कि धनसिंह कोतवाल क्योंकि स्वयं गूजर था इसलिए उसने विद्रोहियों, जिनमें गूजर बहुसंख्यक थे, को नहीं रोका। उन्होंने धनसिंह पर विद्रोहियों को खुला संरक्षण देने का आरोप भी लगाया। डेपोजिशंन (गवाही) संख्या 66 के अनुसार क्रांतिकारियों ने कहा कि धनसिंह कोतवाल ने स्वयं उन्हें आस-पास के गांव से बुलाया है।
नवम्बर 1858 में मेरठ के कमिश्नर एफ विलियम द्वारा इसी सिलसिले में एक रिपोर्ट नॉर्थ -वेस्टर्न प्रान्त (आधुनिक उत्तर प्रदेश) सरकार के सचिव को भेजी गई। रिपोर्ट के अनुसार मेरठ की सैनिक छावनी में "चर्बी वाले कारतूस और हड्डियों के चूर्ण वाले आटे की बात" बड़ी सावधानी पूर्वक फैलाई गई थी। रिपोर्ट में अयोध्या से आये एक साधु (हिन्दू फकीर) की संदिग्ध भूमिका की ओर भी इशारा किया गया था। भारतीय सैनिक, मेरठ शहर की पुलिस और जनता तथा आसपास के ग्रामीण इस साधु के सम्पर्क में थे। मेजर विलियम्स को दी गई गवाही संख्या 8 के अनुसार सदर कोतवाल स्वयं इस साधु से उसके सूरज कुण्ड स्थित ठिकाने पर मिले थे। हो सकता है कि ऊपरी तौर पर यह कोतवाल की सरकारी भेंट हो, परन्तु दोनों के आपस में सम्पर्क होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में कोतवाल सहित पूरी पुलिस इस योजना में साधु (सम्भवतः स्वामी दयानंद) के साथ शामिल हो चुकी थी।
विद्वानों व इतिहासकारों का ऐसा मत है कि 10 मई 1857 को मेरठ से प्रारंभ हुई इस क्रांति में तीन लाख भारतीय शहीद हुए। सन् 1947 में देश आजाद हुआ, तब से ही मेरठ में प्रत्येक वर्ष दस मई को सरकारी अवकाश रहता है, क्रांतिकारियों की स्मृति में सरकारी व गैरसरकारी संगठनो के माध्यम से कार्यक्रम होते हैं। धनसिंह कोतवाल का मेरठ के नागरिकों के मन में बडा आदर है उनके नाम से गांव पांचली में शहीद स्मारक व प्रतिमा लगी हुई है, पांचली में ही धन सिंह कोतवाल मण्डलीय प्रशिक्षण केंद्र होमगार्ड बना हुआ है। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ में धनसिंह कोतवाल सामुदायिक केंद्र नाम का भवन बना है। मेरठ में ही मवाना स्टेंड के पास आदम कद प्रतिमा लगी हुई है। सुभारती विश्वविद्यालय मेरठ में एक गेट का नाम धनसिंह कोतवाल के नाम से है, मेरठ जिले के मेरठ ब्लाक में जुररानपुर गांव में धनसिंह कोतवाल हाई स्कूल बना है। मेरठ के सदर थाने में तीन जुलाई 2018 को धनसिंह कोतवाल की प्रतिमा की स्थापना मेरठ के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक श्री राजेश कुमार पाण्डेय के प्रयास से की गई है, जिसका अनावरण उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक श्री ओ पी सिंह ने किया। 12 जुलाई 2018 को चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के प्रांगण में बने धनसिंह कोतवाल सामुदायिक केंद्र में धनसिंह कोतवाल की प्रतिमा की स्थापना विश्वविद्यालय के वीसी प्रोफेसर नरेंद्र कुमार तनेजा के प्रयास से की गई। जिसका अनावरण उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महामहिम रामनाईक व उप मुख्यमंत्री श्री दिनेश शर्मा जी ने किया।
संदर्भ ग्रन्थ
1- 1857 की जनक्रांति के जनक धनसिंह कोतवाल,गगोल का बलिदान, हिंडन का युद्ध, क्रांतिकारियों के सरताज राव कदम सिंह -डॉ सुशील भाटी।
2- 1857 के क्रांतिनायक शहीद धनसिंह कोतवाल का सामान्य जीवन परिचय -तस्वीर सिंह चपराणा।
3- UTTAR PRADESH DISTRICT GAJETTEERS MEERUT -shrimati Esha Basanti JoshI
4- क्षेत्र में प्रचलित किवदंतियां।
5- दैनिक जागरण मेरठ 8 मई 2007 -वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गई, धन सिंह गुर्जर: क्रांति के कर्मठ सिपाही।
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