Wednesday, July 10, 2019

स्वामी करपात्री द्वारा एकेश्वरवाद को लेकर महर्षि दयानन्द पर किए गए आक्षेप का समाधान


  

स्वामी करपात्री द्वारा एकेश्वरवाद को लेकर महर्षि दयानन्द पर किए गए आक्षेप का समाधान

●  क्या वेदों में एकेश्वरवाद नहीं है?

●  Was Monotheism borrowed from Bible and Quran by Maharshi Dayananda?
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[भूमिका : स्वामी करपात्री (देहावसान 1982) ने 1980 में प्रकाशित अपने ‘वेदार्थपारिजातः’ नामक ग्रन्थ में आर्यसमाज के प्रवर्तक महर्षि स्वामी  दयानन्द सरस्वती के ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ का – उनके वेद तथा वेदार्थ विषयक मन्तव्यों का खण्डन करने का प्रयास किया है। आर्यसमाज के विख्यात विद्वान् पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक चाहते हुए भी अपने वार्धक्य तथा शारीरिक व्याधियों के कारण स्वामी करपात्री के उपर्युक्त ग्रन्थ का उत्तर नहीं लिख सके। परन्तु आर्यसमाज के एक अन्य मूर्धन्य विद्वान् आचार्य विशुद्धानन्द मिश्रः शास्त्री ने स्वामी करपात्री के उपर्युक्त ग्रन्थ का संस्कृत भाषा में समुचित उत्तर ‘वेदार्थ-कल्पद्रुमः’ ग्रन्थ के रूप में दिया है, जिसमें महर्षि दयानन्द के मन्तव्यों की सत्यता स्थापित की गई है। ‘वेदार्थ-कल्पद्रुमः’ के संस्कृत अंश का हिन्दी रूपान्तर आचार्य विशुद्धानन्द की विदुषी धर्मपत्नी प्राचार्या श्रीमती निर्मला मिश्रः ने किया है। स्वामी करपात्री ने ‘वेदार्थपारिजात’ में एक स्थान पर महर्षि दयानन्द पर मिथ्या आरोप लगाते हुए लिखा है – “वस्तुतस्तु स्वामिदयानन्दो बायबलकुरानाद्यनार्यग्रन्थैः प्रभावितत्वादेव मतमिदमास्थितो यद् ईश्वरातिरिक्त: कश्चनोपास्यो नास्तीति।” (पृ. 621 अनु. 2, पंक्ति 9 ) अर्थात् - “वस्तुतस्तु स्वामी दयानन्द बाइबिल, कुरान आदि अनार्य-ग्रन्थों से प्रभावित होने के कारण ही कह मानने लगे हैं कि ईश्वर के अतिरिक्त अन्य कोई उपास्य नहीं है।” आचार्य विशुद्धानन्द ने अपने ग्रन्थ में स्वामी करपात्री के इस आक्षेप का निम्नलिखित समाधान प्रस्तुत किया है – भावेश मेरजा]
 
श्री करपात्री का यह कथन अज्ञान जनित ही है और कुत्सित मनोवृत्ति का भी द्योतक है। यह निर्मेलोक्ति इसे घिक्कृत करती हैं –

काषायाम्बरधारकों लजयते हा साधुवेशं भृशम्,
गालीदानविडम्विताधरवरोऽयं पाणिपात्र: सुधी: ।
वेदेष्वेक परेशवादमपि यो नो, मन्यते शाश्वतम्,
ईसाई यवनैः प्रचालितमिमं, नव्यं समाभाषते ॥

[अर्थात्] “यह काषायवस्त्र धारी साधु-वेश को लज्जित कर रहे हैं, गालीदान से जिनके अधर अत्यन्त निन्दित हो चुके हैं। वेदों में शाश्वत एकेश्वरवाद को भी नहीं मानते और निर्लज्ज होकर कहते हैं कि एकेश्वरवाद ईसाई और यवनों ने प्रचालित किया है।”

वस्तुत: आधुनिक काल में स्वनामधन्य, प्रात: स्मरणीय महर्षि दयानन्द ही विद्वानों में शिरोमणि हुये, जिन्होंने वेदों के यथार्थ स्वरूप को जनता के सम्मुख प्रतिष्ठापित किया। उनके समय में भारतीय संस्कृतज्ञों में वेदों की निनान्त उपेक्षा थी और उनकी वेदाध्ययन में कोई प्रवृति न थी। स्वामी विशुद्धानन्द और बालशास्त्री भी, जो दर्शन और स्मृतियों का अनुशीलन करने वाले थे, वेदों के प्रति उदासीन थे। जहाँ वहाँ सायण, महीधर आदि पौराणिक, ताँत्रिक (वाममार्गी) भाष्यकारों के ही भाष्य पढ़ाये जाते थे, जिन्हें पढ़कर हिन्दू जाति का वेदों के प्रति बचा खुचा श्रद्धाभाव भी लुप्त हो गया।
दूसरी ओर पाश्चात्य लोग वेदाध्ययन-परायण हो रहे थे; परन्तु उनकी पक्षपात पूर्ण दृष्टि और श्रुति के प्रति अश्रद्धा में ही जागरूकता दिखाई पड़ रही थी। कराल काल कवलित आर्य-संस्कृति की इस अवस्था में महर्षि ने ही सिंहनाद किया था कि - “वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है; वेद का पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।" आपके समान ही प्रिंसिपल महेशचन्द्र ने, होग, ग्रिफिथ आदि के किये हुये, वेदों के एकेश्वरवाद के खण्डन का आश्रय लेकर बहुत सा लिखा था, और उनका प्रतिवाद महर्षि ने ‘भ्रान्ति-निवारण’ में किया है। 

यथा “डा. होग, टानी, ग्रिफिथ आदि ईश्वर नहीं थे जिनके कथन को बिना कसौटी पर कसे मान लिया जाये, क्या होग आदि हमारे पूजनीय महर्षियों से भी अधिक गोरवशाली थे ? जिनको प्रमाण मानकर हम अपने प्राचीन सत्यग्रंथों को भी छोड़ दें, जेसा कि महेशचन्द्र बहकाते हैं।” महर्षि को छोड़कर किसमें साहस था जो उस समय (पराधीनता में) होग आदि ईसाई अंग्रेजों का विरोध करता। ब्रह्मचर्य से पवित्र काया, वाणी और मनोबल के द्वारा ही एक धीर पुरुष ने अनेक घमण्डी वेद विरोधी जीत लिये। इस प्रसंग में यह सत्योक्ति संगत है कि - 

कान्ताकटाक्षविशिखाः न लुनन्ति यस्य,
चित्तं न निर्दहति कोपकृशानुतापः।
कर्षन्ति भूरिविषयाश्च न लोभपाशै:,
लोकत्रयं जयति कृत्स्नमयं स धीरः॥

[अर्थात्] “कान्ता के कटाक्ष के बाण जिसके चित्त को नहीं छेदते और कोपाग्नि का तायत नहीं जलाता एवं लोभ के पाशों से बहु विषय भी जिसे आकृष्ट नहीं कर पाते, यही वह धीर पुरुष तीनों लोकों को जीत रहा है।” 

भला देखिये तो जड़ की आराधना में समर्पित बुद्धि वाले करपात्री जी कह रहे हैं बायबल, कुरान आदि से एकेश्वरवाद को ग्रहण किया है, वेदों में एकेश्वरोपासना का विधान नहीं है। अहो ! आर्यजाति की यह कैसी विनाशोन्मुख भाग्य विडम्बना है कि ऐसे भी कपटी गेरुआ वस्त्रधारी वेद की प्रतिष्ठा को लुप्त करने वाले प्रतिष्ठा को प्राप्त कर रहे हैं।

स्वामी दयानन्द ने तो वेदों के एकेश्वरवाद की सडिण्डिम घोषणा की थी। “इन्द्रं मित्रं (ऋ. 1.164.46) यह ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का मन्त्र उनके मुह पर चपेटिका है, जो ऐसा प्रलाप करते हैं कि वेदों में एकेश्वर-उपासना नहीं है, तथा बायबल, कुरान आदि से लेकर स्वामी दयानन्द ने प्रचलित की है। महोदय ! आर्यों ने ही संसार में सबसे पहले ईश्वर को जाना तथा विश्व को इसकी शिक्षा दी थी। डॉ. ताराचन्द्र, प्राध्यापक हुमायूं कबीर, आचार्य विनोबा भावे, करपात्री आदि ने जो कहा है वह तो इन अन्धमतानुयायी लोगों के मनोरंजन के लिये है। यह महदाश्चर्य है कि धर्मसम्राट् पदवी को धारण करते हुये भी, गीर्वाणवाणी विलासरसिक होते हुये भी करपात्री जी कह रहे हैं - ''एकेश्वरवाद हमें दूसरों ने सिखाया।”

ऐसे पारिजात-कर्ता को धिककार है। इन्हें यह निर्मलोक्ति मनन करनी चाहिये कि – 

नो संसारजना जनुश्च जगृहुर्नोमीलनं चक्षुषो:,
अस्माकं मुनयस्त्रिविष्टपधरोत्सङ्गे तु सर्गे नवे।
वेदज्ञानमवाप्य सर्वसुखदामेकेश्वरोपासनाम्,
चक्रुर्वै तदनन्तरं जगदिदं लेभेऽखिलं शिक्षणम्॥

[अर्थात्]  “संसार के लोगों ने जन्म-धारण भी न किया था, न नेत्र (ज्ञान) द्वार खोले थे, उससे पूर्व हमारे पूर्वंज मुनियों ने तिब्बत की धरा की गोद में नई सृष्टि में वेद-ज्ञान प्राप्तकर सर्व-सुखदा एकेश्वर-उपासना की थी, फिर संसार ने इन्हीं से सम्पूर्ण-शिक्षा ग्रहण की।”

दाराशिकोह यवन होता हुआ भी धन्यवाद का पात्र है, जो कि उसने उपनिषदों के एकेश्वरवाद को मौलिक मानते हुये भूरि प्रशंसा की है। मौलाना सुलेमान नदवी ने तो अपने ग्रन्थ में लिखा है कि एक दिन मुहम्मद साहब पूर्व दिशा की ओर मुह करके ध्यान मग्न हो गये। सहयोगियों ने उनसे पूछा कि श्रीमन् ! आप पूर्व को मुंह किये हुये क्या प्रार्थना कर रहे हैं? उन्होंने उत्तर दिया, “पूर्व (भारत) से एकेश्वरवाद की शीतल वायु बहती हुई आ रही है”। यह है विचारधारा यवनों तक की; परन्तु हिन्दू कुल कलंकायमान जनों की इससे भिन्न सम्मति है जो वेद में निष्ठा रखने वाले आर्यों के मानस को अतितरां पीडाकर है।

[स्रोत : वेदार्थ-कल्पद्रूमः, पृ. 538-543, संकलन एवं प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
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