● सुख-दुःख - स्वामी दर्शनानन्द जी की दृष्टि में
● क्या सुख-दुःख जीवात्मा के स्वाभाविक गुण हैं?
● Are Pain and Pleasure natural attributes of the Individual Soul? - Swami Darshanananda provides philosophical insight
----------------
संकलनकर्ता: भावेश मेरजा
----------------
संकलनकर्ता: भावेश मेरजा
(1) संसार में दुःख और सुख दोनों ही गुण विपरीत देखे जाते हैं। अतः दोनों का कारण एक ही नहीं हो सकता। क्योंकि एक वस्तु में दो विरुद्ध गुण एक ही समय नहीं रह सकते। जब तक दूसरी वस्तु का संयोग न हो, तब तक एक ही प्रकार की वस्तु से विरुद्ध गुण उत्पन्न नहीं हो सकता। अतः केवल जीवात्मा ही दुःख और सुख का अधिष्ठान नहीं हो सकता। यदि यह कहा जावे कि जीवात्मा का स्वाभाविक गुण ही दुःख है, तब तो उसका दुःख किसी प्रकार दूर ही नहीं हो सकता, क्योंकि स्वाभाविक गुण का नाश हो नहीं सकता। यदि उसका गुण सुख माना जावे, तो उसको सुख का यत्न नहीं करना चाहिये, क्योंकि वह तो नित्य ही सुखी रहना चाहिये। जबकि जीवात्मा को दुःख दूर करने का और सुख को प्राप्त करने का यत्न करते देखते हैं। तो विदित होता है कि जीव सुख और दुःख दोनों से पृथक् है, और ये दोनों गुण जीवात्मा में किसी अन्य वस्तु से आये हैं। - वैशेषिक दर्शन, प्रस्तावना, पृ. क-ख, प्रकाशक : प्रेम पुस्तक भण्डार, बरेली
(2) प्रश्न - आत्मा के गुण क्या हैं, जिससे (उसे) द्रव्य कहा जावे?
उत्तर - सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान और प्रयत्न आदि।
प्रश्न - यदि सुख-दुःख को आत्मा का गुण माना जावे, तो सर्वदा दुःख का रहना मानना पड़ेगा, क्योंकि गुण और गुणी का समवाय सम्बन्ध है। इसलिये दुःख का नाश जो मुक्ति है, वह कभी हो ही नहीं सकती। और सुख के नित्य होने से उसका कभी अभाव ही नहीं हो सकता, इससे कभी बन्धन नहीं होगा। इसी प्रकार इच्छा और द्वेष दो विरुद्ध गुण एक साथ कभी नहीं रह सकते। यदि एक साथ रहना माना जावे, तो उनको परस्पर विरुद्ध नहीं रहना चाहिये, क्योंकि जब अधिकरण में रहते हुये दोनों पाये जावे तो दोनों विरुद्ध नहीं। किन्तु परस्पर विरुद्ध होना सिद्ध है। जिस समय जीवात्मा सुख का अनुभव करेगा उस समय दुःख का अनुभव नहीं कर सकता। दूसरा प्रश्न यह उत्पन्न होगा कि (सुख-दुःख आदि) जीव के स्वाभाविक गुण हैं या नैमित्तिक?
उत्तर - सुख-दुःख और इच्छा-द्वेष ये चारों आत्मा के स्वाभाविक गुण नहीं हैं, किन्तु नैमित्तिक गुण हैं, जो अन्य वस्तु के निमित्त से होते हैं। यदि आत्मा को अनुकूल वस्तु मिलती है, तो सुख उत्पन्न होता है। और यदि प्रतिकूल वस्तु का सम्बन्ध हुआ तो दुःख मानता है। इस सुख-दुःख का होना आत्मा के अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु पर निर्भर है। इसी प्रकार अनुकूल वस्तु को देखकर उसके प्राप्त करने की इच्छा होती है, ओर प्रतिकूल को देखकर उसके नाश करने की इच्छा होता है। ज्ञान दो प्रकार का है - एक ‘स्वाभाविक’ जो जीवात्मा का स्वाभाविक गुण है। दूसरा ‘नैमित्तिक’ जो कारण के द्वारा प्राप्त किया जाता है अर्थात् मन, इन्द्रिय और आत्मा के संयोग से उत्पन्न होता है।
प्रश्न - जब ये गुण नैमित्तिक हैं, तो आत्मा का द्रव्य होना कैसे सिद्ध होगा?
उत्तर - प्रत्येक पदार्थ के द्रव्य होने की सिद्धि उसकी क्रिया और गुण से होती है। जीवात्मा में सुख-दुःख प्राप्त करने की शक्ति है, और इच्छा आदि करने की शक्ति है। यद्यपि ये गुण मन के द्वारा उत्पन्न होते हैं, तो भी क्रिया आत्मा के संयोग से उत्पन्न होती है - जैसे चुम्बक के समीप होने से लोहे में क्रिया उत्पन्न होती है। लोहे में क्रिया बिना किसी कारण से चुम्बक की सत्ता को सिद्ध करती है। - वही, पृ. 111, 112
उत्तर - सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, ज्ञान और प्रयत्न आदि।
प्रश्न - यदि सुख-दुःख को आत्मा का गुण माना जावे, तो सर्वदा दुःख का रहना मानना पड़ेगा, क्योंकि गुण और गुणी का समवाय सम्बन्ध है। इसलिये दुःख का नाश जो मुक्ति है, वह कभी हो ही नहीं सकती। और सुख के नित्य होने से उसका कभी अभाव ही नहीं हो सकता, इससे कभी बन्धन नहीं होगा। इसी प्रकार इच्छा और द्वेष दो विरुद्ध गुण एक साथ कभी नहीं रह सकते। यदि एक साथ रहना माना जावे, तो उनको परस्पर विरुद्ध नहीं रहना चाहिये, क्योंकि जब अधिकरण में रहते हुये दोनों पाये जावे तो दोनों विरुद्ध नहीं। किन्तु परस्पर विरुद्ध होना सिद्ध है। जिस समय जीवात्मा सुख का अनुभव करेगा उस समय दुःख का अनुभव नहीं कर सकता। दूसरा प्रश्न यह उत्पन्न होगा कि (सुख-दुःख आदि) जीव के स्वाभाविक गुण हैं या नैमित्तिक?
उत्तर - सुख-दुःख और इच्छा-द्वेष ये चारों आत्मा के स्वाभाविक गुण नहीं हैं, किन्तु नैमित्तिक गुण हैं, जो अन्य वस्तु के निमित्त से होते हैं। यदि आत्मा को अनुकूल वस्तु मिलती है, तो सुख उत्पन्न होता है। और यदि प्रतिकूल वस्तु का सम्बन्ध हुआ तो दुःख मानता है। इस सुख-दुःख का होना आत्मा के अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु पर निर्भर है। इसी प्रकार अनुकूल वस्तु को देखकर उसके प्राप्त करने की इच्छा होती है, ओर प्रतिकूल को देखकर उसके नाश करने की इच्छा होता है। ज्ञान दो प्रकार का है - एक ‘स्वाभाविक’ जो जीवात्मा का स्वाभाविक गुण है। दूसरा ‘नैमित्तिक’ जो कारण के द्वारा प्राप्त किया जाता है अर्थात् मन, इन्द्रिय और आत्मा के संयोग से उत्पन्न होता है।
प्रश्न - जब ये गुण नैमित्तिक हैं, तो आत्मा का द्रव्य होना कैसे सिद्ध होगा?
उत्तर - प्रत्येक पदार्थ के द्रव्य होने की सिद्धि उसकी क्रिया और गुण से होती है। जीवात्मा में सुख-दुःख प्राप्त करने की शक्ति है, और इच्छा आदि करने की शक्ति है। यद्यपि ये गुण मन के द्वारा उत्पन्न होते हैं, तो भी क्रिया आत्मा के संयोग से उत्पन्न होती है - जैसे चुम्बक के समीप होने से लोहे में क्रिया उत्पन्न होती है। लोहे में क्रिया बिना किसी कारण से चुम्बक की सत्ता को सिद्ध करती है। - वही, पृ. 111, 112
(3) ‘न स्वभावतो बद्धस्य मोक्षसाधनोपदेशविधिः।’ (सांख्य दर्शन: 1.7) अर्थ: दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नहीं है, क्योंकि जो गुण स्वभाव से होता है, वह गुणी से अलग नहीं होता। अतःएव दुःख के नाश के कथन से ही प्रतीत होता है कि दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नहीं, क्योंकि वह गुणी से अलग हो ही नहीं सकता। ‘स्वभावस्यानपायित्वादननुष्ठानलक्षणमप्रामाण्यम्।’ (सांख्य दर्शन: 1.8) अर्थ: स्वाभाविक गुण के अविनाशी होने से जिन मन्त्रों में दुःख दूर करने का उपदेश किया गया है, वह सब प्रमाण नहीं रहेंगे। अतःएव दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नहीं है। ‘नाशक्योपदेशविधिरुपदिष्टेऽप्यनुपदेशः।’ (सांख्य दर्शन: 1.9) अर्थ: निष्फल कर्म के निमित्त वेद में कभी उपदेश नहीं हो सकता, क्योंकि असम्भव के लिये उपदेश करना भी न करने के समान है। अतःएव दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नहीं, किन्तु नैमित्तिक है। - सांख्य दर्शन, पृ. 4, 5, सार्वदेशिक प्रकाशन लि., सं. 2017 वि.
(4) जिन अवस्थाओं में मन ही न विद्यमान हो, उनमें दुःख-सुख हो ही नहीं सकता, क्योंकि दुःख के रहने का स्थान मन है। मन जिस वस्तु को आत्मा के अनुकूल समझता है, उसको प्राप्त करने की इच्छा करता है। इसी का नाम ‘राग’ है । वह जिस वस्तु से प्यार करता है, यदि वह मिल जाती है, तो वह सुख मानता है। यदि नहीं मिलती तो दुःख मानता है। - न्यायदर्शन, पृ. 9, प्रकाशक : पुस्तक मन्दिर मथुरा, सन् 1956
(5) प्रश्न - इसमें क्या प्रमाण है कि जीवात्मा किसी समय में दुःख से मुक्त हो सकता है? हम दुःख को जीवात्मा का स्वाभाविक धर्म मानते हैं।
उत्तर - क्योंकि सुषुप्ति अवस्था में जब कि मन और इन्द्रिय कार्य नहीं करते उस समय दुःख व सुख ज्ञात नहीं होते। इससे विदित होता है कि दुःख व सुख जीवात्मा का स्वाभाविक धर्म नहीं। अतः जो स्वाभाविक धर्म नहीं उसका नाश होना सम्भव है।
प्रश्न - जीव का स्वाभाविक धर्म दुःख क्यों नहीं?
उत्तर - इसलिये कि वह प्रतिक्षण वर्तमान नहीं रहता। क्योंकि जो स्वाभाविक है, वह कभी भी दूर नहीं हो सकता। - वही, पृ. 9, 10
उत्तर - क्योंकि सुषुप्ति अवस्था में जब कि मन और इन्द्रिय कार्य नहीं करते उस समय दुःख व सुख ज्ञात नहीं होते। इससे विदित होता है कि दुःख व सुख जीवात्मा का स्वाभाविक धर्म नहीं। अतः जो स्वाभाविक धर्म नहीं उसका नाश होना सम्भव है।
प्रश्न - जीव का स्वाभाविक धर्म दुःख क्यों नहीं?
उत्तर - इसलिये कि वह प्रतिक्षण वर्तमान नहीं रहता। क्योंकि जो स्वाभाविक है, वह कभी भी दूर नहीं हो सकता। - वही, पृ. 9, 10
(6) ‘प्रवृत्ति दोष जनितोऽर्थः फलम्’ (न्याय दर्शन: 1.1.20) अर्थ - प्रवृत्ति और दोष से उत्पन्न जो सुख-दुःख का ज्ञान है, वह फल कहलाता है। सुख तथा दुःख कर्म का विपाक अर्थात् शुभाशुभ परिणाम हैं, और यह (अर्थात् सुख और दुःख) शरीर, इन्द्रिय, इन्द्रिय के विषय और मन की सत्ता में होते हैं। अतः शरीरादि के द्वारा ही फल मिलता है। वह जो हमें सुख-दुःख तथा मानापमानादि को सहन करने पड़ते हैं, यह सब फल रूप हैं। - वही, पृ. 20
(7) मन प्रकृति का कार्य होने से स्थूल है। इस कारण प्रकृति का गुण जो दुःख है, वह मन के भीतर समा जाता है। जीवात्मा अपनी अल्पज्ञता से मन में अहंकार रखता है। इस कारण मन के गुण को अपने में स्वीकार करता है। ..... दुःख और सुख तो जीव में औपाधिक गुण होते हैं। केवल थोड़ी शिक्षा (अल्पज्ञता) के कारण जीव अपने में विचार करता है। आनन्द नैमित्तिक गुण होता है, जो जीव के अन्तःकरण में है, और निवास करनेवाले ब्रह्म से प्राप्त होता है। - वेदान्त दर्शन, पृ. 66, प्रकाशक : प्रेम पुस्तक भण्डार, बरेली, सन् 1975
(8) अत्रिजी - क्या आप जीव को सुख-दुःख से पृथक् मानते हैं? क्या सुख-दुःख जीव के स्वाभाविक धर्म नहीं?
गौतमजी - आपको विदित है कि मेरा सिद्धान्त यह है कि जिसका संयोग होता है उसका वियोग होता है। जब मैं दुःख के नाश को मुक्ति अथवा अपवर्ग मानता हूं, तो फिर दुःख को जीव का स्वाभाविक धर्म किस प्रकार कह सकता हूं? मैंने तो अपने शास्त्र (अर्थात् न्याय दर्शन) के दूसरे ही सूत्र में स्पष्ट कर दिया था कि दुःख जन्म-मरण से होता है, जन्म-मरण प्रवृत्ति से, प्रवृत्ति राग-द्वेष से, और राग-द्वेष मिथ्या ज्ञान से होते हैं। जब मैं दुःख की उत्पत्ति क्रमशः मिथ्या ज्ञान से मानता हूं, तो जीव का स्वाभाविक धर्म होना मेरे सिद्धान्त के विरुद्ध ठहरा। क्योंकि मेरा सिद्धान्त तो यह है कि - ‘यज्जन्यं तदनित्यम्’। अर्थात् जो जन्मा है सो अनित्य अर्थात् नाश होने वाला है। और मैं दुःख का नाश करना मुक्ति के लिए आवश्यक मानता हूं। यह तो स्पष्ट है कि मैं अपने सिद्धान्तानुसार दुःख को उत्पन्न मानता हूं, और स्वाभाविक धर्म को उत्पन्न मानना नितान्त हेय है। मैं जीवात्मा को भी उत्पन्न नहीं मानता। जो जिसका गुण होता है, वह सर्वदा रहता है। यदि दुःख जीवात्मा का धर्म हो, तो वह उससे कभी पृथक् नहीं हो सकता। ऐसी दशा में दुःख के नाश का प्रयत्न करना व्यर्थ है। अतः दुःख जीवात्मा का गुण नहीं है।
अत्रिजी - फिर तुमने यह क्यों लिखा कि सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, और प्रयत्न ये जीवात्मा के गुण अर्थात् लक्षण हैं, जैसा कि न्याय दर्शन में है?
गौतमजी - लक्षण दो प्रकार के होते हैं - (1) स्वरूप लक्षण (2) तटस्थ लक्षण। स्वरूप लक्षण उसे कहते हैं जो लक्ष्य अर्थात् पदार्थ के साथ सर्वदा रहता है। और तटस्थ लक्षण उसे कहते हैं जिसका सम्बन्ध पदार्थ से सर्वकाल में नहीं रहता। जैसे किसी ने पूछा कि देवदत्त का घर कौन-सा है? दूसरे ने उत्तर दिया कि जिस पर काक बैठा है। अब उस समय तो पूछनेवाले को उस घर पर काक बैठा हुआ दीख रहा है, परन्तु देवदत्त के घर पर काक का सर्वकाल में बैठना आवश्यक नहीं। इसी प्रकार सुख, दुःख, इच्छा और द्वेष आदि जीवात्मा के तटस्थ लक्षण हैं, तथा ज्ञान और प्रयत्न उसके स्वरूप लक्षण हैं। जब तक जीवात्मा का सम्बन्ध शरीर और मन के साथ रहता है, उस समय तक ही ये लक्षण सुख-दुःख आदि होते हैं। और जहां इनसे सम्बन्ध छूटा, ये लक्षण भी नहीं रहते। सुषुप्ति अवस्था में, जब जीव का शरीरादि से सम्बन्ध नहीं रहता, तब ये गुण भी नहीं रहते, केवल ज्ञान और प्रयत्न ही रह जाते हैं। - दर्शनानन्द ग्रंथ संग्रह, पृ. 380, प्रकाशक : वि.गो.हासानन्द, 1997
गौतमजी - आपको विदित है कि मेरा सिद्धान्त यह है कि जिसका संयोग होता है उसका वियोग होता है। जब मैं दुःख के नाश को मुक्ति अथवा अपवर्ग मानता हूं, तो फिर दुःख को जीव का स्वाभाविक धर्म किस प्रकार कह सकता हूं? मैंने तो अपने शास्त्र (अर्थात् न्याय दर्शन) के दूसरे ही सूत्र में स्पष्ट कर दिया था कि दुःख जन्म-मरण से होता है, जन्म-मरण प्रवृत्ति से, प्रवृत्ति राग-द्वेष से, और राग-द्वेष मिथ्या ज्ञान से होते हैं। जब मैं दुःख की उत्पत्ति क्रमशः मिथ्या ज्ञान से मानता हूं, तो जीव का स्वाभाविक धर्म होना मेरे सिद्धान्त के विरुद्ध ठहरा। क्योंकि मेरा सिद्धान्त तो यह है कि - ‘यज्जन्यं तदनित्यम्’। अर्थात् जो जन्मा है सो अनित्य अर्थात् नाश होने वाला है। और मैं दुःख का नाश करना मुक्ति के लिए आवश्यक मानता हूं। यह तो स्पष्ट है कि मैं अपने सिद्धान्तानुसार दुःख को उत्पन्न मानता हूं, और स्वाभाविक धर्म को उत्पन्न मानना नितान्त हेय है। मैं जीवात्मा को भी उत्पन्न नहीं मानता। जो जिसका गुण होता है, वह सर्वदा रहता है। यदि दुःख जीवात्मा का धर्म हो, तो वह उससे कभी पृथक् नहीं हो सकता। ऐसी दशा में दुःख के नाश का प्रयत्न करना व्यर्थ है। अतः दुःख जीवात्मा का गुण नहीं है।
अत्रिजी - फिर तुमने यह क्यों लिखा कि सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, और प्रयत्न ये जीवात्मा के गुण अर्थात् लक्षण हैं, जैसा कि न्याय दर्शन में है?
गौतमजी - लक्षण दो प्रकार के होते हैं - (1) स्वरूप लक्षण (2) तटस्थ लक्षण। स्वरूप लक्षण उसे कहते हैं जो लक्ष्य अर्थात् पदार्थ के साथ सर्वदा रहता है। और तटस्थ लक्षण उसे कहते हैं जिसका सम्बन्ध पदार्थ से सर्वकाल में नहीं रहता। जैसे किसी ने पूछा कि देवदत्त का घर कौन-सा है? दूसरे ने उत्तर दिया कि जिस पर काक बैठा है। अब उस समय तो पूछनेवाले को उस घर पर काक बैठा हुआ दीख रहा है, परन्तु देवदत्त के घर पर काक का सर्वकाल में बैठना आवश्यक नहीं। इसी प्रकार सुख, दुःख, इच्छा और द्वेष आदि जीवात्मा के तटस्थ लक्षण हैं, तथा ज्ञान और प्रयत्न उसके स्वरूप लक्षण हैं। जब तक जीवात्मा का सम्बन्ध शरीर और मन के साथ रहता है, उस समय तक ही ये लक्षण सुख-दुःख आदि होते हैं। और जहां इनसे सम्बन्ध छूटा, ये लक्षण भी नहीं रहते। सुषुप्ति अवस्था में, जब जीव का शरीरादि से सम्बन्ध नहीं रहता, तब ये गुण भी नहीं रहते, केवल ज्ञान और प्रयत्न ही रह जाते हैं। - दर्शनानन्द ग्रंथ संग्रह, पृ. 380, प्रकाशक : वि.गो.हासानन्द, 1997
(9) पहला प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि दुःख जीव का स्वाभाविक गुण है या नैमित्तिक? यदि यह माना जाए कि दुःख जीव का स्वाभाविक गुण है, तो इससे मुक्ति किसी प्रकार हो ही नहीं सकती। क्योंकि यदि दुःख किसी कारण से उत्पन्न होता तो उसके कारण के नाश से दुःख दूर हो सकता है। परन्तु जब उसका कोई कारण ही नहीं, तो उसका दूर होना असम्भव हे। ..... प्रत्येक शास्त्र में दुःखों को दूर करने का विचार विद्यमान है, जिससे विदित होता है कि दुःख जीव का स्वाभाविक गुण नहीं, अपितु कृत्रिम गुण है। - वही, पृ. 84
(10) शास्त्रकार आत्मा की दो अवस्थाएं मानते हैं - एक शुद्ध आत्मा और दूसरे शरीरस्थ आत्मा। उनकी दोनों अवस्थाओं के गुण भिन्न होते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रयत्न और ज्ञान तो शुद्ध आत्मा के लक्षण हैं, और सुख-दुःख, इच्छा-द्वेष ये सब शरीरस्थ आत्मा के लक्षण हैं। - वही, पृ. 86
(11) सुषुप्ति काल में जब इन्द्रिय, मन और बुद्धि अपना-अपना काम छोड़ देते हैं, तब सुख-दुःख, इच्छा-द्वेष सर्वथा नहीं रहते। केवल ज्ञान और प्रयत्न जो आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं, वे शेष रह जाते हैं। - वही, पृ. 133
(12) दुःख जीव का स्वाभाविक धर्म नहीं। जो लोग महात्मा गौतम और कपिल में जीव के स्वरूप का झगड़ा बतलाते हैं, वे बड़ी भूल करते हैं। क्योंकि गौतम जी भी दुःख को नैमित्तिक मानते हैं, अर्थात् मिथ्या ज्ञान की सन्तान मानते हैं। कपिल जी भी दुःख को जीव के स्वरूप से अलग बतलाते हैं, क्योंकि उन्होंने लिखा है कि - असङ्गोऽयं पुरुषः। अर्थात् जीवात्मा असङ्ग है। - वही, पृ. 375
(13) यदि दुःख जीव का स्वाभाविक गुण होता, तो उसका किसी प्रकार भी नाश नहीं हो सकता। उसके नाश से तो जीव का भी नाश हो जाएगा, क्योंकि गुण और गुणी का नित्य सम्बन्ध रहता है। ..... सुख-दुःख दोनों विरुद्ध गुण हैं। ये दोनों गुण एक ही गुणी में एक काल में कभी नहीं रह सकते। क्योंकि स्वाभाविक गुण होने से दोनों का अपने गुणी जीव में सदा - सब कालों में रहना आवश्यक है। इसके लिए संसार में एक भी दृष्टान्त नहीं, जहां गुणी में एक काल में दो विरुद्ध गुण रहते हो। - वही, पृ. 370
●●●
●●●
No comments:
Post a Comment