होली पर्व का महत्व
सहदेव समर्पित
होली सांस्कृतिक उत्सव है। हमारी संस्कृति यज्ञीय है। यज्ञ का संस्कार मानव मात्र के हृदय में है। चाहे वह दबा हुआ ही क्यों न हो। मनुष्य जीवन के श्रेष्ठ होने का अर्थ यही है कि वह अपने रहने के स्थान को रहने के योग्य, श्रेष्ठ, सुगन्धित बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील रहता है। वह स्थान हमारा घर है। हमारा परिवार है, हमारा समाज है, हमारा पर्यावरण है। और थोड़ा विस्तार पाकर देखें तो यह सारी सृष्टि है। इसमें जड़ चेतन सभी पदार्थ आते हैं। परमात्मा ने सभी प्राणियों को यह सुन्दर सृष्टि बिना किसी शुल्क के सदुपयोग के लिए दी है। अन्य प्राणी इसको गंदा नहीं करते। मनुष्य ही इसको विकृत करता है। इस सारे संसार को रहने के योग्य बनाए रखना मनुष्य का ही दायित्त्व है। मनुष्य ही यह कर सकता है। इसको स्वच्छ शुद्ध बनाए रखने के लिए जितने भी उपाय हो सकते हैं, उनका सम्मिलित नाम यज्ञ है। इसलिए हमारे बुद्धिमान पूर्वजों ने हमारे सांस्कृतिक पर्वों को, हमारे उल्लास को, हमारे पारिवारिक व सामाजिक उत्सवों को, मांगलिक कार्यों को यज्ञ से जोड़ दिया। ताकि हम इस संसार का, संसार के पदार्थों का और अपने जीवन का सम्पूर्णता के साथ सदुपयोग कर सकें।
जैसे जैसे कथित प्रगति हो रही है, वह मनुष्य को विलासी बना रही है। विलास ही विनाश का कारण बनता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भौतिक उन्नति नहीं होनी चाहिए। बात यह है कि संतुलन होना चाहिये। मनुष्य को यह ज्ञान होना चाहिए कि यह सांसारिक उन्नति उसके सहयोग के लिए है। उसकी उन्नति में सहायता के लिए है। सुविधा के साधन किसके लिए हैं और जिसके लिए हैं उसे करना क्या है? उसके जीने का उद्देश्य क्या है? यह जाने बिना सुविधा के साधन मनुष्य के मित्र नहीं शत्रु बन जाते हैं। इस संतुलन को यज्ञ की भाषा में संगतिकरण कहा जाता है। जैसे सभी नद नाले अन्ततः समुद्र में ही जाकर गिरते हैं, उसी तरह हमारे जीवन के सभी क्रियाकलापों का, पुरुषार्थ का समायोजन हमारे जीवन के उद्देश्य में होना चाहिए। उदाहरण के लिए हम कमाते हैं तो उसका उद्देश्य शरीर का पालन पोषण करना और उस शरीर के द्वारा धर्म अर्थ काम मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करना होना चाहिए। कमाने वाले को इसका ज्ञान भी होना चाहिए और ऐसा ही करना भी चाहिए। तब उसका कमाना भी यज्ञ ही हो जाता है, इसी को संगतिकरण कहते हैं। यह संगतिकरण पांचों यज्ञों में होता है।
इस सृष्टि का कण-कण उपयोगी है। उनको देव नाम दिया गया है। समय के प्रवाह में शब्द बदले हैं तो उनके अर्थ भी बदले हैं। आज देव शब्द का सामान्य सा अर्थ यह हो गया है कि देव है तो उसके आगे हाथ जोड़कर तो निकलना ही है। यह देव शब्द जिस दिवु धातु से बना है उसके दस अर्थ होते हैं। मोटे रूप में संसार के जितने भी उपयोगी पदार्थ हैं वे देव हैं। अब ये देव जड़ भी है चेतन भी हैं। सजीव भी हैं निर्जीव भी हैं। आज ये सारे देव नाराज हैं। हमारे भाईयों को लाखों किलोमीटर दूर ब्रह्माण्ड में घूम रहे ग्रहों के कुपित होने की तो चिन्ता है, हमारे आसपास के देवताओं के कुपित होने की चिन्ता नहीं है। भौतिक उन्नति तो इन देवताओं को रुष्ट ही कर रही है। प्रगति की अंधी दौड़ में भूमि विकृत हो गई, हवा विकृत हो गई, जल दूषित हो गया। यह सन्तोष की बात है कि अब बुद्धिमान लोगों को यह चिन्ता होने लगी है कि यह सब जो बिगाड़ा गया है, यदि ठीक नहीं किया गया तो विनाश हो जाएगा। लेकिन पर्यावरण की शुद्धि पत्तों को पानी देने से नहीं होगी, जड़ में पानी देने से होगी। पर्यावरण को शुद्ध करने का सर्वश्रेष्ठ और सम्पूर्ण तरीका हवन है। जड़ देवताओं के नेता अग्नि को श्रेष्ठ पदार्थ देने से वे सब देवताओं को मिल जाते हैं। अग्नि को दिये बिना वे खा नहीं सकते हैं। जठराग्नि न हो तो हम भी नहीं खा सकते। यह बिल्कुल व्यावहारिक विधि है। जिसके पास जिस वस्तु की कमी है, उसे वह दे दो। बच्चा भी इस बात को समझ सकता है। पुष्टि चाहिए तो पुष्टिकारक पदार्थ दे दो। दुर्गन्ध दूर करनी है तो सुगन्धित पदार्थ दे दो।
चेतन देवता भी नाराज हैं। बुजुर्गों की दुर्गति हो रही है। आपने कभी बन्दरों को देखा! खाने के पदार्थ पर एक बड़ा बन्दर कब्जा कर लेता है, कमजोर देखते रह जाते हैं। क्या मनुष्य बन्दर की ही औलाद है? कोई मनुष्य भूख से तड़प रहा है, आप पकवान खा रहे हैं! किसी के तन पर लंगोटी नहीं, रहने को झोंपड़ी नहीं! आप विलासितापूर्ण जीवन जी सकते हैं? इसका समाधान कोई साम्यवाद नहीं है, इसका समाधान यज्ञीय भावना है। केवलाघो भवति केवलाधी। अकेला खाने वाला पापी होता है। यज्ञ कहता है दूसरों को खिलाकर खाओ। अन्न ही तो है सम्पत्ति! इसलिए हमारे पूर्वजों ने दोनों मुख्य फसलों के आगमन पर यज्ञ का विधान किया। दीवाली और होली। पहले यज्ञ करो, जड़ देवताओं को खिलाओ। फिर चेतन देवों को बांटो। फिर स्वयं खाओ। तब सभी देवता प्रसन्न होंगे; कहीं अज्ञान, अभाव और अविद्या का नाम नहीं रहेगा और यह सृष्टि= हमारे रहने का स्थान=सुन्दर और पवित्र =रहने के योग्य बना रहेेगा।
जैसे जैसे कथित प्रगति हो रही है, वह मनुष्य को विलासी बना रही है। विलास ही विनाश का कारण बनता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि भौतिक उन्नति नहीं होनी चाहिए। बात यह है कि संतुलन होना चाहिये। मनुष्य को यह ज्ञान होना चाहिए कि यह सांसारिक उन्नति उसके सहयोग के लिए है। उसकी उन्नति में सहायता के लिए है। सुविधा के साधन किसके लिए हैं और जिसके लिए हैं उसे करना क्या है? उसके जीने का उद्देश्य क्या है? यह जाने बिना सुविधा के साधन मनुष्य के मित्र नहीं शत्रु बन जाते हैं। इस संतुलन को यज्ञ की भाषा में संगतिकरण कहा जाता है। जैसे सभी नद नाले अन्ततः समुद्र में ही जाकर गिरते हैं, उसी तरह हमारे जीवन के सभी क्रियाकलापों का, पुरुषार्थ का समायोजन हमारे जीवन के उद्देश्य में होना चाहिए। उदाहरण के लिए हम कमाते हैं तो उसका उद्देश्य शरीर का पालन पोषण करना और उस शरीर के द्वारा धर्म अर्थ काम मोक्ष के लिए पुरुषार्थ करना होना चाहिए। कमाने वाले को इसका ज्ञान भी होना चाहिए और ऐसा ही करना भी चाहिए। तब उसका कमाना भी यज्ञ ही हो जाता है, इसी को संगतिकरण कहते हैं। यह संगतिकरण पांचों यज्ञों में होता है।
इस सृष्टि का कण-कण उपयोगी है। उनको देव नाम दिया गया है। समय के प्रवाह में शब्द बदले हैं तो उनके अर्थ भी बदले हैं। आज देव शब्द का सामान्य सा अर्थ यह हो गया है कि देव है तो उसके आगे हाथ जोड़कर तो निकलना ही है। यह देव शब्द जिस दिवु धातु से बना है उसके दस अर्थ होते हैं। मोटे रूप में संसार के जितने भी उपयोगी पदार्थ हैं वे देव हैं। अब ये देव जड़ भी है चेतन भी हैं। सजीव भी हैं निर्जीव भी हैं। आज ये सारे देव नाराज हैं। हमारे भाईयों को लाखों किलोमीटर दूर ब्रह्माण्ड में घूम रहे ग्रहों के कुपित होने की तो चिन्ता है, हमारे आसपास के देवताओं के कुपित होने की चिन्ता नहीं है। भौतिक उन्नति तो इन देवताओं को रुष्ट ही कर रही है। प्रगति की अंधी दौड़ में भूमि विकृत हो गई, हवा विकृत हो गई, जल दूषित हो गया। यह सन्तोष की बात है कि अब बुद्धिमान लोगों को यह चिन्ता होने लगी है कि यह सब जो बिगाड़ा गया है, यदि ठीक नहीं किया गया तो विनाश हो जाएगा। लेकिन पर्यावरण की शुद्धि पत्तों को पानी देने से नहीं होगी, जड़ में पानी देने से होगी। पर्यावरण को शुद्ध करने का सर्वश्रेष्ठ और सम्पूर्ण तरीका हवन है। जड़ देवताओं के नेता अग्नि को श्रेष्ठ पदार्थ देने से वे सब देवताओं को मिल जाते हैं। अग्नि को दिये बिना वे खा नहीं सकते हैं। जठराग्नि न हो तो हम भी नहीं खा सकते। यह बिल्कुल व्यावहारिक विधि है। जिसके पास जिस वस्तु की कमी है, उसे वह दे दो। बच्चा भी इस बात को समझ सकता है। पुष्टि चाहिए तो पुष्टिकारक पदार्थ दे दो। दुर्गन्ध दूर करनी है तो सुगन्धित पदार्थ दे दो।
चेतन देवता भी नाराज हैं। बुजुर्गों की दुर्गति हो रही है। आपने कभी बन्दरों को देखा! खाने के पदार्थ पर एक बड़ा बन्दर कब्जा कर लेता है, कमजोर देखते रह जाते हैं। क्या मनुष्य बन्दर की ही औलाद है? कोई मनुष्य भूख से तड़प रहा है, आप पकवान खा रहे हैं! किसी के तन पर लंगोटी नहीं, रहने को झोंपड़ी नहीं! आप विलासितापूर्ण जीवन जी सकते हैं? इसका समाधान कोई साम्यवाद नहीं है, इसका समाधान यज्ञीय भावना है। केवलाघो भवति केवलाधी। अकेला खाने वाला पापी होता है। यज्ञ कहता है दूसरों को खिलाकर खाओ। अन्न ही तो है सम्पत्ति! इसलिए हमारे पूर्वजों ने दोनों मुख्य फसलों के आगमन पर यज्ञ का विधान किया। दीवाली और होली। पहले यज्ञ करो, जड़ देवताओं को खिलाओ। फिर चेतन देवों को बांटो। फिर स्वयं खाओ। तब सभी देवता प्रसन्न होंगे; कहीं अज्ञान, अभाव और अविद्या का नाम नहीं रहेगा और यह सृष्टि= हमारे रहने का स्थान=सुन्दर और पवित्र =रहने के योग्य बना रहेेगा।
साभार- शान्तिधर्मी मासिक पत्रिका
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