Wednesday, March 21, 2018

वीरता की प्रतिमूर्ति अवन्तीबाई लोधी



वीरता की प्रतिमूर्ति अवन्तीबाई लोधी
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मण्डला (म.प्र.) के रामगढ़ राज्य की रानी अवन्तीबाई ने एक बार राजा विक्रमजीत सिंह से कहा कि उन्होंने स्वप्न में एक चील को आपका मुकुट ले जाते हुए देखा है। ऐसा लगता है कि कोई संकट आने वाला है। राजा ने कहा, हाँ, वह संकट अंग्रेजों की ओर से आ रहा है; पर मेरी रुचि अब पूजापाठ में अधिक हो गयी है, इसलिए तुम ही राज संभालकर इस संकट से निबटो।
रानी एक बार मन्त्रियों के साथ बैठी कि लार्ड डलहौजी का दूत एक पत्र लेकर आया। उसमें लिखा था कि राजा के विक्षिप्त होने के कारण हम शासन की व्यवस्था के लिए एक अंग्रेज अधिकारी नियुक्त करना चाहते हैं। रानी समझ गयी कि सपने वाली चील आ गयी है। उसने उत्तर दिया कि मेरे पति स्वस्थ हैं। मैं उनकी आज्ञा से तब तक काम देख रही हूँ, जब तक मेरे बेटे अमानसिंह और शेरसिंह बड़े नहीं हो जाते। अतः रामगढ़ को अंग्रेज अधिकारी की कोई आवश्यकता नहीं है।
पर डलहौजी तो राज्य हड़पने का निश्चय कर चुका था। उसने अंग्रेज अधिकारी नियुक्त कर दिया। इसी बीच राजा का देहान्त हो गया। अब रानी ने पूरा काम सँभाल लिया। वह जानती थी कि देर-सबेर अंग्रेजों से मुकाबला होगा ही, अतः उसने आसपास के देशभक्त सामन्तों तथा रजवाड़ों से सम्पर्क किया। अनेक उनका साथ देने को तैयार हो गये।
यह 1857 का काल था। नाना साहब पेशवा के नेतृत्व में अंग्रेजों को बाहर निकालने के लिए संघर्ष की तैयारी हो रही थी। रामगढ़ में भी क्रान्ति का प्रतीक लाल कमल और रोटी घर-घर घूम रही थी। रानी ने इस यज्ञ में अपनी आहुति देने का निश्चय कर लिया। उनकी तैयारी देखकर अंग्रेज सेनापति वाशिंगटन ने हमला बोल दिया।
रानी ने बिना घबराये खैरी गाँव के पास वाशिंगटन को घेर लिया। रानी के कौशल से अंग्रेजों के पाँव उखड़ने लगे। इसी बीच वाशिंगटन रानी को पकड़ने के लिए अपने घोड़े सहित रानी के पास आ गया। रानी ने तलवार के भरपूर वार से घोड़े की गरदन उड़ा दी। वाशिंगटन नीचे गिर पड़ा और प्राणों की भीख माँगने लगा। रानी ने दयाकर उसे छोड़ दिया।
पर 1858 में वह फिर रामगढ़ आ धमका। इस बार उसके पास पहले से अधिक सेना तथा रसद थी। उसने किले को घेर लिया; पर तीन महीने बीतने पर भी वह किले में प्रवेश नहीं कर सका। इधर किले में रसद समाप्त हो रही थी। अतः रानी कुछ विश्वासपात्र सैनिकों के साथ एक गुप्तद्वार से बाहर निकल पड़ी। इसी बीच किले के द्वार खोलकर भारतीय सैनिक अंग्रेजों पर टूट पड़े; पर वाशिंगटन को रानी के भागने की सूचना मिल गयी। वह एक टुकड़ी लेकर पीछे दौड़ा। देवहारगढ़ के जंगल में दोनों की मुठभेड़ हुई।
वह 20 मार्च, 1858 का दिन था। रानी ने काल का रूप धारण कर लिया; वह रणचण्डी बनकर शत्रुओं पर टूट पड़ी। अचानक एक फिरंगी के वार से रानी का दाहिना हाथ कट गया। तलवार छूट गयी। रानी समझ गयी कि अब मृत्यु निकट है। उसने जेल में सड़ने की अपेक्षा मरना श्रेयस्कर समझा। अतः एक झटके से अपने बायें हाथ से कमर से कटार निकाली और सीने में घोंप ली। अगले ही क्षण रानी का मृत शरीर घोड़े पर झूल गया।
भारतीय स्वतन्त्रता के गौरवशाली इतिहास में आज भी गढ़मण्डल की रानी अवन्तीबाई लोधी का नाम अमर है।

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