Friday, March 23, 2018

आर्यसमाज के कतिपय संन्यासियों के सम्बन्ध में मेरे विचार और संस्मरण



● आर्यसमाज के कतिपय संन्यासियों के सम्बन्ध में मेरे विचार और संस्मरण ●
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- प्रो. (डॉ.) भवानीलाल भारतीय
अपने साठ वर्ष के सार्वजनिक (आर्यसामाजिक) जीवन में मैं आर्यसमाज से जुड़े सैकड़ों व्यक्तियों के सम्पर्क में आया। इनमें से अनेक उच्च कोटि के साधु-संन्यासी, आर्य नेता, विद्वान, उपदेशक, कार्यकर्ता तथा भजनोपदेशकों से मेरा परिचय तथा घनिष्टता हुई। यदि इन सबके संस्मरण लिखने बैठूं तो वह अपने आप में एक पुस्तक हो जायेगी। मैंने ऐसे कुछ संस्मरण लिखे हैं जो विभिन्न पत्रों में छपे। यहां संक्षेप में कुछ उन पुरुषों के बारे में लिखूंगा जिनके व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित किया है। इनमें अधिकांश इस लोक को त्याग चुके हैं। सम सामयिकों के बारे में लिखना अधिक उपयुक्त नहीं होता, तथापि कुछ के बारे में लिखना अनुपयुक्त भी नहीं है। पहले संन्यासियों की चर्चा करूं। आर्यसमाज की स्थापना एक संन्यासी ने की थी। यों भी हमारे समाज में चतुर्थाश्रमी को सर्वाधिक सम्मान मिलता है और आर्यसमाज के निर्माण तथा उसकी प्रगति में इसी आश्रम के लोगों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। निम्न संन्यासियों के सम्पर्क में आने का मुझे अवसर मिला। इनमें से कइयों ने मुझे अनेक प्रकार से प्रभावित किया जिन्हें यहां स्मरण करना आवश्यक है।
1. स्वामी अभेदानन्द
पूर्वाश्रम में पं. वेदव्रत वानप्रस्थी के नाम से प्रसिद्ध स्वामी अभेदानन्द हैदराबाद आर्य सत्याग्रह के सेनानी बन कर जेल यात्रा कर चुके थे। अत्यन्त सरल, सौम्य तथा साधु प्रकृति के स्वामी अभेदानन्द त्रिविध एषणाओं से मुक्त संन्यासी थे। इन्हें मैंने पहली बार आर्यसमाज जोधपुर के उत्सव पर देखा था। कालान्तर में वे सार्वदेशिक सभा के प्रधान रहे। उस समय दिल्ली में सभा कार्यालय में उनके सम्पर्क का लाभ मिलता रहा। यह एक विचित्र संयोग था कि उनका निधन सुदूर मारिशस में हुआ।
2. स्वामी ध्रुवानन्द
पूर्वाश्रम में ‘राजगुरु धुरेन्द्र शास्त्री' के नाम से प्रसिद्ध स्वामी ध्रुवानन्द सच्चे अर्थों में राजर्षि थे। उनसे जोधपुर में मिलने का मुझे अवसर मिला। पुन: सार्वदेशिक सभा के अध्यक्ष की भूमिका में उन्हें देखा। वैदिक और आर्यसमाज के प्रति पूर्णत: समर्पित ये संन्यासी, आर्यसमाज में अनुशासन और सिद्धान्त निष्ठा को स्थापित करने में सर्वतोभावेन लगे रहे।
3. महात्मा आनन्द स्वामी (पूर्वाश्रम के 'महात्मा खुशहालचन्द आनन्द')
महात्मा हंसराज के बाद आर्य प्रादेशिक सभा के निर्विवाद नेता रहे। उन्होंने शीघ्र ही संन्यास लेकर योग साधना तथा भगवद् भक्ति की राह अपनाई। स्वभाव के मृदु तथा हंसोड़ प्रकृति के महात्मा आनन्द स्वामी से परोपकारिणी सभा के अधिवेशनों में मेरी भेंट होती थी। उनके उपदेशों की विशेषता थी जन साधारण तक धर्म और अध्यात्म के गूढ़ सिद्धान्तों को सरलता से पहुँचाना।
4. महात्मा अमर स्वामी
पूर्वाश्रम के ठाकुर अमरसिंह शास्त्रों के पारगामी विद्वान् तो थे ही, अपने युग के महान् शास्त्रार्थ महारथी भी थे। यत्र-तत्र प्रचार कार्यक्रमों में उनसे भेंट होती तो परस्पर शास्त्र चर्चा होती और शास्त्रार्थों के रोचक प्रसंग सुनने को मिलते।
5. स्वामी ब्रह्ममुनि
पूर्वाश्रम के 'पं. प्रियरत्न आर्ष' शास्त्रों के अपूर्व व्याख्याता तथा धुरंधर लेखक थे। प्रकृति से किंचित शुष्क व रुक्ष थे। वे कभी सभा-संस्थाओं के चक्कर में नहीं पड़े। लिखने पढ़ने में उन्होंने अपना सारा जीवन व्यतीत कर दिया।
6. स्वामी विद्यानन्द विदेह
पूर्वाश्रम के पं. चैनसुखदास की विशेषता थी अर्जुन की भांति अपने लक्ष्य को दृष्टिपथ से कभी ओझल न होने देना। व्यवस्थित दिनचर्या में विश्वास रखने वाले विदेहजी का कार्यक्रम तथा प्रचार तंत्र नियमित तथा व्यवस्थित था। अपने कतिपय विश्वासों और विचारों के कारण वे विवादास्पद बने। उनमें अहम्मन्यता थी और अपनी आत्मकथा में अनेक आर्य नेताओं और विद्वानों की निन्दा-कुत्सा करने में उन्होंने कोई कसर नहीं रखी। प्रारम्भ में मैं उनका कटु आलोचक रहा। बाद में उन्होंने स्वयं आगे आकर मुझसे सौहार्द भाव स्थापित किया। यह सत्य है कि वे अन्तर्मन से वेद प्रचार के इच्छुक थे।
7. स्वामी ओमानन्द
पूर्वाश्रम के आचार्य भगवानदेव से मेरा सम्बन्ध अधिक प्रगाढ़ तब हुआ जब वे परोपकारिणी सभा के सदस्य बने। वे यदा-कदा कठोर और रूखे हो जाते तो तुरन्त कुसमवत् मृदु होने में भी देर नहीं लगाते। लोगों का कहना था कि उनमें प्रान्तगत तथा जातिगत अस्मिता के भाव मृत्यु पर्यन्त रहे।
8. स्वामी समर्पणानन्द
पूर्वाश्रम के पं. बुद्धदेव विद्यालंकार से मेरे सम्बन्ध प्रगाढ़ और दीर्घ अवधि तक रहे। उत्कृष्ट उहा के धनी, अपूर्व तार्किक तथा प्रगल्भ व्याख्यानदाता पं. बुद्धदेव जी भावुक प्रकृति के कवि-हृदय पुरुष थे। एक बार सार्वदेशिक सभा के कार्यालय दयानन्द भवन की सीढ़ियों से वे उतर रहे थे और मैं चढ़ रहा था। यह बात काफी पुरानी है। मैंने अचानक पूछ लिया, ‘पण्डित जी, आपने मुझे पहचाना', उत्तर में बोले, ‘जिनके कंधों पर हमें जाना है, भला हम उन्हें नहीं पहचानेंगे?' डीडवाना में मैंने उन्हें पं. माधवाचार्य से शास्त्रार्थ करते देखा था और प्रगल्भ वक्ता के रूप में अनेक स्थानों पर उनको सुना। यदि वे कुछ अधिक लेखन कार्य करते तो वैदिक साहित्य को अधिक समृद्ध बना देते।
9. डा. स्वामी सत्यप्रकाश
पूर्वाश्रम में रसायन के प्रोफेसर की भूमिका का निर्वाह करने वाले स्वामी सत्यप्रकाश ने अध्ययन और लेखन में पूर्वाग्रह मुक्त वैज्ञानिक दृष्टि को सदा महत्त्व दिया। चतुर्थाश्रमी के लिए त्रिविध एषणाओं के त्याग को आवश्यक बताया गया है। अन्यों में एषणाओं का त्याग कितना और कैसा रहा इसकी चर्चा न भी करे, स्वामी सत्यप्रकाश शतप्रतिशत इन एषणाओं से मुक्त, उन्मुक्त हास्यमय मुखमण्डलवाले, उदार एवं प्रगतिशील विचारों के थे। मेरी उनकी खूब पटती थी। परोपकारिणी सभा में हमने उन्हें सभासद मनोनीत किया। अनेक स्थानों पर उनका सत्संग लाभ मिलता रहा। वे विचार स्वातन्त्र्य के पक्षपाती थे और धर्म की तार्किक एवं वैज्ञानिक व्याख्या करने के पक्षपाती थे।
10. स्वामी विद्यानन्द सरस्वती
पूर्वाश्रम में प्रिंसिपल लक्ष्मीदत्त दीक्षित के नाम से विख्यात स्वामी विद्यानन्दजी ने सेवा से अवकाश लेकर जैसे उत्कृष्ट साहित्य का लेखन किया, उसका उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। लेखन और अध्ययन को समर्पित स्वामीजी ने अद्वैत वेदान्त के निराकरण में जो साहित्य लिखा वह अपूर्व है, अनुपमेय है। इस लेखन के द्वारा वे प्रसिद्ध दार्शनिक पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय को कहीं-कहीं पीछे छोड़ते प्रतीत होते हैं। सत्य कथन में उन्होंने कभी संकोच नहीं किया अत: वे सर्वप्रिय नहीं हो सके।
11. स्वामी दीक्षानन्द
पूर्वाश्रम में 'आचार्य कृष्ण' के नाम से प्रसिद्ध स्वामी दीक्षानन्द संन्यासी होकर भी न तो यज्ञ कराने से विरत हुए और न संन्यास मर्यादा के अनुसार ‘जटाजूट' का त्याग किया। उनके सभी व्याख्यान स्व-गुरु स्वामी समर्पणानन्दजी के चिन्तन और लेखन पर आधारित होते थे। उनका सर्वोपरि गुण था शीरीं जबान- वाणी की मधुरता। उन्होंने वित्त संग्रह भी किया किन्तु उसे ग्रन्थ प्रकाशन में व्यय किया। मेरे उनसे सम्बन्ध 1955 से अन्त तक रहे। उन दिनों वे आर्यसमाज सरदारपुरा में आये थे। तब उनकी बहिन और बहनोई जोधपुर में रहते थे।
12. स्वामी आनन्दबोध
पूर्वाश्रम में 'रामगोपाल शालवाले' के नाम से विख्यात स्वामी आनन्दबोध सच्चे अर्थों में नेता थे। पुरानी पीढ़ी के होने के कारण वे आर्यसमाज के इतिहास, परम्परा तथा सिद्धान्तों से भली-भांति परिचित थे। उनकी निर्भीकता पराकाष्ठा की थी तथा आर्यसमाज के हित को वे सर्वोपरि समझते थे। यों मानव सुलभ या नेता सुलभ दुर्बलताओं से वे बरी नहीं थे।
[स्रोत : प्रो. (डॉ.) भवानीलाल भारतीय की आत्मकथा 'अतीत का पुनरावलोकन (एक मसिजीवी का आत्मकथ्य)', पृ.160-162, संस्करण 2004 ई., प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
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