Sunday, September 8, 2013

जम्मू के शहीद दलितौद्धारक वीर रामचन्द्र आर्य


 स्वामी दयानंद जी के दलितौद्धार की शिक्षा को जीवन का उद्देश्य बनाकर अनेक आर्य वीर दलित भाइयों पर  रहे अत्याचार, शोषण आदि से उन्हें मुक्त करवाने के लिए निकल पड़े। उनका उद्देश्य शिक्षा, जागरूकता, व्यवसायिक जैसे आर्थिक सहायता के साथ साथ सामाजिक एवं धार्मिक उन्नति भी करना था। उस काल में कुछ मूर्खों की अज्ञानता के कारण  एक वर्ग विशेष के लोगों को अस्पृश्य कहकर उनका मंदिरों में प्रवेश वर्जित था, उन्हें सार्वजानिक कुओं से पानी भरने पर पाबन्दी थी, उन्हें साथ बैठकर खाने पर पाबन्दी थी। आर्यसमाज द्वारा इस अत्याचार के विरुद्ध उस काल में संघर्ष करना एक प्रकार से उलटी गंगा बहाने के समान था। आर्यों को न केवल ईसाई और मुसलमानों का विद्रोह सहना पड़ता था क्यूंकि उनके लिए दलित खेती के समान थे जिन्हें हर कोई अपने गोदाम में भरना चाहता था अपितु स्वजातीय हिन्दू समाज का भी विरोध सहन करना पड़ता था। यह विरोध पंचायत द्वारा हुक्का-पानी बंद करना, रोटी, बेटी का व्यवहार बंद करने से लेकर शारीरिक हानि तक भी सीमित नहीं था। कई बार अत्याचारियों ने आर्यों के प्राण तक दलितौद्धार के पीछे हर तक लिए थे। ऐसे ही एक आर्यवीर थे, जम्मू के महाशय रामचंद्र जी आर्य।
अपनी जाति में पैदा होकर, अपनी जाति के हित अथवा कल्याण की बात करने में ऐसा कुछ भी बड़डपन नहीं हैं जैसा डॉ अम्बेडकर अथवा ज्योति बा फुले ने किया था। बड़डपन तो अपनि जाति से विभिन्न आर्थिक रूप से निर्धन, समाजिक रूप से शोषित एवं कमजोर जातियों के उत्थान में हैं। आधुनिक भारत में यह बड़डपन अगर किसी में आज तक हुआ हैं तो वह स्वामी दयानंद के शिष्यों में देखा गया हैं।  
 जम्मू रियासत के कटुआ जिला की तहसील हीरानगर के लाला खोजूशाह महाजन नामक खजान्ची जी के यहां पर दिनांक १९ आषाढ़ संवत १९५३ को जन्मे बालक रामचंद्र ने जम्मू ,सिआलकोट आदि में वास करने वाली मेघ जाति के उद्धार के लिए अपने जीवन का बलिदान तक कर दिया था ।
 बालक रामचन्द्र के आठ भाई और एक बहिन थी । भाई बहिनों में सबसे बडे रामचन्द्र ने मिडिल तक की शिक्षा सदा अपनी कक्षा में प्रथम रहते हुए उत्रीर्ण की थी। जब सरकार के कार्यालयों में सब कार्य डोगरी भाषा के स्थान पर होने लगा तो पिता के स्थान पर खजान्ची का कार्य इस बालक को दिया गया ।
 राम चन्द्र को आरम्भ से ही समाचार पत्र पढ़ने व धर्मकार्य करने में अत्यधिक रुचि थी । जब वह आर्य समाज के सत्संगों में जाने लगे तो आर्य समाज के कार्यों में इन्हें खूब आनन्द आने लगा तथा शीघ्र ही प्रमुख आर्यों में सम्मिलित हो गये । जब आप की बदली बसोहली स्थान पर हुई तो इस स्थान पर आप ने आर्य समाज की निरन्तर दो वर्ष तक खूब सेवा की । तदन्तर आप स्थानारित होकर कटुआ आ गये । यह वह स्थान था कि जहां आर्य समाज का काम करना मौत को निमन्त्रण देने से कम न था, किन्तु आप ने इस सब की चिन्ता किए बिना आर्य समाज का काम जारी रखा तथा अछूतोद्धार के कार्य व शुद्धि में भी लग गए । जब विरोध जोर से होने लगा तो आप को बदल कर १९१८ इस्वी को साम्बना भेज दिया गया । यहां पर जाते ही ,आपके यत्न से आर्य समाज की स्थापना हो गई तथा जब देश भर में एन्फ़्ल्यूऎन्जा का रोग फ़ैला तो आप ने सेवा समिति खोलकर रोगियों की खूब सेवा की । आप ने आर्य समाज के लिए बड़े से बड़े खतरों का भी सामना किया । आर्य समाज के प्रचार के कारण आपको वहाँ के राजपूतों और ब्राह्मणों के विरोध का सामना करना पड़ा किन्तु आर्य समाज के उत्सव में आपने किसी प्रकार की कमी न आने दी तथा इसे उत्तम प्रकार से सफ़ल किया ।
 रामचन्द्र जी कांग्रेस के कार्यों के प्रति भी अत्यधिक स्नेह रखते थे । इस के वार्षिक समारोह में लगभग एक दशाब्दि तक निरन्तर जाते रहे ।जब पंजाब में मार्शल ला लगा हुआ था तो सरकारी कर्मचारी होते हुए भी यहां के समाचार आप गुप्त रुप से अन्य प्रान्तों में भेजते रहे । आप अपनी नौकरी को भी देश से उपर न मानते थे । यह ही कारण था कि १९१७ में जब आप को अमृतसर जाने की सरकार ने सरकारी कर्मचारी होने के कारण अनुमति न दी तो आप ने तत्काल अपनी सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया किन्तु उनकी उत्तम सेवा को देखते हुए तहसीलदार उन्हें छोडना नहीं चाहते थे , इस कारण उन्हें अम्रतसर जाने की अनुमति दे दी गई । साम्बा के क्षेत्र के लोग तो आप को देश सेवक के रुप मे ही जानते थे तथा इस नाम से ही आप को पुकारते थे ।
 जब १९२२ में आप की नियुक्ति अखनूर में हुई तो वहां जा कर आप ने पाया कि यहां के लोग छूतछात को मानने वाले थे । यहां के लोग मेघ जाति के लोगों को अत्यधिक घृणा से देखते थे । रामचन्द्र जी मेघों का उत्थान करने का  निश्चय किया तथा उनकी शिक्षा के लिए एक पाठशाला भी आरम्भ कर दी । अब आप अपनी सरकारी सेवा के अतिरिक्त अपना पूरा समय इन पहाड़ों में घूम घूम कर मेघों के दु:ख , दर्द के साथी बन उनकी सेवा, सहायता तथा उन्हें पढ़ाने व उनकी बीमारी आदि में उनकी हर संभव सहायता करने लगे थे।
इस सब का परिणाम यह हुआ कि जो लोग दलितों को उन्नति करता हुआ न देख सकते थे , उन्होंने सरकार के पास आप की शिकायते भेजनी आरम्भ कर दीं , मुसलमानों को आप के विरोध के लिए उकसाने लगे , आप के व्याख्यानों का भी विरोध आरम्भ कर दिया । इतने से ही सब्र न हुआ तो कुछ लोग लाठियाँ लेकर आप पर आक्र्मण करने के लिए आप के घर पर जा चढ़े, किन्तु पुलिस ने उनका गन्दा इरादा सफ़ल न होने दिया । परिणाम स्वरुप १९२२ इस्वी में इन अज्ञानियों लोगों ने आर्य समाजियों का बाइकाट कर दिया। एक दिन जब रामचन्द्र जी कहीं अन्यत्र गये हुए थे तो पीछे से सरकारी अधिकारियों के दबाब में आकर वहां के आर्य जन झुक गये तथा यह बात स्वीकार कर ली कि मेघों की पाठशाला को गांव से कहीं दूर ले जायेगे । लौटने पर रमचन्द्र जी ने इस समझौते के सम्बन्ध सुना तो उन्होंने इसे स्वीकार करने से साफ़ इन्कार कर दिया । इस सम्बन्ध में लम्बे समय तक गवर्नर , वजीर आदि से पत्र व्यवहार होता रहा ।
 रामचन्द्र जी ने जिस प्रकार मेघों की नि:स्वार्थ भाव से सेवा की , इस कारण मेघ लोग उन पर अपनी जान न्योछावर करने लगे । इधर रामचन्द्र जी भी अपने आप को मेघ कहने लगे, चाहे आप महाजन जाति से थे । पाठशाला का निजी भवन बनाने की प्रेरणा से मेघ पण्डित रूपा तथा भाई मौली ने अपनी जमीन दान कर दी । मुसलमानों व सरकारी अधिकारियों के विरोध की चिन्ता न करते हुए आप ने इस के भवन निर्माण के लिए अपील की निर्माण के पश्चात १९२२ में ही इस वेद मन्दिर का प्रवेश संस्कार सम्पन्न हो गया । इस पाठशाला के खुलने से मेघ अत्यधिक उत्साहित हुए । यह एक सफ़लता थी , जिसने दूसरी उपलब्धि का मार्ग प्रशस्त कर दिया । अब रामचन्द्र जी को अन्य स्थानों से भी पाठशाला खोलने के लिए आमन्त्रण आने लगे कि इस मध्य ही आपको जम्मू स्थानन्तरित कर दिया गया । किन्तु अभी यहां की पाठशाला का कार्य प्रगति पर था इसलिए आपने चार महीने का अवैतनिक अवकाश ले लिया।
 बटोहड़ा  से मेघ लोगों ने इन्हें निमन्त्रित किया । यह स्थान अखनूर से मात्र चार मील दूर है आप अपने आर्य बन्धुओं तथा विद्यार्थियों सहित हाथ् में औ३म की पताकाएं लेकर, भजन गाते तथा जय घोष लगाते हुए चल पड़े किन्तु इस शोभायात्रा के बारे में सुन व देख विरोधी भड़क उठे । आप को गालियां देते हुए अपमानित किया गया झण्डे छीन लिये तथा हवन कुण्ड भी तोड़ डाला गया। इस कारण उस दिन कोई कार्यक्रम नहीं हो सका। किन्तु आप ने शीघ्र ही ४ जनवरी १९२३ को यहां बड़े ही समारोह पूर्वक पाठशाला आरम्भ करने की योजना बना डाली । इसके लिए लाहौर से उपदेशक भी आ गए । यह सब देख राजपूतों ने आपके जीवन का अन्त करने का निर्णय लिया । इस निमित उन्होंने गांव में एक दंगल का आयोजन कर लिया ।
इधर जम्मू से रामचन्द्र जी भी अपने आर्य बन्धुओं व विद्वानों सहित बटौहड़ा  के लिए रवाना हो गए । इनके साथ लाला भगतराम,लाला दीनानाथ, लाला अनन्तराम, ओ३मप्रकाश तथा सत्यार्थी जी आदि थे । मार्ग में ही आर्योपदेशक सावनमल जी भी अपने दल के साथ आ कर मिल गए । इस मध्य ही पता चला कि गांव में विरोधियों ने भारी षडयन्त्र रच रखा है तथ हालात बेहद खराब हैं । इस कारण लौट जाने का निर्णय लेकर यह सब वापिस चल पडे किन्तु इस की सूचना भी तत्काल गांव में राजपूतों को मिल गई । वह तो भड़के ही हुए थे अत: भगतू नामक एक व्यक्ति के नेतृत्व  में मुसलमान, गुर्जरों के डेढ़ सौ के लगभग राजपूतों के सवारों व पैदल लोगों ने पीछे से इन पर आक्रमण कर दिया । सब पर लाठियाँ बरसाईं गई । सब और से एक ही आवाज आ रही थी कि खजान्ची को बचने नहीं देना । इस को मारो । यह सुन भगतराम जी उन्हें बचाने के लिए आगे आए किन्तु उन पर भी भारी मात्रा में लाठियों की मार पडी । अन्त में रामचन्द्र जी उनके हाथ आ गये तथा उन पर लोहे की छडों से प्रहार किया गया । वह जब बुरी तरह से घायल व बेहोश हो गये तो यह आक्रमणकारी इन्हें मरा समझ कर लौट गए ।
 घायल व बेहोश वीर रामचन्द्र जी को अस्पताल में भर्ती किया गया । यहां निरन्तर छ: दिन तक बेहोश रहते हुए मौत से युद्ध करते रहे किन्तु अन्त में प्रभु की व्यवस्था ही विजयी हुई तथा मात्र २३ वर्ष की आयु में यह योद्धा आर्य समाज को अपना जीवन समझते हुए तथा दलितों को ऊंचा उठाने का यत्न करते हुए अन्त में दिनांक २० जनवरी १९२३ इस्वी तदानुसार ८ माघ १९७० को रात्रि के ११ बजे वीरगति को प्राप्त हुआ ।
 इस वीर योद्धा तथा आर्य समाज के इस धुरन्धर प्रचारक की स्मृति में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने विभिन्न प्रकल्प आरम्भ किये । इन प्रकल्पों के अन्तर्गत वीर रामचन्द्र जी की स्मृति को बनाए रखने के लिए एक स्मारक बनाया गया । इस स्मारक के चार प्रमुख कार्य निर्धारित किये गए । जो इस प्रकार थे :-
 १. दलितो को उन्नत कर उन्हें स्वर्णों के समक्ष लाना।
 २. दलितों के लिए नि:शुल्क शिक्षा की सुचारू रूप से व्यवस्था करना ।
 ३. दलितों में धर्म प्रचार करने की व्यवस्था करना ।
 ४. दलितों में आत्म सम्मान की भावना पैदा करना ।

आपकी शहादत का यह परिणाम निकला की आपके विरोधी लोग आपकी मृत्यु से प्रेरणा पाकर आपकी दलितौद्धार की भावना को समझकर जाति-पाति का भेद भूल कर दलितों के उद्धार में लग गये।


आज का दलित समाज अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए वीर शिरोमणि श्री रामचंद्र जी आर्य का नाम तक स्मरण करना पाप समझता हैं। इससे बढ़कर कृतघ्नता का उदहारण आपको अन्यत्र देखने को नहीं मिलेगा।

डॉ विवेक आर्य

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