सिकंदर (एलेक्सजेंडर) का नाम आते ही एक महान योद्धा और नेक राजा की छवि सामने आ जाती है | पाठ्य पुस्तकों में सिकंदर महान नाम से प्रचलित इतिहास के अध्याय और कहानिया पढ़ कर हम ऐसे क्रूर और कायर आक्रमणकारी को महान बताते है जिसका इतिहास में कही सम्मान नहीं हुआ |
यह सारा भ्रम पैदा हुआ है पश्चिम की शिक्षा प्रणाली को अपनाने की वजह से , सिकन्दर अथवा अलक्ष्येन्द्र (एलेक्ज़ेंडर तृतीय, एलेक्सजेंडर दी ग्रेट तथा ...एलेक्ज़ेंडर मेसेडोनियन) मेसेडोनिया का ग्रीक शासक था इसीलिए ग्रीस में सिकंदर का बहुत प्रभाव था और पश्चिमी लेखको ने वही से सारा इतिहास उतार कर विश्वभर में प्रस्तुत किया, ग्रीस के प्रभाव से लिखी गई पश्चिम के इतिहास की किताबों में यही बताया जाता है की सिकंदर एक महान योद्धा था, एक विश्व विजेता था, मगर जहा भी सिकंदर ने हमला किया वहा का इतिहास कुछ ओर कहता है जो सिकंदर की वास्तविक छवी दर्शित होती है | सत्य यह है कि सिकंदर महान नहीं था बल्कि विश्व इतिहास के क्रूरतम आक्रमणकारियों और हत्यारों में से एक था, उसके जीवन में ऐसे तमाम उदाहरण भरे है जिनके आधार पर उसे महान और नेक राजा नहीं कहा जा सकता, पर यह भारत का दुर्भाग्य है या शायद भारतीयों की नासमझी की हमने उसे अपनी आने वाली पीढियों के सामने एक महान शासक बना कर पेश किया है |
एक सभ्यता जिसके इतिहास में सिर्फ गुलामी प्रथा हो, वो सिकंदर को महान बताये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए पर सर्व गुण ज्ञान सम्पंदा सम्पन भारतीय यदि सिकंदर को महान बताये तो यह चिंता का विषय अवश्य है ,
इसीलिए सिकंदर के बारे में कुछ तथ्य जानने बहुत जरुरी है जो हम भारतीय को इतिहास में नहीं पढाया जाता, और कोशिश करिए की अधिक से अधिक लोग इस सत्य से अवगत हो सके |
सिकंदर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् अपने सौतेले व चचेरे भाइयों को कत्ल करने के बाद मेसेडोनिया के सिंहासन पर बैठा था। अपनी महत्वकन्क्षा के कारण वह विश्व विजय को निकला। अपने आसपास के विद्रोहियों का दमन करके उसने इरान पर आक्रमण किया,इरान को जीतने के बाद गोर्दियास को जीता । गोर्दियास को जीतने के बाद टायर को नष्ट कर डाला। बेबीलोन को जीतकर पूरे राज्य में आग लगवा दी। बाद में अफगानिस्तान के क्षेत्र को रोंद्ता हुआ सिन्धु नदी तक चढ़ आया।
पहला भ्रम यह उत्पन्न किया गया है पश्चिमी शिक्षा में की एलेक्सजेंडर विश्व विजेता था और भारत आक्रमण के दौरान राजा पुरु की हार हुई थी पर सत्य यह है की
सिकंदर को अपनी जीतों से घमंड होने लगा था । वह अपने को इश्वर का अवतार मानने लगा, तथा अपने को पूजा का अधिकारी समझने लगा। परंतु भारत में उसका वो मान मर्दन हुआ जो कि उसकी मौत का कारण बना।
सिन्धु को पार करने के बाद भारत के तीन छोटे छोटे राज्य थे। ताक्स्शिला (जहाँ का राजा अम्भी था), पोरस, और अम्भिसार ,जो की काश्मीर के चारो और फैला हुआ था। अम्भी का पुरु से पुराना बैर था, इसलिए उसने सिकंदर से हाथ मिला लिया। अम्भिसार ने भी तठस्त रहकर सिकंदर की राह छोड़ दी, परंतु भारतमाता के वीर पुत्र पुरु ने सिकंदर से दो-दो हाथ करने का निर्णय कर लिया।
कुछ प्रमाणों के आधार पर और इतिहासकारो के अनुसार सिकंदर कितना महान था ::
सिकंदर ने आम्भी की साहयता से सिन्धु पर एक स्थायी पुल का निर्माण कर लिया।
प्लुतार्च के अनुसार," 20,000 पैदल व 15000 घुड़सवार सिकंदर की सेना पुरु की सेना से बहुत अधिक थी, तथा सिकंदर की साहयता आम्भी की सेना ने भी की थी। "
कर्तियास लिखता है की, "सिकंदर झेलम के दूसरी और पड़ाव डाले हुए था। सिकंदर की सेना का एक भाग झेहलम नदी के एक द्वीप में पहुच गया। पुरु के सैनिक भी उस द्वीप में तैरकर पहुच गए। उन्होंने यूनानी सैनिको के अग्रिम दल पर हमला बोल दिया। अनेक यूनानी सैनिको को मार डाला गया। बचे कुचे सैनिक नदी में कूद गए और उसी में डूब गए।"
बाकि बची अपनी सेना के साथ सिकंदर रात में नावों के द्वारा हरनपुर से 60 किलोमीटर ऊपर की और पहुच गया। और वहीं से नदी को पार किया। वहीं पर भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में पुरु का बड़ा पुत्र वीरगति को प्राप्त हुआ।
एरियन लिखता है कि, "भारतीय युवराज ने अकेले ही सिकंदर के घेरे में घुसकर सिकंदर को घायल कर दिया और उसके घोडे 'बुसे फेलास 'को मार डाला।"
ये भी कहा जाता है की पुरु के हाथी दल-दल में फंस गए थे इस वजह से सिकंदर पुरु के पुत्र को मार पाने में सफल हो पाया |
तो कर्तियास लिखता है कि, "इन पशुओं ने घोर आतंक पैदा कर दिया था। उनकी भीषण चीत्कार से सिकंदर के घोडे न केवल डर रहे थे बल्कि बिगड़कर भाग भी रहे थे। अनेको विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके। सिकंदर ने छोटे शास्त्रों से सुसज्जित सेना को हाथियों से निपटने की आज्ञा दी। इस आक्रमण से चिड़कर हाथियों ने सिकंदर की सेना को अपने पावों में कुचलना शुरू कर दिया।"
वह आगे लिखता है कि, "सर्वाधिक ह्रदयविदारक द्रश्य यह था कि, यह मजबूत कद वाला पशु यूनानी सैनिको को अपनी सूंड से पकड़ लेता व अपने महावत को सोंप देता और वो उसका सर धड से तुंरत अलग कर देता। इसी प्रकार सारा दिन समाप्त हो जाता,और युद्ध चलता ही रहता। "
इसी प्रकार दियोदोरस लिखता है की, "हाथियों में अपार बल था, और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए। अपने पैरों के तले उन्होंने बहुत सारे यूनानी सैनिको को चूर-चूर कर दिया।
कहा जाता है की पुरु ने अनाव्यशक रक्तपात रोकने के लिए सिकंदर को अकेले ही निपटने का प्रस्ताव रक्खा था। परन्तु सिकंदर ने भयातुर उस वीर प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।
इथोपियाई महाकाव्यों का संपादन करने वाले इ.ए. दब्ल्यु. बैज लिखता है की, "जेहलम के युद्ध में सिकंदर की अश्व सेना का अधिकांश भाग मारा गया। सिकंदर ने अनुभव किया कि यदि में लडाई को आगे जारी रखूँगा, तो पूर्ण रूप से अपना नाश कर लूँगा। अतः उसने युद्ध बंद करने की पुरु से प्रार्थना की। राजा पुरु मान गए और सिकंदर से संधि करी गयी , भारतीय परम्परा के अनुसार पुरु ने शत्रु का वध नही किया। संधि यह की गयी की राजा पुरु सिकंदर को जीवनदान देंगे बदले में सिकंदर से वचन लिया गया की वो फिर कभी भारत पर हमला नहीं करेगा |
बिल्कुल साफ़ है की प्राचीन भारत की रक्षात्मक दिवार से टकराने के बाद सिकंदर का घमंड चूर हो चुका था। उसके सैनिक भी डरकर विद्रोह कर चुके थे ।
तब सिकंदर ने पुरु से वापस जाने की आज्ञा मांगी। पुरु ने सिकंदर को उस मार्ग से जाने को मना कर दिया जिससे वह आया था। और अपने प्रदेश से दक्खिन की और से जाने का मार्ग दिया।
जिन मार्गो से सिकंदर वापस जा रहा था,उसके सैनिको ने भूख के कारण राहगीरों को लूटना शुरू कर दिया। इसी लूट को भारतीय इतिहास में सिकंदर की दक्खिन की और की विजय लिख दिया। परंतु इसी वापसी में मालवी नामक एक छोटे से भारतीय गणराज्य ने सिकंदर की लूटपाट का विरोध किया।
इस लडाई में सिकंदर बुरी तरह घायल हो गया।
प्लुतार्च लिखता है कि,"भारत में सबसे अधिक खूंखार लड़ाकू जाती मलावी लोगो के द्वारा सिकंदर के टुकड़े टुकड़े होने ही वाले थे, उनकी तलवारे व भाले सिकंदर के कवचों को भेद गए थे।और सिकंदर को बुरी तरह से आहात कर दिया। शत्रु का एक तीर उसका बख्तर पार करके उसकी पसलियों में घुस गया।सिकंदर घुटनों के बल गिर गया। शत्रु उसका शीश उतारने ही वाले थे की प्युसेस्तास व लिम्नेयास आगे आए। किंतु उनमे से एक तो मार दिया गया तथा दूसरा बुरी तरह घायल हो गया।"
इसी भरी मारकाट में सिकंदर की गर्दन पर एक लोहे की लाठी का प्रहार हुआ और सिकंदर अचेत हो गया। उसके अन्ग्रक्षक उसी अवस्था में सिकंदर को निकाल ले गए। भारत में सिकंदर का संघर्ष सिकंदर की मौत का कारण बन गया। अपने देश वापस जाते हुए वह बेबीलोन में रुका। भारत विजय करने में उसका घमंड चूर चूर हो गया। इसी कारण वह अत्यधिक मद्यपान करने लगा, तीर का घाव फैलता गया और वो ज्वर से पीड़ित हो गया। तथा कुछ दिन बाद उसी ज्वर ने उसकी जान ले ली।
सिकंदर की मौत के विषय में यह भी कहा जाता है की राजा पुरु से युद्ध के समय एक हार के बाद यूनानी सैनिक ने नन्द से लड़ने से मना कर हथियार डाल दिए थे की पुरु की 15 सहस्त्र के सेना ने ये हाल किया था तो नन्द की 2.5 लाख की सेना तो पूरी तरह से मिटा ही डालेगी| अपनी सेना के विरोध के बाद सिकंदर ने भी हथियार डाल दिए परन्तु बेबीलोन अपनी राजधानी पहुचने के बाद उसने नन्द से लड़ने की तैयारी शुरू कर दी पर संघ और सेना को ये पसंद नहीं आया । वे भारत जैसे भीमकाय शक्तिशाली राष्ट्र पर आक्रमण कर, शत्रुता कर सबकुछ गवाना नहीं चाहते थे। यदि युद्ध होता तो जो धन सिकंदर फारस से जीता था वो यूनान भेजने के बजाये युद्ध में लगा देता और ये संघ को और सैनिको को मंजूर नहीं था इसीलिए 323 ईसापूर्व में सिकंदर की जहर दे कर हत्या कर दी गयी और वही दूसरी तरफ उसके एकलौते बेटे सिकंदर चतुर्थ की भी।
स्पष्ट रूप से पता चलता है कि सिकंदर भारत के एक भी राज्य को नही जीत पाया । परंतू पुरु से इतनी मार खाने के बाद भी इतिहास में जोड़ दिया गया कि सिकंदर ने पुरु पर जीत हासिल की। भारत में भी महान राजा पुरु की जीत को पुरु की हार ही बताया जाता है। यूनान सिकंदर को महान कह सकता है लेकिन भारतीय इतिहास में सिकंदर को नही बल्कि उस पुरु को महान लिखना चाहिए जिन्होंने एक विदेशी आक्रान्ता का मानमर्दन किया।
सिकंदर की क्रूरता, जूठा इतिहास और अन्य जातियों का पराक्रम -
सिकन्दर को सबसे पहले एक गणराज्य के प्रधान के विरोध का सामना करना पड़ा, जिसे यूनानी ऐस्टीज़ कहते हैं, संस्कृत में जिसका नाम हस्तिन है; वह उस जाति का प्रधान था जिसका भारतीय नाम हास्तिनायन था (पाणिनि, VI, 4, 174) |
यूनानी में इसके लिए अस्टाकेनोई या अस्टानेनोई-जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है, और उसकी राजधानी प्यूकेलाओटिस अर्थात् पुष्कलावती लिखी गई है। इस वीर सरदार ने अपने नगरकोट पर यूनानियों की घेरेबंदी का पूरे तीस दिन तक मुकाबला किया और अंत में लड़ता हुआ मारा गया। इसी प्रकार आश्वायन तथा आश्वकायन भी आखिरी दम तक लड़े, जैसा कि इस बात से पता चलता है कि उनके कम से कम 40,000 सैनिक बंदी बना लिए गए। उनकी आर्थिक समृद्धि का भी अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इस लड़ाई में 2,30,000 बैल सिकन्दर के हाथ लगे। (चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी)
आश्वकायनों ने 30,000 घुड़सवार 38,000 पैदल और 30 हाथियों की सेना लेकर, जिनकी सहायता के लिए मैदानों के रहने वाले 7,000 वेतनभोगी सिपाही और थे, सिकन्दर से मोर्चा लिया। यह पूरी आश्वकायनों की क़िलेबंद राजधानी मस्सग [मशक, जो मशकावती नामक नदी के तट पर स्थित था, जिसका उल्लेख पाणिनि के काशिक भाष्य में मिलता है [(VI,2,85;VI,3,119)] में अपनी वीरांगना रानी क्लियोफ़िस (संस्कृत:- कृपा?) के नेतृत्व में आश्वकायनों ने "अंत तक अपने देश की रक्षा करने का दृढ़ संकल्प किया।" रानी के साथ ही वहाँ की स्त्रियों ने भी प्रतिरक्षा में भाग लिया। वेतनभोगी सैनिक के रूप में बड़े निरुत्साह होकर लड़े, परन्तु बाद में उन्हें जोश आ गया और उन्होंने "अपमान के जीवन की अपेक्षा गौरव के मर जाना" ही बेहतर समझा। [मैकक्रिंडिल-कृत इनवेज़न, पृष्ठ 194 (कर्टियस), 270 (डियोडोरस)] उनके इस उत्साह को देखकर अभिसार नामक निकटवर्ती पर्वतीय देश में भी उत्साह जाग्रत हुआ और वहाँ के लोग भी प्रतिरक्षा के लिए डट गए।
भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय आचार्य चाणक्य (विष्णुगुप्त अथवा कौटिल्य) तक्षशिला में प्राध्यापक थे। आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को साथ लेकर एक नये साम्राज्य की स्थापना की और सिकन्दर द्वारा पद्दोनित पंजाब के राजदूत सेल्यूकस को हराया। सिकन्दर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण का नाम अगलस्सोई था। अस्सकेनोई लोगों ने सिकन्दर से जमकर लोहा लिया और उनके एक तीर से सिकन्दर घायल भी हो गया।
अगालास्सोई जाति के लोगों ने 40,000 पैदल सिपाहियों और 3,000 घुड़सवारों की सेना लेकर सिकन्दर से टक्कर ली। कहा जाता है कि उनके एक नगर के 20,000 निवासियों ने अपने-आपको बंदियों के रूप में शत्रुओं के हाथों में समर्पित करने के बजाय बाल-बच्चों सहित आग में कूदकर प्राण दे देना ही उचित समझा। अस्सपेसिओई गण भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर सीमा पर कुनड़ अथवा त्रिचाल नदी की घाटी में रहता था।
इसके बाद सिकन्दर को कई स्वायत्त जातियों के संघ के संगठित विरोध का सामना करना पड़ा, जिनमें मालव तथा क्षुद्रक आदि जातियाँ थीं, जिनकी संयुक्त सेना में 90,000 पैदल सिपाही, 10,000 घुड़सवार और 900 से अधिक रथ थे। उनके ब्राह्मणों ने भी पढ़ने-लिखने का काम छोड़कर तलवार सम्भाली और रणक्षेत्र में लड़ते हुए मारे गए, "बहुत ही कम लोग बंदी बनाए जा सके।"
कठ एक और वीर जाति थी, जो अपने शौर्य के लिए दूर-दूर तक विख्यात थी [अर्रियन, V. 22,2] कहा जाता है कि रणक्षेत्र में उनके 17,000 लोग मारे गए थे और 70,000 बंदी बना लिए गए थे।
मालवों ने अलग से भी 50,000 सैनिकों की सेना लेकर एक नदी की घाटी की रक्षा की। अंबष्ठों की सेना में 60,000 पैदल, 6,000 घुड़सवार और 500 रथ थे। अकेले सिंधु घाटी के निचले भाग में होने वाले युद्धों में 80,000 सिपाही मारे गए।
इस इलाके में ब्राह्मणों ने अगुवाई की और प्रतिरोध की भावना तथा युद्ध के प्रति लोगों में अदम्य उत्साह पैदा किया और धर्म की रक्षा करते हुए हँसते-हँसते अपने प्राणों की आहुति दे दी। [चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल | [लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी],[(प्लूटार्क, लाइव्स X; कैंब्रिज हिस्ट्री, I, पृष्ठ 378) ]
अन्य देशो में सिकंदर -
प्राचीन ईरानी अकेमेनिड साम्राज्य की राजधानी – पर्सेपोलिस – के खंडहरों को देखने जानेवाले हर सैलानी को तीन बातें बताई जाती हैं – कि इसे डेरियस महान ने बनाया था, कि इसे उसके बेटे ज़ेरक्सस ने और बढ़ाया, और कि इसे 'उस इंसान' सिकंदर ने तबाह कर दिया |
यदि कोई पश्चिमी इतिहास की किताबों को पढ़े तो उसे ये सोचने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि ईरानी बने ही इसलिए थे कि सिकंदर आए और उनको जीत ले |
ईरानियों को इससे पहले भी यूनानियों ने दो बार हराया था, जब ईरानियों ने उनपर हमला करने की नाकाम कोशिश की, और इसलिए सिकंदर ने ईरान पर हमला बदला लेने के लिए किया था |
ईरानी दृष्टिकोण से देखें तो पाएँगे कि सिकंदर महानता से कोसों दूर था |
वहाँ दिखेगा कि सिकंदर ने पर्सेपोलिस को जमींदोज़ कर दिया, एक रात एक ग्रीक नर्तकी के प्रभाव में आकर जमकर शराब पीने के बाद, और ये दिखाने के लिए कि वो ऐसा ईरानी शासक ज़ेरक्सस से बदला लेने के लिए कर रहा है जिसने कि ग्रीस के शहर ऐक्रोपोलिस को जला दिया था|
उसने अपने साम्राज्य में सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों को नुक़सान पहुँचाने को बढ़ावा दिया, उसके समय में ईरानियों के प्राचीन सम्प्रदाय, पारसी सम्प्रदाय के मुख्य उपासना स्थलों पर हमले किए गए |
सिकंदर के हमले की कहानी बुनने में पश्चिमी देशों को ग्रीक भाषा और संस्कृति से मदद मिली जो ये कहती है कि सिकंदर का अभियान उन पश्चिमी अभियानों में पहला था जो पूरब के बर्बर समाज को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए किए गए, मतलब की उनके अनुसार हम सभी असभ्य थे और हमें हत्या कर के वो सभ्य बनाना चाहता था |
प्रसिद्द इतिहासकार एर्रीयन लिखता हैं – जब बैक्ट्रिया के राजा बसूस को बंदी बनाकर लाया गया, तब सिकन्दर ने उनको कोड़े लगवाये और उनके नाक-कान कटवा डाले. इतने पर भी उसे संतोष ना हुआ. उसने अंत में उनकी हत्या करवा दी| उसने अपने पसंदीदा दार्शनिक अरस्तु के भतीजे कलास्थनीज को मारने में संकोच नहीं किया| एक बार किसी छोटी सी बात पर उसने अपने सबसे करीबी मित्र क्लाइटस को मार डाला था| अपने पिता के मित्र परमेनीयन जिनकी गोद में सिकंदर खेला था उसने उनको भी मरवा दिया| सिकंदर की सेना जहाँ भी जाती पूरे-के-पूरे नगर जला दिए जाते, सुन्दर महिलाओं का अपहरण कर लिया जाता |
इतिहास में सिकंदर के महान होने की कोई घटना या उसके देश में जनता के साथ उचित न्याय करने का प्रमाण नहीं है , सिकंदर के जीवन में शुरू से अंत तक कत्लेआम लूटपाट ही दिखाई देती है , सिकंदर के ऊपर कई किताबे लिखी गयी है और कुछ फिल्मे भी बनी है जिसमे उसे बहुत ही बहादुर , युद्धकुशल राजा के रूप में दिखाया गया है , पर सच्चाई यह है की उसने जिनसे युद्ध किया वो कमजोर थे इसीलिए हार गए , जिस संघ के बल पर सिकंदर ने अपने कुछ जमीन के टुकड़े जीते थे वो संघ सिकंदर के पिता फिलिप ने ग्रीक के कई राज्यों को हरा कर संघ का निर्माण किया था | उसने फारस को लगातार तीन युद्धों में हराया, इसका कारण ये नहीं सिकंदर महान और बलशाली था पर फारस का राज दरस एक कमजोर राजा था, उसके खुद के साम्राज्य में बड़े हिस्से में उसकी नहीं चलती थी। आगे के युद्ध में उसने फारस की सेना को गुलाम बना कर अपनी सेना में शामिल कर लिया और इसी तरह सिकंदर की सेना बड़ी होती गयी और वो युद्ध जीतता रहा , क़त्ल करता रहा , शहर के शहर जलाता रहा , धन दौलत लूट कर अपने देश भेजता रहा पर .... अतत: भारत से युद्ध करने पर उसे खुद के बहादुर होने की मिथ्या से छुटकारा मिला और अंत में सिकंदर अपनी सेना के साथ नावों से नदी के मार्ग से भागा।
जो राजा साम्राज्य के पीछे हो वो महान कैसे ? जिसे सिर्फ साम्राज्य जीतने की भूख हो , जनता को , देश की संस्कृति को , इतिहास को रौंदा कुचला हो वो राजा महान कैसे हो सकता है | वास्तव में सिकंदर जैसे लोग सभ्यता के शांत प्रवाह में महामारी के समान थे। उन्होंने ज्वालामुखी सरीखी हलचल मचाई सभ्यता के शांत प्रवाह में और फिर अपनी विनाश-लीला और क्रूरता की कहानी छोड़कर शून्य में विलीन हो गए। जहाँ भी पहुँचे वहाँ के लोगों को गुलाम बनाया। स्वतंत्रता-प्रेमी जनों से नृशंस बदला लिया। सिकंदर जैसे लोगों को इतिहास 'महान' का विशेषण लगाता है यह अत्यंत शर्मनाक है
यह सारा भ्रम पैदा हुआ है पश्चिम की शिक्षा प्रणाली को अपनाने की वजह से , सिकन्दर अथवा अलक्ष्येन्द्र (एलेक्ज़ेंडर तृतीय, एलेक्सजेंडर दी ग्रेट तथा ...एलेक्ज़ेंडर मेसेडोनियन) मेसेडोनिया का ग्रीक शासक था इसीलिए ग्रीस में सिकंदर का बहुत प्रभाव था और पश्चिमी लेखको ने वही से सारा इतिहास उतार कर विश्वभर में प्रस्तुत किया, ग्रीस के प्रभाव से लिखी गई पश्चिम के इतिहास की किताबों में यही बताया जाता है की सिकंदर एक महान योद्धा था, एक विश्व विजेता था, मगर जहा भी सिकंदर ने हमला किया वहा का इतिहास कुछ ओर कहता है जो सिकंदर की वास्तविक छवी दर्शित होती है | सत्य यह है कि सिकंदर महान नहीं था बल्कि विश्व इतिहास के क्रूरतम आक्रमणकारियों और हत्यारों में से एक था, उसके जीवन में ऐसे तमाम उदाहरण भरे है जिनके आधार पर उसे महान और नेक राजा नहीं कहा जा सकता, पर यह भारत का दुर्भाग्य है या शायद भारतीयों की नासमझी की हमने उसे अपनी आने वाली पीढियों के सामने एक महान शासक बना कर पेश किया है |
एक सभ्यता जिसके इतिहास में सिर्फ गुलामी प्रथा हो, वो सिकंदर को महान बताये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए पर सर्व गुण ज्ञान सम्पंदा सम्पन भारतीय यदि सिकंदर को महान बताये तो यह चिंता का विषय अवश्य है ,
इसीलिए सिकंदर के बारे में कुछ तथ्य जानने बहुत जरुरी है जो हम भारतीय को इतिहास में नहीं पढाया जाता, और कोशिश करिए की अधिक से अधिक लोग इस सत्य से अवगत हो सके |
सिकंदर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् अपने सौतेले व चचेरे भाइयों को कत्ल करने के बाद मेसेडोनिया के सिंहासन पर बैठा था। अपनी महत्वकन्क्षा के कारण वह विश्व विजय को निकला। अपने आसपास के विद्रोहियों का दमन करके उसने इरान पर आक्रमण किया,इरान को जीतने के बाद गोर्दियास को जीता । गोर्दियास को जीतने के बाद टायर को नष्ट कर डाला। बेबीलोन को जीतकर पूरे राज्य में आग लगवा दी। बाद में अफगानिस्तान के क्षेत्र को रोंद्ता हुआ सिन्धु नदी तक चढ़ आया।
पहला भ्रम यह उत्पन्न किया गया है पश्चिमी शिक्षा में की एलेक्सजेंडर विश्व विजेता था और भारत आक्रमण के दौरान राजा पुरु की हार हुई थी पर सत्य यह है की
सिकंदर को अपनी जीतों से घमंड होने लगा था । वह अपने को इश्वर का अवतार मानने लगा, तथा अपने को पूजा का अधिकारी समझने लगा। परंतु भारत में उसका वो मान मर्दन हुआ जो कि उसकी मौत का कारण बना।
सिन्धु को पार करने के बाद भारत के तीन छोटे छोटे राज्य थे। ताक्स्शिला (जहाँ का राजा अम्भी था), पोरस, और अम्भिसार ,जो की काश्मीर के चारो और फैला हुआ था। अम्भी का पुरु से पुराना बैर था, इसलिए उसने सिकंदर से हाथ मिला लिया। अम्भिसार ने भी तठस्त रहकर सिकंदर की राह छोड़ दी, परंतु भारतमाता के वीर पुत्र पुरु ने सिकंदर से दो-दो हाथ करने का निर्णय कर लिया।
कुछ प्रमाणों के आधार पर और इतिहासकारो के अनुसार सिकंदर कितना महान था ::
सिकंदर ने आम्भी की साहयता से सिन्धु पर एक स्थायी पुल का निर्माण कर लिया।
प्लुतार्च के अनुसार," 20,000 पैदल व 15000 घुड़सवार सिकंदर की सेना पुरु की सेना से बहुत अधिक थी, तथा सिकंदर की साहयता आम्भी की सेना ने भी की थी। "
कर्तियास लिखता है की, "सिकंदर झेलम के दूसरी और पड़ाव डाले हुए था। सिकंदर की सेना का एक भाग झेहलम नदी के एक द्वीप में पहुच गया। पुरु के सैनिक भी उस द्वीप में तैरकर पहुच गए। उन्होंने यूनानी सैनिको के अग्रिम दल पर हमला बोल दिया। अनेक यूनानी सैनिको को मार डाला गया। बचे कुचे सैनिक नदी में कूद गए और उसी में डूब गए।"
बाकि बची अपनी सेना के साथ सिकंदर रात में नावों के द्वारा हरनपुर से 60 किलोमीटर ऊपर की और पहुच गया। और वहीं से नदी को पार किया। वहीं पर भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्ध में पुरु का बड़ा पुत्र वीरगति को प्राप्त हुआ।
एरियन लिखता है कि, "भारतीय युवराज ने अकेले ही सिकंदर के घेरे में घुसकर सिकंदर को घायल कर दिया और उसके घोडे 'बुसे फेलास 'को मार डाला।"
ये भी कहा जाता है की पुरु के हाथी दल-दल में फंस गए थे इस वजह से सिकंदर पुरु के पुत्र को मार पाने में सफल हो पाया |
तो कर्तियास लिखता है कि, "इन पशुओं ने घोर आतंक पैदा कर दिया था। उनकी भीषण चीत्कार से सिकंदर के घोडे न केवल डर रहे थे बल्कि बिगड़कर भाग भी रहे थे। अनेको विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके। सिकंदर ने छोटे शास्त्रों से सुसज्जित सेना को हाथियों से निपटने की आज्ञा दी। इस आक्रमण से चिड़कर हाथियों ने सिकंदर की सेना को अपने पावों में कुचलना शुरू कर दिया।"
वह आगे लिखता है कि, "सर्वाधिक ह्रदयविदारक द्रश्य यह था कि, यह मजबूत कद वाला पशु यूनानी सैनिको को अपनी सूंड से पकड़ लेता व अपने महावत को सोंप देता और वो उसका सर धड से तुंरत अलग कर देता। इसी प्रकार सारा दिन समाप्त हो जाता,और युद्ध चलता ही रहता। "
इसी प्रकार दियोदोरस लिखता है की, "हाथियों में अपार बल था, और वे अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुए। अपने पैरों के तले उन्होंने बहुत सारे यूनानी सैनिको को चूर-चूर कर दिया।
कहा जाता है की पुरु ने अनाव्यशक रक्तपात रोकने के लिए सिकंदर को अकेले ही निपटने का प्रस्ताव रक्खा था। परन्तु सिकंदर ने भयातुर उस वीर प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।
इथोपियाई महाकाव्यों का संपादन करने वाले इ.ए. दब्ल्यु. बैज लिखता है की, "जेहलम के युद्ध में सिकंदर की अश्व सेना का अधिकांश भाग मारा गया। सिकंदर ने अनुभव किया कि यदि में लडाई को आगे जारी रखूँगा, तो पूर्ण रूप से अपना नाश कर लूँगा। अतः उसने युद्ध बंद करने की पुरु से प्रार्थना की। राजा पुरु मान गए और सिकंदर से संधि करी गयी , भारतीय परम्परा के अनुसार पुरु ने शत्रु का वध नही किया। संधि यह की गयी की राजा पुरु सिकंदर को जीवनदान देंगे बदले में सिकंदर से वचन लिया गया की वो फिर कभी भारत पर हमला नहीं करेगा |
बिल्कुल साफ़ है की प्राचीन भारत की रक्षात्मक दिवार से टकराने के बाद सिकंदर का घमंड चूर हो चुका था। उसके सैनिक भी डरकर विद्रोह कर चुके थे ।
तब सिकंदर ने पुरु से वापस जाने की आज्ञा मांगी। पुरु ने सिकंदर को उस मार्ग से जाने को मना कर दिया जिससे वह आया था। और अपने प्रदेश से दक्खिन की और से जाने का मार्ग दिया।
जिन मार्गो से सिकंदर वापस जा रहा था,उसके सैनिको ने भूख के कारण राहगीरों को लूटना शुरू कर दिया। इसी लूट को भारतीय इतिहास में सिकंदर की दक्खिन की और की विजय लिख दिया। परंतु इसी वापसी में मालवी नामक एक छोटे से भारतीय गणराज्य ने सिकंदर की लूटपाट का विरोध किया।
इस लडाई में सिकंदर बुरी तरह घायल हो गया।
प्लुतार्च लिखता है कि,"भारत में सबसे अधिक खूंखार लड़ाकू जाती मलावी लोगो के द्वारा सिकंदर के टुकड़े टुकड़े होने ही वाले थे, उनकी तलवारे व भाले सिकंदर के कवचों को भेद गए थे।और सिकंदर को बुरी तरह से आहात कर दिया। शत्रु का एक तीर उसका बख्तर पार करके उसकी पसलियों में घुस गया।सिकंदर घुटनों के बल गिर गया। शत्रु उसका शीश उतारने ही वाले थे की प्युसेस्तास व लिम्नेयास आगे आए। किंतु उनमे से एक तो मार दिया गया तथा दूसरा बुरी तरह घायल हो गया।"
इसी भरी मारकाट में सिकंदर की गर्दन पर एक लोहे की लाठी का प्रहार हुआ और सिकंदर अचेत हो गया। उसके अन्ग्रक्षक उसी अवस्था में सिकंदर को निकाल ले गए। भारत में सिकंदर का संघर्ष सिकंदर की मौत का कारण बन गया। अपने देश वापस जाते हुए वह बेबीलोन में रुका। भारत विजय करने में उसका घमंड चूर चूर हो गया। इसी कारण वह अत्यधिक मद्यपान करने लगा, तीर का घाव फैलता गया और वो ज्वर से पीड़ित हो गया। तथा कुछ दिन बाद उसी ज्वर ने उसकी जान ले ली।
सिकंदर की मौत के विषय में यह भी कहा जाता है की राजा पुरु से युद्ध के समय एक हार के बाद यूनानी सैनिक ने नन्द से लड़ने से मना कर हथियार डाल दिए थे की पुरु की 15 सहस्त्र के सेना ने ये हाल किया था तो नन्द की 2.5 लाख की सेना तो पूरी तरह से मिटा ही डालेगी| अपनी सेना के विरोध के बाद सिकंदर ने भी हथियार डाल दिए परन्तु बेबीलोन अपनी राजधानी पहुचने के बाद उसने नन्द से लड़ने की तैयारी शुरू कर दी पर संघ और सेना को ये पसंद नहीं आया । वे भारत जैसे भीमकाय शक्तिशाली राष्ट्र पर आक्रमण कर, शत्रुता कर सबकुछ गवाना नहीं चाहते थे। यदि युद्ध होता तो जो धन सिकंदर फारस से जीता था वो यूनान भेजने के बजाये युद्ध में लगा देता और ये संघ को और सैनिको को मंजूर नहीं था इसीलिए 323 ईसापूर्व में सिकंदर की जहर दे कर हत्या कर दी गयी और वही दूसरी तरफ उसके एकलौते बेटे सिकंदर चतुर्थ की भी।
स्पष्ट रूप से पता चलता है कि सिकंदर भारत के एक भी राज्य को नही जीत पाया । परंतू पुरु से इतनी मार खाने के बाद भी इतिहास में जोड़ दिया गया कि सिकंदर ने पुरु पर जीत हासिल की। भारत में भी महान राजा पुरु की जीत को पुरु की हार ही बताया जाता है। यूनान सिकंदर को महान कह सकता है लेकिन भारतीय इतिहास में सिकंदर को नही बल्कि उस पुरु को महान लिखना चाहिए जिन्होंने एक विदेशी आक्रान्ता का मानमर्दन किया।
सिकंदर की क्रूरता, जूठा इतिहास और अन्य जातियों का पराक्रम -
सिकन्दर को सबसे पहले एक गणराज्य के प्रधान के विरोध का सामना करना पड़ा, जिसे यूनानी ऐस्टीज़ कहते हैं, संस्कृत में जिसका नाम हस्तिन है; वह उस जाति का प्रधान था जिसका भारतीय नाम हास्तिनायन था (पाणिनि, VI, 4, 174) |
यूनानी में इसके लिए अस्टाकेनोई या अस्टानेनोई-जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है, और उसकी राजधानी प्यूकेलाओटिस अर्थात् पुष्कलावती लिखी गई है। इस वीर सरदार ने अपने नगरकोट पर यूनानियों की घेरेबंदी का पूरे तीस दिन तक मुकाबला किया और अंत में लड़ता हुआ मारा गया। इसी प्रकार आश्वायन तथा आश्वकायन भी आखिरी दम तक लड़े, जैसा कि इस बात से पता चलता है कि उनके कम से कम 40,000 सैनिक बंदी बना लिए गए। उनकी आर्थिक समृद्धि का भी अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि इस लड़ाई में 2,30,000 बैल सिकन्दर के हाथ लगे। (चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल |लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी)
आश्वकायनों ने 30,000 घुड़सवार 38,000 पैदल और 30 हाथियों की सेना लेकर, जिनकी सहायता के लिए मैदानों के रहने वाले 7,000 वेतनभोगी सिपाही और थे, सिकन्दर से मोर्चा लिया। यह पूरी आश्वकायनों की क़िलेबंद राजधानी मस्सग [मशक, जो मशकावती नामक नदी के तट पर स्थित था, जिसका उल्लेख पाणिनि के काशिक भाष्य में मिलता है [(VI,2,85;VI,3,119)] में अपनी वीरांगना रानी क्लियोफ़िस (संस्कृत:- कृपा?) के नेतृत्व में आश्वकायनों ने "अंत तक अपने देश की रक्षा करने का दृढ़ संकल्प किया।" रानी के साथ ही वहाँ की स्त्रियों ने भी प्रतिरक्षा में भाग लिया। वेतनभोगी सैनिक के रूप में बड़े निरुत्साह होकर लड़े, परन्तु बाद में उन्हें जोश आ गया और उन्होंने "अपमान के जीवन की अपेक्षा गौरव के मर जाना" ही बेहतर समझा। [मैकक्रिंडिल-कृत इनवेज़न, पृष्ठ 194 (कर्टियस), 270 (डियोडोरस)] उनके इस उत्साह को देखकर अभिसार नामक निकटवर्ती पर्वतीय देश में भी उत्साह जाग्रत हुआ और वहाँ के लोग भी प्रतिरक्षा के लिए डट गए।
भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय आचार्य चाणक्य (विष्णुगुप्त अथवा कौटिल्य) तक्षशिला में प्राध्यापक थे। आचार्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को साथ लेकर एक नये साम्राज्य की स्थापना की और सिकन्दर द्वारा पद्दोनित पंजाब के राजदूत सेल्यूकस को हराया। सिकन्दर के आक्रमण के समय सिन्धु नदी की घाटी के निचले भाग में शिविगण के पड़ोस में रहने वाला एक गण का नाम अगलस्सोई था। अस्सकेनोई लोगों ने सिकन्दर से जमकर लोहा लिया और उनके एक तीर से सिकन्दर घायल भी हो गया।
अगालास्सोई जाति के लोगों ने 40,000 पैदल सिपाहियों और 3,000 घुड़सवारों की सेना लेकर सिकन्दर से टक्कर ली। कहा जाता है कि उनके एक नगर के 20,000 निवासियों ने अपने-आपको बंदियों के रूप में शत्रुओं के हाथों में समर्पित करने के बजाय बाल-बच्चों सहित आग में कूदकर प्राण दे देना ही उचित समझा। अस्सपेसिओई गण भारत पर सिकन्दर के आक्रमण के समय पश्चिमोत्तर सीमा पर कुनड़ अथवा त्रिचाल नदी की घाटी में रहता था।
इसके बाद सिकन्दर को कई स्वायत्त जातियों के संघ के संगठित विरोध का सामना करना पड़ा, जिनमें मालव तथा क्षुद्रक आदि जातियाँ थीं, जिनकी संयुक्त सेना में 90,000 पैदल सिपाही, 10,000 घुड़सवार और 900 से अधिक रथ थे। उनके ब्राह्मणों ने भी पढ़ने-लिखने का काम छोड़कर तलवार सम्भाली और रणक्षेत्र में लड़ते हुए मारे गए, "बहुत ही कम लोग बंदी बनाए जा सके।"
कठ एक और वीर जाति थी, जो अपने शौर्य के लिए दूर-दूर तक विख्यात थी [अर्रियन, V. 22,2] कहा जाता है कि रणक्षेत्र में उनके 17,000 लोग मारे गए थे और 70,000 बंदी बना लिए गए थे।
मालवों ने अलग से भी 50,000 सैनिकों की सेना लेकर एक नदी की घाटी की रक्षा की। अंबष्ठों की सेना में 60,000 पैदल, 6,000 घुड़सवार और 500 रथ थे। अकेले सिंधु घाटी के निचले भाग में होने वाले युद्धों में 80,000 सिपाही मारे गए।
इस इलाके में ब्राह्मणों ने अगुवाई की और प्रतिरोध की भावना तथा युद्ध के प्रति लोगों में अदम्य उत्साह पैदा किया और धर्म की रक्षा करते हुए हँसते-हँसते अपने प्राणों की आहुति दे दी। [चंद्रगुप्त मौर्य और उसका काल | [लेखक: राधाकुमुद मुखर्जी],[(प्लूटार्क, लाइव्स X; कैंब्रिज हिस्ट्री, I, पृष्ठ 378) ]
अन्य देशो में सिकंदर -
प्राचीन ईरानी अकेमेनिड साम्राज्य की राजधानी – पर्सेपोलिस – के खंडहरों को देखने जानेवाले हर सैलानी को तीन बातें बताई जाती हैं – कि इसे डेरियस महान ने बनाया था, कि इसे उसके बेटे ज़ेरक्सस ने और बढ़ाया, और कि इसे 'उस इंसान' सिकंदर ने तबाह कर दिया |
यदि कोई पश्चिमी इतिहास की किताबों को पढ़े तो उसे ये सोचने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि ईरानी बने ही इसलिए थे कि सिकंदर आए और उनको जीत ले |
ईरानियों को इससे पहले भी यूनानियों ने दो बार हराया था, जब ईरानियों ने उनपर हमला करने की नाकाम कोशिश की, और इसलिए सिकंदर ने ईरान पर हमला बदला लेने के लिए किया था |
ईरानी दृष्टिकोण से देखें तो पाएँगे कि सिकंदर महानता से कोसों दूर था |
वहाँ दिखेगा कि सिकंदर ने पर्सेपोलिस को जमींदोज़ कर दिया, एक रात एक ग्रीक नर्तकी के प्रभाव में आकर जमकर शराब पीने के बाद, और ये दिखाने के लिए कि वो ऐसा ईरानी शासक ज़ेरक्सस से बदला लेने के लिए कर रहा है जिसने कि ग्रीस के शहर ऐक्रोपोलिस को जला दिया था|
उसने अपने साम्राज्य में सांस्कृतिक और धार्मिक स्थलों को नुक़सान पहुँचाने को बढ़ावा दिया, उसके समय में ईरानियों के प्राचीन सम्प्रदाय, पारसी सम्प्रदाय के मुख्य उपासना स्थलों पर हमले किए गए |
सिकंदर के हमले की कहानी बुनने में पश्चिमी देशों को ग्रीक भाषा और संस्कृति से मदद मिली जो ये कहती है कि सिकंदर का अभियान उन पश्चिमी अभियानों में पहला था जो पूरब के बर्बर समाज को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए किए गए, मतलब की उनके अनुसार हम सभी असभ्य थे और हमें हत्या कर के वो सभ्य बनाना चाहता था |
प्रसिद्द इतिहासकार एर्रीयन लिखता हैं – जब बैक्ट्रिया के राजा बसूस को बंदी बनाकर लाया गया, तब सिकन्दर ने उनको कोड़े लगवाये और उनके नाक-कान कटवा डाले. इतने पर भी उसे संतोष ना हुआ. उसने अंत में उनकी हत्या करवा दी| उसने अपने पसंदीदा दार्शनिक अरस्तु के भतीजे कलास्थनीज को मारने में संकोच नहीं किया| एक बार किसी छोटी सी बात पर उसने अपने सबसे करीबी मित्र क्लाइटस को मार डाला था| अपने पिता के मित्र परमेनीयन जिनकी गोद में सिकंदर खेला था उसने उनको भी मरवा दिया| सिकंदर की सेना जहाँ भी जाती पूरे-के-पूरे नगर जला दिए जाते, सुन्दर महिलाओं का अपहरण कर लिया जाता |
इतिहास में सिकंदर के महान होने की कोई घटना या उसके देश में जनता के साथ उचित न्याय करने का प्रमाण नहीं है , सिकंदर के जीवन में शुरू से अंत तक कत्लेआम लूटपाट ही दिखाई देती है , सिकंदर के ऊपर कई किताबे लिखी गयी है और कुछ फिल्मे भी बनी है जिसमे उसे बहुत ही बहादुर , युद्धकुशल राजा के रूप में दिखाया गया है , पर सच्चाई यह है की उसने जिनसे युद्ध किया वो कमजोर थे इसीलिए हार गए , जिस संघ के बल पर सिकंदर ने अपने कुछ जमीन के टुकड़े जीते थे वो संघ सिकंदर के पिता फिलिप ने ग्रीक के कई राज्यों को हरा कर संघ का निर्माण किया था | उसने फारस को लगातार तीन युद्धों में हराया, इसका कारण ये नहीं सिकंदर महान और बलशाली था पर फारस का राज दरस एक कमजोर राजा था, उसके खुद के साम्राज्य में बड़े हिस्से में उसकी नहीं चलती थी। आगे के युद्ध में उसने फारस की सेना को गुलाम बना कर अपनी सेना में शामिल कर लिया और इसी तरह सिकंदर की सेना बड़ी होती गयी और वो युद्ध जीतता रहा , क़त्ल करता रहा , शहर के शहर जलाता रहा , धन दौलत लूट कर अपने देश भेजता रहा पर .... अतत: भारत से युद्ध करने पर उसे खुद के बहादुर होने की मिथ्या से छुटकारा मिला और अंत में सिकंदर अपनी सेना के साथ नावों से नदी के मार्ग से भागा।
जो राजा साम्राज्य के पीछे हो वो महान कैसे ? जिसे सिर्फ साम्राज्य जीतने की भूख हो , जनता को , देश की संस्कृति को , इतिहास को रौंदा कुचला हो वो राजा महान कैसे हो सकता है | वास्तव में सिकंदर जैसे लोग सभ्यता के शांत प्रवाह में महामारी के समान थे। उन्होंने ज्वालामुखी सरीखी हलचल मचाई सभ्यता के शांत प्रवाह में और फिर अपनी विनाश-लीला और क्रूरता की कहानी छोड़कर शून्य में विलीन हो गए। जहाँ भी पहुँचे वहाँ के लोगों को गुलाम बनाया। स्वतंत्रता-प्रेमी जनों से नृशंस बदला लिया। सिकंदर जैसे लोगों को इतिहास 'महान' का विशेषण लगाता है यह अत्यंत शर्मनाक है
एक विद्रोही
jaha tak me janta hu raja puru ke hathi bhadak gaye the or unhone apni hi sena ko kuchlna shuru kar diya tha, isi kaaran raja puru ki haar hui, ha par ye he ki raja puru se ladne ke baad sikandar ke sainiko ke hosle tut chuke the, or ye vahi time tha jab aacharya chanikya ne nand vansh ke raja ko hatakar chandragupt morya ko raja banaya, jsine sikandar ko ladai me ghyal kar diya or sikandar harkar vaapads chala gaya.
ReplyDelete1. Puru ki sena 30,000 aur siknader ki sena 1,20,000 thi ,
ReplyDelete2. sikander ne raat k samay nadi paar ki choro ki tarah .
3. Puru ne Sikander ko jivan Daan diya jab wo Rajdoot ka bhesh banakar unke darbaar me aaya tha .
4. Iraan ki sahzaadi ne puru ko dharam bhai banaya tha aur Sikander k prano ki raksha hetu bachan liya tha .
5. Sikander ne bhi khuli ladai na karke Maharaj ambhi ko apni aur milaya gaddari karke .
6. yudh k samay bhi ek waqt aisa tha ki wo sikander ko maar sakte the .
7. Puru ki 30,000 ki sena ne dikander ki aadhi sena mar di thi , jissse we ghabra gaye the aur wapsi ki maang kar rahe the .
सिकंदर की पोल खोलता एक लेख हमनें भी लिखा है, कृपा उसे जरूर पढ़ें।
ReplyDeleteIt is a new information for me.
ReplyDeleteThanks and regards.