हर वर्ष दशहरा या दीपावली के निकट कुछ कुतर्की लेख विचारों की अभिव्यक्ति के नाम पर तथाकथित साम्यवादी विचारधारा के लोगो द्वारा भिन्न भिन्न मंचों से प्रकाशित किये जाते हैं। इसी श्रृंखला का एक लेख माननीय वामपंथी नेता सीताराम येचुरी द्वारा १७ सितम्बर को हिंदुस्तान टाइम्स में "One Size does not fit all " शीर्षक से प्रकाशित हुआ हैं।
जैसा अपेक्षित हैं येचुरी जी ने कुछ शंका पने लेख द्वारा जाहिर की हैं जिनका उद्देश्य श्री रामचन्द्र जी के मर्यादापुरुषोतम जीवन से सामान्य जन की आस्था को भटकाना जैसा प्रतीत होता हैं। वैसे नास्तिकता को बढ़ावा देने की मार्क्सवादी लोगो की इस प्रकार की कुचेष्टा उनकी पुरानी आदत हैं।
येचुरी जी के अनुसार उन्होंने रामायण का ज्ञान अपने दादा जी से मौखिक कहानियों के रूप में सुना हैं।
येचुरी जी की शंकाये इस प्रकार हैं। रामायण के सभी पत्रों में से उत्तर भारत के पात्रों जैसे राम,लक्ष्मण आदि को मनुष्य दिखाया गया हैं जबकि दक्षिण भारत के सभी पत्रों को जैसे हनुमान,सुग्रीव, जामवद आदि को मनुष्य रूप के स्थान पर पशु रूप में दिखाया गया हैं। येचुरी जी के अनुसार संभवत रामायण का लेखन उस काल में हुआ था जब आर्य-द्रविड़ संघर्ष चल रहा था इसीलिए दक्षिण के राजकुमार हनुमान द्वारा उत्तर के राजा राम का अभिनन्दन किया गया हैं।
येचुरी जी का कहना हैं की रावण को भगवान शिवजी से अमर होने का वरदान प्राप्त था एवं राज्य करते हुए वे उकता गये थे, इसलिए नारद मुनि जी की सहायता से उन्होंने मृत्यु का वरण करने के लिए भगवान रुपी श्री राम जी का अवतार करवाया और फिर अपने भाई विभीषण के माध्यम से अपनी मृत्यु का रहस्य श्री राम को बतलाया क्यूंकि उसके बिना उसे मारना असंभव था। सीता का हरण भी रावण द्वारा इसी प्रयोजन के लिए किया गया था यही कारण हैं की जब तक सीता लंका में अशोक वाटिका में रही रावण ने कभी भी उनके साथ जबरदस्ती करने का प्रयास नहीं किया। इसलिए दशहरा पर्व को बुराई पर अच्छाई की जीत के स्थान पर रावण के मोक्ष प्राप्ति के पर्व के रूप में बनाना चाहिये।
हमारी येचुरी जी प्रार्थना हैं की एक बार वाल्मीकि रामायण को दादा-दादी की कहानियों के रूप में जानने के स्थान पर बुद्धिजीवी के रूप में सीधे प्रमाणित पुस्तक से देखने का कष्ट करे क्यूंकि उन्हें जितनी भी भ्रांतियां हुई हैं उनका कारण उनका इस विषय पर अधुरा ज्ञान हैं।
हनुमान, सुग्रीव आदि के विषय में उनका कहना हैं की वे दक्षिण भारतीय होने के कारण पशु रूप में चित्रित हैं, यह भेदभाव आर्य-द्रविड़ युद्ध के कारण हुआ हैं। येचुरी जी आपको जानकर प्रसन्नता होगी की वैदिक वांग्मय के विशेषज्ञ स्वामी दयानंद सरस्वती जी का कथन इस विषय में मार्ग दर्शक हैं। स्वामी जी के अनुसार "संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा की आर्य लोग ईरान से आये और यहाँ के जंगलियो को लड़कर, जय पाकर, निकालकर इस देश के राजा हुए (सन्दर्भ-सत्यार्थ प्रकाश ८ सम्मुलास), जो आर्य श्रेष्ठ और दस्यु दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूँ, आर्यव्रत देश इस भूमि का नाम इसलिए हैं की इसमें आदि सृष्टि से आर्य लोग निवास करते हैं परन्तु इसकी अवधि उत्तर में हिमालय दक्षिण में विन्ध्याचल पश्चिम में अटक और पूर्व में ब्रहमपुत्र नदी हैं इन चारों के बीच में जितना प्रदेश हैं उसको आर्याव्रत कहते और जो इसमें सदा रहते हैं उनको भी आर्य कहते हैं। (सन्दर्भ-सव-मंतव्य-अमंतव्यप्रकाश-स्वामी दयानंद)।
१३५ वर्ष पूर्व स्वामी दयानंद द्वारा आर्यों के भारत पर आक्रमण की मिथक थ्योरी के खंडन में दिए गये तर्क का खंडन अभी तक कोई भी विदेशी अथवा उनका अँधानुसरण करने वाले मार्क्सवादी इतिहासकार नहीं कर पाए हैं। एक कपोल कल्पित, आधार रहित, प्रमाण रहित बात को बार-बार इतना प्रचार करने का उद्देश्य विदेशी इतिहासकारों की 'बाटो और राज करो की कुटिल निति' को प्रोत्साहन देने के समान हैं जो भारत देश के एक सर्वोच्च नेता के कलम से तो कभी नहीं होना चाहिये, जिन्होंने देश की अखंडता और एकता को बनाये रखने के लिए पद और गोपनीयता की शपथ ली हैं।
वाल्मीकि रामायण से ही प्राप्त करते हैं सर्वप्रथम “वानर” शब्द पर विचार करते हैं। सामान्य रूप से हम “वानर” शब्द से यह अभिप्रेत कर लेते हैं की वानर का अर्थ होता हैं बन्दर परन्तु अगर इस शब्द का विश्लेषण करे तो वानर शब्द का अर्थ होता हैं वन में उत्पन्न होने वाले अन्न को ग्रहण करने वाला। जैसे पर्वत अर्थात गिरि में रहने वाले और वहाँ का अन्न ग्रहण करने वाले को गिरिजन कहते हैं उसी प्रकार वन में रहने वाले को वानर कहते हैं। वानर शब्द से किसी योनि विशेष, जाति , प्रजाति अथवा उपजाति का बोध नहीं होता।
सुग्रीव, बालि आदि का जो चित्र हम देखते हैं उसमें उनकी पूंछ दिखाई देती हैं, परन्तु उनकी स्त्रियों के कोई पूंछ नहीं होती?
नर-मादा का ऐसा भेद संसार में किसी भी वर्ग में देखने को नहीं मिलता। इसलिए यह स्पष्ट होता हैं की हनुमान आदि के पूंछ होना केवल एक चित्रकार की कल्पना मात्र हैं।
किष्किन्धा कांड
(3/28-32) में जब श्री रामचंद्र जी महाराज की पहली बार ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान से भेंट हुई तब दोनों में परस्पर बातचीत के पश्चात रामचंद्र जी लक्ष्मण से बोले
न अन् ऋग्वेद विनीतस्य न अ यजुर्वेद धारिणः |
न अ-साम वेद विदुषः शक्यम् एवम् विभाषितुम् || ४-३-२८
“ऋग्वेद के अध्ययन से अनभिज्ञ और यजुर्वेद का जिसको बोध नहीं हैं तथा जिसने सामवेद का अध्ययन नहीं किया है, वह व्यक्ति इस प्रकार परिष्कृत बातें नहीं कर सकता। निश्चय ही इन्होनें सम्पूर्ण व्याकरण का अनेक बार अभ्यास किया हैं, क्यूंकि इतने समय तक बोलने में इन्होनें किसी भी अशुद्ध शब्द का उच्चारण नहीं किया हैं। संस्कार संपन्न, शास्त्रीय पद्यति से उच्चारण की हुई इनकी वाणी ह्रदय को हर्षित कर देती हैं”।
सुंदर कांड (30/18,20) में जब हनुमान अशोक वाटिका में राक्षसियों के बीच में बैठी हुई सीता को अपना परिचय देने से पहले हनुमान जी सोचते हैं
“यदि द्विजाति (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) के समान परिमार्जित संस्कृत भाषा का प्रयोग करूँगा तो सीता मुझे रावण समझकर भय से संत्रस्त हो जाएगी। मेरे इस वनवासी रूप को देखकर तथा नागरिक संस्कृत को सुनकर पहले ही राक्षसों से डरी हुई यह सीता और भयभीत हो जाएगी। मुझको कामरूपी रावण समझकर भयातुर विशालाक्षी सीता कोलाहल आरंभ कर देगी। इसलिए मैं सामान्य नागरिक के समान परिमार्जित भाषा का प्रयोग करूँगा।”
इस प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की हनुमान जी चारों वेद ,व्याकरण और संस्कृत सहित अनेक भाषायों के ज्ञाता भी थे।
हनुमान जी के अतिरिक्त अन्य वानर जैसे की बालि पुत्र अंगद का भी वर्णन वाल्मीकि रामायण में संसार के श्रेष्ठ महापुरुष के रूप में किष्किन्धा कांड 54/2 में हुआ हैं
हनुमान बालि पुत्र अंगद को अष्टांग बुद्धि से सम्पन्न, चार प्रकार के बल से युक्त और राजनीति के चौदह गुणों से युक्त मानते थे।
बुद्धि के यह आठ अंग हैं- सुनने की इच्छा, सुनना, सुनकर धारण करना, ऊहापोह करना, अर्थ या तात्पर्य को ठीक ठीक समझना, विज्ञान व तत्वज्ञान।
चार प्रकार के बल हैं- साम , दाम, दंड और भेद
राजनीति के चौदह गुण हैं- देशकाल का ज्ञान, दृढ़ता, कष्टसहिष्णुता, सर्वविज्ञानता, दक्षता, उत्साह, मंत्रगुप्ति, एकवाक्यता, शूरता, भक्तिज्ञान, कृतज्ञता, शरणागत वत्सलता, अधर्म के प्रति क्रोध और गंभीरता।
भला इतने गुणों से सुशोभित अंगद बन्दर कहाँ से हो सकता हैं?
अंगद की माता तारा के विषय में मरते समय किष्किन्धा कांड 16/12 में बालि ने कहा था की
“सुषेन की पुत्री यह तारा सूक्षम विषयों के निर्णय करने तथा नाना प्रकार के उत्पातों के चिन्हों को समझने में सर्वथा निपुण हैं। जिस कार्य को यह अच्छा बताए, उसे नि:संग होकर करना। तारा की किसी सम्मति का परिणाम अन्यथा नहीं होता।”
किष्किन्धा कांड
(25/30) में बालि के अंतिम संस्कार के समय सुग्रीव ने आज्ञा दी – मेरे ज्येष्ठ बन्धु आर्य का संस्कार राजकीय नियन के अनुसार शास्त्र अनुकूल किया जाये।
किष्किन्धा कांड
(26/10) में सुग्रीव का राजतिलक हवन और मन्त्रादि के साथ विद्वानों ने किया।
जहाँ तक जाम्बवान के रीछ होने का प्रश्न हैं। जब युद्ध में राम-लक्ष्मण मेघनाद के ब्रहमास्त्र से घायल हो गए थे तब किसी को भी उस संकट से बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझ रहा था।
तब विभीषण और हनुमान जाम्बवान के पास गये तब जाम्बवान ने हनुमान को हिमालय जाकर ऋषभ नामक पर्वत और कैलाश नामक पर्वत से संजीवनी नामक औषधि लाने को कहा था।
सन्दर्भ युद्ध कांड सर्ग 74/31-34
आपत काल में बुद्धिमान और विद्वान जनों से संकट का हल पूछा जाता हैं और युद्ध जैसे काल में ऐसा निर्णय किसी अत्यंत बुद्धिवान और विचारवान व्यक्ति से पूछा जाता हैं। पशु-पक्षी आदि से ऐसे संकट काल में उपाय पूछना सर्वप्रथम तो संभव ही नहीं हैं दूसरे बुद्धि से परे की बात हैं।
इन सब वर्णन और विवरणों को बुद्धि पूर्वक पढने के पश्चात कौन मान सकता हैं की हनुमान, बालि , सुग्रीव आदि विद्वान एवं बुद्धिमान मनुष्य न होकर बन्दर आदि थे।
जहाँ तक रावण के अमरत्व का प्रश्न हैं सृष्टी का एक नियम हैं की जिस भी वस्तु की उत्पत्ति हुई हैं एक दिन उसका नाश निश्चित हैं। जो ईश्वर रावण को जन्म दे सकते हैं वह उसे मृत्यु क्यूँ नहीं प्रदान कर सकते? क्या शिवरुपी ईश्वर अज्ञानी हैं जो अमरत्व का वरदान ऐसे व्यक्ति को देंगे को क्रूर और अत्याचारी होगा, जिसके राक्षस ऋषि मुनियों के यज्ञ में माँस आदि के टुकड़े फैंक कर उसमें विघ्न डालते हो, जिसकी बहन चरित्रहीन की भान्ति विवाहित पुरुषों पर मोहित होकर उन पर डोरे डालती हो, जो अपने भाई को लात मारकर अपने राज्य से निकल देता हो, जो एक अकेली स्त्री का छल से अपहरण करता हो, जो अपने अहंकार के लिए अपने भाइयों, अपने पुत्रों, अपने सभी सरदारों को मरवा डालता हो?
येचुरी जी को मोक्ष की परिभाषा मालूम होती तो वह रावण के हनन की मोक्ष से तुलना कभी नहीं करते। फिर तो सभी आतंकवादियों, सभी बलात्कारियों को फाँसी पर चढ़ाये जाने को मोक्ष कहा जायेगा।
दशहरा पर्व का सन्देश आज भी कितना प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं पाठक पढ़कर विचार मंथन करेंगे ।
उस काल में रावण को सीता का अपहरण करने का दंड श्री रामचंद्र जी ने उसके प्राणों को घात कर दिया था आज तो गली गली में २-२, ४-४ वर्ष की बच्चियों से लेकर ८५ वर्ष तक की महिला के साथ न जाने क्या क्या हो रहा हैं उन पापियों को उससे भी अधिक कठोर दंड मिलना चाहिये।
ऐसे बलात्कारियों का, आधुनिक रावणों का सार्वजानिक रूप से जिन्दा दहन करना दशहरे के अवसर पर सबसे उचित तरीका कहा जायेगा बशर्ते की मानवाधिकार का ढोल वामपंथी इसमें अड़चन न डाले। हमारे इस कथन से सभी सामान्य पाठक समर्थन करेंगे ऐसा इस लेख लो लिखने का उद्देश्य हैं।
डॉ विवेक आर्य
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