मेरे प्रेरणास्त्रोत स्वामी भीष्म जी महाराज
लेखक :- स्वामी ओमानंद सरस्वती
स्त्रोत :- स्वामी भीष्म अभिनन्दन ग्रंथ
हरियाणा प्रदेश में आर्य समाज का जितना भी प्रचार प्रसार हुआ उसका सबसे अधिक श्रेय आर्य समाज के भजनोपदेशकों को है। क्योंकि इस प्रदेश में पहले व्याख्यान को कोई सुनता ही नहीं था। अच्छे से अच्छे विद्वान व्याख्याता के 5-7 मिनट से अधिक व्याख्यान को कोई नहीं सुनता था। कुछ ही मिनट में सुनने के पश्चात हरियाणा की अशिक्षित जनता कोलाहल करके उपदेशक को बैठने के लिए विवश कर देती थी। क्योकिं उनको व्याख्यानो में कोई रुची नहीं थी।
एक सच्ची घटना है। महात्मा भक्त फूल सिंह जी ने गुरुकुल भैंसवाल के उत्सव पर स्वामी श्रद्धानन्द जी को व्याख्यान देने के लिए बुलाया। उन्होने दो चार मिनट ही भाषण दिया कि एक चौधरी खड़ा होकर बोला - बाबा जी " आपकी बात तो अच्छी हैं!! हमने सुनली! अब चौधरी ईश्वर सिंह के भजन होने दे! विवश होकर स्वामी श्रद्धानंद जी को बैठना पड़ा। उनके देखते देखते आर्यसमाज के एक बड़े महात्मा का तिरस्कार हुआ, यह उनके लिए असह्य था, इससे दुखी होकर पुन: उन्होने ईश्वर सिंह को कभी नहीं बुलाया। हजारों वर्षों से वेदादिशा स्त्रों के प्रचार करने वाले विद्वान उपदेशकों का इस प्रांत में अभाव चला आ रहा था। स्वांग, नाच, रासलीला, रामलीला, आदि नृत्यगान लोगों की रुचिकर थे। इस लिए अच्छे गाने वाले भजनोपदेशक ही आर्य समाज के प्रचार कार्य में आरंभिक काल में सफल उपदेशक सिद्ध हुये। उस समय के आर्य भजनोपदेशक अपनी धुन के धनी थे। वे प्राय: सभी त्यागी तपस्वी, श्रद्घालु,और अत्यंत पुरुषार्थी थे। सब प्रकार के दुख सहकर भी आर्य समाज के प्रचार में दिन रात जुटे रहते थे।
ऐसे ही पुराने उपदेशको में श्री स्वामी भीष्म जी महाराज हैं। उन्होने भी अपना सारा जीवन आर्यसमाज के प्रचार में लगाया है। आज से पचास वर्ष से भी अधिक पुरानी बात है। आप अपनी भजन मंडली सहित नरेला ग्राम में बड़े बड़े चौधरी नम्बरदार आदि प्राय: सभी आर्यसमाजी थे। इसलिए इनके प्रचार की व्यवस्था बहुत अच्छी हो गई थी और इनका प्रचार नरेला के पाना उद्यान में चौधरी हीरासिंह और चौधरी जोतराम के मोहल्ले में लगातार कई दिन से हो रहा। उन्हीं दिनों इसी पाने में हस्पताल के सन्मुख रामलीला भी हो रही थी और सारा पाना देखने जाता था। किंतु दो तीन दिन तक श्री स्वामी भीष्म जी का प्रचार होने पर सारा ग्राम प्रचार सुनने के लिए आने लगा और रामलीला वाले भागने के लिए विवश हो गए। स्वामी भीष्म जी उन दिनों रामलीला को "हरामलीला" कहकर उसका खंडन किया करते थे।
मैं भी उन दिनों रामलीला देखने जाता था। किंतु अपने आर्यसमाजी वृद्धों की प्रेरणा पर उसे छोड़कर स्वामी भीष्म जी के प्रचार में जाने लगा। संस्कार तो पहले भी आर्य समाजी ही थे। किंतु उस समय ज्ञात नहीं था रामलीला देखना आर्य सिद्धांतो के खिलाफ है। स्वामी भीष्म जी के प्रचार से हमारी आंखे खुली। इनके प्रचार का इतना अच्छा प्रभाव पड़ा कि बहुत से विद्यार्थी और युवकों ने नये यज्ञोपवित धारण किये और आर्यसमाज में प्रवेश किया। आर्य समाज के प्रति मेरी श्रद्धा अधिक बढ़ गई। स्वामी भीष्म जी उस समय अपनी भरी हुई जवानी में थे। इनका अत्यंत मीठा और ऊंचा स्वर था। इनके पीछे भजनों की टेक आदि बोलने वाले इनके शिष्य 15-16 वर्ष की आयु के ही थे। मुझे ऐसा याद पड़ता है कि वे रामचन्द्र जी, हरिदत्त जी, श्री ज्ञानेन्द्र जी थे। उनमें से श्री हरिदत्त जी तो आज भी अच्छा गाते हैं।
श्री स्वामी भीष्म जी महाराज एक दिन प्रचार करते करते बीच में ही रुक गए। और कहने लगे कि मुझे कई दिन यहां प्रचार करते हो गए। मुझे यह भी पता पड़ गया की यहां बहुत से आर्यसमाजी हैं। यहां मुख्य मुख्य चौधरी भी प्राय आर्य समाजी ही हैं। इसलिए प्रचार तब करुंगा जब आप लोग यहां आर्यसमाज की स्थापना करोगे। स्वामी जी ने गाना बंद कर दिया। प्रचार बंद हो गया। लोग बड़ी रुची व श्रद्धा से सुन रहे थे, स्तब्ध रह गये। सारी सभा में शांति और सन्नाटा छाया हुआ था। सभी मौन होकर आश्चर्य से देख रहे थे। यह क्या हुआ ??
सामान्य लोगों को तो यह भी नहीं पता था कि आर्य समाज की स्थापना होती कैसे है। मैं ओर मेरे साथी इस घटना को आश्चर्य और ध्यान से देखते रहे। मैं बार बार यही सोच रहा था कि स्वामी भीष्म जी की बात ये लोग मानते क्यों नहीं!!
चुपचाप क्यों बैठे हैं?? आर्यसमाज की स्थापना क्यों नहीं करते। इस प्रकार के अनेक प्रश्न मेरे मन में उठ रहे थे। मैं विचार कर रहा था कि आर्य समाजी तो बहुत कायर कमजोर नपुसंक और भीरु हैं। इन्हें अभी आर्यसमाज बना देना चाहिए। मैं बालक होने के कारण विवश था। नहीं तो खड़ा होकर कुछ कहने की इच्छा होती। ऐसे ही समय एक आर्यसमाजी सज्जन उठकर नम्रतापूर्वक कहने लगा - स्वामी जी महाराज! हमने यहां आर्यसमाज बनाया था। कुछ दिन तो उसका कार्य चला। हम सब किसान है। हमें अपनी खेड़ी बाड़ी के धंधे से अवकाश नहीं मिलता। हम में पढ़े लिखे भी बहुत कम हैं। नगरों के समान यहां आर्य समाज का कार्य बहुत कठिन हैं। तो हम आपके समान उपदेशको का प्रचार यहां करवाते हैं। हमारी पीढ़ी जब पढ़ लिखकर आयेगी तो वह आर्य समाज की स्थापना करेगी। यही विचार मेरे मन में आये हुए थे कि हम आर्य समाज बनाएगें। हमारे अनेक साथियों ने यज्ञोपवित धारण किये हुए थे। मैने उनसे परामर्श किया और दिन में पूज्य स्वामी भीष्म जी से मेैं मिला।
रात्री को गाने से पूर्व प्रतिदिन गाकर ईश्वर भजन दोहा बोलते थे ----------
सब जगह मोजुद है पर नजर आता नहीं।
योग साधना के बिना कोई उसे पाता नहीं।।
मैं इस दोहे को सुनता था तो यह सोचता था कि आर्य समाज के सभी उपदेशक योगी होते हैं। मैं उससे पूर्व उर्दूं की तहकीके धर्म पुस्तक पढ़ चुका था। योग में रुची भी थी। मैने जिज्ञासु रुप में स्वामी जी से अनेक प्रशन्न किये। पते भी पूछे। पूज्य स्वामी जी ने मुझे संध्या रहस्य, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका और संस्कार विधि पढ़ने को कहा। ये पुस्तकें मैने उन्हीं दिनों खरीद ली। मेरी इच्छा स्वामी इच्छा स्वामी भीष्म जी से यज्ञोपवित लेने की थी। मैने उन दिनों तक जनेऊ धारण नहीं किया था। मुझे यह भी पता नहीं था कि यज्ञोपवित किस आयु में धारण किया जाता है ?? मैने यज्ञोपवित लेने के लिए पिता जी के सन्मुख इच्छा प्रकट की। क्योकिं उस समय मात पिता की आज्ञा को कुछ नहीं कर सकते थे। मात पिता का बड़ा आतंक होता था। इसलिए जब मैने यज्ञोपवित लेने की आज्ञा मांगी तो उन्होने कहा --- नहीं! "यज्ञोपवित संस्कार हम अपने घर करवाएगें"। और उन्होने किया भी ऐसा ही। कुछ समय पीछे आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली के महोपदेशक पं. गंगाशरण जी को बुलाकर घर पर ही मेरा तथा बनवारी लाल जी (भाणजे) का यज्ञोपवित संस्कार करवाया।
इस प्रकार मुझे स्वामी भीष्म जी से आर्य समाज का कार्य करने कि प्रेरणा बचपन से ही मिली और एक दो वर्ष पीछे ही आर्य समाज की स्थापना करके स्वामी जी की इच्छा पूरी कर दी। मैने नरेला आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर स्वामी जी को बुलाने का यत्न किया किंतु वो किसी कारणवश न आ सके। मैं स्वंय उनको बुलाने गाजियाबाद करहैड़ा आश्रम भी गया। स्वामी जी महाराज को अनेक उत्सवों पर हम बुलाते रहे ओर प्रचार करवाते रहे। लगातार अनेक वर्षों तक हमारा इनके साथ संबंध रहा। इनकी कृपा दृष्टि बनी रही।
इस प्रकार स्वामी जी महाराज ने 99 साल अपने जीवन के आर्य समाज था वैदिक धर्म के प्रचार प्रसार में लगाए हैं। अनेक शिष्यों ने भारतवर्ष का भ्रमण कर आर्यसमाजों की स्थापना करके देश के लिए अनेक बलिदानियों को तैयार किया। खूद स्वामी जी महाराज अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेते रहे। गुलाम भारत में घरौंडा स्थान पर गुरुकुल खोलकर तिंरगा फहरा दिया। 1957 के हिंदी आंदोलन, गौरक्षा आंदोलन में जेल की यात्रा की। लगभग दस हजार से अधिक भजन लिखे। 250 से अधिक पुस्तकें लिख कर किर्तीमान स्थापित कर दिया।
प्रस्तुती :- श्री सहदेव समर्पित, अमित सिवाहा
स्वामी भीष्म जी महाराज को शत शत नमन